Saturday, July 27, 2024
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जो कभी शहर के सन्नाटे को तोड़ता था

 मेरे मित्रों में उमेश प्रसाद सिंह एक ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने साहित्य की सर्वाधिक विधाओं में काम किया है अर्थात लेखन। लेकिन उनकी छवि मुख्य रूप से एक ललित निबंधकार और उपन्यासकार की है। उन्होंने कविताएँ भी लिखी हैं। एक प्रबंध काव्य जैसी कृति मधुशाला  भी दी है। उन्हें कविता से मतलब है, उसकी किसी […]

 मेरे मित्रों में उमेश प्रसाद सिंह एक ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने साहित्य की सर्वाधिक विधाओं में काम किया है अर्थात लेखन। लेकिन उनकी छवि मुख्य रूप से एक ललित निबंधकार और उपन्यासकार की है। उन्होंने कविताएँ भी लिखी हैं। एक प्रबंध काव्य जैसी कृति मधुशाला  भी दी है। उन्हें कविता से मतलब है, उसकी किसी धारा या मुख्यधारा से नहीं। मुख्यधारा के प्रतिकूल जाते हुए बच्चन जी की मधुशाला के तर्ज़ उन्होंने अपनी मधुशाला की स्थापना की। मैंने इसके कुछ छंद उन्हीं से सुने हैं और कुछ वाराणसी से प्रकाशित त्रैमासिकी समकालीन स्पंदन  में पढ़े हैं। पूरी पुस्तक नहीं पढ़ पाया क्योंकि उन्होंने पुस्तक मुझे दी ही नहीं। वे अपनी कुछ पुस्तकें मुझे नहीं देते हैं, उन्हीं में एक उनकी मधुशाला भी है।

न देने के पीछे कारण कुछ भी हो सकते हैं। मेरी कविता से एक भिन्न छोर पर होने के कारण भी, और दूसरे प्रकाशक से सीमित प्रतियाँ प्राप्त होने के कारण भी, तथा तीसरे, मेरे द्वारा पढ़े और सराहे जाने की अनाश्वस्ति के कारण भी। मैंने भी तो नहीं माँगा कि ज़रा मुझे भी पढ़ने को दीजिए। लेकिन सुने और पढ़े छंदों के आधार पर मेरी धारणा है कि उमेश प्रसाद सिंह की मधुशाला हू-ब-हू बच्चन जी की मधुशाला जैसी नहीं है। इसमें आज की समसामयिकता भी जुड़ी है, चाहे भाषा और प्रस्तुति का रूप हरिवंशराय बच्चन जैसा ही है। उमेश जी ने कविताएँ ज़्यादातर छंद या गीत विधा में लिखी हैं, इसलिए जब अपनी मधुशाला लिखी तो उसका रूप-विधान वही रखा जो बच्चन जी की मधुशाला का था।

[bs-quote quote=”उमेश जी के अब तक तीन उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। उनकी पहली प्रकाशित कृति रामकथा पर आधारित उपन्यास है  क्षितिज के पार जिसे उन्होंने बाइस-तेईस वर्ष की नाज़ुक अवस्था में लिखा था जैसे उत्तर-प्रौढ़ावस्था में मधुशाला। यह 1986 में प्रकाशित हुआ था और इसका द्वितीय संस्करण 1996 में आया। हालाँकि, इस उपन्यास से पहले 1985 में उनका कहानी संग्रह  यह भी सच है प्रकाशित हो चुका था। 1990 में उनके ललित निबंधों का संग्रह हवा कुछ कह रही है  आया था। फिर 1993 में ललित व्यंग्य संग्रह  बच्चों को सिर्फ़ गणित पढ़ाइए आया। रचनात्मक दृष्टि से सन् 83 से सन् 93 का समय उनके लिए बहुत उर्वर था। इस काल में उन्होंने कविताओं समेत अनेक कहानियाँ, निबंध और एक उपन्यास लिखा” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इस मधुशाला को वे मुक्तछंद में लिखते तो यह नया और चौंकाने वाला रचनात्मक उपक्रम होता और इसके ज़रिए उमेश जी साहित्य में एक लम्बी रेखा खींचते। उमेश जी यह भी कर सकते थे कि बच्चन जी की मधुशाला के हर गीत का ललित पाठ लिखते और उसमें आज के समय को दिखलाते। यह उनके लेखन की प्रकृति की मौलिकता के अनुरूप होता। यह चीज़ पाठकों के लिए नई होती और उमेश जी के लिए भी उपलब्धि और ख्यातिप्रद। ख़ैर, उमेश जी की उपलब्धियाँ और ख्याति ऐसे भी कम नहीं हैं। इसके लिए उनके पास अनेक कृतियाँ हैं।

