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सोनभद्र के साहित्यिक गेटवे

सोनभद्र यात्रा – 2 उम्मीद करता हूँ कि सोनभद्र की मेरी इस यात्रा की पहली शृंखला अब तक आप पढ़ चुके होंगे नहीं पढे हैं तो नीचे दिए लिंक पर जाकर इसे देख सकते हैं। मैंने पहली बार मुनीर बख्श आलम को जाना और चकित रह गया गतांक का अंतिम अंश …. मुनीर बख्श आलम […]

सोनभद्र यात्रा – 2

उम्मीद करता हूँ कि सोनभद्र की मेरी इस यात्रा की पहली शृंखला अब तक आप पढ़ चुके होंगे नहीं पढे हैं तो नीचे दिए लिंक पर जाकर इसे देख सकते हैं।

मैंने पहली बार मुनीर बख्श आलम को जाना और चकित रह गया

गतांक का अंतिम अंश ….

मुनीर बख्श आलम को अब उस निगाह से देखना था जो वह वास्तव में थे। एक ऐसे इंसान जो आज भी अपने इत्र और इलायची की खुश्बू की तरह अपने चाहने वालों के दिल में मौजूद हैं। यह मौजूदगी हर कोई अपनी तरह महसूस करता है। अजय शेखर उन्हें याद करते हैं तो थोड़ा और बूढ़े हो जाते हैं, डॉ अर्जुन दास केसरी याद करते हैं तो स्मृतियों की छुअन आंखों की कोर तक आ जाती है, रामनाथ शिवेंद्र के पास लंबे सफर के कई किस्से हैं, ‘कभी सायकिल तुम चलाना कभी साइकिल मैं चालाऊंगा, गिरें तो तुम मुझको उठाना मैं तुमको उठाऊंगा’ टाइप के भी शहर को संवारते रहने के भी, से लेकर बहू के अचार बेटियों के प्यार तक के बहुत से किस्से हैं। जिससे किस्तवार मैं आपको रूबरू कराऊंगा अगली किस्त में।

गतांक से आगे ….

मंच पर आमंत्रित अतिथि और वक्ता अपना आसान ग्रहण कर चुके थे, कार्यक्रम के संचालक जगदीश पंथी ने मुनीर बख्श आलम और हिन्दू देवी सरस्वती पर पुष्पार्पित करने के लिए अतिथियों से आग्रह किया। फूल समर्पित हुआ दीप प्रज़्ज्वलित हुआ। स्थानीय युवा कवियत्री अनुपमा वाणी ने सरस भाव से सरस्वती की वंदना की। हिन्दुत्व के हर प्रतीक से मुसलमान शायर को याद किया जाना एक नए काव्यात्मक छंद का रूपक बन रहा था। इस कौतूहल का उत्तर किसी और से पूछता कि उससे पहले ही अतिथियों के स्वागत वक्तव्य के लिए आए कार्यक्रम संयोजक रामनाथ शिवेंद्र ने स्वागत वक्तव्य के साथ जब कमोबेश आयोजन पर अपना आधार वक्तव्य रखा तब सहज ही समझ में आ गया कि यहाँ पर शेष दुनिया में देखे जा रहे धार्मिक विभाजन के रंग में गहरे तक रंग चुके चश्मे को उतार कर रखना होगा और एक नई आँख से सब कुछ देखना होगा। रामनाथ शिवेंद्र ने अपने वक्तव्य में जो प्रश्न उठाया वह उनकी तरफ से भले ही प्रश्न था पर मेरे लिए उत्तर की तरह था। उन्होंने पूछा कि, ‘क्या हमारा सामाजिक विज्ञान यह अनुमति देता है कि कोई सबका प्रिय हो जाए?’ इसके बाद उन्होंने मेरे अंदर ध्वनित हो रहे तमाम प्रश्नों का उत्तर खुद ब खुद ही दे दिया। उन्होंने कहा कि, ‘आलम साहब का व्यक्तित्व बहुत बड़ा था।  वह अपने अन्दर के सृजक को मनुष्यता से इतर कुछ भी नहीं बनाना चाहते थे। जाति, धर्म के बँटवारे में उन्होंने खुद को कभी भी बंटने नहीं दिया। वह सियासत के साथ, धर्म के साथ नहीं बल्कि हमेशा अपने लोगों के साथ खड़े दिखते हैं। यह अपने लोग किसी निश्चित जाति, मजहब के आधार पर अपने नहीं हैं बल्कि वह देश के हर उस मनुष्य को अपना मानते थे जो किसी विभाजन के दायरे में अपने समाज को नहीं देखता था। यही वजह है कि राबर्ट्सगंज ही नहीं बल्कि देश और देश के बाहर भी वह साझी विरासत के पैरोकार की तरह दिखते हैं।’

