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मिर्ज़ापुर में टी बी का इलाज : दवाओं से ज्यादा पाखंड का डोज़

सरकार टीबी मुक्त भारत अभियान चला रही है ताकि 2025 तक देश से इसका समूल नाश हो सके। इसके लिए तरह-तरह के कार्यक्रम और योजनाएं लाई जा रही हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के मिर्जापुर जिले में टीबी के मरीजों की संख्या देखते हुए नहीं लगता कि 2025 तक इसका अंत हो पाएगा। मिर्जापुर जिले में पाँच साल में 636 टीबी मरीजों की मौत हो चुकी है। गाँव के लोग की ओर से पत्रकार संतोष देव गिरि ने इस पूरे मामले की छानबीन की और यह पाया कि जिले में टीबी मरीजों की संख्या लगातार बढ़ी है जबकि उनका इलाज समुचित रूप से नहीं हो रहा है। कहीं दवा का अभाव है तो कहीं भ्रष्टाचार और अराजकता का बोलबाला है। निःशुल्क सरकारी इलाज उपलब्ध होने के बावजूद डॉक्टर बाहर की दवाएँ लिखते हैं। उनका ज़ोर इस बात पर होता है कि मरीज़ उनकी बताई दुकानों से ही दवा खरीदे।

मिर्जापुर में टीबी के सैकड़ों मरीजों को उनके स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए गोद लिया गया है। इन गोद लिए मरीजों को पोषण पोटली भेंट की जाती है, जिसके अंतर्गत गोद लिए गए मरीजों को पोषण पोटली के साथ दवा और दूसरी स्वास्थ्यवर्धक सामग्री देकर सहयोग किया जाता है। लेकिन गोद लिए लिए और यह पोषण पोटली पाने वाले अनेक मरीजों ने बताया कि एक बार पोषण पोटली भेंट कर फोटो खिंचवाने के बाद दुबारा उनकी सुध ही नहीं ली गई।

जबकि गोद लिए गए टीबी मरीजों की निरंतर निगरानी के साथ ही उन्हें दूसरी पोषक पोटली भी पहुंचनी चाहिए। इसके लिए नि:क्षय मित्र भी बनाए जाते हैं जो टीबी प्रभावित मरीज को नियमित दवा खाते रहने का सुझाव देते हुए टीबी मरीजों के प्रति महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इतना सबकुछ होने के बाद भी स्थितियाँ नियंत्रण में नहीं हैं। ऐसे में पोषण पोटली बांटने वाली सामाजिक संस्थाओं के टीबी प्रभावित मरीजों को गोद लेने और पोषण पोटली वितरित करने को लेकर भी सवाल खड़े होने लगे हैं।

दशकों पूर्व करोड़ों की लागत से बनाई गई टीबी अस्पताल कॉलोनी बनाई गई थी। इसका उद्देश्य मरीजों को सम्पूर्ण इलाज और देखरेख की सुविधा देना था। लेकिन आज पूरी तरह से बदहाल हो खंडहर में तब्दील हो चुकी है। यहाँ स्थित टीबी अस्पताल के सामने लगातार गंदगी और कीचड़ बना रहता है। मरीजों और उनके तीमारदारों को ओपीडी, दवा वितरण काउंटर पर जाने के लिए इसी कीचड़ और गंदगी से होकर गुजरना पड़ता है। हल्की बारिश में ही यहां नारकीय स्थिति पैदा हो जाती है।

गोद लिए गए मरीजों को पोषण पोटली के साथ दवा और दूसरी स्वास्थ्यवर्धक सामग्री देकर सहयोग कर फोटो खिंचवाते हुए