अनेक विधाओं में सधी हुई आवाजाही

उमेश जी के अब तक तीन उपन्यास प्रकाशित हुए हैं। उनकी पहली प्रकाशित कृति रामकथा पर आधारित उपन्यास है  क्षितिज के पार जिसे उन्होंने बाइस-तेईस वर्ष की नाज़ुक अवस्था में लिखा था जैसे उत्तर-प्रौढ़ावस्था में मधुशाला। यह 1986 में प्रकाशित हुआ था और इसका द्वितीय संस्करण 1996 में आया। हालाँकि, इस उपन्यास से पहले 1985 में उनका कहानी संग्रह  यह भी सच है प्रकाशित हो चुका था। 1990 में उनके ललित निबंधों का संग्रह हवा कुछ कह रही है  आया था। फिर 1993 में ललित व्यंग्य संग्रह  बच्चों को सिर्फ़ गणित पढ़ाइए आया। रचनात्मक दृष्टि से सन् 83 से सन् 93 का समय उनके लिए बहुत उर्वर था। इस काल में उन्होंने कविताओं समेत अनेक कहानियाँ, निबंध और एक उपन्यास लिखा और हिंदी उपन्यासों पर बीएचयू से शोध डिग्री प्राप्त करके डॉ उमेश प्रसाद सिंह बने। उन्हें गुरु भी सृजन-सम्पन्न विद्वान डॉ शिवप्रसाद सिंह मिले जिनका मार्गदर्शन उन्हें शोध के साथ-साथ लेखन में भी मिलता रहा और वे उनसे प्रेरित होते रहे।

उमेश जी एक ओजस्वी युवा थे और यह युवोचित था कि वे साहित्यिक सरगर्मियों में प्रण-प्राण से सक्रिय रहें। इस दौर में उन्होंने एक पत्रिका भी निकाली जिसके शायद दो ही अंक निकल पाए। लेकिन मुझे याद है कि उस समय नेल्सन मंडेला अति दीर्घ कारावास से मुक्त हुए थे और उन पर लिखी मेरी कविता को उन्होंने प्रवेशांक में प्रकाशित किया था। इसी दौरान विचार-विमर्श और रचनात्मक प्रस्तुतिकरण के लिए उन्होंने एक साहित्यिक मंच भी स्थापित किया था जिसका नाम था समकालीन साहित्य मंच। इसमें प्रमुख रूप से थे– रामप्रकाश कुशवाहा, दिनेश कुशवाह, राजेन्द्र राजन, संजय गौतम, राजेश प्रसाद और मैं। जब कहा जा रहा था कि बनारस में साहित्यिक सन्नाटा है, समकालीन साहित्य मंच ने साहित्यिक प्रश्नों पर, यथा- हम क्यों लिखते हैं, आदि पर ताबड़तोड़ गोष्ठियाँ कीं। पुस्तक लोकार्पण, सामूहिक और एकल काव्य पाठ के आयोजन किए। इसने प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और अन्यान्य संस्थाओं तथा साहित्यिक हस्तियों का ध्यान खींचा। इस मंच की गोष्ठियों में डॉ विद्यानिवास मिश्र, डॉ शिवप्रसाद सिंह, प्रो चन्द्रबली सिंह, श्रीयुत् ठाकुर प्रसाद सिंह, डॉ बच्चन सिंह जैसे दिग्गजों समेत नगर के रचनाकारों की उपस्थितियों ने इसे एक बड़े साहित्यिक मंच के रूप में स्थापित कर दिया था। इसके कार्यक्रमों की रिपोर्टिंग भी सभी अख़बारों में प्रमुखता और सम्मान से प्रकाशित हुआ करती थी।

