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ग्राउंड रिपोर्ट

पूरी दुनिया में न्याय की देवी महिला होने के बाद भी कोर्ट में महिला न्यायधीशों की संख्या कम क्यों

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश डी वाई चंद्रचूड अपनी सेवानिवृति के कुछ दिन पहले ही अदालतों में दिखने वाली न्याय की देवी की मूर्ति में बदलाव कर आँखों से पट्टी हटाकर हाथ में संविधान की किताब पकड़वाई है। यह बदलाव इस बात का सन्देश दे रहा है कि कानून अंधा नहीं होता। अपराधी के खिलाफ सही तरीके से कानूनी कार्रवाई की जाएगी। जिससे लोगों के बीच कानून की जो छवि अभी है, उसमें बदलाव किया जा सके।

1983 में अमिताभ बच्चन और रजनीकांत की एक फिल्म आई थी ‘अंधा कानून’। हेमा मालिनी, रीना राय, डैनी, प्रेम चोपड़ा, प्राण, अमरीश पुरी जैसे एक से एक चोटी के कलाकार की इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर धमाल मचा दिया था और उस साल की पांचवें नंबर की हाईएस्ट ग्रोसिंग फिल्म थी।

 इतनी जानी-मानी स्टारकास्ट और बाक्स आफिस पर हिट होने के अलावा यह फिल्म अपने टाइटल के लिए आज भी खूब याद की जाती है। ‘अंधा कानून’ शब्द उसके बाद इतना अधिक प्रचलित हुआ कि अनेक मामलों में अखबारों की हेडिंग में अंधा कानून शब्द का उपयोग होने लगा। इसके बाद तमाम फिल्मों में यह शब्द सुनने को मिला। अन्याय के अर्थ में कटाक्ष के इस शब्द का उपयोग हुआ था और आज भी हो रहा है।

न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधी होने से यह कटाक्ष हुआ था, पर इसके पहले ऐसा नहीं था। सदियों पहले न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बांधी गई तो उसके पीछे इरादा कटाक्ष का ही था। भारत में अंधा कानून शब्द प्रचलित हुआ, यह अंग्रेजी के शब्द टर्म ब्लाइंड जस्टिस से आया था।

प्राचीन इजिप्ट में न्याय की माता नाम की देवी की कल्पना की गई थी। सदियों बाद वह देवी थेमिस नाम से जानी जाती थी। इजिप्ट में यह भी कहा जाता है कि थेमिस नाम की देवी भी न्याय तौलती थी। ये न्याय की देवियां थीं और चित्र में उनके हाथों में तराजू भी था। तराजू की खासियत यह है कि वह एक ओर झुका नहीं था। प्राचीन इजिप्तवासियों ने सोचा था कि न्याय में संतुलन होना चाहिए, इसीलिए न्याय की देवी के हाथ का तराजू संतुलित था।

ईसापूर्व पांचवी सदी में ग्रीक माइथोलाॅजी में डाइक नाम की देवी की कथा है। उनके दाहिने हाथ में तराजू है। दूसरे हाथ से नीचे पड़ी तलवार को स्पर्श करती हैं। इसका अर्थ यह निकलता है कि देवी संतुलित रूप से न्याय करती हैं और जरूरत पड़ने पर तलवार उठा कर दंड देती हैं।

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इजिप्त और ग्रीक की माइथोलाॅजी के आधार पर रोम ने एक न्याय की देवी की कल्पना की और उनका नाम था- जस्टिसिया। इस न्याय की देवी के हाथ में भी तराजू था और एक हाथ में तलवार थी। रोमन साम्राज्य में इस देवी की प्रार्थना कर के न्याय किया जाता था। रोमन साम्राज्य के संस्थापक आगस्ट्य ने इस देवी को साक्षी मान कर न्याय करना शुरू किया और उनके दरबार में जस्टिसिया की एक मूर्ति भी बना कर रखी गई थी। रोमन साम्राज्य के उनके अनुगामी राजाओं ने जस्टिसिया का मंदिर भी बनवाया था और इस तरह न्याय की देवी के रूप में जस्टिसिया रोमन साम्राज्य में काफी सम्मानीय बन गईं।

रोमन की ही देखादेखी बाद में यूरोप के राजाओं में न्याय की देवी की कल्पना आगे बढ़ी। ब्रिटेन ने तो जस्टिसिया देवी से प्रेरित हो कर न्याय को जस्टिस ही कहना शुरू कर दिया और उसी के परिणामस्वरूप दुनिया भर में फैली अंग्रेजी भाषा में ‘जस्टिस’ शब्द प्रचलित हुआ और न्यायमूर्ति के लिए भी जस्टिस शब्द उपयोग में लिया जाने लगा।

अच्छा, पर यहां तक न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी नहीं बंधी थी। न्याय की देवी के हाथ में तराजू था। दूसरे हाथ में तलवार थी, परंतु आंखें खुली थीं। तो फिर आंखों पर पट्टी कब से आई?

