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मैंने पहली बार मुनीर बख्श आलम को जाना और चकित रह गया

सोनभद्र यात्रा-1 सोनभद्र। कुछ कीर्तिशेष स्मृतियाँ कभी-कभार अपने कच्चे-पक्के आँगन में कुछ बोलने-बतियाने के लिए बुलाती हैं। ऐसी ही स्मृति से जुड़ने, लोगों के अंदर बसे उनके ख्यालात से रूबरू होने का एक बेहतरीन मौका मुझे भी मिला 22 अक्टूबर को। सोनांचल के रूप में प्रसिद्ध सोनभद्र के राबर्ट्सगंज से एक कार्यक्रम का आमंत्रण था। […]

सोनभद्र यात्रा-1

सोनभद्र। कुछ कीर्तिशेष स्मृतियाँ कभी-कभार अपने कच्चे-पक्के आँगन में कुछ बोलने-बतियाने के लिए बुलाती हैं। ऐसी ही स्मृति से जुड़ने, लोगों के अंदर बसे उनके ख्यालात से रूबरू होने का एक बेहतरीन मौका मुझे भी मिला 22 अक्टूबर को। सोनांचल के रूप में प्रसिद्ध सोनभद्र के राबर्ट्सगंज से एक कार्यक्रम का आमंत्रण था। राबर्ट्सगंज के मरहूम शायर मुनीर बख्श आलम की स्मृति में आयोजित इस कार्यक्रम के मुख्य संयोजक हिन्दी साहित्य के कथाकार रामनाथ शिवेंद्र जी की तरफ से बुलावा था। इस कार्यक्रम में जहां शायर मुनीर बख्श आलम को याद किया जाना था वहीं उनके नाम पर समकालीन रचनाधर्मी ओम धीरज को मुनीर बख्श आलम स्मृति सम्मान (चतुर्थ) से सम्मानित भी किया जाना था। कार्यक्रम के दूसरे सत्र में कवि सम्मेलन भी था।मुनीर बख्श आलम का नाम जुड़ा होने से इस कार्यक्रम के प्रति एक अलग उत्सुकता थी। दरअसल मुनीर साहब हिंदवी के बड़े कवि और शायर तो थे ही इससे इतर वह स्वामी अड़गड़ानन्द लिखित यथार्थ गीता के अनुवादक के रूप में भी जाने जाते हैं।

धार्मिक घृणा और नफरत के इस दौर में जब भाषा का भी विभाजन धर्म के आधार पर किया जा रहा हो तब मैं बहुत उत्सुकता के साथ मरहूम मुनीर बख्श आलम साहब को समझना चाहता था कि आखिर कैसे वह अपनी धार्मिक पहचान को बरकरार रखते हुये इस दूरी को लांघ पाये होंगे कि हिन्दू धर्म के धार्मिक सरोकारों की एक किताब को उर्दू और अरबी के पाठकों तक पहुंचाना चाहते थे। वह कई सालों तक आध्यात्मिक पत्रिका दिव्यप्रभा के प्रधान संपादक भी रहे थे। कौमी नफरत के दौर में यह सब थोड़ा चकित करता है। यही वजह थी कि मैं उनके घर-परिवार और अदब की दुनिया के उन करीबियों की राय जानना चाहता था कि आखिर मुनीर बख्श आलम किस तरह से दो धर्मों के बीच बिना किसी भेदभाव के संबंध सूत्र बने हुये थे। किस तरह आज भी राबर्टसगंज के लोग उन्हें अपने दिल में बसाये हुये हैं। उनकी बातों का जिक्र करते हुये आज भी लोग कहते हैं कि मुनीर बख्श आलम हिन्दू मुसलमान में कभी बंटे ही नहीं वह हमेशा सिर्फ और सिर्फ इंसान होने के लिए व्यग्र रहे।  मैं चाहता था कि साझी विरासत के इस पैरोकार को कुछ और करीब से जानूं और यह यदि संभव हो तो उस सूत्र की भी तलाश करूँ जिसके सहारे आज के समय में, समय की कायनात बनती घृणा को थोड़ा कमतर करने में मदद मिल सके।