संभावना जगानेवाले समय के सार्थवाह का विजनरी लालित्य

वह समय संभावनाओं को जगाने और साहित्य को आगे ले जाने वाला था। लेकिन अचानक और अनायास इसका ग्राफ उतनी ही तेज़ी से गिरा जिस तेज़ी से उठा था। कारण कि कई मित्र नौकरी के सिलसिले में बनारस छोड़ गये और उमेश जी भी घरेलू परेशानियों और नये उद्यम के सिलसिले में बनारस छोड़कर चंदौली अपने गाँव चले गए। समकालीन साहित्य मंच के टूट जाने से नगर का साहित्य फिर सन्नाटे की भेंट चढ़ गया।

[bs-quote quote=”महाव्यास ने महाभारत की कथा लिखी है। कथा में उन्होंने मानव के संघर्ष को असंख्य पात्रों के माध्यम से विविध रूपों में दिखाया है। महाव्यास ने आख्यान का इतना विराट फलक उपलब्ध करा दिया है कि मानवता अपने इतिहास और वर्तमान को उसमें ढूंढ़ती रहे और अपनी भविष्य-दृष्टि पाती रहे। इस महाकाव्य में मानव-जीवन का कुछ भी नहीं छूटा है। सुख-दुख, जय-पराजय, पाप-पुण्य, छल-प्रपंच, युद्ध-शांति, स्त्री-पुरुष, राजा-प्रजा, भक्ति-शक्ति, मोह-ज्ञान, उन्नति-अवनति, संस्कृति-प्रकृति आदि कुछ भी। और सब कुछ इतनी रसात्मकता, तीव्रता, सघनता, गहराई, ऊंचाई, गूढ़ता, सूक्ष्मता और व्यापकता से कि सनातन मूल्यों की पहचान और काल विशेष में मानवजाति के जीवन और उसके पतन-उन्नयन के बोध, अध्ययन और विमर्श के लिए यह महाकाव्य विशालतम वैचारिक प्रयोगशाला की तरह स्थापित हो गया है। ऐसा सायास और अनायास भी होता है कि मनुष्य अपने समय के प्रश्नों पर विचार करते हुए महाभारत के चरित्रों और कथाओं में प्रवेश कर जाता है” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

चंदौली में अपने गाँव पहुँचकर उमेश जी ने एक महाविद्यालय स्थापित किया- ठाकुर प्रसाद सिंह उपांत महाविद्यालय। कुछ दिन ठीक-ठाक चलने के बाद यह महाविद्यालय भी आर्थिक कारणों से बैठ गया। इस समय की असफलताओं और अनिश्चितताओं ने उमेश जी की कलम को रोक दिया। क़रीब एक दशक से ऊपर का समय उनके छिटपुट लेखन तक ही सीमित रहा। नई सदी के प्रथम दशक के उत्तरार्द्ध में उनके लेखन ने फिर रफ़्तार पकड़ी। तेज़ी से लेखन करते हुए उन्होंने नये उपन्यास और प्रचुर मात्रा में ललित निबंध और कहानियाँ लिखीं। कविताएँ कीं। कई किताबों का सम्पादन भी किया जिसमें मेरी भी काव्य पुस्तक ” क़दम-क़दम ” है। पूर्व प्रकाशित मेरे चार काव्य संग्रहों से उन्होंने अपनी पसंद की कविताएँ लीं और अपनी भूमिका के साथ प्रस्तुत किया जो कथाकार और गाँव के लोग पत्रिका के सम्पादक रामजी यादव के अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित हुआ।

