आंचलिक भाषाएं बहुत सुंदर होती हैं। उनकी सुंदरता का आकलन करने का मानदंड नियत नहीं हो सकता। मुमकिन है कि जो आंचलिक शब्द मुझे बेहद खूबसूरत लगता हो, किसी और के लिए वह शब्द बदसूरत हो। लेकिन यह उन भाषाओं के मामले में भी होता है जिन्हें सरकारी सम्मान हासिल होता है या फिर विश्वविद्यालयों के गलियारे में पढ़ा और पढ़ाया जाता है। मसलन मुझे नीच शब्द से परहेज है। सामान्य तौर पर मनुवादी सामाजिक व्यवस्था में निचले पायदानों की जातियों के लिए इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। लोग बड़े आराम से ऊंची जाति और नीच जाति लिख देते हैं। गोया एक जाति आसमान में हो और दूसरी जमीन पर।
दरअसल, हम भाषा के स्तर पर भी भेदभाव करते हैं। बाजदफा तो हम यह समझते ही नहीं कि हम भेदभाव कर रहे हैं। हिंदी तो ऐसे भी भेदभाव वाली भाषा है। अनेक शब्द हैं जिनका इस्तेमाल हम यह जानते हुए कर लेते हैं कि इनके उपयोग से हम सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा दे रहे हैं। ऐसे अधिकांश शब्द जाति सूचक होते हैं। कई बार तो हम जातियों का इस्तेमाल विशेषण के रूप में भी कर लेते हैं। द्विज जातियों का उपयोग सकारात्मक रूप में और अर्जक जातियों का उपयोग नकरात्मक रूप में।
खैर, मैं कल से कुछ बातों पर सोच रहा हूं। इनमें दो शब्द भी शामिल हैं – गींजना और गांजना।
[bs-quote quote=”मैं देश के बारे में सोच रहा हूं। हमारे हुक्मरान देश को गींज रहे हैं। इन दिनों पेगासस सॉफ्टवेयर की चर्चा है। भारत सरकार पर आरोप है कि उसने देश के अनेक नेताओं और पत्रकारों के फोन में यह सॉफ्टवेयर इजरायली कंपनी के सहयोग से डलवाया और उनकी जासूसी करायी। मैं यह सोच रहा हूं कि अब इस मामले की जांच कौन करेगा और जो जांच होगी, उसका फलाफल क्या होगा?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मैं अपने बचपन को याद कर रहा हूं जब ये दोनों शब्द पहली बार मेरे सामने आए। उन दिनों घर में खेती होती थी। पापा-मम्मी और हम सब भाई-बहन मिलकर खेती करते थे। सबसे अधिक मेहनत धान की खेती में करना पड़ता है। पहले बीहन तैयार करना पड़ता है। बीहन को हमारे यहां मगही में मोरी भी कहते हैं। इसे तैयार करने के लिए सबसे पहले एक खेत को तैयार करना पड़ता है। जुताई के बाद उसकी सिंचाई और फिर गींजना आवश्यक होता है। यहां गींजना का मतलब कादो करना है और कादो करने का मतलब खेत की उपरी मिट्टी को हल्का कर देना। फिर उसमें धान के बीज डाले जाते हैं। गींजने का काम तब भी करना होता है जब बीहन को खेत में रोपना होता है। प्रक्रिया वही है। खेत की जुताई और यदि पहले से खेत में पानी नहीं है तो पटवन करना और फिर गींजना। इस प्रकार गींजना एक सकारात्मक रूप् में सामने आता है।
गांजने की बारी तब आती है जब धन की फसल हम काटते हैं। इस चरण में गींजना नकारात्मक हो जाता है। पुआल को हम पहले अंटिया के रूप में बांधते हैं। इसके लिए हमारे यहां एक इकाई भी है। इसे गाही कहते हैं। एक गाही का मतलब पांच अंटिया। फिर बोझा बनाते हैं ताकि तैयार फसल को खलिहान में ला सकें। उसके बाद अंटिया पीटने का काम होता है। मेरे घर में तो पापा की चौकी थी, जिसपर हम अंटिया पीटते थे। इससे होता यह है कि धान पुआल से अलग हो जाता है। फिर मांड़ने की प्रक्रिया। इन सबके बाद गांजने का काम होता है।
दरअसल, हमारे यहां तब भैंसे होती थीं। धान की फसल से हमारा और हमारी भैंसों दोनों के लिए खुराक का प्रबंध हो जाता था। हम धान को चावल में तब्दील कर भात खाते और भैंसों के लिए पुआल को काटकर कुट्टी बनाते। इस प्रकार धान के पौधे का हर हिस्सा उपयोगी होता था। पुआलों को सहेजने के लिए हम गांज बनाते। गांज बनाना कलाकारी वाला काम है। गांव में इसके विशेषज्ञ रहते थे। मेरा काम तो अंटिया फेंकना होता था। जैसे-जैसे गांज ऊंचा होता जाता, अंटिया फेंकने मेहनत बढ़ती जाती। पापा भी गांजने में सिद्धहस्त थे। लेकिन उनके पास इतना समय कहां होता था कि वे गांजें। लेकिन एक बार उन्होंने खुद ही गांजना शुरू किया। साथ ही यह कला हमदोनों भाइयों को देनी चाही। तब हमदोनों भाई बारी-बारी से फेंकने का काम करते और गांजने का भी। भैया सफल रहा सीखने में और मैं असफल। जब अंटिया का संयोजन खराब हो जाता तो पापा कहते कि यह तो गींज रहा है। गांजना कब सीखेगा।