सोनभद्र का प्राकृतिक सौंदर्य

यह बड़ी उम्मीद उस आदमी से थी जिससे अब कभी भी सीधा रूबरू होना संभव नहीं था अब सिर्फ उन्हें पन्नों पर लिखी इबारत और लोगों के दिल-ओ-जेहन में कैद उनकी स्मृतियों के सहारे महसूस किया जा सकता था। मुनीर बख्श आलम स्मृति आयोजन के बहाने मैं वाराणसी से राबर्टसगंज(सोनभद्र) के लिए चल पड़ा। कुछ मित्रों की वजह से सोनभद्र आभासी सरोकार के दायरे में जरूर था पर सीधे सरोकार का मेरे लिए यह पहला मौका था। फिलहाल सुबह 8 बजे बस में बैठ गया और राबर्टसगंज के लिए चल पड़ा। सफर की शुरुआत तो बस हर सफर जैसी ही हुई थी पर ‘बस’ जब मिर्जापुर पारकर सोनभद्र की सीमा में प्रवेश की तब सफर का अंदाज बदलता हुआ सा महसूस होने लगा। सड़क के दोनों ओर दूर-दूर तक पहाड़ और हरियाली गलबहियाँ करते हुये सुबह की गुनगुनी धूप में जैसे बदन सेंकते हुये, लेटे हुये से महसूस हो रहे थे। सच कहूँ तो प्रकृति को इतनी रूमानी इससे पहले कब देखा था यह अब ठीक से याद भी नहीं हैं। तकरीबन 20 किलोमीटर की यात्रा पहाड़, नदी और छोटी-छोटी घाटियां निहारते हुये चली होगी कि सौंदर्य का यह स्वप्न बिखरता हुआ सा महसूस होने लगा। सड़कों से लगी घाटियों की बस्ती में बसा हुआ जीवन जिसे दूर से देखते हुये यह महसूस हो रहा था कि इनकी भागीदारी उस सारकारी नारे में अब तक नहीं हुई है जिसमें सबका साथ और सबका विकास गूँजता रहता है। यह लोग अभी किसी विश्वगुरू की आभासी दुनिया का हिस्सा नहीं बने हैं। इनके अतीत का रेखाचित्र कुछ भी हो पर भविष्य की उम्मीदें हर रोज उगते सूरज के साथ उगती होंगी और डूबते सूरज के साथ खत्म भी हो जाती होंगी। घर के नाम पर बस मिट्टी और पत्थर से बने खपरैल वाली छत के छोटे-छोटे घर। फिलहाल प्रकृति जहाँ अपने सौंदर्य से आकर्षित कर रही थी वहीं यह भी दिखने लगा था कि यहाँ बहुसंख्यक आवादी आज भी एक कठिन जीवन जी रही है।

देखे हुये दृश्य मन में सहेजते-संजोते हुये 11:30 बजे राबर्ट्सगंज पहुँच गया। उत्तर प्रदेश के एक ऐसे जिले में जहाँ लोक का वैभव कलाओं में भरपूर दिखता है पर बहुसंख्यक लोक का जीवन अभाव और वंचना का जिंदा दस्तावेज़ बना हुआ दिख रहा था। मेजबान शहर से राबिता कायम करने के लिये सबसे पहले गर्मा गरम चाय की जरूरत महसूस हो रही थी। इसलिए सीधे एक दुकान की तरफ बढ़ गया। बोतलबंद पानी में स्थानीय स्वाद भले ही नहीं था पर चाय जिस कुल्हड़ में मिली उसकी महक और रंगत थोड़ी अलग सी थी। जिसकी वजह से चाय के स्वाद में स्थानीयता की खुश्बू अच्छी लग रही थी। एक चाय के साथ शहर से जान पहचान हो गई थी और अब बारी थी रिस्ते की डोर बांधने की। रामनाथ शिवेंद्र जी को फोन किया कि आप द्वारा  बताई गई जगह पर आ गया हूँ। उन्होंने बगल में स्थित लोटस वैंक्वेट हाल आने का मार्ग बता दिया और अगले चार मिनट बाद मैं उस आयोजन की दहलीज के भीतर था जिसके लिए निकला था। शिवेंद्रे जी ने बड़ी आत्मीयता के साथ स्वागत किया। मुझे उम्मीद थी की कार्यक्रम अब तक शुरू हो चुका होगा पर इत्तफाक से अभी मुख्यअतिथि के आने की प्रतीक्षा हो रही थी। फिलहाल शिवेंद्र जी ने हाथ थाम लिया था और सीधे कॉफी टेबल पर लेकर चले गए, आयोजक के तौर पर उनकी अपनी व्यस्तताएं भी थी इसलिए उन्होंने युवा शायर प्रभात सिंह चंदेल से मुलाक़ात करवा दी। दोनों ही लोगों से मेरी रूबरू यह पहली मुलाक़ात थी पर शिवेंद्र जी ने बस क्षणांश में ही उस अपरिचयबोध को खत्म कर दिया था। कॉफी खत्म होते-होते मुख्य अतिथि डॉ अनिल मिश्र भी आ चुके थे। डॉ अनिल मिश्र का सरोकार साहित्य, विज्ञान और आध्यात्म तीनों से बराबर का दिखता है। फिलहाल वह आज जब अपने गृह जनपद के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में आए थे तब वह पूरी शिद्दत से  उन पुराने सम्बन्धों को दोहरा लेना चाहते थे जिनके बीच वह पले बढ़े थे। शहर और मुख्य अतिथि की गलबन्हियाँ चल ही रही थी कि कार्यक्रम के संचालक जगदीश पंथी ने संचालन के लिए मंच संभाल लिया। मैं भी पहले लाल कुल्हड़ की चाय और अब एक गर्म कॉफी पीने के बाद खुद को तरोताजा महसूस करते हुये श्रोता भाव से बैठ गया था।

