(राजेन्द्र यादव का मूल्यांकन और स्मरण)
कोई बिगाड़ने वाला हो तो साहित्यकार राजेंद्र यादव एवं उनकी हंस जैसा, और बिगाड़े तो ऐसे जैसे राजेन्द्र दा तथा उनके हंस ने जैसे मुझे बिगाड़ा! वैसे, राजेन्द्र जी एवं उनकी हंस ने तो मुझे बिगाड़ा भर, पर ‘उनका’ क्या-क्या न बिगाड़ा!
क्रांतिकारी मानववादी साहित्यकार एवं विचारक राजेंद्र यादव हिंदी विचार संसार में अनूठी उपस्थिति रहे हैं। ‘न भूतो न भविष्यति’ की मेरी कसौटी पर राजेंद्र यादव बिलकुल खरा उतरते हैं। राजेन्द्र जी 28 अगस्त, 1929 को अकेले दुनिया में आये, हमारे बीच अपनी मौलिक बौद्धिक उपस्थिति दर्ज़ की और 28 अक्टूबर 2013 को हम अनेक का अपना बनकर चले गए। राजेंद्र यादव के रचनात्मक जीवन के लिए मुझे महामानव कबीर की यह पंक्ति बरबस याद पड़ती है- जब तुम आये जगत में, जगत हंसा तुम रोये. ऐसी करनी कर चलो, तुम हंसो जग रोये। राजेंद्र यादव का न होना रूलाने वाला है। हिंदी साहित्य को एक सर्वथा नयी राह, सुमार्ग दिखाने वालों में वे अग्रगण्य एवं प्रेरणा-पुरुष बने रहेंगे. जहाँ तक मेरी अपनी सम्मति है, अपना मत है, राजेंद्र यादव मुझे अपनी रचनात्मक दाय (कथा-कहानी) से अधिक अपनी विचार-पूंजी, विचार-वीथिका (कथेतर लेखन) के लिए पसंद आते हैं। राजेंद्र यादव से बहुतेरे सवर्ण साहित्यिक एवं बुद्धिजीवी इसलिए खार खाते रहे हैं कि उन्होंने द्विज प्रभाव के हिंदी लेखन एवं विचार जगत को हमलावर होकर प्रश्नबिद्ध किया। हंस का सम्पादकीय अथवा मेरी तेरी उसकी बात जिसमें मुख्य अस्त्र बना। राजेंद्र जी ने कथा मसिक टैग की अपनी हंस में रचनात्मक लेखन से ज्यादा वैचारिक बहस को महत्त्व दिया। यह हंस का मंच ही था जिसके चलते हिंदी साहित्य में चलते अबतक के द्विजवाद एवं द्विज प्रभाव के लेखन को मानवाधिकार एवं शूद्र-अधिकार की असह एवं सर्वथा नवीन कसौटी पर कसा एवं मूल्यांकित किया जाने लगा।
[bs-quote quote=”संघी-बजरंगी-धुरफंदी ही नहीं वरन वामपंथी एवं प्रगतिशील द्विज द्वारा भी हंस एवं राजेंद्र यादव को हमेशा गलियाया गया है लेकिन लोकतंत्र में यकीन रखने वाले सहिष्णु राजेंद्र यादव ने चिट्ठियों के कॉलम ’अपना मोर्चा’ में द्विज-उबकाई को लगभग हर अंक में जगह दी। बल्कि कहिये कि अपनी चिट्ठियों में राजेंद्र यादव एवं उनकी हंस को जातिवादी, अश्लील एवं सवर्ण विरोधी मंच ठहराकर कोई अदना सा अथवा अपात्र पत्र-लेखक भी अपना मोर्चा में अपनी जगह पक्की बना सकता था!” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
