मंच पर छाने लगे
मंच पर छाने
लगे हैं चुटकुले
कौन तोडे़गा ये पथरीले किले?
हो गयीं
दुर्योधनी हैं कामनायें
अनवरत धृतराष्ट्र
जैसी भावनायें
जिनको अपना
साथ देना चाहिये था
वह चले हैं गैर का
परचम उठाये
सूर्य के वंशज भी तम से जा मिले
रख दिया गाण्डीव
अर्जुन ने किनारे
यह मेरा परिवार
इसको कौन मारे
द्रोण के संग भीष्म भी
बैठे सभा में
सर झुकाये और
हठकर मौन धारे
चल रहे फूहड़ यहाँ जो सिलसिले
शारदा सुत आज
अर्थार्थी हुये
छन्द पिंगल
तोड़कर भर्ती हुये
तालियों के मोह में
निज कर्म तज
जोकरों के वे भी
अनुवर्ती हुये
काव्य के श्रोता को ये शिकवे-गिले
मंच पर छाने
लगे हैं चुटकुले
कौन तोडे़गा ये पथरीले किले ?
सच ही बोलेंगे
हम अभी तक मौन थे
अब भेद खोलेंगे
सच कहेंगे सच लिखेंगे
सच ही बोलेंगे
धर्म आडम्बर
हमें कमजोर करते हैं
जब छले जाते
तभी हम शोर करते हैं
बेचकर घोड़े
नहीं अब और सोयेंगे
मान्यताओं का यहाँ पर
क्षरण होता है
घुटन के वातावरण का
वरण होता है
और कब तक आश में
विष आप घोलेंगे
हो रहे हैं आश्रमों में
भी घिनौने पाप
कौन बैठेगा भला
यह देखकर चुपचाप
जो न कह पाये अधर
वह शब्द बोलेंगे
आस्था की अलगनी पर
स्वप्न टॉगे हैं
ढोंगियों से जोड़कर
वरदान माँगे हैं
और कब तक ढाक वाले
पात डोलेंगे
दूर तक छाया अंधेरा
है घना कोहरा
आड़ में धर्मान्धता की
राज़ है गहरा
राज़ खुल जायेगा सब
यदि साथ हो लेंगे
हम अभी तक मौंन थे
अब भेद खोलेंगे
सच कहेंगे सच लिखेंगे
सच ही बोलेंगे
अच्छे दिन आने वाले हैं
आने वाले हैं अच्छे दिन
आने वाले है
सुनते हैं अब तो अच्छे दिन
आने वाले हैं
आखिर कब तक काम चलेगा
केवल रोटी दाल से
तिलक निर्धनी छूटेगा
कब लगा हमारे भाल से
हम भी तो अब गीत
प्रगति के गाने वाले हैं
देख यहाँ की दुनियादारी
अब हम समझे हैं
वे क्यों हैं सम्मानित
कैसे पाये तमगे हैं
यह आदर्श यहाँ के सिर्फ
दिखाने वाले हैं
बहुत दिनों में राजनीति का
अर्थ समझ पाये
काले कर्म करता है
मर्म समझ पाये
इस दुनिया में स्वारथ राग
सुनाने वाले हैं
अधरों पर होंगी मुस्कानें
जैसी हैं उनके
समरसता का मौसम आये
चलना है मिल के
काली रातें काले दिन अब
जाने वाले हैं
आने वाले हैं अच्छे दिन
आने वाले है
सुनते हैं अब तो अच्छे दिन
आने वाले हैं
कैसे हों दुख कम ?
