136वीं जयंती पर विशेष
ग्यारह नवम्बर 1888 के दिन मौलाना अबुल कलाम आजाद का जन्म मक्का में हुआ था क्योंकि उनके पिता मौलाना खैरूद्दीन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए थे और उसमें नाकामयाबी के बाद अंग्रेजी सल्तनत को नापसंद करने के कारण मक्का में बस गये। उन्हीं के कुछ शागिर्दों ने 1867 देवबंद धार्मिक संस्थान का निर्माण किया; और वे मक्का में रह कर संस्थान का मार्गदर्शन करते रहे।
मक्का की प्रथा के अनुसार बच्चे के दो नाम रखे गये- एक मोहीउद्दीन अहमद (कलकत्ता के मुस्लिम पीठ के भावी वारिस के रूप में); और दूसरा नाम फिरोज बख्त। उन्होंने अपने लेखन के लिए ‘आजाद’ नाम खुद पसंद किया। मौलाना आजाद की मक्का में तालीम पारंपरिक मुस्लिम तौर-तरीकों से हुई और जन्मजात प्रतिभा के कारण इस्लामी धर्मशास्त्र में विलक्षण पांडित्य प्राप्त होने के बाद समस्त अरब जगत में उनकी ख्याति फैल गयी, फिर उन्हें विद्यापारंगत, ‘अबुल कलाम’ की उपाधि दी गयी। उस समय उनकी उम्र महज अठारह साल थी। इसी कारण उनके बचपन के दोनों नाम विस्मृत होते चले गये; और वह आगे चल कर मौलाना अबुल कलाम ‘आजाद’ के नाम से ही जाने लगे।
कलकत्ता (अब कोलकाता) के मुस्लिम पीठ के अनुयायियों के आग्रह के बाद मौलाना खैरूद्दीन अपने बेटे के साथ भारत वापस आये। तब तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। देवबंद संस्था का संपूर्ण सहयोग शुरु से ही कांग्रेस को रहा है। इस कारण मौलाना आजाद भी स्वाभाविक रूप से कांग्रेस से जुड़ गये।
भारत आने के बाद उन्होंने आधुनिक शिक्षा ग्रहण की, जिससे हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में महारत हासिल की, अरबी भाषा का ज्ञान तो पैदायशी हासिल किया था। इस कारण 1908 में मात्र बीस साल की उम्र में अरब, मिस्र, तुर्किस्तान और इराक-ईरान की यात्रा की। 1912 में जनजागृति के हेतु से कलकत्ता से ‘अल हिलाल’ नाम की पत्रिका शुरू की और इसी पत्रिका को पढ़ने के कारण खान अब्दुल गफ्फार खान, जो सरहदी गाँधी के नाम से मशहूर हुए, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हुए।
‘अल हिलाल’ की बढ़ती लोकप्रियता और उसमें आजाद के लेखों के प्रभाव को देखते हुए मौलाना आजाद को गिरफ्तार कर लिया गया और ‘अल हिलाल’ को बैन कर दिया। कुछ दिन बाद जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने ‘अल बलाल’ नाम से दूसरी पत्रिका शुरू की। 1923 के दिल्ली कांग्रेस अधिवेशन के वह अध्यक्ष चुने गये। उस समय उनकी उम्र मात्र 35 साल थी। 1912 से 1923 के ग्यारह वर्षों में मौलाना आजाद देश भर में खासे लोकप्रिय हो चुके थे।
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उन्होंने ने धर्मग्रंथों का क्रांतिकारी विश्लेषण किया है। मुख्य रूप से कुरान के भाष्यकार के रूप में उनका 1930 में ग्रंथ प्रकाशित हुआ। इस कारण कठमुल्लापन के शिकार मौलानाओं ने उन्हें बिदात, इरतकाम, और इरतदान यह तीन गुनाहों की सजा सुनाई थी। इन तीनों में से किसी भी एक गुनाह की सजा पत्थरों से कुचल कर मारने की थी, यह 1930 की बात है
उनको इतनी कठोर सजा सुनाने की वजह मुहम्मद पैगंबर की मृत्यु के तीन सौ साल बाद यानी 1933 में संग्रह करके अधिकृत कुरान को प्रकाशित किया गया है; और उसके अपरिवर्तनीय, परिपूर्ण, ईश्वरीय ग्रंथ होने का दावा करने वालों को मौलाना आजाद ने चेतावनी दी कि इजतिहाज, कयास, मतलब तर्कसंगत विचार इस्लाम में है। उन्होंने तर्कशास्त्र, भाषाशास्र के माध्यम से कालसापेक्षता के आधार पर बताया कि सर्वधर्म समभाव और शुद्ध मानवता- यह कुरान का मुख्य आधार है। यह भी कि जिहाद, काफिर, दारूल हर्ब जैसे विचार उस जमाने की स्वार्थी, भ्रष्टा राजनीति की देन है। इस तरह इस्लाम के इतिहास में तेरह सौ साल के बाद आजाद इस्लाम के विद्वान हुए थे।