मिर्ज़ापुर में अब मेडिकल कॉलेज संचालित हो रहा है। सरकारी दावों के मुताबिक बहुत सारी स्वस्थ्य सेवाएँ अपग्रेड की जा रही हैं। मिर्ज़ापुर मण्डल तीन जिलों की स्वास्थ्य व्यवस्था को संभालने में कितना सक्षम हो पाया है इसे बिना वहाँ गए और देखे अच्छी तरह नहीं समझा जा सकता। वास्तविकता यह है कि जिला अस्पताल स्वयं गंदगी और अराजकता का नमूना बना हुआ है। टीबी के इलाज के लिए बना केंद्र जर्जर होकर गिरने के कगार पर जा पहुँचा है। उसके आंकड़े तो और भी डरावनी तस्वीर पेश कर रहे हैं।

डॉक्टर मर्ज पकड़ ही नहीं पा रहे हैं 

मड़िहान इलाके के चन्द्रभान मौर्य को क्रशर प्लांट पर काम करते हुए लंबा अरसा गुजर चुका था। इस बीच उन्हें अचानक सांस फूलने के साथ खांसी आने लगी लेकिन उन्होंने इसे गंभीरता से नही लेते हुए सोचा कि अत्यधिक काम और मेहनत के कारण ऐसा हो रहा है। पास के चिकित्सक के पास जाकर दवा ली। इस इलाज से कुछ फायदा तो मिला लेकिन मर्ज पकड़ में नहीं आया। इस सांस फूलने के आने वाली खांसी से उनकी परेशानी बनी रही। उन्होंने ध्यान दिया कि इसके साथ उनकी सेहत में दिन-प्रतिदिन गिरावट आ रही है। ऐसी ही स्थिति और परेशानी में दो वर्ष बीत गए। स्वास्थ्य ज्यादा खराब होने की वजह से इधर एक वर्ष से उन्होंने क्रशर प्लांट पर भी जाना बंद कर दिया।

चंद्रभान ने अपने गाँव के ही सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र मड़िहान में उपचार कराया। एक वर्ष तक दवा खाई और उपचार भी होता रहा, लेकिन आराम होने को कौन कहे मर्ज का ही पता नहीं चला कि उन्हें हुआ क्या है?  इस दरम्यान एक-एक करके कई जांच-पड़ताल हुईं लेकिन किसी भी जगह उनकी बीमारी का पता नहीं चल सका और सभी उनको नार्मल बताते रहे। हालत और गंभीर होने के बाद वे इलाज के लिए अपने परिजनों के साथ बक्सर (बिहार) गए, जहां प्रथम जांच में ही क्षय रोग (टीबी) होने की रिपोर्ट आई। इसके बाद चन्द्रभान मौर्य का उपचार मां विंध्यवासिनी स्वशासी राज्य चिकित्सा महाविद्यालय मिर्ज़ापुर उत्तर प्रदेश के अधीन मिर्ज़ापुर मंडलीय अस्पताल स्थित टीबी वार्ड में चल रहा है।

टीबी कॉलोनी स्थित स्वास्थ्य कर्मियों का जर्जर भवन खुद ही बीमार होकर अब-तब गिरने की स्थिति में

यह समस्या सिर्फ चन्द्रभान की ही नहीं है बल्कि कई ऐसे चन्द्रभान हैं जो टीबी मुक्त भारत के अभियान के कागजी आंकड़ों से दूर दवा-उपचार के लिए जद्दोजहद करते हुए हांफते-खांसते नज़र आ रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग के दावे और हकीकत में बहुत अंतर है। सरकार का स्वास्थ्य विभाग कागजी आंकड़ों और अखबारी बयानबाजी से टीबी के इलाज की सफलता के कसीदे काढ़ रही है। इसके बावजूद वास्तविक हालत को लेकर बननेवाली सुर्खियाँ इस ढोल की पोल खोल देती हैं।