बिहार से आनेवाले एवं पटना में रहने वाले पूर्व हिंदी प्राध्यापक एवं ‘पूर्व’ वामपंथी आलोचक नन्द किशोर नवल ने अपनी पत्रिका ‘कसौटी’ के एक अंक में लिखे अपने एक सम्पादकीय में राजेंद्र यादव को अप्रगतिशील साहित्यकार करार दिया था। शुक्र है उनने राजेन्द्र जी को साहित्यकार तो माना! यह भी स्मरण रहे कि राजेंद्र यादव सम्पादित हंस को उसके मुख्य पृष्ठ पर ‘जनचेतना का प्रगतिशील कथा-मासिक’ पंचलाइन अथवा टैग लिखा जाता रहा है। जाहिर है, राजेंद्र जी के साथ-साथ उनकी पत्रिका के प्रगतिशीलमतित्व को भी नवल जी ने खारिज करने की कोशिश की. आप पता लगाइए, किसी अन्य धुर से धुर दक्षिणपंथी साहित्यकार को कभी आलोचक नवल जी ने कभी ‘अप्रगतिशील’ नहीं ठहराया होगा. कोई बताए कि जिन सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने तुलसीदास, राम की शक्तिपूजा एवं कथित देवी सरस्वती की वंदना में वर दे, वीणा वादिनी वर दे जैसी घनघोर द्विजप्रेम एवं अन्धविश्वास को सहलाने वाली कवितायें लिखीं और ‘हाथ वीणा समासीना’ जैसी दकियानूस रचना से ही अपना काव्य-सफर समाप्त किया, उनके लिए तो इस आलोचक के पास कोई अप्रगतिशील ठहराते शब्द क्यों नहीं हैं, कोई क्रन्दन कोई नहीं है, और, इन बेहूदी प्रगति-विरुद्ध कविताओं के लिए वंदन ही वंदन क्यों हैं?
राजेंद्र यादव से गहरे आतंकित दूरदर्शन का एक बड़ा अधिकारी कृष्ण कल्पित भी हैं जो फेसबुक पर नकली नाम ‘कल्बे कबीर’ रख कर हाल तक सक्रिय रहे हैं। कबीर का नाम बेचते फेसबुक पर अनैतिक बनावटी नाम से हाजिर इस बुजदिल-बीमार-मानस व्यक्ति की राजेंद्रजी के प्रति अनियंत्रित विरोध-भाव तो ‘नवल-घृणा’ से भी पार चला जाता है! हाल में प्रकाशित उनकी काव्य-संग्रहनुमा पुस्तक ‘बाग-ए-बेदिल’ के पेज न. 329 पर राजेन्द्र यादव और उनकी हंस के बारे में पलते द्विज-विकारों को मैंने अपने मित्रों के बीच पुस्तक-पन्ने की इमेज लगाकर 07, दिसंबर, 2013 को फेसबुक पर एक स्टेटस-रूप में साझा किया था। कल्पित भी मेरे एफ.बी. फ्रेंड हैं। उनके ये शब्द देखिये,
प्रेमचंद के ‘हंस’ को/ राजेन्द्र यादव ने/ एक ऐसे कौए में बदल दिया था पार्थ!/ जो पिछले पच्चीस वर्ष से/ विकृत-विमर्श-विष्टा में चोंच मारकर जीवित था।/ इस अवसर पर एक कुलीन और कुलक की यारी/ दो पराजित सेनापतियों का/ अवैध गठजोड़ था/ जो मुरदों के टीले के पीछे/ एक वैहासिक संपादक को/ राहुल सांकृत्यायन बनाने के अ-यज्ञ में शामिल थे, सार्त्र!
