पहलगाम की नृशंस घटना की निंदा करने के लिए हिंदू-मुसलमान दोनों एक साथ आए। इसके बाद भी मुसलमानों के खिलाफ लगातार नफरत फैलाई जा रही है। इस त्रासदी के बाद मुसलमानों के खिलाफ निर्मित नफरत चरम पर है। पहलगाम त्रासदी पर हुई कार्रवाई के बाद देश के प्रधानमंत्री ने विदेश में विभिन्न प्रतिनिधिमंडल भेजकर इस त्रासदी का भारतीय पक्ष बताने का फैसला किया। प्रधानमंत्री को यह क्यों जरूरी लगा? क्या प्रधानमंत्री अपने द्वारा उठाए गए कदम का स्पष्टीकरण देते हुए विदेशी नेताओं की शाबासी लेने के इच्छुक थे?
घरेलू मोर्चे पर मोदी सरकार आजादी के बाद की सबसे ज्यादा असफल सरकार साबित हुई है, जिसने घरेलू समस्याओं को हल करने के बजाए, आम जनता का ध्यान इससे हटाने के लिए हर मौके पर विभाजनकारी नीतियां अपनाई और लगातार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने को अपना एकमात्र लक्ष्य बना लिया है। देश विरोधी ताकतें भी इसका फायदा उठाने में लगी है, जो पहलगाम में आतंकी हमले से सही साबित होता है।
यदि पहलगाम हमले में पाकिस्तान का हाथ है, तो भारत सरकार की आंख और कान (इंटेलीजेंस) कहां थी, क्या कर रही थी? जैसी कि खबरें छनकर आ रही है कि ऐसी अनहोनी होने की भनक इंटेलीजेंस को थी, उसका सक्रिय न होना या निष्क्रियता की हद तक जाकर ऐसी सूचनाओं को नजरअंदाज करना हमारी इंटेलीजेंस की सक्षमता पर और बड़े सवाल खड़े करता है। इतना ही बड़ा सवाल खड़ा होता है कश्मीर मामले को डील करने में केंद्र सरकार की नीतियों की विफलता पर।
सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे बड़े और मजबूत उपक्रमों में शुमार भारतीय जीवन बीमा निगम की सतह पर सब चंगा नहीं है। नयी नियमावली को लेकर प्रबंधन और अभिकर्ताओं के बीच रस्साकसी जारी है। बातचीत के असफल प्रयास के बाद प्रदर्शन के बाद अब भी अनिश्चितकालीन असहमति आंदोलन जारी है। एलआईसी प्रबंधन द्वारा कमीशन जब्त करने और लाइसेन्स खत्म करने की धमकी के चलते अभिकर्ता संगठनों ने अपनी रणनीति बदल ली है लेकिन वे शांत नहीं बैठे हैं। अभिकर्ताओं को दबाकर रखने और अपनी शर्तों पर जीने के लिए विवश करने की बात से यह स्पष्ट है कि एलआईसी अब उनको अपनी सबसे कमजोर कड़ी मान रहा है। क्या होगा इसका परिणाम? क्या प्रबंधन, बीमा व्यवसाय अथवा अभिकर्ताओं के लिए यह घातक होगा? अपर्णा का आकलन।
पिछले एक माह से आमरण अनशन पर बैठे बोद्ध भिक्षुओं का सरकार से अनुरोध है कि बोधगया महाविहार को ब्राह्मणों के मुक्त करा बौद्धों को सौंप दिया जाए। बोधगया महाविहार अधिनियम 1949, जिसके तहत महाविहार प्रबंधन में ब्राह्मणों को सदस्य नियुक्त किया गया था, को निरस्त किया जाए। भगवान बुद्ध ने जहां ज्ञान प्राप्त किया, वह स्थान बौद्धों के हाथ में नहीं है। विदित हो की हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी अक्सर दुनिया के सामने कहते हैं कि वे बुद्ध की धरती से आए हैं। ऐसे में क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं कि वे बौद्धों के सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण महाविहार को बौद्धों को सौंप देने की दिशा में आवश्यक कदम उठाएं। क्या बिहार और केंद्र सरकार को आमरण अनशन पर बैठे बौद्धों की सुध नहीं लेनी चाहिए? और उनके स्वास्थ्य का ख्याल रखते हुए तुरंत इस मसले का हल निकालना चाहिए।
संविधान ने दलितों और आदिवासियों के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन को मान्यता दी और उन्हें आरक्षण दिया जिसने समुदायों को किसी तरह से बनाए रखा। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी को 1990 में 27% आरक्षण मिला, कुछ राज्यों ने अपने स्तर पर इसे पहले भी लागू किया था। मोटे तौर पर इन ओबीसी आरक्षणों का 'यूथ फ़ॉर इक्वालिटी' जैसे संगठनों द्वारा कड़ा विरोध किया गया था। यहाँ तक कि दलितों और अन्य वर्गों के लिए आरक्षण का भी बड़े पैमाने पर विरोध होने लगा, जैसे 1980 के दशक में दलित विरोधी और जाति विरोधी हिंसा और फिर 1985 के मध्य में गुजरात में। इस बीच, चूंकि संविधान ने धर्म के आधार पर आरक्षण को मान्यता नहीं दी, इसलिए अल्पसंख्यक आर्थिक रूप से पिछड़ेपन में डूबे रहे।