सन् चौदह के बाद नदी सूखने की सदी में , भारत की नई राष्ट्र भाषा ,  मैं तुम्हारा पता नहीं जानता, जो अब भी गूँज रहा है  नाम के ललित निबंधों के संग्रह आए। एक उपन्यास आया यह उपन्यास नहीं है और एक एकदम ताज़ा उपन्यास हस्तिनापुर एक्सटेंशन । संपादित कृतियाँ भी आईं और जनसत्ता जैसे अख़बार में उन्होंने लम्बे समय तक काॅलम भी लिखा।

यह सब करते हुए, लिखते हुए वे साठ वर्ष के होने को आए। एक परिपक्व व्यक्ति और लेखक की उनकी छवि उपलब्धिपरक है। उनके व्यक्तित्व में प्रेम, प्रसाद, आत्मीयता, समझदारी, अध्ययन और सहयोगशीलता के गुण समाए हुए हैं और उनके कृतित्व में भी झलकते हैं। वे एक अच्छे लेखक के साथ एक अच्छे वक्ता भी हैं। ज़रूरत पड़ने पर आशु लेखन भी उत्कृष्टता के साथ करते हैं। आप किसी पत्रिका का अंक निकाल रहे हैं और किसी विषय विशेष पर एक स्तरीय और गंभीर लेख की ज़रूरत हो और समय सीमा में यह काम करने वाला कोई नहीं मिल रहा हो तो उमेश जी को याद कीजिए। उमेश जी ज़रूर आपको एक सुन्दर आलेख उपलब्ध करा देंगे।

ललित निबंधकार उमेश प्रसाद सिंह अपनी पत्नी के साथ

उमेश जी की षष्टि पूर्ति पर मैं उन्हें शुभकामना देता हूँ कि उनका लेखन दिन दूना और रात चौगुना बढ़े। अब तक उन्होंने जो लिखा है उसके लिए बधाई देता हूँ। उन्हें हिन्दी साहित्य का एक बड़ा पुरस्कार यथाशीघ्र हासिल हो जिसके वे वर्षों से हक़दार हैं। उनके लेखन पर शोध कार्य और बढ़े, और बढ़े। उन्हें जनता पढ़े और पढ़े !

महाभारत की प्रयोगशाला में एक औपन्यासिक प्रयोग हस्तिनापुर एक्सटेंशन

महाव्यास ने महाभारत की कथा लिखी है। कथा में उन्होंने मानव के संघर्ष को असंख्य पात्रों के माध्यम से विविध रूपों में दिखाया है। महाव्यास ने आख्यान का इतना विराट फलक उपलब्ध करा दिया है कि मानवता अपने इतिहास और वर्तमान को उसमें ढूंढ़ती रहे और अपनी भविष्य-दृष्टि पाती रहे। इस महाकाव्य में मानव-जीवन का कुछ भी नहीं छूटा है। सुख-दुख, जय-पराजय, पाप-पुण्य, छल-प्रपंच, युद्ध-शांति, स्त्री-पुरुष, राजा-प्रजा, भक्ति-शक्ति, मोह-ज्ञान, उन्नति-अवनति, संस्कृति-प्रकृति आदि कुछ भी। और सब कुछ इतनी रसात्मकता, तीव्रता, सघनता, गहराई, ऊंचाई, गूढ़ता, सूक्ष्मता और व्यापकता से कि सनातन मूल्यों की पहचान और काल विशेष में मानवजाति के जीवन और उसके पतन-उन्नयन के बोध, अध्ययन और विमर्श के लिए यह महाकाव्य विशालतम वैचारिक प्रयोगशाला की तरह स्थापित हो गया है। ऐसा सायास और अनायास भी होता है कि मनुष्य अपने समय के प्रश्नों पर विचार करते हुए महाभारत के चरित्रों और कथाओं में प्रवेश कर जाता है। वहीं महाभारत पढ़ते हुए भी अनायास अपने समय के सवालों से टकराने लगता है। महाभारत अपनी अकूत और प्रचुर आख्यान-सम्पदा और विराट भाव-विचार भव्यता के शक्तिशाली प्रभाव के कारण आज भी जनमानस के साथ-साथ कवि, गल्पकार, विमर्शकार सब पर छाया हुआ-सा मिलता है, जैसा उनका अपना वर्तमान। यह भारतीय जीवन की निरंतरता का ज्ञोतक है। महाभारत के चरित्र और कथानक एक अमरता प्राप्त कर चुके हैं।

