यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अमन की तलाश में जंग का रास्ता अख़्तियार किया जाता रहा है। जंग में सत्ता का विकेन्द्रीकरण किसी भी रूप में क्यों न हो, पर आम आदमी युद्ध की विभीषिका में भयावह तौर पर झुलसता ही है। अभी रूस और यूक्रेन के जंग की राख ठंडी भी नहीं हुई थी कि इजरायल और फिलिस्तीन युद्ध ने दुनिया के सामने युद्ध की एक और भायवह तस्वीर लाकर रख दी है। यह युद्ध भले ही दुनिया के किसी और कोने में लड़ा जा रहा है, पर यह तय है कि इसका व्यापक प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ेगा। इस युद्ध के तमाम आयामों और उसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि पर वरिष्ठ लेखक डॉ. सुरेश खैरनार का विश्लेषण…
बेंजामिन नेतन्याहू के राजनीतिक पुनर्जन्म और फिलिस्तीन का अस्तित्व समाप्त करने के लिए ही यह लड़ाई शुरू की गई है। बाँटो और राज करो की कूटनीति का एक घृणित रूप 14 मई 1948 को दुनिया के सामने आया जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ने के पहले पाकिस्तान की निर्मिति की। बिल्कुल वैसे ही जैसे कि फिलिस्तीन से निकलने के पहले उसे बाँटकर इजराइल की निर्मिति की गयी थी।
अरबों की बड़ी जनसंख्या के बावजूद यहूदियों को फिलिस्तीनी जमीन का 55% हिस्सा दे दिया गया। इसी से नाराज होकर फिलिस्तीनियों की तरफ से 15 मई से 8 महीने की लड़ाई की शुरुआत हुई। इसमें फिलिस्तीन की तरफ से सभी अरब देश थे और इजरायल के साथ सभी पश्चिमी देश।
फिलिस्तीनियों को जबरन उनके घरों से निकाला और बहुतों का क़त्ल किया गया। अरब मुस्लिम इस दिन को अल नकबा यानी विनाश के दिन के तौर पर याद करते हैं। जुलाई 1949 तक इजराइली सेना साढ़े सात लाख फिलिस्तीनियों को निकाल चुकी थी। यह जंग 1949 में युद्धबंदी के ऐलान के साथ रुकी।
इस युद्ध के बाद, फिलिस्तीन का ज्यादातर हिस्सा इजराइल के कब्जे में चला गया। जो जमीन जॉर्डन के कब्जे में थी, उसे आज वेस्ट बैंक के नाम से जाना जाता है और जो हिस्सा सिनाई रेगिस्तान से सटा हुआ है, वह मिस्र के कब्जे में था, वहीं आज की गाजा पट्टी है। यहीं से 7 अक्टूबर के दिन हमास ने हमला किया।
फिलिस्तीन की राजधानी यरूशलम को भी दो हिस्सों में बांटा गया। एक जॉर्डन के पास रहा, तो वहीं एक पर इजराइल का कब्जा हो गया। 28 मई 1964 में अरब लीग की बैठक काहिरा में हुई थी। उस बैठक में 2 जून 1964 के दिन फिलिस्तीन को इजराइल से आजाद करने के लिए ही इस संगठन की स्थापना की गई, जिसका नाम पॅलेस्टाइन लिब्रेशन ऑर्गनाइजेशन (PLO) रखा गया। वह 1974 के ओस्लो अकॉर्ड की वजह से यूएनओ में नॉन मेंबर ऑब्जर्वर है।
1967 के युद्ध में इजराइल ने मिस्र और सीरिया को हराकर पूर्वी यरूशलम, वेस्ट बैंक, गाजा पट्टी तथा गोलान हाइट्स पर कब्जा कर लिया। इसे छः दिनों का युद्ध (six days war) भी कहा जाता है। इजराइल ने कब्जा किए हुए इलाकों में यहूदियों की कालोनियाँ बसाना शुरू कर दिया और हजारों की संख्या में फिलिस्तीनियों को अपना घर छोड़ना पड़ा।
यह भी पढ़ें…
अडाणी मामले में ताजा खुलासों से 12,000 करोड़ रुपये की हेराफेरी का संकेत मिलता है:जयराम
1973 में अरब देशों के समूह ने मिस्र के नेतृत्व में एक बार फिर इजराइल पर हमला किया। यह हमला यहूदियों के पवित्र दिन ‘योम किपुर’ अर्थात नए साल के पहले दिन 6 अक्टूबर को किया गया था। लेकिन इजराइल ने फिर एक बार अमेरिका की मदद से अरब देशों को हरा दिया।