रामनाथ शिवेंद्र की इन बातों से मुझे एक रास्ता मिल गया था। अब शेष लोगों की धारणा में मुनीर बख्श आलम किस तरह रचे-बसे हुये हैं उसे देखना, सुनना और समझना था।

शिवेंद्र जी के स्वागत वक्तव्य के बाद मुनीर बख्श आलम स्मृति सम्मान से कवि ओम धीरज को नवाजा जाना था। आयोजन की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार अजय शेखर और मुख्य अतिथि डॉ अनिल मिश्र ने हार, शाल और नकद ग्यारह हजार रुपये देकर उन्हें सम्मानित किया। मुख्य सम्मान के साथ उनकी स्मृति में ही प्रतिभा सम्मान युवा गीतकार और कवि प्रभात सिंह चंदेल को तथा सेवा सम्मान नसीम बेगम को प्रदान किया गया।

इसके बाद वरिष्ठ साहित्यकार नरेंद्र नीरव ने मुनीर बख्श आलम के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बात करते हुये कहा कि वह हमारे समय के ऐसे शायर थे जो भाषा के बीच कोई अलगाव नहीं करते थे। उन्होंने यथार्थ गीता के अनुवाद का जिक्र करते हुये कहा कि वह आध्यात्मिक सोच के व्यक्ति थे। हिन्दी के साथ संस्कृत और उर्दू पर भी उनका दखल था। यह साझा सिर्फ भाषा में ही नहीं बल्कि उनके पूरे जीवन में दिखता था। अन्य वक्ताओं ने भी उनके इस पक्ष को इतने वेग के साथ रखा कि यह समझ में आ गया कि मुनीर बख्श आलम राबर्ट्सगंज की एक ऐसी शख्शियत थे जो धर्म जाति से ऊपर उठ कर अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को रचा था।

मुनीर बख्श आलम स्मृति सम्मान से सम्मानित होने वाले वरिष्ठ नवगीतकार ओम धीरज ने उन्हें मनुष्यता की तलाश करने वाले कवि के रूप में उल्लेखित करते हुये कहा कि जाति, धर्म जैसी लघुता वाली सोच उनके जीवन के किसी हिस्से में कभी दिखती ही नहीं थी।

कीनाराम महाविद्यालय के प्राचार्य गोपाल सिंह ने कहा कि आलम साहब बहुतों के आलम थे। उन्होंने कहा कि मुनीर साहब ने राबर्ट्सगंज में साहित्य का ऐसा बिरवा लगाया कि आज वह वट वृक्ष बन गया है। उन्होंने आलम साहब के व्यक्तित्व का जिक्र करते हुये कहा कि वह सब से इतनी मुहब्बत से मिलते थे कि सब को यह भ्रम हो जाता था कि वह सिर्फ उसे ही इतनी मुहब्बत करते थे। इसके साथ उन्होंने उनकी कविताओं में मौजूद प्रतिरोध का भी जिक्र किया तथा सम्मानित होने वाले कवि ओम धीरज के व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डाला।