न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी एक समय व्यंग्य करने के लिए बांधी गई थी। जी हां, इसके पीछे निष्पक्ष न्याय का ख्याल तो बहुत बाद में आया। स्विट्जरलैंड का एक शिल्पकार था, जिसका नाम था हेंस गिएंग। उसने तमाम शिल्प बनाए। पर उसका न्याय की देवी का शिल्प बहुत प्रसिद्ध हुआ। न्याय की देवी की कल्पना तो इस शिल्प से सैकड़ों साल पहले हुई थी, वह कल्पना थी- एक हाथ में तराजू, एक हाथ में तलवार और खुली आंखें। हेंस गिएंग ने जो मूर्ति बनाई थी, उसमें उन्होंने न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बांध दी थी।

शिल्पकार ने तो नवजागृतिकाल से प्रभावित हो कर न्यायतंत्र पर व्यंग्य किया था। पट्टी बांधने के अलावा उसने न्याय की देवी का दाहिने हाथ में खुली तलवार और बाएं हाथ में तराजू पकड़ाया था। वह भी एक ओर सहज झुका हुआ। शिल्पकार के कहने का अर्थ यह था कि न्यायतंत्र ऐसा हो गया है कि अब हमला करने के लिए दाहिने हाथ में खुली तलवार है। जबकि तराजू बाएं हाथ में आ गई है और आंखें बंद हैं, इसलिए सवाल यह है कि न्याय कैसे मिलेगा। वह मूर्ति स्विट्जरलैंड के बर्न शहर में लगवाई गई। आज 481 साल बाद भी वह मूर्ति वहां खड़ी है।

पर ट्विस्ट तब आया, जब विद्वानों ने उस शिल्प का एनालिसिस किया। तमाम विद्वानों ने शिल्प के बारे में समझाते हुए यह निष्कर्ष निकाला कि न्याय की देवी की आंखें इसलिए बंद हुई हैं कि सामने कौन है, इसकी परवाह किए बगैर, पहचाने बगैर, मात्र सत्य को ध्यान में रख कर, निष्पक्ष न्याय करना है।

यह नरेटिव सभी को जम गया। लोग शिल्पकार के व्यंग्य को भूल गए। यूरोप में न्याय की देवी के निष्पक्ष न्याय का यह नया स्वरूप तेजी से फैल गया। यहां तक कि ब्रिटेन ने भी आंख पर पट्टी बंधी कांसेप्ट को मानते हुए भारत जैसे जिन देशों में उसका शासन था, वहां तक इस विचार को पहुंचा दिया।

आज न्याय की देवी को दुनियाभर में लेडी जस्टिस कहा जाता है और ज्यादातर देशों में न्याय के प्रतीक के रूप में एक हाथ में तराजू, एक हाथ में तलवार और आंखों पर पट्टी बंधी हो, इस तरह की न्याय की देवी की मूर्ति स्वीकार कर ली गई है। अमेरिका-ब्रिटेन-चीन-फ्रांस-भारत सहित 150 देशों में न्याय के प्रतीक के रूप में थोड़े बदलाव के साथ लगभग एक जैसा मैसेज देती मूर्ति प्रचलित है।

पर भारत में अब न्याय की देवी ने ‘स्वदेशी’ रूप धारण कर लिया है। सीजेआई की सलाह पर भारत में न्याय की देवी की आंखों की पट्टी खोल दी गई है और बाएं हाथ में तलवार हटा कर संविधान रखा गया है। इतना ही नही, वेस्टर्न कपड़ों की जगह उसकी पोशाक भी भारतीय कर दी गई है।

उचित रूप से ही न्याय की देवी की आंखों पर से परदा हटाया गया है। क्योंकि वह तो व्यंग्य के रूप में लगा था। भारत की न्याय की देवी देखने लगी है, इसलिए अब भारतीय न्याय के संदर्भ में शासकीय रूप से ‘अंधा कानून’ या ‘ब्लाइंड जस्टिस’ शब्द का उपयोग नहीं होगा।