1974 में UN के प्रस्ताव 181 के तहत फिलिस्तीन को दो हिस्सों में बांट दिया गया। एक यहूदियों के लिए हो गया और दूसरा अरबों के लिए। उसी समय यरूशलम को अंतर्राष्ट्रीय शहर घोषित किया गया। संयुक्त राष्ट्र के इस प्रस्ताव को यहूदियों ने सिर्फ कूटनीतिक रुप से पसंद किया लेकिन अरब मुल्कों ने इसे स्वीकार करने से मना कर दिया।
1978 में मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात और इजराइल के प्रधानमंत्री मेनाचेम बेगिन के बीच अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने शांति समझौता कराने की कोशिश की। इसे कैम्प डेविड आकॉर्ड के नाम से जाना जाता है। इस तथाकथित शांति-समझौते की वजह से ही नोबल पुरस्कार कमेटी ने अपने विश्व प्रसिद्ध शांति पुरस्कार से इन दोनों राष्ट्राध्यक्षों को सम्मानित किया। हालांकि, इसके तहत दिए गए सुझावों का कभी भी पालन नहीं किया गया।
6 जून, 1982 को इजराइल ने फिलिस्तीनी उग्रवादियों पर हमला करने के लिए लेबनान में घुसपैठ शुरू किया। इसमें इजराइल के समर्थन वाले मिलिशिया ने बेरुत के कैंपों में रह रहे कई सौ से अधिक फिलिस्तीनी शरणार्थियों को मार डाला।
1987 में फिलिस्तीन ने पहले इंतिफादा यानी विद्रोह की शुरुआत की। वेस्ट बैंक, गाजा पट्टी और इजराइल में हिंसक झड़पें शुरू हुईं। 1987 के पूरे साल भर तक जारी रहीं। दोनों तरफ के लोगों की जाने गईं। इसी गड़बड़ी का फायदा उठाकर इजराइल ने यरूशलम को अपनी राजधानी घोषित कर दिया। अमेरिका ने उसका तुरंत समर्थन दिया।
1993 में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की अगुवाई में छः महीनों तक चली गुप्त बातचीत के बाद इजराइल और फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन के बीच दो समझौते कराये गए। इसे ‘ओस्लो एग्रीमेंट’ का नाम दिया गया। इस एग्रीमेंट के बाद भी दोनों देशों के बीच कोई हल नहीं निकल सका।
नई शताब्दी की शुरुआत में ही 2000 में फिलिस्तीनियों की तरफ से सेकंड इंतिफादा की शुरुआत हुई। इसकी वजह से इजराइल के नेतृत्व में एरिएल शेरॉन का मुस्लिमों के लिए पवित्र मानी जाने वाली ‘अल-अक्सा’ में जाने का कारण बनी। दरअसल ईसाई और यहूदी भी इसे अपना पवित्र स्थल यानि टेंपल माऊंट समझते हैं।
वर्ष 2002 – 2004 के दौरान इजराइल ने आत्मघाती हमले की जवाबी कार्रवाई में वेस्ट बैंक में घुसपैठ कर दिया। इजराइल की इस कार्रवाई को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस ने संयुक्त राष्ट्र को बताया कि वेस्ट बैंक और गोलान हाइट्स में इजराइल का कब्जा गैरकानूनी है। लेकिन इजराइल हमेशा की तरह इस फैसले की भी अनदेखी करता रहा। इसी साल के 11 नवंबर, 2004 को पेरिस के अस्पताल में संदिग्ध परिस्थितियों में यासर अराफात की मृत्यु हो गई।
2006 को 38 सालों तक गाजा पट्टी को कब्जे में रखने के बाद इजराइली सेना, गाजा पट्टी को छोड़कर चली गई। उसके बाद ‘हमास’ गाजा पट्टी में हुए चुनावों में जीतकर सत्ताधारी पार्टी बन जाती है। आज भी दोबारा चुनाव जीत कर गाजा पट्टी पर ‘हमास’ का ही राज जारी है। जिसे आज विश्व भर का मीडिया आतंकवादी संगठन कह रहा है। एक चुनी हुई सरकार को आतंकवादी कहना उसकी संप्रभुता पर चोट है और इससे हमेशा फिलिस्तीन को गलत और इज़राइल को सही कहना आसान बन गया।
