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ग्राउंड रिपोर्ट

बहुजनों के लिए बहुत बुरा साबित हुआ है यह अक्तूबर

आज 2025 का अक्तूबर का आखिरी दिन है। यह माह कई कारणों से बहुजनों के लिए दु:स्वप्न बना रहा। इसी माह की दो तारीख को 1925 में स्थापित आरएसएस ने सौ साल पूरे होने का जश्न मनाया। इसी माह में छः तारीख को देश के राजनीति की दिशा तय करने वाले बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा हुई। लेकिन संघ के सौ साल पूरे होने व बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा के अतिरिक्त जिस एक अन्य कारण से इस बार का अक्टूबर दु:स्वप्न बना, वह है संघ के सौ साल पूरा होने के बाद से उत्तर प्रदेश सहित भाजपा शासित मध्य प्रदेश, हरियाणा में  दलित–बहुजनों के खिलाफ शुरू हुआ अपमान, भेदभाव और उत्पीड़न से लेकर आत्महत्या की घटनाओं का सिलसिला, जो अब तक थमने का नाम नहीं ले रहा है। अक्तूबर 2025 के आकलन का यह मौलिक तरीका निस्संदेह एक महत्वपूर्ण पद्धति है।

 

ताज़ी घटना ग्रेटर नॉएडा के रबूपुरा की है जहाँ 24 अक्तूबर को दलित युवक अनिकेत की मौत हो गई। 17 अक्तूबर को रबूपुरा क़स्बा स्थित आंबेडकर नगर के अनिकेत का जन्मदिन था। वह मोहल्ले के बाहर अपने दोस्तों संग जन्मदिन मना रहा था। तभी लक्ष्मीनगर के रहने वाले दर्जन से अधिक युवकों ने उन पर हमला कर दिया और उनको मरणासन्न अवस्था में झाड़ियों में फेंक कर फरार हो गए। अनिकेत की हालात इतनी गंभीर थी कि उसे दिल्ली के सफ़दरजंग हास्पिटल रेफर करना पड़ा, जहां उपचार के दौरान 24 की सुबह उसकी मौत हो गई। 24 को लगभग ऐसी ही घटना उन्नाव के भदउ खेडा गाँव के ऋतिक नामक यादव जाति के किशोर के साथ हो गई। वह दिवाली के समय भागवत कथा सुनकर घर लौट रहा था। लौटते समय जब एक ब्राह्मण परिवार के घर के सामने से गुजर रहा था, उस परिवार का पालतू कुता भूंकने लगा। उसने भूंकते कुत्ते को गाली दिया और डंडा दिखाया। यह बात कुत्ते के मालिक को नागवार गुजरी। अगले दिन कुत्ते के  मालिक ने उसे घर बुलाया और बुरी तरह पिटाई करने के बाद थूक कर चटवाया तथा करंट लगाया। इस घटना के बाद जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ते हुए 24 को यादव किशोर ने दम तोड़ दिया।

बताया जाता है कि ऋतिक की पिटाई करने वाला परिवार योगी सरकार में उपमंत्री पाठक का रिश्तेदार है, जिसका इलाके में काफी आतंक है। ऋतिक की दर्दनाक मौत के पहले 22 अक्तूबर को यूपी और मध्य प्रदेश में दलितों के खिलाफ अत्याचार की दो अलग-अलग ऐसी घटनाएं प्रकाश में आईं कि देश सन्न रह गया। खबरों के मुताबिक एक 60 वर्षीय दलित वृद्ध को लखनऊ के काकोरी इलाके में एक मंदिर के पास पेशाब करने के आरोप में मंदिर संचालक के पारिवारिक सदस्य द्वारा पेशाब  चाटने के लिए मजबूर किया गया, वहीं मध्य प्रदेश के भिंड में एक 25 वर्षीय दलित युवक का अपहरण किया गया और उसकी पिटाई करने के बाद पेशाब पीने के लिए विवश किया गया।

