अयोध्या के पंडों ने चढ़ावे में लड्डू के विरोध में राम मंदिर के आस-पास के दूकानदारों की दुकानों से लड्डू निकाल-निकाल जमीन पर फेंक दिये। मना करने पर वे गाली-गलौज और मारपीट पर उतर आए । उनका आक्रोश इस बात पर था कि भक्तगण मंदिर में पैसे चढ़ाने के बजाय लड्डू चढ़ाते हैं जिसे खाते-खाते वे और उनके रिश्तेदार ऊब जाते हैं लेकिन उनकी सुविधा की दूसरी वस्तुओं में भारी कमी आ गई है । अब वे न नए घर बनवा पा रहे हैं, न अपनी पत्नियों को नए गहने गढ़वा पा रहे हैं। यहाँ तक कि कान्वेंट में पढ़नेवाले उनके बच्चों की फीस भी टाइम से नहीं जा पा रही है। पंडे इस बात से बहुत दुखी हैं कि स्कूल प्रबंधन उन्हें लगातार फीस के तगादे के लिए फोन कर रहा है और फीस न जमा करने पर नाम काटने की धमकी दे रहा है।
यही नहीं, लगातार बढ़ती महंगाई, कडुआ तेल, रिफाइंड ऑइल, पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस जैसी चीजों के दिन दूने रात चौगुने बढ़ते दाम ने भी उनकी नाक में दम कर दिया है । एक तरफ अंबानी-अदानी की बेशुमार बढ़ती सम्पत्तियों से लगता है कि उन्होंने सारा देश खरीद लिया है तो दूसरी तरह नीरव मोदी विजय माल्या जैसे भगोड़े ऐश कर रहे हैं । तीसरी तरफ कॉर्पोरेट के आध्यात्मिक संत वेणुगोपाल धूत और चंदा कोचर जैसे बैंकिंग गबनिए हैं जिन्होंने सार्वजनिक सम्पत्तियों को पलाश की तरह खंखड़ बना डाला है तो चौथी तरफ चंपत राय, तिवारी, अंसारी हैं जो मिनटों में करोड़ों पीट लेते हैं। चारों तरफ ऐसे लोग बढ़ गए हैं जो बक़ौल खलील जिब्रान इसलिए सारी संपदा खा और सारे समुंदर पी जाना चाहते हैं कि उनको डर है यह सब कल बचे न बचे । ऐसे में वे लोग क्या करें जिन्होंने जीवन भर चढ़ावे से ही घर चलाया है। अयोध्या के पंडों का दुख कोई समझ ही नहीं पा रहा है । लाचारी और बौखलाहट में पंडों ने इसके कारणों का विश्लेषण किया तो पाया कि इधर बीच उनकी आमदनी बहुत ज्यादा घट गई है क्योंकि श्रद्धालु मंदिर में पैसे कम लड्डू ज्यादा चढ़ाने लगे हैं।
गौरतलब है कि हिन्दुत्व की तीखी लहर में ऊभ-चूभ भारत की धर्मभीरु जनता ने इधर कोरोना के कारण खाली खजाने के कारण भगवान को सीधे लड्डू ही खिलाने पर ज़ोर दे दिया । असल में जनता के बीच मची विचारों की उठापटक ने भी उनके भीतर एक द्वंद्व पैदा कर दिया है । उसका मन कहता है कि वह भगवान से सीधे संबंध रखे । इसलिए वह भगवान को लड्डू आदि चढ़ाना ज्यादा श्रेयस्कर समझती है । काशी, प्रयाग, विंध्याचल आदि के पंडों के कुकर्मों को देखकर उसे यह अहसास हो गया कि यह समुदाय उसे केवल उल्लू बनाता रहता है । इन सबसे ज्यादा आग में घी की तरह सामाजिक पत्रकार दिलीप मण्डल के उकसावे ने काम किया कि मंदिर में भगवान से सीधे संबंध रखना और पैसे-गहने की बजाय केवल फूल-लड्डू चढ़ाना सही है क्योंकि पैसे-गहने पंडे रख लेते हैं । जीवन भर वे कोई मेहनत नहीं करते इसलिए डायबिटीज़ और हृदयरोग जैसी बीमारियों का शिकार होते हैं । यह देश के हित में बिलकुल नहीं है ।
हम सब जानते हैं कि कोरोना आपदा की शुरुआत से लेकर आज तक मंदिरों और धर्म ट्रस्टों ने जनता की सेवा का कोई भी काम नहीं किया जबकि उनके तहखाने में बेहिसाब दौलत पड़ी हुई है और सब जनता की है । न उस पर जीएसटी लगती है न इन्कम टेक्स लगता है। समाज सेवा तो दूर उन्होंने अपने कर्मचारियों को भी बूढ़े बैल की तरह खूँटे से निबुका दिया । इसलिए आजीविका के मामले में पंडे हवा में झूल रहे हैं । बीच-बीच में उन्होंने सरकार से गुहार लगाई , रोये गिड़गिड़ाए । उनकी जाति-सभाओं ने अपील की तब जाकर सरकार ने उनको राहत पैकेज दिया लेकिन यह सब दरअसल ऊंट के मुंह में जीरा भर था । लिहाजा पंडा समाज में आक्रोश बढ़ता रहा । वे आगामी उत्तर प्रदेश चुनाव में सरकार गिराने की कसम का प्रचार करने लगे और उचित मौके की तलाश में थे।
अयोध्या में लड्डू के दुकानदारों की रौनक ने पंडों के मस्तक में रखी बारूद में माचिस की तीली का काम किया । वे ठट्ठ के ठट्ठ आए और लड्डुओं के थाल उठा-उठा कर जमीन पर फेंकने लगे। उन्होंने घोषणा की कि अब चढ़ावे में केवल पैसा चढ़ेगा। लड्डू बिलकुल नहीं !
धर्म नहीं यें धंधा हैं, इसमें फंसे जनता अंधी हैं। अंधविश्वास सें देश को बचाना है, यह सचाई बताना हैं।
बहुत अच्छे विषय पर लेखन हुआ है आजकल गांव में पंडित जी लोग सत्यनारायण बाबा का कथा कहते हैं तो दक्षिणा में सिद्धा पिसान लेना स्वीकार नहीं करते हैं उनको नगद नारायण दक्षिणा चाहिए होता है। यह केवल मंदिर ही नहीं हर जगह यही स्थिति है
आपका आलेख समसामयिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। शुरू की पंक्तियां व्यंग्य विधा में हैं, मैंने जब पढ़ना शुरू किया तो लगा कि कोई व्यंग्य पढ़ रहा हूँ, पर बाद की पंक्तियों में किसी पत्र के संपादकीय पृष्ठों में छपने वाले सम्पादकीय टिप्पणी का एहसास हुआ। आप तो बस छा गए गुरु…पूरा लेख पढ़कर आनंद आया।