2008 में फिलिस्तीन ने इजराइल पर मिस्र द्वारा भेजी गई मिसाइलों से हमला किया। जवाबी कार्रवाई में इजराइल ने भी गाजा पट्टी पर हमला किया। और इस लड़ाई में फिलस्तीन के 1110 लोगों की जान गई। जबकि इजराइल की तरफ से 13 लोगों की मौत हुई।
2012 में इजराइल ने हमास की मिलिट्री चीफ अहमद जबारी को मार डाला। बदले में गाजा पट्टी की तरफ से रॉकेट दागे गए। इजराइल ने एयर स्ट्राइक किया। इसमें इजराइल के छः और फिलिस्तीन के 150 लोगों की मौत हुई।
2014 में हमास की मिलिट्री ने 3 इजराइली बच्चों को मार डाला। बदले में इजराइली मिलिट्री ने हमला करते हुए सात हफ्ते तक लड़ाई जारी रखी। इस लड़ाई में फिलिस्तीन के 2200, इजराइल के 67 सैनिकों और छः बच्चों की मौत हुई।
2017 अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यरूशलम को इजराइल की राजधानी घोषित कर दिया। अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से यरूशलम में स्थानांतरित करने की घोषणा कर दी।
2018 में गाजा पट्टी में जबरदस्त प्रदर्शन हुआ और इजराइली सेना के ऊपर पथराव किया गया, क्योंकि फिलिस्तीन के पास कोई हथियार नहीं था । जवाबी कार्रवाई में इजराइल की सेना ने 170 प्रदर्शनकारियों को मार गिराया।
अस्तित्व में आने के बाद से ही इज़राइल हमेशा इस प्रयास में लगा रहा की वह फिलिस्तीन के ज्यादा से ज्यादा भू-भाग पर कब्जा कर सके। वह इस उद्धेश्य में बहुत हद तक कामयाब भी रहा। मौके पर आज देखा जाय तो फिलिस्तीन के पास उसकी जमीन का 10% भाग ही बचा है। शेष भाग पर आज इज़राइल का कब्जा है।
यह भी पढ़ें…
दलितों का भूमि मांगना योगी सरकार में बना अपराध: राजीव यादव
मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस मौके का फायदा उठाकर, इजराइल गाजा पट्टी में रहने वाले सभी फिलिस्तीनियों का सफाया कर देगा। गाजा पट्टी और इज़राइल के बीच का यह युद्ध इज़राइल की गाजा को अपनी सीमा में सम्मिलित करने की रणनीति का एक हिस्सा है। पट्टी को उस इससे बेंजामिन नेतन्याहू को लोगों में उग्र राष्ट्रवाद का बुखार पैदा कर के अपनी राजनीतिक जमींन दोबारा बनाने का सुनहरा अवसर मिल जाए।
तथाकथित पश्चिमी देशों से लेकर भारत के उग्र हिन्दुत्ववादी तत्व, जिनके प्रतिनिधि वर्तमान सत्ताधारी दल और उसके साथ शामिल तथाकथित मीडिया 7 अक्टूबर के बाद लगातार इजराइल की तरफ से अपने आपको दिखाते हुए, अप्रत्यक्ष रूप से इस्लाम के खिलाफ मामला दिखाते हुए, भारत में आगामी चुनावों के अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री पद पर बैठे हुए नरेंद्र मोदी ने एक क्षण का भी इंतजार न करते हुए अपने खुद के ट्विटर हैंडल से घोषणा कर दी कि भारत इजराइल के साथ है।
और वैसे भी संघ ने भले ही हिटलर और मुसोलिनी की नकल करते हुए, अपने संगठन की स्थापना की, लेकिन 14 मई 1948 से इजराइल के वजूद में आने के तुरंत बाद चारों तरफ से इस्लामिक मुल्कों से घिरा ‘इजराइल’ मुसलमानों को ‘नाकों तले चने चबवा रहा है।’ ये बातें संघ ने इजराइल के बारे में लिखे अपने साहित्य में कही है। किसी समय में फासिस्ट मॉडल का अनुकरण करने वाले, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आज जियोनिस्ट इजराइल का हिमायती बन हुआ है। इसीलिए नरेंद्र मोदी ने बगैर कोई देर किए इजराइल के साथ होने का ऐलान कर दिया।