दावे और हकीकत के बीच गहरी खाई 

सरकार लगातार स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुँच आम जनता तक आसान बनाने के लिए अनेक योजनाएं लागू कर रही है। इसी कड़ी में देश को टीबी मुक्त बनाने के लिए ‘टीबी हारेगा, देश जीतेगा’ का नारा गढ़ा गया और 2025 तक टीबी जैसी बीमारी को खत्म करने का लक्ष्य रखा गया। जबकि पूरी दुनिया में वर्ष 2030 तक इसका पूर्ण निदान कर लेने का लक्ष्य है। निःशुल्क दवा-उपचार के साथ समय-समय पर प्रभावित व्यक्ति की जांच कराने की भी  योजना है।

इतना सब होने के बावजूद आँकड़े और अनुमान बताते हैं कि दुनिया में टीबी के हर चौथा मरीज भारतीय है और भारत का हर पाँचवाँ मरीज उत्तर प्रदेश का है। मतलब पूरे देश में उत्तर प्रदेश ऐसा प्रदेश है, जो टीबी जैसी गंभीर बीमारी की चपेट में है।

स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों पर नज़र डालें तो अकेले मिर्जापुर जनपद में ही पांच वर्षों में 636 लोगों की मौत टीबी से हो चुकी है। आंकड़ों से अलग तो यह संख्या सैकड़ा पार कर चुकी होंगी।

राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) 2024 के तहत फिलहाल जिनका इलाज चल रहा है उनमें से 2701 अकेले मिर्जापुर जिले से हैं। इनमें में 145 चुनार, 771 डीटीसी, 178 हलिया, 246 कछवां, 97 लालगंज, 191 राजगढ़, 93चील्ह, 132 गुरसंडी, 256 जमालपुर, 151 पड़री, 146 पटेहरा, 77 सीखड़, 144 विजयपुर स्वास्थ्य केंद्र पर रजिस्टर्ड मरीज शामिल हैं। इनमें कुछ बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं। जिले में टीबी को लेकर कोई जन जागरूकता नहीं है। बहुत बड़ी संख्या में टीबी से ग्रसित लोग अपनी इस बीमारी से अनजान रहते हुये यहाँ-वहाँ इलाज करा रहे हैं। डबल्यूएचओ के अनुसार वर्ष 2019 में टीबी के 87 प्रतिशत मरीज दुनिया के 30 देशों में थे। इनमें केवल 8 देशों में ही 75 प्रतिशत मरीज हैं। विकासशील देशों में 95 प्रतिशत मौतें टीबी से होती हैं।

टीबी के मरीजों की अधिक संख्या खनन कार्यों के कारण

मिर्जापुर जिले में पत्थर की खदानों में काम करनेवाले लोग बड़ी संख्या में टीबी के शिकार होते हैं। इनमें चुनार और मड़िहान तहसील सबसे आगे हैं। चुनार तहसील क्षेत्र में कई खदानें और ईंट भट्ठे हैं। यहाँ से उड़नेवाली धूल के सीने में लगातार जमा होने से बलगम, खांसी और दमा की शिकायतें बढ़ती हैं और अंततः लोग टीबी की चपेट में चले जाते हैं।

इस जिले में प्रतिमाह तकरीबन 6 हजार लोग खांसी, बलग़म सहित अन्य की जांच करवाते हैं क्योंकि इसमें अधिकतर लोग खांसी और साँस की परेशानी का सामना करते हैं। बीते जून माह में जिले के विभिन्न स्वास्थ्य केन्द्रों पर खांसी और बलग़म की जांच के लिए पहुंचने वाले लोगों में पड़री स्वास्थ्य केंद्र पर 153, चुनार में 440, नारायनपुर में 206, अहरौरा में 264 तथा मड़िहान में 262 लोगों ने जांच कारवाई। सबसे ज्यादा संख्या चुनार की रही है। यह पहाड़ी इलाका है, जहां खनन क्रशर, पत्थर कटर प्लांट, ईंट भट्ठे पर काम करने के कारण धूल और बारीक पत्थर के कण हवा और साँस के माध्यम से अंदर पहुंचते हैं।

मिर्जापुर जिले में पत्थर की खदानों में काम करनेवाले लोग बड़ी संख्या में टीबी के शिकार होते हैं

