Thursday, November 21, 2024
Thursday, November 21, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमराजनीति2024 का लोकसभा चुनाव : संख्या के भंवर में बहुमत का खेल...

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

2024 का लोकसभा चुनाव : संख्या के भंवर में बहुमत का खेल और भविष्य की राजनीति

भाजपा की राजनीति ने सिर्फ लोगों के अन्दर चिंगारियां भरने का काम किया है। इसलिए हमें ऐसी राजनीति से परहेज करना चाहिए और समता मूलक समाज की स्थापना में अपना योगदान देना चाहिए। गांधी की यात्राएं कांग्रेस को गांव-गांव तक पहुंचा देने और वहां संगठन खड़ा कर देने में बदल गईं। एक जनवादी आंदोनल के लिए इस तरह की यात्राएं बहुत ही जरूरी हैं। जब ऐसी यात्राएं बंद होती हैं तो जनसंगठन और पार्टियाँ लोगों को विनाश की ओर ले जाती हैं ।

इस बार का लोकसभा चुनाव क्रिकेट के खेल की तरह सट्टा बाजार की भेंट चढ़ गया। ऐसा नहीं है कि सटोरिये खुद क्रिकेट खेलते हैं। लेकिन, वे यह जरूर देखते हैं कि उस टीम का संरक्षक, कैप्टन कौन हैं और उसके पास पैसा कितना है। इसके बाद वे मैदान में बैठे दर्शकों का मूड आंकतें हैं और फिर मौसम में हवा की नमी और आकाश का ताप नापते हैं। खिलाड़ियों के मैदान में उतर जाने के बाद मुख्य सटोरिये अपने पक्ष में माहौल बनाते हैं और सट्टेबाजों को अपने पक्ष में पैसा लगाने के लिए उकसाते हैं। खेल शुरू होने के पहले मुख्य सटोरिये जहां होते हैं, वे खेल के अंत तक वहीं बने रहते हैं। उनका डूबना मरना वहीं होता है। हां, एक लंबे अनुभव के बाद वे जरूर अपना पाला बदल लेते हैं और जिस ओर खड़े रहते हैं उसे उजाड़ छोड़कर चल देते हैं। उनका मकसद सिर्फ पैसा कमाना होता है, खेल उनके जीवन का हिस्सा नहीं होता है।

इस बार जब लोकसभा चुनाव का दूसरा ही दौर खत्म हुआ था, भाजपा ने रणनीति बदलनी शुरू कर दी। शेयर बाजार में इसी समय से एक बेचैनी को देखी जाने लगी। तीसरे चरण में जब मोदी ने भारत के इतिहास का सबसे आक्रामक और विभाजनकारी अभियान शुरू किया, तब भी वहां की बेचैनी खत्म नहीं हो रही थी। भाजपा 400 पार के दावे से जैसे ही नीचे आई, शेयर बाजार भी नीचे आने लगा। खासकर विदेशी वित्त निवेशकों ने पैसा निकालना शुरू कर दिया। चुनाव के नीति-निर्देशों की वजह एग्जिट पोल इस समय तक जारी नहीं हो सकता था। ऐसे में, प्रशांत किशोर जैसे चुनाव विश्लेषकों को उतारा गया जिससे शेयर बाजार की बेचैनी को शांत किया जा सके। अंतिम चरण के चुनाव आने तक महौल बेहद तनाव भरा हो गया था। ‘लाइव’ के कैप्शन के साथ चुनाव खत्म होने और एग्जिट पोल को सामने लाने की बेसब्री देखी जा सकती थी। अंतिम चरण के चुनाव खत्म होने के कुछ ही समय बाद भाजपा को 300 पार, 400 पार कराने की होड़ लग गई। लेकिन, जब खुद प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने इस एग्जिट पोल के अनुमानों पर अपनी पक्की मोहर लगा दी और शेयर बाजार के ऊंचा होने और वहां पैसा सुरक्षित होने पर मुहर लगा दी तब शेयर बाजार आसमान छू लिया। लेकिन, 4 जून की शाम होते होते शेयर धारकों के लाखों करोड़ रूपये डूब गये थे। भाजपा बहुमत से पीछे चल रही थी और पक्की सरकार की जगह समर्थन पर आधारित एक कच्ची सरकार ही अब हकीकत बन चुकी थी।