कोई भी लड़ाई हो या झड़प इजराइल के लिए फिलिस्तीन की बची-खुची जमींन पर कब्जा करने की रणनीति के रूप में देखा जाना चाहिए।इजराइल बहुत ही चालाकी से फिलिस्तीन के लोगों को उकसा-उकसाकर यूएनओ के किसी भी प्रस्ताव को न मनवाते हुए अपने देश का विस्तार कर रहा है। वहीं दूसरी ओर अमेरिका उसे सपोर्ट करने का काम कर रहा है।
भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे हुए इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के लिए यह युद्ध वरदान साबित हुआ। क्योंकि नेतन्याहू ने अपने भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त होने के लिए इजराइल की सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारों को कम करने का बिल पास करा लिया है।
इस वजह से इजराइल की जनता काफी समय से बेंजामिन नेतन्याहू के खिलाफ आंदोलन कर रही थी। लेकिन हमास के इस हमले से स्वाभाविक रूप से आंदोलन रुका ही नहीं, बल्कि विरोधी दलों को नेतन्याहू ने अपने पक्ष में सपोर्ट करने के लिए मजबूर कर दिया है। इसलिए मुझे इस हमले के बारे में काफी शंकाएं दिखाई दे रही है। क्योंकि हमास की निर्मिति खुद इजराइल ने ही पीएलओ के प्रभाव को कम करने के लिए स्थापित की थी।
क्योंकि अमेरिका में बैठी हुई जियोनिस्ट लॉबी सक्रिय रूप से स्थानीय स्तर पर अपनी भूमिका निभा रही है। अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति हों या डेमोक्रेटिक पार्टी के, उन्हें इजराइल की तरफ से, पचहत्तर सालों से लगातार अंधे होकर सपोर्ट करते हुए, देखा जा सकता है। वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दोनों में स्पर्धा चल रही है कि कौन सबसे ज्यादा इजराइल की तरफ से है। देखा जाय तो पूर्व के भी अमेरिकी राष्ट्रपति इजराइल को मदद देने और यूएनओ में इजराइल को बचाने के लिए, अपने वीटो का इस्तेमाल करते रहे हैं।
फिलिस्तीन के ऊपर अमरिकियों और अंग्रेजों के राज का यह एक मिला-जुला षड्यंत्र है। आज का इजराइल कुछ और है। 1907 में चाइम वाइजमैन नामक एक यहूदी केमिस्ट ने ब्रिटेन को महायुद्ध में प्रभावशाली बम बनाने के लिए केमिकल खोजकर दिया था जिसकी वजह से ब्रिटेन ने खुश होकर कहा ‘चाहें जो मांगो’ हम आपकी इस मदद के एवज में कुछ भी देने के लिए तैयार है। तो वह पहले से ही यहूदियों का बड़ा लीडर होने के नाते, उसने अपनी कौम के लिए फिलिस्तीन में राष्ट्र देने की मांग की। उस समय फिलिस्तीन ब्रिटेन के कब्जे में था। वह पहली बार फिलिस्तीन गया और वहां के इलाके में कंपनी खोला, जिससे फिलिस्तीन में इजराइल की नींव पड़ी। इसके 3 साल के भीतर एक यहूदी नेशनल फंड बनाया गया, जिससे फिलिस्तीन में यहूदियों की कालोनी बसाने के लिए जमीन खरीदी गई।
यह भी पढ़ें…
बंगाल: कुलपतियों की नियुक्ति पर बातचीत के लिए राज्यपाल ने ममता बनर्जी को आमंत्रित किया
इसके चलते ‘मर्ज बिन आमेर’ में पहली बार, 60 हजार फिलिस्तीनियों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था। विरोध के बावजूद सालों तक फिलिस्तीन में यहूदियों की घुसपैठ का सिलसिला और फिलिस्तीन के लोगों का फिलिस्तीन छोड़कर जाने का क्रम जारी रहा। 14 मई 1948 में इस इलाके में यहूदियों के लिए अलग देश इस्राइल की स्थापना हुई।