दक्षिणपंथी कल्पित जी की इस क्षुद्र कुंठित सोच पर फेसबुक पर ही एक बंदे, अखिलेश चौधरी ने कुछ यूं अपनी प्रतिक्रिया दी थी, “….ये तो छोटा सा उदाहरण है, राजेन्द्र यादव ने इन्हें वो टीस दी है कि ये सदियों तक तिलमिलाएंगे और राजेन्द्र यादव को स्वयं यही लोग आज से 1000 साल बाद भी प्रासंगिक बना कर रखेंगे……मेरा तो मानना है कि अभिव्यक्ति के जो ख़तरे राजेन्द्र यादव ने उठाए हैं, उतना और वैसा खतरा प्रेमचंद ने भी नहीं उठाया है।” प्रसंगवश बताऊँ कि हंस पत्रिका को कौआ कहने की शब्दावली भी इस शख्स, कल्पित ने किसी और से चुराई हुई है। उन्होंने यह शब्दावली नामी हिंदी आलोचक नामवर सिंह से उधार ली है। नामवर सिंह ने तीन-चार साल पहले पटना पुस्तक मेले में सार्वजनिक मंच से कहा था कि हंस अब कौए में तब्दील हो गया है. अपना विकार वमन करते नामवर तब यह भी भूल गए थे कि ‘ हंस यहाँ कोई पुरुष-लिंग पक्षी नहीं बल्कि स्त्रीलिंग पत्रिका है. उस समय पुस्तक मेले परिसर में ‘हंस’ की सम्पादकीय टीम में रहे और ‘अंतिका प्रकाशन’ खोल टटका-टटका बनिया बने कथाकार गौरीनाथ भी मौजूद थे। गौरीनाथ भी हंस से निकलने के बाद अन्य सवर्णों की तरह राजेंद्र यादव एवं उनकी हंस को मौके-बेमौके बुरा-भला कहते रहे हैं।
संघी-बजरंगी-धुरफंदी ही नहीं वरन वामपंथी एवं प्रगतिशील द्विज द्वारा भी हंस एवं राजेंद्र यादव को हमेशा गलियाया गया है लेकिन लोकतंत्र में यकीन रखने वाले सहिष्णु राजेंद्र यादव ने चिट्ठियों के कॉलम ’अपना मोर्चा’ में द्विज-उबकाई को लगभग हर अंक में जगह दी। बल्कि कहिये कि अपनी चिट्ठियों में राजेंद्र यादव एवं उनकी हंस को जातिवादी, अश्लील एवं सवर्ण विरोधी मंच ठहराकर कोई अदना सा अथवा अपात्र पत्र-लेखक भी अपना मोर्चा में अपनी जगह पक्की बना सकता था! राजेंद्र यादव के जाने के बाद के अंक आप उलटकर देखिये, पत्रिका को मिलने वाली तमाम गालियाँ ‘स्वाभाविक ही’ बंद हो गयी हैं। पत्रिका की संपादन टीम में सवर्णों का प्रभावी दखल पाकर ‘हंस’ का नाम सुनकर ही अपनी नाक-भौंह सिकोड़ने वाला हर वामपंथ-पोशाकी अब हंस के प्रति नर्मदिल बन गया है। एक फेसबुकवासी वामपंथी प्राध्यापक साहित्यकार ने राजेंद्र यादव की मृत्यु उपरान्त हुई 31 जुलाई, 2014 की प्रथम वार्षिक गोष्ठी में जाने की अपनी सदाशयता का इस आभासी मंच से सगर्व ऐलान किया था! कहा था कि अबतक मैं राजेंद्र यादव के सदेह उपस्थिति के चलते इस गोष्ठी का बहिष्कार करते चला आ रहा था, इसबार जाऊंगा। तो, इतने प्यारे-प्यारे हंस-प्रेमी रहे हैं हमारे हिंदी वामपंथी!