भारत के इतिहास में इस तरह का यह पहला चुनाव था जिसमें खुद प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और खुद वित्तमंत्री शेयर बाजार और उसकी खरीद पर बयान दे रहे थे। चुनाव के विविध चरणों में जब शेयर बाजार के सटोरिये, दलालों की गतिविधियों से उठान और गिरान के हिचकोले खा रहा था और आम शेयर धारकों की कमाई और बचत पर खुलकर सट्टेबाजी कर रहा था तब भारत के शीर्ष पदों पर बैठे हुए नेतागणों के बयान सिर्फ अभूतपूर्व नहीं, आगामी राजनीति की परतें खोल रहे थे। भारत की राजनीति में यह पहला खुला हुआ ‘वित्तीय संस्थाओं’  और भारत के शीर्ष नेताओं का यह पहला खेल था। सटोरिये और दलाल भारत की राजनीति में बहुमत का खेल खेल रहे थे। राजनीति इसके लिए खुल जमीन मुहैया करा रही थी। यह भारतीय राजनीति में चरम प्रतिक्रियावाद की पहली अभिव्यक्ति थी। इसमें लाखों शेयर धारकों सिर्फ पैसा ही नहीं डूबा, उसकी राजनीतिक समझ भी डूब गई। पैसे और राजनीति के बीच हुए इस खेल में ‘लोकतंत्र’ का राजनीतिक आदर्श और विचारधारा का अर्थ भी पतन की ओर गया। शासन की बागडोर भले ही भाजपा के हाथ में गई, लेकिन थोड़े समय के लिए राजनीति जिस तरह सट्टाबाजार के हत्थे चढ़ी, वह आने वाले दिनों में उसके कितने नियंत्रण में रहेगी, इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है।

मजदूरों को काम देने में नाकाम होती जा रही हैं बनारस की श्रम मंडियाँ

सट्टाबाजार और राजनीति के उठापटक के बीच मोदी का मौन धारण

सट्टाबाजार और राजनीति के बीच हुए इस उठापटक के बीच मोदी ने भव्य मौन धारण किया। उन्होंने ‘तीन दिनों की आध्यात्मिक यात्रा किया’ और फिर दिल्ली लौट आये। उन्होंने अपने भीतर ‘असीम उर्जा का संचार’ पाया। उन्होंने भारत को एक विकसित भारत में बदल देने वाला एक सपना देखा और इसके लिए उन्होंने देशवासियों से नये ख्वाब देखने का आग्रह किया।(देखें द इंडियन एक्सप्रेस, 3 जून, 2024)। यह ख्वाब सिर्फ ख्वाब नहीं है। इसे पढ़ते हुए समझ में आया कि इस ख्वाब की जमीन 2021 में बन गई थी। तीन सालों बाद एक नये कलेवर में, एक लेख में अवतरित हुई।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिखा ‘हमें यह जरूर समझ लेना चाहिए कि किसी भी देश में सुधार एकरेखीय प्रक्रिया नहीं होती है। इसीलिए मैंने देश के लिए सुधार, व्यवहार और बदलाव के लिए एक व्यापक दृष्णिकोण को रखा है। सुधार की जिम्मेवारी नेतृत्व पर है। इसी के आधार पर प्रशासन व्यवहार करेगा और जब जनता जनभागीदारी की भावना के साथ इसमें हिस्सा लेगी तब हम इस बदलाव को होता हुआ देखेंगे।’ इसके लिए आप चार सिद्धांत पालन करने के लिए प्रस्तुत करते हैं ‘गति, पैमाना, दायरा और मानक।’ अंग्रेजी में यह स्पीड, स्केल, स्कोप और स्डैंर्ड शब्द का प्रयोग किया है जिसमें आपने ‘एस’ पर काफी जोर दिया है। इससे अनुप्रास अलंकार का उद्भव होता हुआ दिखता है। लेकिन, इससे पैदा हुआ रस 1990 के दशक में लाये गये ‘सुधारो’ जितना ही कड़वा है। यहाँ  अनुप्रास के बाद यमक अलंकार का जो सृजन किया गया है, वह डरावना अर्थ देता हुआ लगता हैः ‘मैन्युफैक्चरिंग के साथ-साथ हमें गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा और ‘जीरो डीफेक्ट-जीरो इफेक्ट’ के मंत्र को पकड़ना होगा।’ यह 2021 में छोटे और मध्यम लघुउद्यमियों के लिए अपनाई गई आपकी जेड नीति थी। ‘आपदा में अवसर’ का मंत्र जब मजूदरों के श्रम से जुड़े न्यूनतम अधिकार छीन लिए गये और 12 घंटे काम के सामान्य बना दिया गया, उस समय की यह अपनाई गई नीति किन उपलब्धियों के आधार पर ‘नये सपनों का सपना’ बनकर आया है, यह साफ नहीं है।