आज फिलिस्तीन के संगठन हमास ने इजराइल पर पांच हजार रॉकेट से हमला कर दिया है। इजराइल की सेना ने भी जंग के लिए ऐलान कर दिया है। ऐसी खबरें देखने और सुनने में आ रही हैं। आज से तेरह साल पहले मुझे इस भू-भाग में पहले एशियाई देशों की तरफ से अमन ओ कारवां के सदस्य के रूप में जाने का मौका मिला। मैं वहाँ गाजा पट्टी में एक सप्ताह तक रुका था।
इसलिए यह हमला मेरी समझ में नहीं आ रहा है। 20-25 लाख की आबादी वाली गाजा पट्टी में इजराइल ने बंदरगाह से लेकर एयरपोर्ट तक नष्ट कर दिए। मिलिट्री का सवाल ही नहीं पैदा होता है। जैसे अपने यहां होमगार्ड होते हैं, वैसे ही कुछ गार्ड को मैंने देखा था। सब कुछ तो इजराइल के भरोसे पानी, बिजली, संचार के साधनों से लेकर सिवेज सिस्टम सब कुछ इजराइल की मेहरबानी पर चल रहे थे। इस कारण मुझे तो वह संसद और तथाकथित गाजा पट्टी की आज़ादी एकदम नकली लगी थी।
हमें गाजा की संसद को संबोधित करने का मौका मिला है। और हमने कहा कि जब तक फिलिस्तीन की मांग धर्म से ऊपर उठकर, वियतनाम की तरह मानवीय आधार पर नही होती, तब तक फिलिस्तीन को संपूर्ण विश्व के लोगों का सपोर्ट नहीं मिल सकता। फिलिस्तीन को सिर्फ इस्लाम धर्म के लोगों का सपोर्ट देख अन्य लोगों को लगता है, कि यह तो मुसलमानों का मामला है। हमें क्या करना है? इस पर गहनता से विचार करते हुए फिलिस्तीन की मुक्ति के लिए व्यापक स्तर पर कोशिश करते हुए इस मुहिम को आगे बढ़ाना चाहिए। मैं भारत-फिलिस्तीन सॉलिडॅरिटी फोरम के अध्यक्ष के नाते आप लोगों को आश्वस्त करते हुए घोषणा करता हूँ कि फिलिस्तीन की लड़ाई अपने अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई है।इसे मानवीय आधार पर विश्व के सभी सभ्य समाज के लोगों को समर्थन देना चाहिए। मुझे खुशी है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री महमूद अब्बास ने जवाब दिया कि ‘हम आपकी बात से शत-प्रतिशत सहमत हैं और हमारे साथ गाजा पट्टी तथा वेस्ट बैंक में रहने वाले क्रिश्चियन तथा कुछ यहूदी लोग भी शामिल हैं। लेकिन अंतरराष्ट्रीय मीडिया के पश्चिमी देशों के कब्जे में होने की वजह से फिलिस्तीन की लड़ाई को इस्लाम धर्म का मामला बता प्रचार-प्रसार किया जाता है। आप अभी कुछ दिनों से गाजा पट्टी में रह रहे हैं। आपको क्या यहाँ पर सिर्फ अरब-मुस्लिम समुदाय के लोग ही दिखाई दे रहे हैं ?
गाजा पट्टी के एक तरफ कॅस्पियन समुद्र है और दूसरी तरफ से इजराइल ने 25-30 फिट ऊंची कांक्रीट की दीवारों से गाजा पट्टी को घेर रखा है। मिस्र के सिनाई रेगिस्तान से सटा हुआ एक छोटा सा भाग, जिसे रफा बॉर्डर बोला जाता है, वह विश्व भर में आने-जाने का रास्ता है। मिस्र अनवर सादात के समय से ही इजराइल के साथ शांति वार्ता करने की वजह से उसके इशारे पर नाचता है। यह नजारा हम लोग खुद अपनी आंखों से देख चुके हैं। 7 अक्टूबर को इतना बड़ा असलहा हमास के पास कैसे पहुँचा, यह मेरे लिए पहेली है ।
1917 के प्रथम विश्वयुद्ध में आटोमन साम्राज्य की हार के बाद फिलिस्तीन पर ब्रिटेन ने कब्जा कर लिया। इस समय यहां ज्यादातर आबादी अरब मुस्लिमों की थी और यहूदी अल्पसंख्यक थे। 