[bs-quote quote=”राजेंद्र यादव का एक प्रबल पक्ष उनका धुर नास्तिक (बुद्धिवादी), विकट पढाकू एवं लीक से हटकर लिखने वाले का रहा. उनके व्यक्तित्व एवं लेखनी के इसी मूर्तिभंजक एवं गैरपारंपरिक, परम्परा-भंजक चरित्र को लीक पर चलने वाले द्विजवंशी लोग विवादस्पद मानते रहे। लेखन-चिंतन के मामले वे कई मायनों में खुशवंत सिंह की तरह थे। न ‘काहू से दोस्ती न काहू से बैर’ को सेवने के मामले में तो बिलकुल एक जैसे। यही कारण था कि रचना-संसार में जड़ परम्परावादियों से लेकर वामपंथी एवं प्रगतिशील मान्य बौद्धिक स्खलन से युक्त बुद्धिजीवियों की एक लंबी पांत लट्ठ लेकर उनके पीछे पड़ी थी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
पटना पुस्तक मेला के आयोजकों द्वारा मेले के दौरान राजेन्द्र यादव और ओमप्रकाश वाल्मीकि के दुनिया से चले जाने का सम्यक स्मरण न करना और क्रिकेटर सचिन को अतिरिक्त भाव देकर भव्य विज्ञापन के साथ (‘अलविदा सचिन है’ के बड़े-बड़े भव्य पोस्टर मेला परिसर में लगाए गए) उसके क्रिकेट खेल से संन्यास लेने को जोर-शोर से बेचने को लेकर फेसबुक एवं अन्यत्र बहस छिड़ी. पुस्तक मेला आयोजकों की यह निरी बाजारवादी हरकत इस बात का सुबूत है कि दरअसल, ज्ञान / विचार / पुस्तक संसार से आयोजकों का कोई दिल का नाता नहीं है, वे मात्र पक्का बनिया बतौर मेला आते हैं। बहुत बार द्विज दुकानदारी एवं सवर्णों को प्रमोट करना आयोजकों के हिडन एजेंडे में होता है, और बहुजन हितों की अनदेखी करना, उसके प्रति बैर भाव व हिकारती उदासीनता-उपेक्षा बरतना उनका साक्षात्, सचल – सायास घटित होता है। जाति भारतीय समाज की एक बड़ी सच्चाई है जिससे शायद ही कोई इन्कार करे।
और, अब राजेंद्र यादव एवं हंस से मेरे जुड़ाव की की कथा. कहानी रोचक है. 1991-92 में एक सरकारी नौकरी पर रहते हुए सिविल सेवा की तैयारी में उतरने का मन बनाया था। बाल कवि तो मैं रहा ही था, अपनी साहित्यिक रुचियों का ध्यान कर परीक्षा के लिए एक वैकल्पिक विषय के रूप में हिंदी भाषा और साहित्य का चुनाव किया। तैयारी के लिए समसायिक साहित्य से दो-चार रहने के लिए मैंने एक साहित्यिक पत्रिका के रूप में ‘हंस’ का चुनाव किया था। ‘हंस’ के हर अंक में संपादक राजेंद्र यादव द्वारा लिखा गया सम्पादकीय मेरी तेरी उसकी बात एवं पाठकों के पत्र का स्तंभ अपना मोर्चा सबसे पहले पढ़ता था, पत्रिका हाथ में आते ही पढ़ता था। चाहे कहानी, कविता अथवा अन्य सामग्री पढूं न पढूं, बहुत बाद में पढूं, महीनों बात आकर पढूं, सम्पादकीय जरूर पढ़ता था। ‘हंस’ का मैं आजीवन ग्राहक हूँ। यह आजीवन सदस्यता अथवा ग्राहक मैंने एक ऑफर के क्रम में सन 1992 में ही ली थी। 