इसके पहले 18 अक्तूबर को न्यायालय परिसर में कार्यरत 23 वर्षीय नेहा शंखवार, जिसके पिता चकबंदी कानूनगो एवं भाई दारोगा हैं, ने सहकर्मियों की प्रताड़ना से आजिज आकर कचहरी की छठी मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी। नेहा सिविल जज सीनियर डिविजन में स्टेनो थीं। इसी दिन कपड़े बदलती छात्राओं का वीडियो बनाने के आरोप में एबीवीपी के तीन छात्र नेताओं के गिरफ्तारी की ख़बरें भी सामने आईं। इसी के आसपास उत्तर प्रदेश के बांदा जिले से एक खबर आई कि वहां के भाजपा समर्थक एक अपर कास्ट शिक्षक ने 7वीं कक्षा के एक छात्र को बुरी तरह पीट कर कह दिया कि तू अहीर है, पढ़कर क्या करेगा, जाकर भैंस चरा। ये तो छोटी घटनाएं हैं, इसके पहले  संघ की स्थापना के सौ साल पूर्ति के जश्न के माहौल में तीन ऐसी घटनाएं सामने आईं जिनकी चर्चा भारत सहित सात समंदर पार तक हुई।

दुनिया को हिलाकर रख देने वालीं दलित उत्पीड़न की तीन घटनाएं

सबसे पहले  रायबरेली के फतेहपुर के तारावती गाँव के रहने वाले 38 वर्षीय हरिओम वाल्मीकि की बर्बरतापूर्वक  हत्या की घटना सामने आई। फतेहपुर के रास्ते रात में पैदल ही अपनी ससुराल जा रहे हरिओम को ग्रामीणों ने चोर समझ कर  रोक लिया। उन्होंने पहले पुलिस को खबर की बाद में बर्बरतापूर्वक पीट-पीट कर हत्या कर दिया। प्राणरक्षा के लिए शेष में जब हरिओम ने राहुल गांधी को गोहार लगाया तो हत्यारे ग्रामीणों ने कहा कि ‘हम बाबा के लोग हैं, यहाँ राहुल गांधी नहीं, बाबा का राज चलता है!’ ग्रामीणों ने उस हत्याकांड का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल दिया।

रायबरेली में में दलित युवक की पीट-पीट कर हत्या

अभी वंचित वर्गों के लोग इस घटना के सदमे से उबर भी नहीं पाए थे कि 6 अक्तूबर को भारत के सुप्रीम कोर्ट में एक हतप्रभ करने वाली घटना हो गई। उस दिन भरी अदालत में चीफ जस्टिस पर एक वकील ने जूता फेंकने की कोशिश किया. हालाँकि वहां मौजूद सुरक्षाकर्मियों ने तुरंत उस शख्स को रोक लिया और उसे पकड़कर बाहर ले गए. बाहर जाते- जाते वह शख्स नारा लगाता,’ सनातन धर्म का अपमान, नहीं सहेगा हिन्दुस्तान!’ सीजेआई इस मामले में कोई भी आरोप दाखिल नहीं किये, न ही मुकदमा लिखाए, लिहाजा जूता फेंकने वाले को छोड़ दिया गया। इस घटना के बाद मीडिया में उसका साक्षात्कार लेने की होड़ मच गई। उसने मीडिया को बताया कि चीफ जस्टिस पर जूता फेंकने का काम उसने परमात्मा के आदेश पर किया था। एक साक्षात्कार में उसने मीडिया को बताया कि  ‘16 सितम्बर को किसी व्यक्ति ने एक पीआईएल दाखिल किया। गवई साहब ने उसका पूरी तरह मजाक उड़ाते हुए कहा कि मूर्ति से कहो कि वह खुद अपना सिर री-स्टोर कर ले! मैं इस घटना से बहुत आहत हुआ। हम देखते हैं कि यही चीफ जस्टिस बहुत सारे दूसरे धर्मों के खिलाफ कोई केस आता है तो जो दूसरे समुदाय के लोग हैं, उनके खिलाफ कोई केस आता है तो बड़े-बड़े स्टेप लेते हैं।’