रखरखाव के अभाव में पुराने टीबी वार्ड आधा हिस्सा गंगा में बह गया 

मिर्जापुर जिला मुख्यालय पर टीबी मरीजों के बेहतर उपचार के लिए 30 बेड का अस्पताल है। यहाँ मरीजों को भर्ती कर उपचार की समुचित व्यवस्था मुहैया कराई गई थी। इन सुविधाओं के रहते हुए यहाँ मिर्जापुर जनपद सहित सोनभद्र, भदोही के अलावा मध्य प्रदेश तक के मरीज अपना इलाज करवाने आते थे। लेकिन उचित रखरखाव के अभाव में दिनो-दिन टीबी अस्पताल भवन जर्जर होता गया। यहाँ तक कि इसका कुछ हिस्सा गंगा नदी के कटान की चपेट में आकर दरक गया। देखते ही देखते अस्पताल का कुछ हिस्सा नदी के कटान में बह गया। सरकार ने टीबी अस्पताल भवन की मरम्मत और रखरखाव दुरुस्त करने की बजाए आनन-फानन में इसे बेकार घोषित कर बंद कर दिया।

मां विंध्यवासिनी स्वशासी राज्य चिकित्सा महाविद्यालय मिर्ज़ापुर उत्तर प्रदेश के अधीन मिर्ज़ापुर मंडलीय अस्पताल जर्जर स्थिति में

मिर्जापुर में टीबी के मरीजों के संख्या देखते हुए गंभीर टीबी रोगियों के लिए मंडलीय अस्पताल के दूसरे तल पर 10 बेड के टीबी वार्ड की सुविधा बनाई गई है जो जिले में मरीजों की संख्या को देखते हुये अपर्याप्त है। इस अस्पताल में दूरदराज से टीबी के मरीज इलाज करवाने आते हैं, मरीजों का कहना है कि 30 बेड का टीबी अस्पताल बेकार हो चुका है और अभी तक दूसरे भवन का निर्माण न होने से हमको काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

आने वाले मरीजों का कहना है कि वे 80-90 किमी की दूरी तय कर उपचार और परीक्षण कराने आते हैं। लेकिन ओपीडी से लेकर एक्सरे रिपोर्ट और दवा इत्यादि मिलने में ही कई दिन लग जाते है, जिससे उन पर पैसा और समय दोनों का भार बढ़ जाता है।

मिर्जापुर में टीबी का मामला गंभीर है लेकिन इलाज में पाखंड और भ्रष्टाचार का डोज़ ज्यादा है 

जिले में टीबी (क्षय रोग) संक्रमित एक्टिव केस तकरीबन 2 हजार हैं, जिनको दवाएं दी जाती हैं। इनमें 22 टीबी के एमडीआर मरीज हैं। जिला क्षय रोग अस्पताल के इसके अलावा 13 टीयू (ट्यूबरकुलोसिस यूनिट) हैं, जहां से दवाएं दी जाती हैं। इसके अलावा हेल्थ और वेलनेस सेंटर से दवाएं दी जाती हैं। टीबी के मरीजों को फोर एफडीसी और थ्री एफडीसी दवा दी जाती है। फोर एफडीसी दवा दो माह और थ्री एफडीसी दवा चार माह तक दी जाती है।

लेकिन पिछले कई महीने से राज्य मुख्यालय से दवाओं की आपूर्ति नहीं होने के कारण जिले में इसका अभाव हो गया, जिससे सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों के ट्यूबरकुलोसिस यूनिट में कई दवाएं खत्म हो गई हैं। इससे टीबी मरीजों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। टीबी में भी एमडीआर (मल्टी ड्रग प्रतिरोधी तपेदिक जिसमें यदि टीबी रोगी बीच में दवा खाना छोड़ता है तो वह एमडीआर का मरीज हो जाता है।) एक खतरनाक स्तर जिसे कुछ दवाएं खत्म हो जाने पर आसानी से नहीं रोका जा सकता।

टीबी वार्ड और लैब

सरकार ने उत्साह में वर्ष 2025 तक टीबी को जड़ से खत्म किए जाने का लक्ष्य रखा है लेकिन सवाल यह उठता है कि  टीबी रोगी और एमडीआर के मरीजों को दी जाने वाली दवाओं का अभाव लक्ष्य को हासिल करने में बाधा नहीं होगा?