हस्तिनापुर एक्सटेंशन  महाभारत की कथा-भूमि से उद्भूत है। इसके मुख्य पात्र हैं गंगापुत्र भीष्म और कथानक है उनके संकल्प और कर्म-अनुभव। आजीवन ब्रह्मचर्य रहने की प्रतिज्ञा, कभी सिंहासन पर न बैठने की शपथ, सदैव राज्य की रक्षा का वचन, ये सब भीष्म के महान त्याग और तप को दर्शाते हैं। भीष्म के इस त्यागी और तपस्वी व्यक्तित्व ने उन्हें महाभारत के केंद्रीय चरित्रों में शिखर पर स्थापित किया है। उनके जीवन की विडम्बना यह है कि महाभारत का ऐसा शक्तिशाली चरित्र होते हुए भी हस्तिनापुर का सारा राज्य उनके सामने तहस-नहस हो जाता है। यह शिखर चरित्र राज्य-संरक्षक होते हुए भी राजसत्ता के सामने अपने को कुंठित, असहाय और अपमानित पाता है। इस विडम्बना की विर्निमिति क्या है ? मुख्यत: इसी प्रश्न से यह उपन्यास जूझता है। साररूप में इसका उत्तर यह उपन्यास जो सामने रखता है, वह है औचित्य के परे जाता हुआ अतिवाद जो स्वयं भीष्म की प्रतिज्ञाओं में है। वे राज्य की बागडोर संभाले स्वार्थी और कमज़ोर चरित्रों के हित में अपने को बलिदान करते रहते हैं। उनकी उदात्त

प्रतिज्ञाएं ही उनकी कमज़ोरियां बन गयी हैं। वे राजसत्ता के अनैतिक स्वार्थों को अपनी पूरी दृष्टिगत नैतिकता से पूरा करते रहते हैं। कई बार तो स्वयं को सीधे-सीधे अनैतिकता में झोंकते हुए भी वे ऐसा कर जाते हैं। स्वयंवर स्थल से काशीराज की तीन पुत्रियों का हरण उनका एक ऐसा ही कृत्य है जो उनके महान शौर्य और पराक्रम को दर्शाता है लेकिन साथ में उनका महा अन्याय भी दिखाता है। ऐसा ही अन्याय गांधारी को अंधे धृतराष्ट्र के लिए ज़बरन महारानी बनाकर लाने के प्रयास​ में भी दिखता है। उत्तर काल में भरी सभा में द्रौपदी का चीरहरण मौन रहकर देखते जाना भी उनके विराट चरित्र का वृहद पतन है। यहां वे पूरी तरह से दयनीय और दया के पात्र हो जाते हैं। उत्तर हस्तिनापुर में उनके पास सिर्फ़ छिन्न-भिन्न राज्य, राजपरिवारों का नाश, प्रजा की तबाही और शरशय्या रह जाती है जिस पर पड़े घोर पश्चाताप में जलते हुए वे मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं।