बनी मदारी आज व्यवस्था
और जमूरे हम
बताओ कैसे हों दुख कम
बताओ कैसे हों दुख कम
बहुत दिनों से सुनते ऊबे
चिकनी चुपडी़ बातें
किन्तु अभी तक बीत न पाईं
दारुण दुख की रातें
बहरे शासन और प्रशासन
रहती आँखें नम
पशु आवारा छोड़ दिये हैं
चरने को खेती
गलती से यदि डाँटा-हाँका
तो गरदन रेती
मौन साधना में रत रहिये
चाहे निकले दम
बोल-बोलकर झूठ आज ये
हमें कहाँ ले आये
इतना बोले झूठ कि झूठे
बैठे शीश झुकाये
बूँद-बूँद सब खून पी गये
जैसे ह्विस्की रम
अभी तलक जो भी कर डाला
है उसकी बलिहारी
इससे ज्यादा और करेंगे
उसकी है तैय्यारी
कथनी-करनी ऐसी
लज्जित सारे धरम-करम
पिटी डुगडुगी अच्छे दिन की
ताक धिना धिन-धिन
लिये लबेदी नचा रहे हैं
हमको रातो-दिन
हाय बुरी होती निरीह की
बन फूटेगी बम
बनी मदारी आज व्यवस्था
और जमूरे हम
बताओ कैसे हों दुख कम
बताओ कैसे हों दुख कम
घूम रहे मुंह बाये
प्रेमचन्द के
पात्र अभी तक
घूम रहे मुंह बाये
परिवर्तन का
ढोल पीटते
थके नहीं अभिनेता
कलयुग को भी
बात-चीत में
बता रहे हैं त्रेता
झूठ बोल करके
ही सबका
मन कब से बहलाये
कहते तो हैं
गाँव-गाँव में
प्रगति हुई है भारी
फिर क्यों ‘होरी’ का
झोपड़िया में
रहना है जारी
रात-रात भर
नींद न आये
पटवारी हड़काये
बोझ कर्ज का
लदा पीठ पर
आँख दिखाये बनिया
मज़बूरी में
मज़दूरी संग
बेच रही तन ‘धनिया’
आँसू पी-पीकर
जीवन का
दर्द स्वयं सहलाये
कागज़ पर ही
दौड़ रही है
खूब योजना उजला
‘घूरू’ के घर
कई दिनों से
चूल्हा नहीं जला
कैसे पाले पेट
सभी का
कहाँ जाय मर जाये
प्रेमचन्द के पात्र
अभी तक
घूम रहे मुंह बाये
परिवर्तन चुपचाप हो गया
कानो-कान खबर ना आई
ऐसा क्रिया-कलाप हो गया
अनायास ही मौसम बदला
परिवर्तन चुपचाप हो गया
केवल बातें रहे बनाते
समझ रहे थे मूर्ख सभी को
खुद को धुला दूध का बोलें
और बतायें धूर्त सभी को
जाति-धर्म का भेद बताना
ही जैसे अभिशाप हो गया
वादे किये,किये ना पूरे
रहे उडा़ते सिर्फ बबूले
प्रजातन्त्र को घायल करके
सारी मर्यादायें भूले
देख हाल ऐसा ईश्वर के
मन में भी संताप हो गया
उड़ते रहे हवा में हरदम
धरी रह गयीं मन की बातें
काम न आईं जो समझायीं
चालें,शकुनी वाली घातें
नाज़ायज,ज़ायज बतलाया
शायद यह भी पाप हो गया
बडे़-बडे़ सपने देखे थे
लेकिन पल में चूर हो गये
ऐसी चली विरोधी आँधी
जनमत से मज़बूर हो गये
जिसे इन्होंने व्यर्थ बताया
वो ही इनका बाप हो गया
कानो-कान खबर ना आई
ऐसा क्रिया-कलाप हो गया
अनायास ही मौसम बदला
परिवर्तन चुपचाप हो गया
भाव दाल का
कैसे हाल बतायें हम
बेहाल हाल का
महंगाई का चाबुक खाकर
बैठे हैं घर में
नहीं बचा है शेष रुपइया
गया सभी कर में
धरे हाथ पर हाथ टटोलें
शिकन भाल का
डीजल,पेट्रोल,कैरोसिन
ने खीशैं है बाई
और सिलेण्डर ने झट से
तीली है सुलगाई
गया निशान नहीं है
थप्पड़ जडे़ गाल का
नून तेल लकड़ी का देखो
हाल बेहाल हुआ
उधड़ गई है खाल,खानगी
मँहगा माल हुआ
आसमान छू रहा आज है
भाव दाल का
वादे हुये खोखले सब
नेता दाँत निपोरे
लगा नये कर जनता की
जुल्मी आँत निचोरे
इनपे असर न कोई
ये पशु मोटी खाल का
राजा बैठा है गद्दी पर
धारण मौन किये
कान बंद है आँख न खोले
मद की सुरा पिये
मंत्री सारे काम कर रहे
सिर्फ ढ़ाल का
कैसे हाल बतायें हम
बेहाल हाल का
अच्छे दिन की आस
अच्छे दिन की आस लगाये
बीते वर्ष कई
कभी किसी की सुनी नहीं है
मन की बात कही
केवल भाषण दे देने से
काम नहीं चलता
तुमको क्या कुछ पता नहीं है
परेशान जनता
लाइन में ही खडे़-खडे़
कितनों की जान गई
काम धाम सब ठप्प यहाँ