अस्पताल प्रशासन बताता है कि फिलहाल दवाओं का संकट हल कर लिया गया है। कुछ महीने पहले राज्य मुख्यालय से आपूर्ति नहीं होने के कारण टीबी की दवाओं में जरूर कमी आई थी, लेकिन मौजूदा समय में पर्याप्त दवाएँ उपलब्ध हैं। इसके बावजूद परिदृश्य कुछ और बनता दिखता है। कुछ मरीजों ने नाम न छापे जाने की शर्त पर बताया कि ‘हम लोग दूर ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं। घर से यहां (टीबी अस्पताल) तक आने में ही सैकड़ों रुपए खर्च हो जाते हैं। ऊपर से यहां आने पर बाजार से मंहगी दवाएं खरीदने के लिए कहा जाता है। वह भी वह भी कुछ खास दुकानों से लेने के लिए लिख दिए जाने पर समस्या और भी बढ़ जाती है।’

कुछ मरीजों ने बाहर से मंहगी दवाओं के लिए लिखी हुई छोटी पर्ची दिखाते हुए अपना दुख कहा। आखिर टीबी मुक्त भारत की परिकल्पना कैसे साकार होगी जब मंहगी दवाओं के लिए बाहर का रास्ता दिखाया जाता है? कुछ मरीजों ने अपनी माली हालत का जिक्र करते कहा कि उनकी इतनी हैसियत नहीं है कि वह बाहर से मंहगी दवाओं को खरीद सकें।’

इस संदर्भ में मिर्जापुर मंडी में मेहनत-मजदूरी कर अपने परिवार का पेट पालने वाले 65 वर्षीय बुद्धू यादव की व्यथा-कथा भी काबिले-गौर है। वह मूलतः मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले के रहने वाले हैं। बुद्धू का दर्द यह है कि वह पिछले कई वर्ष से टीबी की चपेट में हैं। 9 महीने तक दवा उपचार के बाद उनकी दवा यह कहते हुए बंद करा दी गई कि वह ठीक हो चुके हैं। लेकिन उनकी हालत को दूर से ही देख उनकी बीमारी और परेशानी को समझा जा सकता है। बुद्धू मेडिकल कॉलेज के अधीन हो चुके मंडलीय अस्पताल से निकलते हुए सड़क के एक किनारे सिर थाम कर बैठे हुए थे कि वहाँ से गुजरते हुये हमारी नज़र उनपर पड़ी। जब उनकी परेशानी का कारण पूछा जाता है तो वह बिलख पड़ते हैं।
अपना दुखड़ा सुनाने से पहले वह पेट खोल कर खड़े हो जाते हैं। सवाल करने से पहले ही बोल पड़ते हैं ‘खांसी बुखार से शरीर सूख कर हाड़ बन गया है। दवा कराने के बाद भी लाभ नहीं मिल पा रहा है।’ ‘क्या आपको टीबी हुआ था?’ इस  सवाल पर हां में सिर हिलाते हुए वह बोल पड़ते हैं ‘दवा भी चला था जो अब बंद भी कर दिया गया है। बलग़म गिरने के साथ खांसी और बुखार ने भी जकड़ रखा है।’ वह टीबी अस्पताल के डाक्टर द्वारा बाहर से दवा लेने की पर्ची दिखाते हुए कहते हैं हजार नौ सौ की दवा डाक्टर लिखते हैं। मैं ठहरा मजदूर आदमी। कहां से इतना मंहगा दवा खा पाऊंगा?’
टीबी से ग्रसित बुद्धू यादव इलाज के लिए लगातार भटक रहे हैं
बुद्धू यादव की बातों से टीबी मरीजों के निःशुल्क इलाज के दावे और जिले में चल रहे टीबी मुक्त भारत के उस अभियान की हवा भी निकलती हुई नज़र आती है। सवाल यह है कि टीबी जैसी बीमारी का पूरा इलाज सरकार निःशुल्क दवा करती है। फिर संबंधित डाक्टर मंहगी दवाओं का पर्चा पकड़ा कर बाहर का रास्ता क्यों दिखाते हैं? सच्चाई यह है कि ऐसे में गरीब टीबी मरीज बिना दवा खरीदे वापस घर जाकर अपनी मौत का इंतजार करने लगता है।

