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ग्राउंड रिपोर्ट

सामाजिक संवाद की कड़ियाँ टूटने से अकेले पड़ते जा रहे हैं बुजुर्ग

औसत उम्र में वृद्धि होने के बाद देश में बुजुर्गों की संख्या में वृद्धि हुई है। लेकिन सामाजिकता में लगातार कमी आई है, जिसकी वजह से बुजुर्गों में अकेलेपन की समस्या बढ़ गई है। इस बढ़ती हुई समस्या के लिए  विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सामाजिक संपर्क के लिए एक आयोग की स्थापना तीन वर्षों के लिए की है। स्वास्थ्य संगठन की चिंता वाजिब है लेकिन सवाल यह उठता है कि इस तरह की सामाजिकता  से क्या हल निकल पायेगा या यह केवल खानापूर्ति ही साबित होगा।

सुमिता, 80 वर्षीय वृद्ध महिला, जिनके पति की मृत्यु हुए 8 वर्ष हो चुके हैं। अकेलापन उन्हें खलता जरूर है लेकिन अपने बेटे-बहू और पोते-पोतियों के साथ रहती हैं। सुनाई कम देने के कारण हियरिंग मशीन लगाती हैं। इस वजह से बात भी कम करती हैं लेकिन सबके बीच बैठती हैं और कोई बात सुनाई नहीं देने पर बच्चे जोर-जोर से बोलकर बताते हैं। हंसने वाली बातों पर जोर से हँसती हैं। जब कभी वे चुप हो जाती हैं, तब बच्चे चिंतित हो उन्हें बाहर पुराने लोगों से मिलवाने ले जाते हैं। घर पर लोगों की आवाजाही होने से उनका न तो सोने का मन होता है न ही आराम करने का ही। उन्हें क्या खाना है, क्या पहनना है, बहू पूछती है और पसंद का विशेष ध्यान रखती है।

दूसरी एक 70 वर्ष की महिला है मालती, जिनके पति को गुजरे हुए मात्र दो वर्ष हुए हैं, वे अपने बच्चों के साथ रहती हैं, वे खाने-पीने का पूरा ध्यान रखते हैं लेकिन वे अकेला महसूस करती हैं क्योंकि उनके पास बतियाने व बैठने वाला कोई नहीं, उनका कहना है कि बतियाने का मतलब दिनभर की गपशप से नहीं बल्कि थोड़ी बहुत बातचीत, हालचाल से है। टीवी और मोबाइल है लेकिन कितनी देर देखकर कोई समय काटेगा? बात करने के लिए आस पड़ोस में है लेकिन रोज जाना तो संभव नहीं है।

ऐसी स्थिति कमोबेश हर परिवार के बुजुर्ग की है। बुढ़ापाजनित शारीरिक बीमारियाँ जो हैं सो तो हैं ही लेकिन अकेलेपन की स्थिति से जो मानसिक व्याधियाँ पैदा हो रही हैं, उन्हें किसी भी बीमारी की गिनती में शामिल नहीं किया जाता है। परिवार के सदस्यों का कहना है, बहुत काम किया अब आराम कीजिए। लेकिन आराम करने का तात्पर्य चुपचाप बैठना नहीं है।

समय काटने का मामला केवल स्त्रियों का ही नहीं है बल्कि अकेले रह गए पुरुषों का भी है। जहां बुजुर्ग पति -पत्नी दोनों साथ हैं, तब भी स्थिति थोड़ी ठीक रहती है।

आज से 35-40 वर्ष पहले तक संयुक्त परिवारों का बोलबाला था, जहां घर के वरिष्ठ व्यक्ति मुखिया होता था, काम भले उसे न करना पड़े लेकिन सारे निर्णय उसके द्वारा ही तय होते थे। पूरे परिवार को बांध के रखने का काम वह करता था। भरे-पूरे परिवार में सभी लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में सहभागी होते थे।

आज स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। एकल परिवार में बुजुर्ग माता-पिता को साथ रखना भी मुश्किल होता है। अच्छे-अच्छे परिवारों के बुजुर्ग माता-पिता वृद्धाश्रम में रहते हैं। भारत और अन्य एशियाई देशों में बुजुर्गों की मंशा होती है कि परिवार के लोग ही उनकी देखभाल करें। लेकिन आज की जीवनशैली में यह संभव नहीं हो पाता है। ऐसी स्थिति में वे अपने को असहाय और उपेक्षित महसूस करते हैं।

लेकिन ज़िंदगी भर घर संभालने और अन्य जिम्मेदारियों के चलते घरेलू जिन महिलाओं ने कभी अपने शौक या हुनर को तरजीह नहीं दिया था, उनका सोचना है कि घर के सदस्यों को किसी भी तरह की परेशानी नहीं होना चाहिए। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, शारीरिक और मानसिक शिथिलता बढ़ने से काम की गति में कमी आती है। धीरे-धीरे वे दूसरों पर निर्भर हो जाती हैं। सबसे बड़ी दिक्कत उनके अकेलेपन की होती है।

अकेले हो चुके वृद्ध लोगों के बीमार और अशक्त हो जाने पर स्थिति और ख़राब हो जाती जब वे आर्थिक रूप से मजबूत नहीं होते। ऐसी ही एक बड़े कलाकार की पत्नी जो विधवा हो चुकी हैं, चलने में अशक्त हैं, एक कमरे में अकेले पड़ी थीं और उनके खाना खाने के बर्तन एक अलमारी के नीचे रखे हुए थे।