कितने मोहताज़ हुये
वेतन वाले भी वेतन बिन
खाली हाथ हुये
माह नवम्बर और दिसम्बर
लगते जून मई
नियम बैंकिंग घर की खेती
आये और गये
हाथ मटक्का देता झटका
नाटक नये-नये
रोज़-रोज़ फरमान तुगलकी
चुभती हुई सुई
लेन-देन को किया कैशलेस
लोग खडे़ मुंह बाये
क्या सचमुच में पता नहीं
क्या खोये क्या पाये
तुम तो राजा मद में डूबे
परजा छुई-मुई
अच्छे दिन की आस लगाये
बीते वर्ष कई
कभी किसी सुनी नहीं है
मन की बात कही
सब वादे भूले जैसे हैं
प्रगति हुई
कुछ गाँव हमारे
बस वैसे के ही वैसे हैं
छप्पर वही
वही कोठरियाँ
इधर-उधर
लटकी पोटलियाँ
बातें रहे
बनाते हरदम
वही कहानी वाली परियाँ
नयी योजना
फिर लाए हैं
आ सकते शायद पैसे हैं
जाँचें हुईं
‘कमीशन’लेकर
खुश कर देते पट्टे देकर
खाना-पूरी
करके केवल
ग्राम सभा बंटवाए ऊसर
लागत भर
पैदा मुश्किल हो
मूढ़ बने जैसे-तैसे हैं
बस वादों के
हैं आवर्तन
युग सापेक्ष हुए परिवर्तन
धेला भर का
काम न करते
झूंठ-मूठ के महा प्रलोभन
सत्तासीन
हुये हैं जबसे
सब वादे भूले जैसे हैं
कुछ समझ न आए
सड़क रहे चप्पल से नाप
घर आकर गुमसुम पदचाप
कुछ समझ न आए
बहुत दिनों से देख रहे हैं
मौसम की मनमानी
सुनता नहीं किसी की कुछ भी
बनता है अति ज्ञानी
किस माटी के बने है आप
सिर्फ़ कमाए हैं बस पाप
कुछ समझ न आए
आटा दाल नहीं है घर में
कभी नहीं बतलाया
झूठ-मूठ के बता आंकड़े
सच्चा तथ्य छिपाया
अब तो लोग गये हैं भांप
जिसको रहे आप हैं ढाँप
कुछ समझ न आए
फैली हुई बड़ी बीमारी
घर-घर है बेकारी
बंद कर दिया है बनिया ने
देना अभी उधारी
गहराई ली उसने नाप
नहीं बन रहा है वह बाप
कुछ समझ न आए
दिये सिर्फ हैं आश्वासन के
टुकड़े बड़े-बड़े
थक कर चकनाचूर हो गये
दुखड़े खड़े-खड़े
करते राम राम हैं जाप
फिर भी कटे नहीं संताप
कुछ समझ न आए
राजा बड़ा शिकारी है
इस जंगल का
राजा भइया
बड़ा शिकारी है
उल्टा-सीधा पाठ पढ़ाकर
बाजी मारी है
मद में डूबा
रहता हरदम
पीकर मद प्याला
जिसने भी
मुंह खोला उसके
जड़ देता ताला
परजा जंगल की उसकी
चालों से हारी है
बड़े प्यार से
बतियाता है
वह दुलराता है
ज़हर घोलता है
आपस में
खूब लड़ाता है
रहता साथ मगर वह रखता
साथ कटारी है
गिरगिट जैसे
रंग बदलता
कलाकार धाँसू
झूठ-मूठ के
ढरकाता है
घड़ियाली आँसू
रग-रग में तो भरी हुई
उसके मक्कारी है
समझ गये
सब धीरे-धीरे
ढोंगी की गलती
शुरू हो गई है
ज़ुल्मी की
अब उल्टी गिनती
अब विरोध में उसके दिखता
जनमत भारी है
चिड़िया हैं सहमी
अफरा-तफरी मची हुई है
है गहमा-गहमी
आतंकी ने पाँव पसारे
चिड़िया हैं सहमी
दूर देश से यात्रायें यह
करके आया है
शायद गलती करके हमने
इसे बुलाया है
सारी दुनिया हुई प्रभावित
केवल नहीं हमी
कट जाता दिन किसी तरह तो
रात नहीं कटती
मन को मारे व्यथित-व्यथायें
आपस में लड़ती
संग में रहने वाले कहते
हुये आप बहमी
परेशान हो अनगिन पैदल
सड़के नाप रहे
सुनता नहीं एक भी कोई
किससे कथा कहें
बद से बदतर हाल हुआ है
रहम करो रहमी
थक कर चूर हुई मज़बूरी
मंजिल की दूरी
हवा-हवाई, इंतजाम हैं,
दे रहे सबूरी
कितने हैं परलोक सिधारे
आम कटे कलमी
दान-दक्षिणा हज़म किया सब
बैठे हैं ख़्वाजा
बिषम समय में ऊपर से कर
ठोंक रहा राजा
पानी सर से ऊँपर गुज़रा
जुल्म ढाय जुलमी
अफरा-तफरी मची हुई है
है गहमा-गहमी
आतंकी ने पाँव पसारे
चिड़ियां हैं सहमी
जयराम जय हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि और गीतकार हैं। देश की सभी स्तरीय पत्र पत्रिकाओं निरंतर रचनाएं प्रकाशित। कई साझा संकलनों में प्रकाशन। फिलहाल कानपुर में रहते हैं।