भीष्म की यह जीवन-कथा हमें आलोड़ित करने के लिए काफ़ी है। अपने इस उपन्यास में उमेश प्रसाद सिंह इसे अपने चिंतन और संवेदना का भाषिक कलेवर देते हैं। इस कथा को वह स्वयं नहीं कहते। महाभारत सीरियल की तरह समय से भी नहीं कहलवाते। वे इसे समय के आंसू से कहलवाते हैं। यह प्रयोग कथा के मर्म को और हृदयग्राही बनाता है। घटनाओं के क्रम में यह आंसू बार-बार उभरता और टपकता है। समय के इस रुदन को शब्दबद्ध करने के लिए जिस संवेदनात्मक भाषा की ज़रूरत थी वह उपन्यासकार उमेश प्रसाद सिंह के पास पहले से मौजूद थी जिसे हम उनके भाव-भरे ललित निबंधों में पढ़ते आये हैं। मर्म-पूरित संवेदनात्मक भाषा में इसे पढ़ना एक पाठक की प्रथम पाठकीय उपलब्धि है। अन्य उपलब्धियों में जहां इसके तर्क और विमर्श को जानना, संवेदना को ज्ञानात्मक तरीक़े से ग्रहण करना, काल और नियति, सृष्टि और मनुष्य, स्त्री और पुरुष, सत्ता और व्यक्ति आदि-आदि के संबंधों के सच को निर्मम और वस्तुनिष्ठ रूपों में देख पाना वगैरह है।

यह उपन्यास अपनी प्रस्तुति में समय के आंसू को वाचक बनाकर एक विशिष्ट रचना-विधान को सामने लाता है। इसमें एक नूतनता है। इस नूतनता ने कथा की मार्मिकता में जो नव आयामिक पहल की है उसे उपन्यासकार की विशिष्ट काव्यात्मक भाषा अंत तक संभाले चलती है और पग-पग पर संवेदना जगाती है। इसे वह भावों और विचारों के अंतर्द्वंद्व से संभव करती है। एक भाव के कई वर्ण इस उपन्यास के लगभग हर पैराग्राफ में मिल जायेंगे जो भाव को बेहद घनीभूत बनाते हुए व्यंजित करते हैं। बस एक छोटा-सा उदाहरण दूंगा— गांधारी के यौवन की अभिलाषाएं जल गयीं। प्रणय के सारे कुतूहल और कौतुक जल गये। सारी कुंआरी कामनाएं इस ज्वाला में जौहर करके सती हो गयीं।—

कहीं कई विरोधी भाव भी एक जगह इकट्ठा होकर भाव-स्थिति को एक सांद्र अर्थवत्ता देते हैं— वे अपने अंधेरे में भीष्म को देखती रहीं। परखती रहीं। पूजती रहीं। फटकारती रहीं। फुंफकारती रहीं।

घटनाओं के वर्णन में सर्वत्र भाषा का काव्यात्मक सौंदर्य, रसात्मकता और प्रवाह है जो पाठक को बांधे रखता है। चमत्कारपूर्ण शक्तियों वाले पात्रों और घटनाओं में अद्भुतता के कारण महाभारत अतिनायकों की अतिकथा लगती है। प्रश्न है कि दस-दस हज़ार हाथियों की ताक़त वाले नायक और चमत्कारी शक्तियों से परिपूर्ण ऋषि जैसे पराशर आदि और महाकथा की असंख्य घटनाएं आज की पाठकीयता के लिए कितना उपयुक्त हैं। जितना और जिस प्रकार से उपयुक्त है इस उपन्यास में उमेश प्रसाद सिंह ने संभव किया है। यह उपन्यास ऋषि पराशर और सत्यवती के मिलन से प्रारंभ होता है और भीष्म के प्रतिज्ञा-पदार्पण से उनकी शरशय्या तक जाकर समाप्त हो जाता है। इस उपन्यास ने किसी कल्पना -प्रविधि से आज के देश-काल को छुआ नहीं है। कथा भीष्म के प्राण-त्याग तक ख़त्म हो जाती है।

केशव शरण जाने-माने कवि-गद्यकार हैं ।

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