इस अवसर पर रामनाथ शिवेंद्र रचित साहित्य की समीक्षा पर आधारित पुस्तक ‘अप्रत्याशित’ का विमोचन भी हुआ। इस पुस्तक के माध्यम से उनकी कहानी और उपन्यासों की सारगर्भिता को समझने में मदद मिलेगी। इस पुस्तक का संकलन अमरनाथ ’अजेय’, प्रद्युमन कुमार त्रिपाठी और प्रभात सिंह चंदेल द्वारा किया गया है।

मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद डॉ अनिल मिश्र ने संस्मरणों और अनुभूति की स्मृतियो के सहारे उन्हें याद किया और रावर्ट्सगंज के युवा साहित्यकारों को दिशा दिखाते हुये इस बात की जरूरत पर ज़ोर दिया कि मुनीर बख्श आलम के व्यक्तित्व और कृतित्व से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। मुनीर बख्श आलम की लाइन ‘किसको आती है मसीहाई, किसको आवाज दूँ’, के हवाले से वह कहते हैं कि, ‘हम अगली पीढ़ी को क्या सौंपते हैं यह तय करता है कि हम क्या हैं। डॉ मिश्र उन्हें एक विशिष्ट सर्जक के रूप में याद करते हैं। डॉ मिश्र की वार्ता में एक बेचैनी दिखती है वह दिनों-दिन खराब होते सामाजिक सरोकार के प्रति गंभीर चिंता जाहिर करते हैं। उनको सुनना अच्छा लगता है। उनकी फिक्र अच्छी लगती है। वह सोनभद्र कि अपनी मिट्टी से जुड़े रहने के प्रति संवेदना से भरे नजर आते हैं। एक ओर जहां वह आध्यात्मिक चेतना की पक्षधरता करते दिखते हैं वहीं दूसरी तरफ वह खुद को प्रतिरोध की आवाज बनाने से भी पैर पीछे नहीं खींचते।

सोनभद्र के वरिष्ठ साहित्यकार अजय शेखर

आयोजन की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार अजय शेखर, जो कि मुनीर साहब के अच्छे मित्र भी थे वह किसी कवि लेखक को नहीं बल्कि अपने दोस्त मुनीर को याद करते हैं, उन स्मृतियों के हिलकोरे में तमाम तरह से मुनीर बख्श आलम का अक्श नजर आता है। प्रभात सिंह चंदेल के कहा कि अगर हम उनको ढूँढे तो वह अपनी किताबों में मौजूद दिखते हैं। अन्य वक्ताओं ने भी शिद्दत और संवेदना के साथ आलम साहब के प्रति अपनी शब्दांजलि दी और इस तरह से आयोजन का पहला सत्र समाप्त हुआ।

भोजनवकाश के बाद दूसरा सत्र शुरू हुआ, यह सत्र थोड़ा बिखरा-बिखरा और उदास करने वाला था। ऐसा नहीं था कि कोई आयोजकीय चूक थी बल्कि दुखद यह था कि बहुत से कवि बस उस समय का इंतजार कर रहे थे कि उन्हें कविता पाठ का आमंत्रण मिले और वह सुनाकर रुखसत हों। कोई किसी और को सुनना नहीं चाहता बस सब, सबको सुनाना चाहते हैं। फिलहाल इस सत्र में सूर्य प्रकाश मिश्र की कविता ‘सरसों फूले या अमलताश, बेकार लग रही है हर क्यारी, केवल रोटी का एक रंग, सारे रंगों पर है भारी’ और ‘करना मानवता की बातें चुप रह कर ईश्वर मत बनना, तथा ‘तेंदू पत्ते भी नए-नए हैं, समरथिया भी नई-नई है’ जैसी जरूरी और सामाजिक न्याय की पक्षधर कविताओं के माध्यम से काव्यमंच को जरूर एक नई ऊंचाई बख्शी, लखन राम ‘जंगली’ की कविताओं ने वंचित समाज के कठिन जीवन को दृश्यमान करने का काम किया। कवियों की एक लंबी शृंखला थी जिनमें कुछ अच्छी और जरूरी कवितायें भी सुनने का मौका मिला। युवा कवयित्रियों की हिस्सेदारी भी नई उम्मीद का उजास दे रही थी। एक छोटे से शहर में कविता का यह थोड़ा कच्चा, थोड़ा पक्का साझा देखना इस लिहाज से जरूर सुखकर लगा कि एक छोटा सा शहर साहित्य को बचाने और स्मृतिशेष रचनाधर्मियों को याद करने के प्रति इस तरह से संवेदनशील है। काव्यमंच के संचालक दीपक पटेल को विस्मृत नहीं किया जा सकता, ऊर्जावान तरीके से उन्होंने आयोजन की भवितव्यता बढ़ाने का पूरा और अच्छा प्रयास किया।