नरेंद्र मोदी के मॉडल में नेतृत्व, प्रशासन, जनता उत्पादन की प्रक्रिया और उत्पाद की गुणवत्ता की सुनिश्चितता एक उतरते क्रम में है। नेतृत्व में सरकार का निर्णय और प्रबंधन दोनों ही समाहित है। प्रशासन में उत्पादन की कार्यकारी व्यवस्था है जिसमें टेक्निशियन से लेकर सुपरवाइजर आते हैं। इसके बाद जन की भागीदारी है जिसमें उत्पादन की ‘भावना’ के साथ भागीदारी होनी चाहिए और इस जनता को जेड इफेक्ट के साथ गुणकारी उत्पादन करना चाहिए। मोदी का दावा है कि यह ‘विजन’ नये सपनों के लिए सपना देखने के साथ जुड़कर आया है, जो सच से मेल नहीं खाता है।

भारत की संसदीय राजनीति में अभी तक का यह सबसे विभाजनकारी और दूरगामी प्रभाव वाला यह चुनाव अभियान था। भाजपा और आरएसएस की ओर से पूरा जोर था कि इस बार लोकसभा चुनाव में न सिर्फ राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की जीत को पछाड़ देना है, साथ ही नेहरू के राजनीतिक रिकॉर्ड को ध्वस्त कर देना है। इन दोनों ही मामलों में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा-आरएसएस की यह लड़ाई असफल रही। चुनाव के नतीजों के बाद खुद प्रधानमंत्री की जीत का स्तर बहुत, बहुत नीचे चला गया था। वह वाराणसी के कई इलाकों में बहुमत से भी पीछे रहे। भाजपा संसद की संख्या के मुताबिक बहुमत से पीछे रह गई। उनके कई मंत्री हार गये। अयोध्या, जहां मोदी ने पिछले एक साल में काफी वक्त गुजारा, वहां से भी भाजपा हार गई।

भाजपा इतने आक्रामक तरीके से चुनाव में क्यों उतरी?