उनके हिसाब से ‘हदीस’ मनुष्य का भाष्य है, और उसमें गलतियाँ हो सकती है। तीन सौ साल बाद कुरान का अर्थ हजरत मुहम्मद पैगंबर साहब के समय जो लगाया जा रहा था, उसे आज मैं मानने के लिए बाध्य नहीं हूँ। इस तरह से आजाद ने समस्त इस्लामिक परंपरा को जबर्दस्त धक्का देने का काम किया और इसमें उनका मुख्य तर्क काल सापेक्षकता का ही रहा, क्योंकि उनका मानना था कि सातवीं शताब्दी में अरब स्थान की परिस्थितियों से निकला हुआ कुरान आज भी वैसे ही लागू करवाने का आग्रह सर्वथा गलत है। यही उनका मुख्य तर्क था।
उन्होंने कुरान का अर्थ ‘उम्मतुलवाहिदा’ के संदर्भ में लगाया है। मदीना में जू, ईसाई, साबीयान, मागियान और मूर्तिपूजक- ऐसे पाँच गुट और इस्लाम के अनुयायियों को मिला कर छह प्रकार के समुदाय रह रहे थे तो सबकी प्रार्थना पद्धति एक हो और मक्का की तरफ मुहं करके प्रार्थना करने वाले मुस्लिम जेरूसलम की तरफ मुंह करके प्रार्थना करने लगे। ईश्वर तो सब तरफ है तो जेरूसलम की तरफ मुंह करके प्रार्थना करने में क्या हर्ज़ है? यह सवाल खुद पैगंबर साहब ने किया है और मुसलमान होने की जबरदस्ती भी किसी पर भी नहीं करनी है। इस तरह की बहुधार्मिक सरकार अस्तित्व में लाने का, और पुरानी अमानुषिक प्रथाओं को बंद कर महिला व गुलामों आदर करना, सूद प्रथा खत्म कर सभी के लिए समान न्याय व्यवस्था कायम करना यही हजरत मुहम्मद साहब के समय के धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक इस्लाम का मूल है। यही बात उन्होंने अपने कुरान के भाष्य में लिखी थी, जिस कारण, उन्हें पत्थरों से कुचल कर मारने की सजा कुछ कट्टरपंथी मौलाना आज से नब्बे साल पहले सुना चुके हैं।
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उन्होंने भारत को तोड़ कर अलग स्वतंत्र पाकिस्तान के बनाने का पुरजोर विरोध किया था और हिंदु-मुसलमान दोनों के लिए अलग अलग देश हो, यह बात गलत है। उनके विचारों के अनुसार भारत बना होता तो भारत में वर्तमान सांप्रदायिक राजनीति का नामो-निशान नहीं होता। जिन्ना, वंदेमातरम, मंदिर-मस्जिद, तीन तलाक़ जैसे भावनाओं को भड़काने वाले सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की संभावना नहीं होती।
अभी हम देश की आजादी की पचहत्तरवें वर्ष में हैं; और आज मौलाना आजाद की 136 वीं जयंती के अवसर पर उन्हें सच्चा सम्मान देना है तो उन्होंने इंडिया विन्स फ्रीडम, तजकेरा, गुब्बारेखातिर, कौल फौसल, दास्ताँने करबला और कुरान के ऊपर लिखे भाष्य; उनकी लिखी हुई साहित्य संपदा का अध्ययन करना चाहिए।
उन्होंने 1924 में हिंदू-मुस्लिमो के लिए एकता परिषद गठित की थी। आज उसके भी सौ साल हो गये। आज इस तरह के परिषद की आवश्यकता कहीं अधिक है क्योंकि बीते तीन चार दशकों से हमारे देश की राजनीति का केंद्र बिंदु सिर्फ और सिर्फ हिंदू-मुस्लिम की भावना भड़का कर राजनीतिक रोटी सेंकना ही रहा है।
यदि भारत जैसे बहुधर्मीय देश ने आज भी ‘उम्मतुलवाहिदा’ के रास्ते से चलना शुरू किया तो आने वाले पच्चीस साल के बाद हम देश की शताब्दी तक सही मायने में आजादी के लक्ष्य को प्राप्त करने में कामयाब होंगे। वे कुल 70 साल की उम्र के थे, तब 22 फरवरी 1958 के दिन, हृदयाघात से मौलाना अबुल कलाम आजाद की मृत्यु हुईं।
आजादी के बाद लगातार भारत के शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने दस साल काम किया। वर्तमान आईआईटी, यूजीसी , बंगलोर की विश्व स्तर की विज्ञान की संस्था और इनके लिए पर्याप्त मात्रा में संसाधनों की व्यवस्था करने का ऐतिहासिक काम किया और इसी कारण उनके 11 नवम्बर के जन्मदिन को ‘राष्ट्रीय शिक्षा दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
उनके विचारों के अनुसार भारत ‘उम्मतुलवाहिदा’ (अखंड भारत) बनाने का सपना सचमुच कोई लोग देख रहे हैं तो उन्हें भारत में रहने वाले हर जाति, धर्म, लिंग के लोगों को ऐसा माहौल बनाना होगा, जहाँ आपसी सौहार्द का माहौल बने।
लाठी-काठी या आजकल के आधुनिक हथियारों के बल पर. मौलाना आजाद की 136 वी जयंती के अवसर पर हम उस दिशा में चलने का, काम करने का संकल्प लें, यही उनको सही सम्मान देना होगा! अन्यथा उनके सपने का भारत का, उम्मतुलवाहिदा का क्या होगा?