2500 रुपए एकमुश्त मनीआर्डर कर पत्रिका के आरम्भ, अगस्त 1986 से तबतक के सारे उपलब्ध अंक भी मुझे मिल गए थे. हंस से मेरा रिश्ता न केवल पाठक-ग्राहक का है बल्कि एक छोटा रिश्ता बतौर लेखक भी है। मेरी कुछ लघुकथाएं एवं एक आलेख इस में छप चुके हैं। आलेख छपने के अनंतर भी कुछ रोचक प्रसंग सृजित हुए। नामी कथाकार एवं कवि उदयप्रकाश की लम्बी कहानी ‘मोहनदास’ हंस में छपी थी और उसके दो अंक बाद प्रशंसा के पुल बांधते पत्रों का तांता दिखा था ‘अपना मोर्चा’ नामक पाठकों के पत्र विषयक स्तंभ में। उसी अंक में कहानीकार की दृष्टि में लगे मोरचे का उद्भेदन करता मेरा आलेख बीच बहस में स्तंभ में ‘मोहनदास : एक कुपढ़-कुपड़ताल’ शीर्षक से छपा। दलित सन्दर्भ की कहानी के साथ कथाकार की द्विज दृष्टि किस तरह से परवान चढ़ रही थी एवं कथाकार की कबीरपंथ एवं कुछ अन्य विषयों की कैसी भौंडी एवं सतही समझ कहानी की मार्फ़त सामने आती है, यह सब मैंने उसमें खोला था। एक मजेदार बात का पता मुझे आगे चला कि उदय प्रकाश आत्मश्लाघा एवं आत्ममोह के ‘डायबिटिक’ हैं! उन्होंने कहानी पर मिले व्यक्तिगत प्रशंसा-पत्रों को भी हंस को अग्रसारित कर छपवा डाला। जब यह लंबी कहानी पुस्तकाकार रूप में पाठकीय मंतव्यों के साथ छपी तो उन्होंने मेरी समेत किसी भी आलोचनात्मक प्रतिक्रिया को जगह नहीं दी, केवल प्रशंसात्मक पत्र-प्रतिक्रियाओं को ही पुस्तक में शामिल किया। अपनी प्रशंसा पाने के अभिलाषी एवं अभ्यासी उदयप्रकाश बहुत असहनशील भी हैं। अपनी फेसबुक पर उन्होंने भाटों की फ़ौज जुटा रखी है। वहाँ युवा कथाकार शशिभूषण (द्विवेदी नहीं) उनके सबसे बड़े भाट साबित होते हुए मुझे मिले! उदय प्रकाश की फेसबुक पर मोहनदास कहानी की हो रही अप्रतिहत प्रशंसा की बरसात के रंग में एकदम से भंग ही हो गया जब हंस में इस कहानी पर छपी अपनी आलोचना का वहाँ मैंने ध्यान मात्र कराया। उदय प्रकाश ने एक्सट्रीम स्टेप लेते हुए मुझे ब्लॉक कर दिया, मुझसे फेसबुक से नाता तोड़ लिया। पता नहीं, ऐसे अकड़ू लोग किस प्रकार के बड़े लेखक हैं जो लोकतान्त्रिक बहस से दूर भागते हैं और अपने चम्मचों के बीच ही स्वाभाविक रह पाते हैं।
हंस में मेरी रचना के छपने, न छपने को लेकर, पटना एवं दिल्ली में राजेंद्र यादव से भेंट एवं उनसे चिट्ठियों के आदान-प्रदान को लेकर भी कुछ बांटने योग्य कहानियां हैं। एक मनोरंजक वाकया मेरी लघुकथा के स्वीकृत होने से नत्थी है। अस्वीकृति की चिट्ठी मुझे हंस दफ्तर में एक कर्मी वीना उनियाल की ओर से आ चुकी थी, पर पत्रिका के तत्कालीन सहायक संपादक गौरीनाथ के संपादन में आये युवा विशेषांक में यह रचना ले ली गयी। राजेंद्र जी से पत्र पाने का एक सुखद अवसर भी प्राप्त है। काफी प्रेरक पत्र था वह, पर मेरे जैसा आलसी व्यक्ति उनके मशविरे पर उनके जिन्दा रहते अमल नहीं कर सका। वर्ष 1996 में यह पत्राचार हुआ था। तब मैं बिहार सरकार के अंतर्गत सहकारिता प्रसार पदाधिकारी पद की नौकरी पर था। मैंने स्कूल एवं कॉलेज में सवर्णों से मिले जाति-दंश एवं अन्यान्य खारे जीवनानुभवों का बयान राजेंद्र जी को लिखे अपने लंबे व विस्तृत पत्र में किया था। राजेंद्र जी से तबतक न तो कोई खतोकिताबत हुई थी, न उनसे कोई मुलाक़ात-बात थी, और न ही वे अन्य किसी तरीके से मुझे जानते थे। बस, यह प्रथम मुलाकात थी और केवल इन लिखित शब्दों के जरिये. तबतक मुझे साहित्यिक अध्ययन करने का ठीक से चस्का भी न लगा था। पर पता