[bs-quote quote=”मैं बंबई हाईकोर्ट द्वारा कल की गयी टिप्पणी के बारे में भी सोच रहा हूं। यह टिप्प्णी बंबई हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति एसएस शिंदे और न्यायमूर्ति एनजे जामदार की पीठ ने फादर स्टेन स्वामी के बारे में की है, जिनकी मौत बीते 5 जुलाई, 2021 को न्यायिक हिरासत में हो गयी। पीठ ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि “वह एक शानदार व्यक्ति थे और अदालत को उनके काम के प्रति बहुत सम्मान है।”
मैं यह सोच रहा हूं कि अदालतों का काम गींजना है या फिर गांजना? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मामले में तो मेरी स्पष्ट मान्यता है कि वे देश को गींज रहे हैं ताकि ब्लादिमीर पुतिन की तरह अंतिम सांस तक भारत के प्रधानमंत्री बने रहें।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
तब गींजना का दूसरा रूप मेरे सामने आया। यह नकारात्मक था। फिर तो कई वाक्य मिले जीवन में। मसलन, किताबें और कपड़े गींज कर मत रखो। खाना गींजकर मत खाओ।
मतलब यह कि जो चीज पहले से व्यवस्थित है, उसे इधर-उधर मत फैलाओ। यही होता है गींजने का मतलब और गांजने का मतलब सबकुछ सुव्यवस्थित तरीके से रखना।
मैं देश के बारे में सोच रहा हूं। हमारे हुक्मरान देश को गींज रहे हैं। इन दिनों पेगासस सॉफ्टवेयर की चर्चा है। भारत सरकार पर आरोप है कि उसने देश के अनेक नेताओं और पत्रकारों के फोन में यह सॉफ्टवेयर इजरायली कंपनी के सहयोग से डलवाया और उनकी जासूसी करायी। मैं यह सोच रहा हूं कि अब इस मामले की जांच कौन करेगा और जो जांच होगी, उसका फलाफल क्या होगा? क्या भारत के प्रधानमंत्री इस बात के लिए देश के लोगों से माफी मांगेंगे जिन्होंने पीएम पद की शपथ लेते समय गोपनीयता बनाए रखने की कसम खाई थी? क्या विदेशी संस्थान से जासूसी कराकर पीएम ने गोपनीयता का उल्लंघन नहीं किया?
मैं तो उन नेताओं, अधिकारियों और पत्रकारों के नामों की सूची को देखकर हैरान हूं जिनकी जासूसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने करवायी है। एक नाम है स्मृति इरानी का। द वायर की रिपोर्ट में बताया गया है कि 2014-15 के बीच स्मृति इरानी के विशेष कार्य अधिकारी रहे संजय खाचरू के फोन की जासूसी करायी गयी। मैं यह सोच रहा हूं कि राहुल गांधी व अन्य जो सरकार को पसंद नहीं हैं उनकी जासूसी का तो मतलब है। लेकिन स्मृति इरानी की जासूसी क्यों?
सोशल मीडिया पर स्मृति इरानी और नरेंद्र मोदी को लेकर भद्दे मजाक किए जाते हैं? कई बार तो मैंने लिखा कि ऐसा करना गलत है क्योंकि इससे एक महिला का अपमान होता है। लेकिन स्मृति इरानी की जासूसी नरेंद्र मोदी ने क्यों करवायी होगी? क्या वह सब जो सोशल मीडिया पर भद्दे मजाक के रूप में सामने आता है, उसमें कोई सच्चाई है? यदि नहीं तो फिर जासूसी क्यों? स्मृति इरानी तो केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सदस्य हैं।
खैर, मैं बंबई हाईकोर्ट द्वारा कल की गयी टिप्पणी के बारे में भी सोच रहा हूं। यह टिप्प्णी बंबई हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति एसएस शिंदे और न्यायमूर्ति एनजे जामदार की पीठ ने फादर स्टेन स्वामी के बारे में की है, जिनकी मौत बीते 5 जुलाई, 2021 को न्यायिक हिरासत में हो गयी। पीठ ने अपनी टिप्पणी में कहा है कि “वह एक शानदार व्यक्ति थे और अदालत को उनके काम के प्रति बहुत सम्मान है।”
मैं यह सोच रहा हूं कि अदालतों का काम गींजना है या फिर गांजना? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मामले में तो मेरी स्पष्ट मान्यता है कि वे देश को गींज रहे हैं ताकि ब्लादिमीर पुतिन की तरह अंतिम सांस तक भारत के प्रधानमंत्री बने रहें।
खैर, मोहम्मद इब्राहिम जौक की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं –
आज उनसे मुद्दई कुछ मुद्दआ कहने को है
यह नहीं मालूम क्या कहेंगे क्या कहने को है।
देखे आईने बहुत, बिन ख़ाक़ हैं नासाफ़ सब
हैं कहाँ अहले-सफ़ा, अहले-सफ़ा कहने को है।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।