यहां सवाल यही है कि भाजपा इतने आक्रामक तरीके से चुनाव में क्यों उतरी? क्या वह इसे प्रचंड बहुमत हासिल करने के लिए एक तकनीक की तरह प्रयोग कर रही थी? या यह उसकी दूरगामी रणनीति का हिस्सा था। यदि हम बौद्धिक जगत की गतिविधियों को देखें तब वहां साफ था कि बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा भाजपा की कार्यशैली को फासीवाद के उभार की तरह देख रहा था। यदि हम सामाजिक आंदोलनों को देखें तब वहां भाजपा का विरोध और भाजपा को एक तानाशाह पार्टी बताने की संख्या में वृद्धि हो रही थी। इसी तरह विपक्ष संसद से लेकर विधानसभाओं में नरेंद्र मोदी, अमित शाह को तानाशाह शब्दों से नवाज रहा था और भाजपा को देश के लिए खतरा बता रहा था। विपक्ष के नेता अपने भाषणों में खुलकर भाजपा और नरेंद्र मोदी से देश और संविधान बचाने की बात कर रहे थे।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चलने वाली भाजपा ने स्पष्ट ठोस हिंदुत्व की राजनीति का नारा दिया। उसने अपना यह रूप निखारने के लिए कांग्रेस को मुसलमान परस्त बताना शुरू कर दिया। उसने सीधे हिंदू धर्म को संस्कृति से जोड़ते हुए राष्ट्रवाद की आधारशिला बताते हुए ‘घुसपैठिया’ का जो सिद्धांत पेश किया वह इतिहास को उनके देखने के नजरिये का राजनीतिक अभिव्यक्ति की तरह सामने आया। नरेंद्र मोदी ने अपने प्रचार अभियानों में विपक्ष पर हमला करते हुए उन्हें भ्रष्टाचार में डूबा हुआ ही नहीं बताया। पिछले पांच सालों में लगातार विपक्ष की सरकार गिराने और पार्टियों को तोड़ने का अभियान जारी रखा। लेकिन, जैस जैसे चुनाव करीब होता गया उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाहियों का जिस तरह से अभियान चलाया गया और नेतृत्व को जेल भेजा गया, वह भारतीय राजनीति के इतिहास की नायाब घटना थी।  इसमें सिर्फ एक ही पार्टी, भाजपा जो खुद सरकार चला रही थी हर तरह से सुरक्षित थी। दरअसल, हकीकत यही थी भाजपा बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही ध्वस्त करने में लगी हुई थी। नरेंद्र मोदी अक्सर जिस कांग्रेस-मुक्त भारत की बात कर रहे थे, वह मूलतः एक पार्टी राजव्यवस्था की स्थापना ही थी।

भदोही : आखिर क्यों रेफरल अस्पताल बनकर रहा है सौ शय्या वाला जिला अस्पताल

यह महज संयोग नहीं था जब चुनाव के ठीक पहले राहुल गांधी को एक कार्टून में ‘रावण’ की तरह पेश किया गया। भाजपा और आरएसएस के नेता खुलेआम सनातन धर्म की बात करते हुए घूम रहे थे और अखबारों में कॉलम लिख रहे थे। खुद नरेंद्र मोदी लंबे समय से अयोध्या में समय बिताते हुए देश को धर्म का खुला संदेश दे रहे थे और सनातन धर्म का गुणगान कर रहे थे। इसी दौरान राम माधव का ‘राम राज्य’ कॉलम धर्म, संस्कृति और राष्ट्र पर बात करते हुए राजनीति की उदारवादी धारा की कड़ी आलोचना कर रहा था और सांस्कृति राष्ट्रवाद की बात करते हुए बड़े निर्णय, बड़ी पूंजी, बहुसंख्या पर निर्भरता और ठोस कार्यवाही की वकालत कर रहा था।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वकालत आरएसएस और हिंदू महासभा ने किया

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चला चुनावी अभियान इतिहास के उन पन्नों को उलटने के लिए विवश करता है जब हिंदू महासभा और आरएसएस ने 1935-45 के बीच चलाया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वकालत करते हुए आरएसएस ने जिस हिंसक भीड़ को पैदा किया और जिस हिंसा को उकसाने वाली तकनीकों को विकसित किया, उसका अंतिम नतीजा एक ऐसे खूनी पन्नों में बदल गया, जिसे उलटकर देखना आज भी आसान नहीं है। महात्मा गांधी की हत्या इन्हीं नफरतों का परिणाम था। उस समय जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वकालत आरएसएस और हिंदू महासभा कर रही थी, उसकी जमीन एक बार फिर तैयार होती हुई दिख रही है। लेकिन, आज की आर्थिक संरचना और सामाजिक पृष्ठिभूमि एकदम अलग है। इस दौरान, संविधान जैसी मूल्य आधारित राजनीति का आधार बढ़ा है। ‘न्याय की अवधारणा’ विकसित हुई है। राज्य की अवधारणा में शक्ति के प्रयोग के साथ साथ उसकी जिम्मेवारियों को लेकर भी लोगों में थोड़ी जागरूकता आई है। ये ऐसे आधार हैं जिससे समाज के मध्यम और गरीब समुदाय में ‘बढ़ती तानाशाही’ के खिलाफ प्रचार को जाना आसान हुआ है।