ऐसा नही है कि केवल शहरों में ही यह स्थिति देखने को मिलती है बल्कि गांवों में भी यही स्थिति है। खेती किसानी करने वाली श्रमशील समाज के अधिकांशत: बुजुर्ग यह शहरों की सच्चाई है लेकिन गांवों में रहने वाले बुजुर्गों की स्थिति इसके उलट है। यहाँ भी अकेले बची महिलाएं उपेक्षित जीवन जीने को मजबूर हैं।

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समझना होगा कि अकेलापन है अनेक बीमारियों का कारण

हाल ही में 140 से अधिक देशों में किए गए मेटा-गैलप सर्वेक्षण के अनुसार, विश्व भर में लगभग चार में से एक व्यक्ति – जिनकी संख्या एक अरब से भी अधिक है – काफी हद तक अकेलापन महसूस करता है। यह अकेलापन बुजुर्गों के शारीरिक एर मानसिक स्थिति के लिए घातक है।

उम्र बढ़ने के साथ शारीरिक क्षमता जहां कम होती है, वहीं मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर होता है। यही कारण है कि 60 वर्ष से अधिक उम्र के 15 प्रतिशत लोग किसी न किसी मानसिक बीमारी जैसे अल्जाइमर, अवसाद, डिमेंशिया या एंगजाइटी जैसी बीमारी से ग्रसित रहते हैं।

यह अकेलापन अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग तरह से होता है। यह अकेलापन से अनेक प्रकार की बीमारियाँ जैसे हृदय संबंधी रोग का खतरा 30 प्रतिशत और डायबीटीज-2 का खतरा 98 प्रातिष्ट बढ़ जाता है। अवसाद  संबंधी मुश्किलें 14 प्रतिशत तक बढ़ जाता है।

आमतौर पर इन बीमारियों के लिए कभी भी अकेलेपन को कारण नहीं माना जाता या बताया जाती क्योंकि ऐसा लगता है, ये बीमारियाँ अन्य लापरवाही से पैदा हुई हैं जबकि अकेलापन तनाव की प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है, इससे सूजन बढ़ती है और आदत, व्यवहार व खानपान में बदलाव देखा जा सकता है।  जिसका सीधा-सीधा असर शारीरिक, मानसिक क्षमताओं के साथ और सामाजिक स्थिति में बदलाव में देखने को मिलती है।

आसामयिक मृत्यु का चांस 26 प्रतिशत, हृदयाघात का 30 प्रतिशत फेफड़े रोग का जोखिम 26 और पुरुषों में कैंसर रोग की आशंका 10 प्रतिशत होती है।

वहीं मनोवैज्ञानिक प्रभाव में अवसाद 14, चिंता 11 और आत्महत्या जैसे घातक कदम उठाने के चांस 27 प्रतिशत तक बढ़ जाते हैं।

वहीं सामाजिक प्रभाव और संपर्क सीमित हो जाते हैं। व्यक्तियों की रुचि के काम बंद हो जाते हैं और दवा अस्पताल पर समय और पैसा अधिक खर्च होते हैं।

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बुजुर्गों के अकलेपन की चिंता डबल्यूएचओ को भी

भारत सरकार की सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने  यूथ इन इंडिया 2022 की रिपोर्ट जारी की है, जिसके आने के बाद जो तथ्य सामने आए हैं, उनसे पता चलता है कि वर्ष 2021 से 2036 के दौरान बुजुर्गों की संख्या में लगातार वृद्धि होगी और युवा कम। इस रिपोर्ट में सामने आया है कि 2036 तक देश की जनसंख्या में युवाओं की संख्या घटकर 22.7 प्रतिशत पर आ जाएगी।

वर्ष 2023 में इंडिया एजिंग रिपोर्ट में वर्ष 2050 तक भारत में हर 100 में से 21 लोग बुजुर्ग होंगे।

अकेलेपन की गंभीरता को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तीन वर्ष के लिए सामाजिक संपर्क के लिए एक नया आयोग बनाया है। सामाजिक संबंधों को मजबूत करने लिए आयोग का गठन आश्चर्यजनक होने के साथ चिंताजनक भी है क्योंकि प्राकृतिक रूप से जिन सबंधों को जीते थे अब सैद्धांतिक रूप से जीना होगा। जो सहज तरीके से हमारे जीवन का हिस्सा था, उसे बताने के लिए आयोग बनाया गया ताकि सामाजिक संपर्क को बढ़ावा दिया जा सके।

डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक डॉ. टेड्रोस एडनॉम घेब्रेयसस ने कहा, ‘दुनिया भर में सामाजिक अलगाव और अकेलेपन की उच्च दर स्वास्थ्य और कल्याण के लिए गंभीर परिणाम हैं। पर्याप्त मजबूत सामाजिक संबंधों के बिना लोगों में स्ट्रोक, चिंता, मनोभ्रंश, अवसाद, आत्महत्या करने जैसी मनोवृत्ति की आशंका बहुत अधिक बढ़ जाती है।’

ऐसा माना जाता है कि सामाजिकता की कमी होने के कारण अल्जाइमर होने की आशंका 60 प्रतिशत बढ़ जाती है। सामाजिक गतिविधयों में हिस्सा लेने और लोगों के बीच रहने, बातचीत करने से इसका जोखिम कम होने की संभावना रहती है।

दुनिया भर में बुजुर्गों की जनसंख्या में भारत दूसरे नंबर पर है। यूएनओ के जनसंख्या कोष के अनुसार वर्ष 2022 में भारत में 60 वर्ष से ज्यादा उम्र के लोगों की संख्या 14.9 करोड़ थी, जो कुल आबादी का 10.5 प्रतिशत था। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2050 में इनकी जनसंख्या में 20.8 प्रतिशत की वृद्धि हो जाएगी।

अपर्णा
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अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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