नहीं, राजेंद्र जी ने मेरी आत्मबयानी में क्या पाया कि एक अंतर्देशीय पत्र में ‘प्रिय मुसाफ़िर, तुम्हारी ‘आत्मकथा’ मिली’ जैसे बेहद ही आत्मीय संबोधन एवं शब्दों के साथ एक अन्तरंग परिचित, परिजन एवं अभिभावक के रूप का जवाबी सन्देश लिखा था। मेरी चिट्ठी को ‘आत्मकथा’ करार देते हुए उन्होंने कहा था कि अपनी इस ‘आत्मकथा’ को तुम एक आत्मकथात्मक उपन्यास की शक्ल दे सकते हो, जिसमें कुछ अपनी एवं कुछ अपने जैसों के जीवन-प्रसंगों को रखना पड़ेगा। और, उन्होंने चेताया था कि ऐसा करते हुए अपने को दयनीयता से, आत्मदया एवं आत्मप्रशंसा से बचाए रखते हुए जीवन की तमाम नाटकीयता एवं जीवन्तता को प्रस्तुत करना होगा। तबतक हिंदी में कोई मौलिक अथवा अनूदित दलित आत्मकथा उपलब्ध नहीं थी। अलबत्ता, मराठी से हिंदी में अनूदित राम नागरकर के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘रामनगरी’ का सार-संक्षेप भी रखते हुए उन्होंने कहा था की यह पुस्तक जरूर पढ़ो, इसमें नाई जाति की संघर्ष कथा आई है। ‘राजेंद्र जी ने यह भी सुझाया था कि हो सके तो उपन्यास के लिए एक रूपरेखा बनाकर भेजना. इस बड़े अवसर पर मैं अपने को खरा नहीं उतार पाया।
[bs-quote quote=”जरूरी दखल देने के हिसाब से देखा जाए तो राजेन्द्र यादव वो शम्बूक थे जिन्होंने आधुनिक! ज्ञान-हत्यारों को काफी हद तक हराकर वंचितों के लिए एक अधिकार-परम्परा का प्रेरणादायक निर्माण किया। हिंदी में दलित साहित्य के ठोस एवं प्रभावी आकर लेने तथा द्विजवंशियों एवं द्विजवादी वर्चस्व की मुख्यधारा के हिंदी साहित्य में दलित साहित्यकारों को मंच उपलब्ध करवाने में राजेंद्र यादव एवं उनकी हंस अग्रणी एवं पहलकारी भूमिका में रहे। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
राजेंद्र जी से दो मुलाकातों की मेरी थाती भी है पर दोनों ही अत्यंत छोटी। एक पटना, एक दिल्ली की। पहली मुलाक़ात पटना के कदमकुआं स्थित अप्सरा होटल में हुई थी। वे बिहार सरकार द्वारा प्रदत्त राजेंद्र शिखर सम्मान लेने आये हुए थे। पुरस्कारों के प्रति हमेशा अन्यमनस्क रहे राजेंद्र जी ने पता नहीं क्यों यह सम्मान लेना पहली बार स्वीकार कर लिया था। साहित्यिक हलके में इसको लेकर उनकी काफी किरकिरी भी हुई थी, जबरदस्त आलोचना हुई थी जो एक तरह से गैरवाजिब भी नहीं थी। उस समय लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे और हाल में ही दक्षिण बिहार के जहानाबाद क्षेत्र के लक्ष्मणपुर-बाथे गाँव में नरसंहार हुआ था जिसमें सवर्ण उच्च जातीय किसानों के उग्रवादी संगठन रणवीर सेना ने अंजाम दिया था। घटना में उग्रवादियों ने भूमिहीन मजदूरों और उनके परिवार के सदस्यों को घर से बाहर निकाला और गोलियों से दिनदहाडे 60 गरीब-गुरबों को भून डाला था। इनमें 27 महिलाएं और दस बच्चे थे। महिलाओं में करीब दस गर्भवती भी थीं। राजेंद्र जी से मिलने के लिए उनके बेहद ही प्रिय रमेश ऋतम्भर मुजफ्फरपुर से चलकर आये थे। मुझे राजेंद्र जी से उन्होंने ही मिलवाया था। तब राजेंद्र जी ने मेरे टाइटल ‘बैठा’ पर परिहास