जूता फेंकने की घटना पर चीफ जस्टिस द्वारा उदासीनता बरतने के बावजूद जगह-जगह दलित एक्टिविस्ट अपने स्तर पर घटना के विरोध में धरना- प्रदर्शन करने लगे। इस निंदनीय घटना के खिलाफ दलित संगठनों के विरोध के बीच ही हरियाणा के चंडीगढ़ से एक आहत करने वाली खबर आ गई। वहां वरिष्ठ पुलिस अधिकारी वाई पूरन कुमार ने चंडीगढ़ के सेक्टर-11 अवस्थित अपनी कोठी में खुद को गोली मरकर आत्महत्या कर ली, जिसके बाद पूरे देश के दलितों में शोक की लहर दौड़ गई। घटना स्थल से पुलिस को 8 पेज का अंग्रेजी में लिखा सुसाइड नोट मिला, जिसमे पूरन  कुमार ने जातिवाद, पोस्टिंग में भेदभाव, एसीआर में गड़बड़ी, सरकारी आवास न मिलने और वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा परेशान किये जाने का उल्लेख किया था। उन्होंने डीडीजी रैंक के अधिकारी पर बेवजह नोटिस भेजकर परेशान करने का आरोप भी लगाया था। उन्होंने सुसाइड करने के पहले यह नोट अपनी आईएएस पत्नी और दो अफसरों को भेजा था। विदेश से लौटकर उनकी आईएएस पत्नी ने बहुत आक्रामक अंदाज़ में घोषणा किया कि ’जो भी अफसर मेरे पति की आत्महत्या के लिए जिम्मेवार हैं, उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई कराऊँगी।’ आईपीएस पूरन कुमार की मौत ने हरियाणा पुलिस और प्रशासनिक सेवा में जातिवाद व दबाव की राजनीति पर एक बार फिर गंभीर सवाल खड़ा कर दिए हैं। बहरहाल संघ के सौ वर्ष पूरे होने के बाद सीजेआई गवई, आईपीएस पूरन  कुमार जैसे ऊँची हैसियत वाले दलितों को ही उत्पीडित नहीं किया गया।

बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान दुलार चंद्र यादव नामक कार्यकर्ता की हत्या

खुद भारत के संविधान निर्माण में डॉ. आंबेडकर के योगदानों को नकारने का दुस्साहस पूर्ण बयान जारी किये गए। कुछ दिन पूर्व बी आर आंबेडकर की जगह बी एन राव को संविधान निर्माता बताने का जो अभियान शुरू हुआ, उसे आगे बढाते हुए आरएसएस के पूर्व प्रचारक मनोहर लाल खट्टर ने कह दिया कि ‘संविधान आंबेडकर ने अकेले नहीं लिखा था। इसे लिखने का इतिहास लम्बा है, आंबेडकर को जबरदस्ती संविधान लिखने का श्रेय दिया गया। आज जब 31 अक्तूबर को यह लेख छपने के लिए जा रहा है दलित-पिछड़ों पर प्रभुत्वशाली जातियों द्वारा अत्याचार की और कई घटनाएं हो चुकीं है, जिनका स्थानाभाव के चलते जिक्र नहीं किया जा सकता!’

मनुवाद के खिलाफ दलित नेतृत्व खामोश तो राहुल गांधी मुखर                   

बहरहाल रायबरेली में हरिओम की पीट-पीट कर हत्या, सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस गवई पर जूते से वार और हरियाणा में आईपीएस अधिकारी वाई पूरन कुमार की आत्महत्या सहित इस अक्तूबर में मानवता को शर्मसार करने वाली अन्य घटनाओं के बाद जिस बात ने सबको विस्मित किया,  वह रही इन घटनाओं पर अपर कास्ट की ओर से आई प्रतिक्रिया! साफ़ दिख रहा था की सवर्ण बहुत आक्रामक हैं और उन्हें दलितों पर होने वाले अत्याचार के बजाय सनातन धर्म की रक्षा की चिंता ज्यादे है। ये घटनाएं मुख्यतः बीजेपी शासित राज्यों में हुईं और वहां की  सरकारें इस पर चुप्पी साधे रहीं। ताज्जुब इस बात से भी हुआ कि दलित नेतृत्व इन घटनाओं पर पूरी तरह ख़ामोशी अख्तियार किये रहा या फिर बीजेपी के साथ खड़ा नजर आया। मायावती बीजेपी के सुर में सुर मिलाते नजर आईं। उन्होंने 9 अक्तूबर को लखनऊ में लाखों दलितों को संबोधित करते हुए संदेश दिया कि ऊँची जाति के गरीब लोगों की  स्थिति अच्छी नहीं है और यूपी में बीजेपी सरकार के तहत विशेष रूप से ब्राह्मणों को परेशान  किया जा रहा है। वह चाहतीं तो लखनऊ की ऐतिहासिक रैली का सदुपयोग विश्व का ध्यान दलितों पर  हो रहे अत्याचार और आंबेडकर की  उपेक्षा की ओर आकर्षित करने में कर सकतीं थी, किन्तु ऐसा करने के बजाय उन्होंने योगी जैसे बुलडोजरी सोच के नेता के प्रति आभार प्रकट कर दुनिया को चौका दिया। बहरहाल मायावती के  साथ ही चिराग पासवान और जीतनराम मांझी भी इन घटनाओं पर चुप्पी साधे  रहे। आठवले जरूर कुछ बोले पर वह फुसफुसाहट से ज्यादा नहीं रहा। मुखर व सक्रिय दिखे एकमात्र राहुल गांधी, हरिओम और पूरन कुमार के परिवार से मिले और गवई वाली घटना पर तल्ख़ टिप्पणी किया।