बाहर से दवा लिखे जाने पर जब जिला क्षय रोग अधिकारी डॉ अनिल ओझा से पूछा गया तब उन्होंने किसी भी प्रकार की लापरवाही की शिकायत होने पर कार्रवाई की करने की बात कही। आगे कहा ‘यह एक गंभीर बात है। टीबी मुक्त भारत अभियान में किसी भी प्रकार की लापरवाही क्षम्य नहीं है। इसके लिए निगरानी भी की जाती है। फिर भी किसी मरीज को परेशानी होती है तो वह सीधे मुझसे मिलकर अपनी बात रख सकता है।’

उन्होंने बताया कि ‘टीबी रोगियों की खोज के लिए निरंतर अभियान चलाएं जा रहे हैं। चिन्हित प्रभावित मरीजों को शासन से मिलने वाले लाभ और नियमित दवा सेवन के साथ ही उनका स्वास्थ्य परीक्षण भी कराया जाता है। इसके लिए मुख्यालय सहित जिले के सभी स्वास्थ्य केन्द्रों पर बलग़म जांच के साथ वहां से दवा उपलब्ध कराई जाती है।

दूसरी ओर क्षय रोग विभाग की जिला कोऑर्डिनेटर संध्या गुप्ता बताती हैं कि ‘क्षय रोगी खोज अभियान के तहत लोगों को जागरूक करने के लिए उन व्यक्तियों को भी पांच सौ रुपए प्रदान किए जाते हैं जो क्षय रोगियों के बारे में जानकारी देते हैं। यह प्रोत्साहन राशि इसलिए दी जाती है ताकि लोग ऐसे लोगों को चिन्हित करने से लेकर टीबी को जड़ मूल से समाप्त होने में सहायक हो सकें।’

जिले में टीबी मरीजों की पहचान के लिए दो तरह की मशीनें उपलब्ध हैं। एक बाहर की मशीन है जबकि दूसरे अपने देश में निर्मित मशीन है। इनमें एक सीबी नेट मशीन है जो लालगंज और मुख्यालय स्थित क्षय रोग कार्यालय में है। जबकि ट्रू नेट मशीन जिले के हलिया, राजगढ़, कछवां और चुनार में है। सीबी नेट मशीन डीएनए की खोज वाली अत्याधुनिक मशीन है। यह जीन एक्सपर्ट विधि से मरीज से मिलने वाले नमूने में टीबी के कीटाणु के जींस को खोजकर टीबी की जांच करती है। प्रभावित मरीज पर टीबी रोधी दवाएं काम करती हैं या नहीं इसकी भी जानकारी तत्काल हो जाती है।

इतनी मशीनें और सुविधाएं होने के बाद भी यहाँ टीबी के मरीजों की संख्या में निरंतर वृद्धि इस बात का संकेत करती है कि मरीजों की संख्या के हिसाब से जिले में सुविधाएं नाममात्र की हैं। ऐसे में सरकार द्वारा देखा जा रहा ‘2025 तक टीबी मुक्त भारत का सपना’ सपना ही रह जाएगा।

संतोष देव गिरि
संतोष देव गिरि
स्वतंत्र पत्रकार हैं और मीरजापुर में रहते हैं।

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