मुनीर बख्श आलम स्मृति सम्मान प्राप्त करते कवि ओम धीरज

कार्यक्रम में अध्यक्ष के रूप में शहर के वरिष्ठ साहित्यकार अजय शेखर मंच पर आमंत्रित किए जा चुके थे। इसके बाद मुख्य अतिथि डा अनिल मिश्रा,  विशिष्ट अतिथि इंद्रदेव सिंह, संत कीनाराम पीजी कॉलेज के प्राचार्य डॉ गोपाल सिंह, राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित सेवानिवृत्त शिक्षक ओमप्रकाश त्रिपाठी तथा चतुर्थ मुनीर बख्स आलम स्मृति सम्मान से स्म्मानित होने वाले साहित्यकार व पूर्व अपर मंडलायुक्त ओम धीरज आदि मंच पर आमंत्रित किए गए। दरअसल मुझे उम्मीद थी की इस आयोजन में कुछ मुस्लिम या फिर उर्दू अदब में दखल रखने वाले साहित्यकार भी मौजूद होंगे पर यह उम्मीद अब खारिज हो चुकी थी। मुनीर बख्श आलम के परिवार के लोग जरूर वहाँ मौजूद थे। मुझे खुद पर भी थोड़ा गुस्सा आ रहा था कि क्यों धार्मिक चश्में से लोगों को देखने की कोशिश कर रहा हूँ, पर यह नया अनुभव था जिसे मैं तुरंत स्वीकार नहीं कर पा रहा था। धार्मिक विभाजन की दूरियाँ इतनी बढ़ चुकी हैं कि यह सहज स्वीकार करने का मन ही नहीं हो रहा था कि नेपथ्य से दीर्घा तक सब हिन्दू ही हैं।

बहुत देर तक इस उलझन में मुझे नहीं रहना पड़ा। अब जिस तरह से मंच के वक्ता मुनीर बख्श आलम को याद कर रहे थे उससे महसूस होने लगा था कि मैं इस आयोजन में उस चीज की तलाश कर रहा हूँ जिससे मुनीर बख्श आलम का कभी कोई सरोकार ही नहीं था। मुनीर बख्श आलम को अब उस निगाह से देखना था जो वह वास्तव में थे। एक ऐसे इंसान, जो आज भी अपने इत्र और इलायची की खुश्बू की तरह अपने चाहने वालों के दिल में मौजूद हैं। यह मौजूदगी हर कोई अपनी तरह महसूस करता है। अजय शेखर उन्हें याद करते हैं तो थोड़ा और बूढ़े हो जाते हैं, डॉ अर्जुन दास केसरी याद करते हैं तो स्मृतियों की छुअन आंखो की कोर तक आ जाती है, राम नाथ शिवेंद्र के पास लंबे सफर के कई किस्से हैं, ‘कभी सायकिल तुम चलाना कभी साइकिल मैं चालाऊंगा, गिरें तो तुम मुझको उठाना मैं तुमको उठाऊंगा’ टाइप के भी और  शहर को संवारते रहने के भी, से लेकर बहू के अचार और बेटियों के प्यार तक के बहुत से किस्से हैं। जिससे किस्तवार मैं आपको रूबरू कराऊंगा अगली कुछ किश्तों में।

फिलहाल आपके लिए मुनीर बख्श आलम के कुछ मुक्तक –

राजनीति का किस तरह चलता कारोबार।

जलती हुई मिसाल है यह दिल्ली सरकार॥

जिधर देखिये उस तरफ मची हुई है लूट.

कहीं किसी का डर नहीं शासन से है छूट॥

शेष अगले अंक में ….

कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के एसोसिएट एडिटर हैं। 

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