फिलहाल आयोजन सम्पन्न हो चुका था। अब मैं पूरी तरह से कथाकार रामनाथ जी के हवाले था, उन्होंने साधिकार मेरे होटल में रुकने को खारिज कर दिया था। उनके साथ उनके घर गया, जहां उनकी धर्मपत्नी जी थीं, उनसे मिलना एक बहुत ही अलग सा अनुभव था। थोड़ी देर की बातचीत के बाद बस ऐसा लगा कि जैसे मैं अपने घर आ गया हूँ। उम्र पर बुढ़ापा शायद देखा तो जा सकता है पर उस पर विश्वास करना सहज नहीं था। ममता और अगाध वात्सल्य से भरी हुई वह सिर्फ ‘माँ’ थीं। यह सिर्फ मेरे लिए ही नहीं था, वहाँ और भी कुछ लोग मौजूद थे, सबके प्रति उतनी ही ममता। उनके हाथ की बनी सब्जी रोटी का स्वाद और उसमें समाहित वात्सल्य   कभी न भूली जा सकने वाली स्मृति का हिस्सा रहेगा।

रामनाथ शिवेंद्र और उनकी धर्म पत्नी के साथ कुमार विजय

देर तक शिवेंद्र जी से सोनभद्र के साहित्य, समाज और आर्थिक भौगोलिक विषयों पर बातचीत होती रही। मैं उनसे उनके साहित्य पर बात करना चाहता था, पर वह उन तमाम चिंताओं पर ज्यादा बतियाना चाहते थे जो समय को, समाज को विघटित कर रही हैं। सामाजिक न्याय के प्रश्न उन्हें किस कदर परेशान कर रहे हैं, यह सहज ही बताता है कि उम्र के सात दशक पार करने के बाद भी उनकी सामाजिक चेतना पर कहीं कोई कमी नहीं आई है। यह शायद उनकी इसी चेतना और ऊर्जा का पर्याय था कि एक छोटे से शहर में उन्होंने साहित्य का एक बड़ा आयोजन किया और साझी विरासत, धर्मनिरपेक्ष परंपरा और लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने और परिष्कृत करने में अहम योगदान दिया।

फिलहाल इतनी यात्रा के बाद रात गहरा आई है और कल सुबह इस शहर के कुछ विशिष्ट लोगों से भी मिलना है। डॉ अर्जुन दास केशरी जैसे लाइव लीजेंड से मिले बिना भला कैसे लौटा जा सकता है। यहाँ के ग्रामीण जीवन और सामाजिक अर्थव्यवस्था को भी उसके पूरे खुरदुरे पन के साथ महसूस करना है। मुनीर बख्श आलम साहब के उस घर भी जाना है जहां से उन्होंने साझी विरासत की आवाज बुलंद की। उनके परिवार से भी मिलना है। उस इत्र की खुशबू भी मसूस करनी है जिसका जिक्र बहुतों ने किया है।

शेष अगले अंक में ….

कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के एसोसिएट एडिटर हैं। 

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2 COMMENTS
  1. Bahut hi mahatvapoorn aalekh Sonebhadra aur Munir bakhsh Alam ke sandarh se aapne n sirf aaj ke samay ki pertein kholi hain,beete ya beet chale samay ke sath use jis tarah paribhashit kiya hai woh aapki soch ko udghatit karta hai.

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