करते हुए ‘मुसाफ़िर’ तथा ‘बैठा’ के अनमेल संयोजन को लेकर हलकी टिप्पणी भी की थी। मैं आराध्य की हद तक राजेंद्र यादव को चाहने वाला, उनकी इस चुहल से कुछ देर के लिए काफी परेशान हो गया था और झेंप गया था। यह पहला और अबतक का अंतिम मौका रहा कि किसी व्यक्ति का मैंने ‘ऑटोग्राफ’ भी लिया था। राजेन्द्र ने एक ना-नुकुर के बाद ही मेरी डायरी पर अपने ठीक वही हस्ताक्षर दर्ज़ किये थे जो ‘हंस’ के सम्पादकीय में हुआ करते थे. वहाँ संभवतः कथाकार अवधेश प्रीत, प्रेम कुमार मणि, संतोष दीक्षित एवं कवि सुरेन्द्र स्निग्ध भी मौजूद थे। मुझे याद है कि उन्होंने रमेश ऋतम्भर एवं मेरी उम्र की समकक्षता टटोलते हुए कहा था कि रमेश, तुम और यह मुसाफ़िर तो एक पीढ़ी के कवि हुए। हालांकि उनका यह ख़याल इस ख्याल से अनुचित ठहरता है कि जबकि रमेश ने कविताई करना 1990 के दशक में ही शुरू कर दिया था और ‘हंस’ तक में छप चुके थे, मैं तो रमेश से कोई एक दशक बाद जाकर रचनाकर्म में उतरा था। दिल्ली की मुलाकात में जो मुलाकात हुई थी उसे संयोग ही कहा जा सकता है। मैं जेएनयू में पढ़ने वाली अपनी बेटी पुष्पा से मिलने गया था, समय पाकर कवि मित्र पंकज चौधरी से भी मिलना चाह रहा था। उन्हें फोन मिलाया तो जहाँ भेंट की जगह निर्धारित हुई वहाँ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के तत्कालीन वीसी विभूति नारायण राय द्वारा स्त्री के मानमर्दन में दिए गए एक आपत्तिजनक बयान पर निंदा प्रस्ताव पास करने के लिए दिल्ली एवं आसपास के बुद्धिजीवियों एवं साहित्यकारों की एक बैठक बुलाई गयी थी। वहाँ राजेंद्र जी के अलावा कथाकार एवं उनके हंस सहयोगी संजीव व कुछेक अन्य लोगों से पहली बार एक क्षणिक मुलाकात का मौका भी मिला था। अबतक कुल सात बार दिल्ली जाने के बावजूद ‘हंस’ की दफ्तर में राजेंद्र जी के रहते न जा पाने का मलाल भी रहेगा।
राजेंद्र यादव का एक प्रबल पक्ष उनका धुर नास्तिक (बुद्धिवादी), विकट पढाकू एवं लीक से हटकर लिखने वाले का रहा. उनके व्यक्तित्व एवं लेखनी के इसी मूर्तिभंजक एवं गैरपारंपरिक, परम्परा-भंजक चरित्र को लीक पर चलने वाले द्विजवंशी लोग विवादस्पद मानते रहे। लेखन-चिंतन के मामले वे कई मायनों में खुशवंत सिंह की तरह थे। न ‘काहू से दोस्ती न काहू से बैर’ को सेवने के मामले में तो बिलकुल एक जैसे। यही कारण था कि रचना-संसार में जड़ परम्परावादियों से लेकर वामपंथी एवं प्रगतिशील मान्य बौद्धिक स्खलन से युक्त बुद्धिजीवियों की एक लंबी पांत लट्ठ लेकर उनके पीछे पड़ी थी।
उनके हजार दुश्मन थे, जबकि दोस्तों की संख्या काफी कम। ‘जो घर जारै आपनो, चले हमारे साथ’ के कबीरी-उद्घोष के साथ चलने वालों के सच्चे साथी हो ही कितने सकते हैं! अंग्रेज़ी लेखक-पत्रकार खुशवंत सिंह जिस तरह अपने अखबारी स्तंभों-कॉलमों में बेलौस-बेख़ौफ़ चिंतन प्रस्तुत करते थे उसी अंदाज़ में राजेंद्र यादव का चिंतन ‘हंस’ के उनके विवादस्पद कहे जाने वाले सम्पादकीय ‘मेरी तेरी उसकी बात’ स्तंभ में तथा अन्यत्र आता था। ‘हम न मरे मरिहैं संसारा, हमका मिला