एक सौ चौवालिस वर्ष बाद प्रयागराज में आयोजित होने वाला कुंभ 'हादसों का कुंभ' बना है, तो इस आयोजन के प्रबंधन की विफलता में शामिल सभी अधिकारियों और राजनेताओं को ढूंढकर उन्हें सजा दिए जाने की जरूरत है, क्योंकि उकसावेपूर्ण तरीके से लाए जा रहे तीर्थ यात्रियों के साथ इंसानों की तरह नहीं, जानवरों की तरह सलूक किया जा रहा है। कुंभ की यात्रा को संवेदनहीन रूप से मोक्ष और मौत की गारंटी बना दिया गया है। सत्ता में रहने का इससे घृणित तरीका और क्या हो सकता है? यदि यही हिन्दू राष्ट्र है, यदि यही विकसित भारत की ओर बढ़ने का रास्ता है, तो संघी गिरोह की इस परियोजना को अभी से 'गुडबाय-टाटा' कहने की जरूरत है।
अमेरिका ने भारतीय अप्रवसियों को जिस तरह वापस भेजा, वह व्यवहार अमानवीय होने के साथ अनैतिक भी है। इस तरह निर्वासन का शस्त्रीकरण केवल अमेरिका का मुद्दा नहीं है, यह असमानता की वैश्विक प्रणाली का हिस्सा है। वही नवउदारवादी नीतियां, जो लोगों को काम की तलाश में पलायन करने के लिए मजबूर करती हैं, वही नीतियां हैं, जो उनके आने के बाद उन्हें अपराधी बनाती हैं। वर्तमान अमेरिकी निर्वासन नीति नस्लीय पूंजीवाद की क्रूर अभिव्यक्ति है, जहां जरूरत पड़ने पर प्रवासियों का शोषण किया जाता है और सुविधानुसार उन्हें त्याग दिया जाता है। ये नीतियां कानून लागू करने के बारे में नहीं हैं; ये नियंत्रण, लाभ और राजनीतिक शक्ति के बारे में हैं।
महात्मा गांधी को लेकर आरएसएस लगातार दोहरा व्यवहार करता है। एक तरफ उनकी मूर्तियों का अपमान करता है, दूसरी तरफ जरूरत पड़ने पर उनकी पूजा करने से पीछे नहीं रहता। आरएसएस भले ही नाथूराम गोडसे से अपने संबंधों को नकारता रहे लेकिन महात्मा गांधी की हत्या से संबंधित बातों में उसकी भूमिका के नए-नए राज खुल रहे हैं। हाल ही में अंग्रेजी भाषा की पत्रिका 'ओपन' में रवि विश्वेश्वरैया शारदा प्रसाद के लेख और मनोहर मालगांवकर की पुस्तक 'द मैन हू किल्ड गांधी' में 30 जनवरी की घटना की पृष्ठभूमि और उसके अनेक पात्रों की कहानी बहुत विस्तार के साथ लिखी गई।आज महात्मा गांधी की हत्या को 77 साल हो गए हैं। इसके बावजूद महात्मा गांधी की हत्या की पहेलियाँ अभी भी उलझी हुई हैं, इस पर पढ़िए डॉ सुरेश खैरनार का लेख।
देश के जाने-माने अर्थशास्त्री और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह का 92वें वर्ष की उम्र में निधन हो गया। डॉ. मनमोहन सिंह ने भारत की अर्थव्यवस्था को नई दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे एक अर्थशास्त्री, शिक्षाविद्, नौकरशाह और राजनीतिज्ञ रहे, जिन्होंने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में दो बार कार्य किया। उनका जन्म 26 सितंबर, 1932 को हुआ था और उन्होंने अपनी शिक्षा पंजाब विश्वविद्यालय और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से प्राप्त की। 1982 से 1985 तक वे भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर रहे और पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री का दायित्व भी संभाला। 1991 में भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत करने का श्रेय उन्हें दिया जाता है। उन्होंने 2004 से 2014 तक अपने प्रधानमंत्री काल के दौरान कई महत्वपूर्ण नीतियों और कार्यक्रमों को लागू किया था।
किसी भी देश में धार्मिक कट्टरता का पहला निशाना वहां की महिलायें होती हैं। अफगानिस्तान हो या ईरान या भारत ही क्यों न हो। आज के समय में धार्मिक परम्पराओं का राजनैतिक उपयोग कर राज्य सत्ता समाज पर लादती है और यह सभी परम्पराएं समाज को 100 साल पीछे ले जाती हैं क्योंकि ये सभी परम्पराएँ घीसी-पिटी, दमनकारी व मानसिक गुलामी का झंडा उठाये रहती हैं। हिन्दू राष्ट्रवादियों और तालिबान की नीतियां और कार्यक्रमों में परिमाण या स्तर का फर्क हो सकता है मगर दोनों में मूलभूत समानताएं हैं।