ऐसा लगता है  दलितों के अपमान और विरोध का जिम्मा उनपर आ गया है और वे पीछे नहीं हट रहे हैं। उन्होंने हाल की घटनाओं पर प्रतिक्रिया देते हुए लिखा है,’हरियाणा के आईपीएस अधिकारी पूरन कुमार जी की आत्महत्या उस गहराते सामाजिक जहर का प्रतीक है, जो जाति के नाम पर इंसानियत को कुचल रहा है। जब एक आईपीएस अधिकारी को उसकी जाति के कारण अपमान और अत्याचार सहने पड़े – तो सोचिये, आम दलित नागरिक किन हालात में जी रहा होगा। रायबरेली में हरिओम वाल्मीकि की हत्या, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का अपमान और अब पूरन जी की मृत्यु। ये घटनाएं बताती हैं कि वंचित वर्ग के खिलाफ अन्याय अपनी चरम सीमा पर है। बीजेपी – आरएसएस की नफरत और मनुवादी सोच समाज को विष से भर दिया है। दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिम आज न्याय की उम्मीद खोते जा रहे हैं। ये संघर्ष केवल पूरन जी का नहीं, हर उस भारतीय का है जो संविधान, समानता और न्याय में विश्वास रखता है।’ बहरहाल इस अक्तूबर में हुई डरावनी व जघन्य घटनाओं के पीछे कौन सा कारण क्रियाशील रहा, उसे सही तरह से चिन्हित किया है तो राहुल गांधी ने। उन्होंने ठीक ही कहा है कि ये घटनाएं बताती हैं कि वंचित वर्ग के खिलाफ अन्याय अपनी चरम सीमा पर है। बीजेपी–आरएसएस की नफरत और मनुवादी सोच समाज को विष से भर दिया है। दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिम आज न्याय की उम्मीद खोते जा रहे हैं।

वास्तव में 2025 का अक्तूबर अगर डरावना बना है तो उसके पीछे उस मनुवादी सोच का हाथ है, जिसका पोषक संघ और भाजपा है और संघ की स्थापना के सौ साल पूरे होने के बाद याग उग्र रूप रूप में क्रियाशील हो गई है। अगर इन घटनाओं से निजात पाना है तो मनुवाद के खिलाफ नए सिरे से कमर कसना होगा। इसके लिए सबसे पहले यह जानना जरुरी है कि जिस मनुवाद का पोषक संघ और भाजपा हैं, वह मनुवाद क्या है और क्यों यह दलित–पिछड़ों के लिए भयावह बनते जा रहा है!

खतरनाक रूप अख्तियार करता मनुवाद

इस शब्द का उपयोग अक्सर उन लोगों के संदर्भ में किया जाता है जो जातिगत पदानुक्रम और सामाजिक भेदभाव जैसी मान्यताओं का समर्थन करते हैं। आमतौर पर, ‘मनुवादी’ शब्द का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो जाति व्यवस्था, ऊँच-नीच और महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण विचारों को बढ़ावा देते हैं। मूलतः हिन्दू धर्माधारित व्यवस्था के पोषक व विश्वासी ही मनुवादी कहलाते है। बहुत से लोगों की धारणा है कि मनुवाद, हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद में अंतर है। नहीं, कुछ अंतर दिखने के बावजूद भी इनमें मौलिक भेद नहीं है।  मनुवाद मनुस्मृति पर आधारित एक राजनीतिक दर्शन है जो जाति-आधारित सामाजिक व्यवस्था का समर्थन करता है; ब्राह्मणवाद वैदिक धर्म और कर्मकांड पर आधारित वह विचारधारा है जो ब्राह्मणों को विशेष दर्जा देती है, और इसे ऐतिहासिक रूप से हिंदू धर्म से जोड़ा गया है, जबकि  हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जो हिंदू पहचान पर केंद्रित है और इसमें ब्राह्मणवादी और गैर-ब्राह्मणवादी परंपराएं शामिल हो सकती हैं! किन्तु पूर्व पंक्तियों में कहा गया है कि इनमे मौलिक भेद नहीं है।