कांग्रेस का अभियान मूलतः राहुल गांधी के नेतृत्व में इन्हीं आधारों पर चला। विविध स्तर पर सामाजिक विभाजन को बढ़ाने वाली नीति के खिलाफ राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ राष्ट्रवाद को उदारवाद की जमीन पर व्याख्या करने का एक प्रयास था, जो एक लंबी पैदल यात्रा में जमीन पर उतरा। इसके बाद ‘न्याय’ की अवधारणा को लेकर वह सामने आये। एक समय था जब कांग्रेस ने पुरजोर तरीके से इसी न्याय की अवधारणा को समाज को तोड़ने की तरह देखा था और उसे देश की एकता, अखंडता के लिए एक खतरा माना था। लेकिन, अब समय बदल चुका था। रूढ़िवादी धर्म आधारित राजनीति जिस एकीकृत राष्ट्रवाद की बात करते हुए भाजपा सत्तासीन थी, उसमें कांग्रेस के लिए ‘न्याय’ की अवधारणा समाज को बचाने के लिए अनिवार्य हो चुकी थी। इस अवधारणा से निश्चित ही पूरा कांग्रेसी नेतृत्व सहमत नहीं दिखा। लेकिन, जब इसने यात्रा की शक्ल अख्तियार कर लिया और लोक के बीच घुस गया, तब इससे वापसी करना भी संभव नहीं था। कांग्रेस ने भारत में ‘बड़ी पूंजी’ के खतरे को ‘अडानी-अंबानी’ के मुहावरे में बदला और राजसत्ता के साथ इसके रिश्ते को परिभाषित करने के लिए सीधे मोदी पर हमलावार हुआ।

इस बार के चुनाव में पंजाब से दो ऐसे प्रतिनिधि चुनकर आये जिन्हें ‘खालिस्तान समर्थक’ माना जाता है। पहला, अमृतपाल सिंह और दूसरा, सरबजीत सिंह खालसा। इसी दौरान एक और विवादास्पद घटना चंडीगढ़ एयरपोर्ट पर घटी। कथित तौर पर पंजाब से आने वाली एक सीआईएसएफ की पुलिस ने भाजपा सीट से चुनी गई लोकसभा प्रतिनीधि कंगना रनौत को थप्पड़ मार दिया। कहा जा रहा है कि उसने कंगना द्वारा पंजाब के किसानों को लेकर दिये गये आपत्तिजनक बयानों पर सबक सिखाने के लिए थप्पड़ मारा। सच्चाई आने वाले दिनों में स्पष्ट होगा। लेकिन, ये दोनों ही घटनाएं पंजाब में एक ‘सुलगती हुई सच्चाई’ को सामने लेकर आती हैं। यह सच्चाई संसद में प्रतिनिधित्व को लेकर अपने को अभिव्यक्त की हैं। इसे आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

जम्मू-कश्मीर में इस बार भाजपा चुनाव में नहीं उतरी। वह कश्मीर पर हर चुनाव में अपनी राजनीति की रोटी सेंकती थी। इस बार के चुनाव अभियान में उसने एक बार फिर कश्मीर का नाम नहीं लिया। वहां के चुनाव में ‘अलगाववादी’ माने जाने वाले राशिद ने उमर अबदुल्लाह को दो लाख वोट से हरा दिया। इस बार लोकसभा चुनाव में इस तरह का चुनाव और भी क्या परिणाम लेकर आयेगा, अभी देखना है।