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महिला प्रधानमंत्री देने वाले देश में आज तक नहीं बनी महिला मुख्य न्यायाधीश 

भारत में सुप्रीम कोर्ट में 1989 में सब से पहले महिला न्यायाधीश बनीं थी फातिमा बीबी। तब से ले कर आज तक में सुप्रीम कोर्ट में मात्र 11 महिला न्यायाधीश बनी हैं। 1950 में संविधान लागू हुआ, तब से अब तक में सुप्रीम कोर्ट में 270 न्यायाधीशों की नियुक्ति हुई है और इसमें महिला न्यायाधीशों का प्रतिशत चार है। 11 में से 8 महिला न्यायाधीशों को तो 2010 के बाद इंट्री मिली थी। फातिमा बीबी के बाद जस्टिस सुजाता मनोहर को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया गया था। उसके बाद रूमा पाल की नियुक्ति हुई थी।

2010 के बाद स्थिति थोड़ी सुधरी और इस दशक में ज्ञान सुधा मिश्रा, रंजना प्रकाश देसाई, आर.भानुमती, इंदु मल्होत्रा और इंदिरा बनर्जी ने सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश के रूप में काम किया। तीन महिला न्यायमूर्ति- हिमा कोहली, बी.वी.नागरत्ना और बी.एम.त्रिवेदी कार्यरत हैं।

अब से संभव है कि बी.वी.नागरत्ना 2027 में देश की मुख्य न्यायाधीश बन सकती हैं। अभी तक भारत में एक भी महिला न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश बनने का मौका नहीं मिला। बी.वी.नागरत्ना मुख्य न्यायाधीश बनती हैं तो इस पद पर विराजमान होने वाली वह पहली महिला होंगी। लेकिन उनका कार्यकाल बहुत छोटा मात्र सवा महीने का होगा। मजे की बात यह है कि बी.वी.नागरत्ना के पिता इ.एस.वेंकटरमैया 1989 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे और उसी समय प्रथम महिला न्यायाधीश फातिमा बीबी की नियुक्ति हुई थी।

दुनिया के न्यायतंत्र में 35 प्रतिशत महिला न्यायाधीश

न्याय की देवी को दुनियाभर में स्वीकार किया गया है। पर न्याय तौलने के काम में पुरुषों का प्रभुत्व है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने महिला न्यायाधीशों की एक सूची तैयार की थी। उसमें बताया गया है कि दुनियाभर में 35 प्रतिशत ही महिला न्यायाधीश कार्यरत हैं। यहां भी पुरुषों का बहुमत है। एक तरह 35 प्रतिशत की संख्या थोड़ा रीजनेबल कही जाएगी। क्योंकि राजनीति में 33 प्रतिशत आरक्षण की बात चल रही है। पर इस संख्या में निचली कोर्ट की भी गिनती शामिल है। हायर कोर्ट में मात्र 25 प्रतिशत ही महिलाओं को न्याय करने का मौका मिला है।

हाईकोर्ट के 788 न्यायमूर्तियों में से 107 महिला न्यायाधीश

इस समय देश की हाईकोर्टों में 788 जज सक्रिय हैं। इनमें से 107 महिला न्यायाधीश हैं। इस तरह हाईकोर्ट में महिला न्यायाधीश 13 प्रतिशत होती हैं। इसमें पांच-सात साल में स्थिति थोड़ी सुधरी है। 2018 में हाईकोर्ट में 10 प्रतिशत ही महिला न्यायाधीश कार्यरत थीं। मद्रास और पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में सब से अधिक 13 महिला न्यायाधीश हैं। दिल्ली हाईकोर्ट में 10, बाम्बे, कलकत्ता और तेलंगाना हाईकोर्ट में 9, इलाहाबाद हाईकोर्ट में 8, गुजरात हाईकोर्ट में 7 महिला न्यायाधीश हैं। इसके बाद अन्य हाईकोर्टों में न्यायाधीशों की संख्या 5 या 5 से कम है। 25 में से मात्र 2 हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश महिला हैं।

वैसे तो बहुत से देशों में न्याय की मूर्ति में महिलाओं को ही स्थापित किया गया है। भारत में न्याय की इस लेडी स्टेच्यू को न्याय की देवी कहा जाता है। भले ही ‘देवी’ शब्द से सामान दिया जाता है लेकिन वास्तविक स्थिति

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