जियावनहारा’- यह एक क्रांतिकारी श्रमण महामानव एवं चिन्तक कबीर कह गए हैं और अब से छः सौ वर्ष पहले ही कह गए, अंधश्रद्धा एवं वाह्याचार से नाभिनालबद्ध समाज में आकर उस युग में कह गए जब राजाओं एवं सामंतों के मनमाने शासन वाला समाज था, जड़ एवं विरुद्ध विचार को न सहने वाला समाज था। दिल्ली से प्रकाशित हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ में एक अजीब शरारत की गयी जो पीत-पत्रकारिता एवं द्विज दृष्टि का, बहुजन-विरोधी विकृति से चालित पत्रकारिता का एक नमूना ही थी। अखबार में दिल्ली डेटलाइन से ही एक स्टोरी प्रकाशित थी, जिसका शीर्षक था- ‘राजेंद्र यादव नामक अपराधी मारा गया’। स्टोरी के साथ साहित्यकार राजेन्द्र यादव की काला चश्मा एवं सिगार‘ट्रेडमार्क’ वाली तस्वीर चस्पां की गयी थी. इस ‘खूंरेज’ शरारत पर हंस में उन्होंने हम न मरिहैं, मरिहैं संसारा…शीर्षक से सम्पादकीय भी लिखाथा।
हिंदी साहित्य के सवर्ण किले को भेदने के मामले में मैं राजेंद्र यादव को मिथकीय एकलव्य एवं शम्बूक से तुलनीय मानता हूँ। बल्कि प्रभाव के ख्याल से उन दोनों से बीस! शम्बूक को विप्र ऋषियों-मुनियों की ‘अनर्गल एवं एक्सलूसिव पारंपरिक ज्ञान परम्परा में सेंधमारी की हिम्मत दिखाने वाले एवं बहुजनों की हिस्सेदारी के प्रयास एवं पहल करने वाले प्रथम ज्ञात व्यक्तित्व के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। लेकिन जरूरी दखल देने के हिसाब से देखा जाए तो राजेन्द्र यादव वो शम्बूक थे जिन्होंने आधुनिक! ज्ञान-हत्यारों को काफी हद तक हराकर वंचितों के लिए एक अधिकार-परम्परा का प्रेरणादायक निर्माण किया। हिंदी में दलित साहित्य के ठोस एवं प्रभावी आकर लेने तथा द्विजवंशियों एवं द्विजवादी वर्चस्व की मुख्यधारा के हिंदी साहित्य में दलित साहित्यकारों को मंच उपलब्ध करवाने में राजेंद्र यादव एवं उनकी हंस अग्रणी एवं पहलकारी भूमिका में रहे।
राजेंद्र यादव के देहावसान पर मैंने अपनी फेसबुक पर 29 अक्टूबर, 2013 को इन शब्दों में एक स्टेटस लगाई थी “एक ‘भावुक’अपील! अब हंस का नवंबर 2013 अंक ऐतिहासिक हो जाएगा, इस मायने में कि हमें छोड़ चले गए राजेन्द्र यादव की छुअन के साथ का यह पत्रिका का अंतिम अंक होगा। राजेन्द्र यादव को चाहने वाले इस अंक को एक थाती के रूप में संजो सकते हैं।” और इसी दिन मैंने यह स्टेटस भी डाली, “राजेन्द्र यादव पहले हिंदी साहित्यकार हैं (रहे) जिन्होंने साहित्य में दलित, स्त्री और मुसलमान संदर्भों/प्रश्नों को विमर्श से जोड़ा, विमर्श का अनिवार्य, प्रमुख एवं प्रभावी हिस्सा बनाया (गीताश्री द्वारा एक न्यूज चैनल को दिए गए साक्षात्कार से निःसृत एक भाव, राजेन्द्र जी के देहावसान के अवसर पर)।
मुसाफिर बैठा जाने-माने कवि और आलोचक हैं।
राजेन्द्र यादव पर मेरा आलेख लगाने के लिए आभार!
बहुत बढ़िया संस्मरण। स्व. राजेंद्र यादव जी के व्यक्तित्व और प्रदेय पर गहराई से प्रकाश डालता और कई अनजाने तथ्यों और घटनाओं से रूबरू कराता बेहद पठनीय संस्मरण। मुसाफिर जी को बधाई।
सादर। गुलाबचंद यादव