भारतीय राजनीति में एक समय में कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस की मुख्य विपक्ष की भूमिका अदा करती थी। उसने दुनिया में पहली बार संसदीय रास्ते से केरल में सरकार बनाने में सफलता हासिल किया था और आंध्र प्रदेश में तेजी से लोकप्रिय हुई थी। बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल और महाराष्ट्र में कम्युनिस्ट पार्टी की लोकप्रियता लोकसभा और विधान सभा में उसके प्रतिनिधित्व की तरह भी अभिव्यक्त होती थी।

संसदीय रास्ते पर लाल झंडा वाली पार्टियों की संख्या में बढ़ोत्तरी 198-90 के दशक में तेजी से बढ़ी लेकिन उनकी संख्या उतनी तेजी से नहीं बढ़ी और कई चुनावों में तो घटती चली गई। खासकर, कांग्रेस और भाजपा की गठजोड़ की राजनीति ने वाम की संसदीय राजनीति की पहचान को अपनी पहचान में जज्ब कर लिया। यही कारण रहा है कि जब वे आर्थिक नीतियों को लेकर बंगाल में जनता के प्रति ही आक्रामक हुए, तब वे वहां से पूरी तरह खत्म हो गये। इसी तरह से शहरों में जब वैश्वीकरण का शर्तों के साथ समर्थन की नीति का पालन किये तब उनका आधार मजदूरों में भी सिमट गया। इसका सीधा फायदा भाजपा ने उठाया। इस बार के लोकसभा में सीपीआई से दो, सीपीआई-एम से 2 और सीपीआई-एमएल, लिबरेशन ने दो सीट जीतकर संसद में अपने प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया है।

इस बार को चुनाव परिणाम भी इसी के अनुरूप आया हुआ परिणाम है। पूंजीपति वर्ग अब संसद को सिर्फ एक प्रबंधक की तरह बनाने पर नहीं तुला हुआ है वह इसे अब क्रिकेट के मैच में बदल देने पर भी आगे बढ़ गया है। दुनिया के बहुत से देश, जो साम्राज्यवादी इशारों पर सरकार चलाते हैं और उनके हितों को प्रधानता देते हैं, वहां इस तरह के प्रबंधन और उसके सट्टाबाजार से जुड़ जाने के अभिशाप में फंसे हुए हैं। वहां तख्तापटल एक आम सी बात हो चुकी है। इस बार का चुनाव और सट्टाबाजार में उठापटक और खुद प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और गृहमंत्री के बयान इसी तरफ जाने की ओर इशारा करते हुए दिखे। इसके पहले इलेक्टोरल बांड की जब हकीकत सामने आनी शुरू हुई तब ‘पूंजीपति वर्ग’ और ‘राज्य’ के बीच के रिश्तों में पार्टी की उपस्थिति एक बड़े खिलाड़ी की तरह उभरती हुई दिखी।

श्रमिकों की घटती आय और परिवारों में तेजी से बढ़ती असुरक्षा की भावना 

इस बार चुनाव के परिणाम की व्याख्या भले ही चेक और बैलेंस के रूप में और विचारधारा की बहुरंगी चित्र की तरह पेश किया जा रहा हो, लेकिन बहुमत का जोर ‘हिदूत्व’ की ओर है। पिछले दस सालों में वित्त पूंजी का जोर और बड़ी पूंजी द्वारा छोटी पूंजी के अधिग्रहण की मुख्य प्रवृत्ति ने तेजी से एक ओर अनुत्पादक पूंजी को बढ़ाया है, उससे भी तेजी से बेरोजगारी का विशाल सागर बनाया है। श्रमिकों की घटती आय और परिवारों में तेजी से बढ़ती असुरक्षा जीवन को बदतर और छिपी हुई गरीबी का एक ऐसा विशाल ढांचा खड़ा किया है, जिसमें भूख, बीमारी, हताशा और आत्महत्या पनप रही है। खेती के उत्पादों को सीधे उपभोक्ता बाजार से जोड़ देने और आढ़तियों को खुली छूट देने से इसका कारपोरेटाईजेशन तेजी से बढ़ा है जबकि उत्पाद से आय बढ़ाने के दबाव में किसनों में ऋणग्रस्तता भी तेजी से बढ़ी है। भारत का ‘पूंजीपतिवर्ग’ जिस तरह के राज्य की मांग कर रहा है उसे कांग्रेस एक ओर विकास के नये मॉडल को पेशकर और दूसरी ओर ‘न्याय’ की अवधारणा से समाज को नये सिरे से एकजुट करने का दावा कर रहा है।