सच में मौलिक भेद इसलिए नहीं है क्योंकि तीनों ही हिन्दू धर्म का प्राणाधार वर्ण-व्यवस्था के पोषक हैं, जो मूलतः शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था के रूप में क्रियाशील रही। हजारों साल से कर्म आधारित जिस वर्ण व्यवस्था के द्वारा भारत समाज परिचालित होता रहा है, उस वर्ण- व्यवस्था में दलित, आदिवासी , पिछड़ों और महिलाओं  के लिए शक्ति के स्रोतों  का भोग पूरी तरह अधर्म घोषित रहा साथ में इनकी मानवीय सत्ता मानवेतर व अधिकारविहीन मनुष्य प्राणी की रही है। शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत होने के कारण ही इन्हें लिखने-पढने, राजनीति में भाग लेने, व्यवसाय-वाणिज्यादि के साथ अध्यात्मानुशीलन का कोई अवसर नहीं रहा। इनकी स्थिति में बदलाव लाने के लिए ही ज्योतिबा फुले, शाहू जी महाराज,रामासामी पेरियार, बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने अपने-अपने स्तर पर संग्राम चलाया।

मनुवादी भाजपा को शिकस्त देने का मन बनाएँ बिहार के मतदाता  

भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में फुले, शाहूजी, पेरियार बाबा साहेब इत्यादि बहुजन महापुरुषों से लेकर साहेब कांशीराम के सामाजिक परिवर्तन आन्दोलन को लगभग व्यर्थ कर दिया है। वह आज उस मनुवादी व्यवस्था को नए सिरे से लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रही है, जिसमें दलित, आदिवासी, पिछड़ों एवं महिलाओं को लिखने-पढने, राजनीति में भाग लेने, व्यवसाय-वाणिज्य आदि के साथ अध्यात्मानुशीलन का कोई अवसर नहीं रहा। चूँकि मनुवादी व्यवस्था में दलित, आदिवासी, पिछड़ों इत्यादि का शक्ति के स्रोतों का भोग अधर्म रहा इसलिए मनुवादी भाजपा ने उन सभी संस्थाओं को अंधाधुन  बेचने में सर्वशक्ति लगाया है, जहाँ जॉब पाकर बहुजन अधर्म की सृष्टि करते रहे। आज मनुवादी भाजपा सरकार की नीतियों के सौजन्य से शक्ति के समस्त स्रोतों के भोग के  दैवीय-अधिकारी वर्ग (अपर कास्ट) का शक्ति के समस्त स्रोतों पर 80-90% कब्जा हो गया है और लगता है भारत में सामाजिक परिवर्तन का चक्का विपरीत दिशा में घूमते हुए द्रुत गति से प्राचीन भारत में जा रहा है। इस दौर में मनुवाद नंगा नाच रहा है और शुद्रातिशूद्र सहित अल्पसंख्यक आतंक के साए में जीने के लिए विवश है। दो अक्तूबर को संघ की स्थापना के सौ साल पूरे होने के बाद से मनुवादियों का हौसला सातवें आसमान पर पहुँच गया है। आरएसएस ने पिछले सौ सालों में धीरे-धीरे मनुवादियों में नफरत का जो विष भरा है,उसका असर खुलकर सामने आने लगा है.इसी कारण यह अक्तूबर अभूतपूर्व रूप से दु:स्वप्न बन गया।

दो अक्तूबर के बाद मनुवादियों के बढे हौसले के कहर से देश को निजात दिलाना है, तो मनुवाद की पोषक भाजपा को जमींदोज करना होगा। मनुवाद से पीड़ित तबके इसकी शुरुआत बिहार विधानसभा चुनाव से करने का मन बनाएं। बिहार चुनाव एक निर्णायक चुनाव है। इसी से आने वाले दिनों में देश की राजनीति की दिशा तय होनी है। अगर बिहार में दुनिया की सबसे खतरनाक विचारधारा का पोषक भाजपा को शिकस्त मिलती है तो निश्चय ही शर्तियाँ तौर पर देश को मनुवाद के कहर से निजात मिलेगी। अगर परिणाम विपरीत रहता है तो आने वाला हर माह अक्तूबर से भी बदतर होते जायेगा।

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

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