1920-40 के दौरान यूरोपीय देशों में यहूदियों के खिलाफ भावनाएँ भड़काने का काम एक अभियान के रूप हिटलर ने किया। ब्रिटेन को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फिलिस्तीन में यहूदियों के लिए एक अलग देश बनाने का काम सौंपा गया। द्वितीय विश्वयुद्ध में हिटलर की फौज ने लाखों यहूदियों का नरसंहार किया। इस कारण विश्व की बहुत बड़ी आबादी के लोगों की सहानुभूति यहूदियों के प्रति रही है और इन्हीं परिस्थितियों का फायदा उठाकर जियोनिस्ट लॉबी ने अलाइड फोर्सेज के देशों के माध्यम से अपने अलग देश को जमीनी हकीकत में तब्दील कर दिया है। आज पचहत्तर सालों से लगातार अशांति और युद्ध की संभावना बनी हुई है। जब तक फिलिस्तीन की समस्या का समाधान नहीं होता है तब तक ऐसा ही चलता रहेगा। इजराइल ने 1948 के बाद समय-समय पर हुए हमले की वजह से लाखों की संख्या में फिलिस्तीनियों को पलायन करते हुए पड़ोसी देशों में पनाह लेने के लिए मजबूर कर दिया है। हमें बेरूत और दमास्कस के फिलिस्तीनी निर्वासित लोगों की कॉलोनियों में जाने का मौका मिला था। बहुत ही बुरी स्थिति में उन लोगों को रहते हुए देखकर मुझे उस रात को नींद नहीं आई और रात को सोने के पहले खाना भी खाने का मन नहीं हुआ। रातभर मन में सोचता रहा कि विश्व के किसी भी कौम के सामने इस तरह अपने जन्मस्थान से विस्थापन होने की नौबत नहीं आनी चाहिए। वह हमारे अपने देश के कश्मीरी पंडित हों या पिछले छः महीनों से मणिपुर के मैतेई और कुकी समुदाय के लोग हों। असली सवाल राष्ट्र-राज्य का पचड़ा है, जिसकी विश्व कवि रविंद्रनाथ ठाकुर ने बहुत पहले ही आलोचना की है और मैंने भी।
यह भी पढ़ें…
संसाधनों के बावजूद विकसित नहीं है उत्तराखंड, लगातार बढ़ रहा है पलायन
वैसे भी यहूदी पैदाइशी यरूशलम को अपना घर मानते हैं। उनका दावा है कि यह जमीन भगवान ने अब्राहम और उनके वंशजों को सौंपी थी। ऐसा उनका मानना है। और दूसरी बात वह ईश्वर के एकमात्र चुनी हुई कौम (Chosen people) है, इसी मानसिकता के लोग ज्यादातर जियोनिस्ट होते हैं। और हिटलर भी इसी मानसिकता के वजह से यहूदियों के खिलाफ रहा है। भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सबसे लंबे समय (1940-73) रहे द्वितीय संघ प्रमुख माधव सदाशिवराव गोलवलकर ने भी अपनी किताबों में अन्य धर्मों के लोगों को कमतर कहते हुए, उन्हें बहुसंख्यक समुदाय की सदाशयता के आधार पर ही निर्भर रहने का तर्क दिया है।
इजराइल के वर्तमान प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भी सांप्रदायिक जियोनिस्ट के प्रतिनिधि के रूप में कार्य कर रहे हैं। यह हमला उसके लिए राजनीतिक संजीवनी का काम करेगा, क्योंकि पिछले कई दिनों से इजराइल की जनता ने बेंजामिन नेतन्याहू पर भ्रष्टाचार के आरोपों पर घेरना शुरू कर दिया है। भ्रष्टाचार के मामलों की वजह से जनता ने इजराइल की न्यायिक व्यवस्था पर नकेल कसने का निर्णय लेने के लिए जबरदस्त विरोध आंदोलन छेड़ दिया है। वैसे भी बेंजामिन नेतन्याहू अल्पमत में हैं। बड़ी मुश्किल से वह प्रधानमंत्री के पद पर टिके हुए हैं। इस हमले के बाद इजराइल के विरोधियों ने कहा कि हम बेंजामिन नेतन्याहू के साथ हैं। मतलब इस हमले के पीछे कौन हो सकता है?
इजराइल के साथ खड़ी भारत की वर्तमान मोदी सरकार भले ही इस घटना में इजराइल के साथ खड़े होने और हमास की भर्त्सना की हो, लेकिन ज़रखरीद और भाँड़ मीडिया ट्रायल में तथाकथित रक्षा विशेषज्ञों द्वारा गाजा पट्टी के अस्तित्व को खत्म करने से लेकर फिलिस्तीन को अरबों से मुक्त कराने की वकालत करते हुए देखकर उनकी विशेषज्ञता पर सवालिया निशान लगाने के लिए मजबूर कर दिया है।