निश्चित ही, भारत का ‘पूंजीपति वर्ग’ संकटग्रस्त है। उसे हिंदुत्व आधारित बहुमत वाला समाज चाहिए जिसमें पूंजी और मुनाफा सुनिश्चित हो, सस्ता श्रमिक हो, उसे उत्पादन के हर क्षेत्र से मुनाफा चाहिए और साथ ही उसे सामाजिक और राजनीतिक संरक्षण चाहिए। जिस समय कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में भारत जोड़ो, और न्याय यात्रा शुरू किया, उस समय साफ था कि वह एक संदेश देना चाहते थे। वह छोटे, मध्यम और बड़े पूंजीपतियों को बताना चाहते थे कि इस देश में अभी काफी क्षमता है। वह मध्य वर्ग को आश्वस्त करना चाह रहे थे कि सामाजिक और राजनीतिक सुरक्षा का घेरा अभी भी मजबूत बनाया जा सकता है। उन्होंने किसानों को आश्वस्त किया कि उनके मेहनत के फल का एक हिस्सा उनके पास भी आयेगा। यह यात्रा ‘पूंजीपति वर्ग’ के लिए संदेश था। लेकिन, इस संदेश के लिए वह लोगों के बीच गये। पैदल यात्रा करते हुए वह गांव, कस्बों, शहरों से गुजरते हुए अपने परिवार, देश के इतिहास का हवाला दिया और अपनी भावना का इजहार किया। वह कोई जनांदोलन नहीं बना रहे थे। लेकिन, वह जन के बीच से गुजरते हुए उसी तरह के भावों को पैदा करने की कोशिश कर रहे थे जैसा गांधी ने अपने जमाने में किया।

इस लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हुई राजनीतिक गतिविधियां भारत की राजनीति की कई परतें खोलती है। बुर्जुआ राजनीति हमेशा ही उसके अंतर्विरोधों को खोलकर सामने ला देती हैं। यहां मसला यही है कि उसे कैसे पढ़ा जाये और जनता की गोलबंदी के लिए किस तरह से सबक लिया जाए। जब एक बुर्जुआ नेता जनता के बीच हजारों किमी की यात्रा करते हुए उनके दिलों तक पहुंचने की कोशिश कर रहा है, और गांधीवादी तरीका अख्तियार करता है तब इसका सीधा परिणाम उसके जनसंगठन बनने और पार्टी मजबूत होने में अभिव्यक्त होता है। गांधी की यात्राएं कांग्रेस को गांव- गांव तक पहुंचा देने और वहां संगठन खड़ा कर देने में बदल गईं। एक जनवादी आंदोनल के लिए इस तरह की यात्राएं उतनी ही जरूरी हैं। जब ऐसी यात्राएं बंद हुई जनसंगठन और पार्टियाँ ठहरे हुई तालाब बन गईं। जब भी ‘गांव चलो अभियान चला’ नये तरह के राजनीतिक आंदोलन की जमीन तैयार हो गई। यहां मैं ‘सीखने’ की बात नहीं कर रहा हूं। यहां में इतिहास से सबक लेने की बात कर रहा हूं। और, दरअसल यह सब इतिहास नहीं अपनी सामसामयिक राजनीति ही है, जो हाल के दशक में कमजोर होती गई हैं। इसे ही फिर से शुरू करने और राजनीति में एक नई शुरुआत करने की जरूरत है।

अंजनी कुमार
अंजनी कुमार
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here