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सूफ़ीवादः एक नूर ते सब जग उपज्यां

दूसरी किस्त  दक्षिण भारत में सूफ़ियों का आगमन ख़्वाजा हसन बसरी (मृ. 734 ई.) से बताया जाता है लेकिन इसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद नहीं है। फिर भी ऐसी संभावना को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि यह प्रमाणित हो चुका है कि भारत में मुसलमानों का आगमन इस्लामी पैग़म्बर के जीवनकाल में ही प्रारम्भ हो […]

दूसरी किस्त 

दक्षिण भारत में सूफ़ियों का आगमन ख़्वाजा हसन बसरी (मृ. 734 ई.) से बताया जाता है लेकिन इसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद नहीं है। फिर भी ऐसी संभावना को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि यह प्रमाणित हो चुका है कि भारत में मुसलमानों का आगमन इस्लामी पैग़म्बर के जीवनकाल में ही प्रारम्भ हो चुका था जो धर्म प्रचार के लिए यहां आते थे। मालिक-बिन-दीनार (मृ. 744 ई.) भारत के दक्षिणी समुद्र तट पर आए थे। अबूतमीम अंसारी के विषय में कहा जाता है कि वे इस्लामी पैग़म्बर के स्वर्गवास (632 ई.) के बाद भारत आए थे। चेन्नई से 50 किमी. दूर कोलम (तमीम नगर) में समुद्र तट पर उनका मज़ार आज भी श्रद्धालुओं के आस्था का केन्द्र बना हुआ है। शैख़ अब्दुल्लाह-बिन-अनवर, जो श्रद्धालुओं में ‘दादा हयात कलंदर‘ के रूप में जाने जाते हैं, का मज़ार चिकमंगलूर (कर्नाटक) में आज भी विभिन्न धर्मावलम्बियों की आस्था का केन्द्र है। इनके अलावा अबूउक्कासा, अब्दुर्रहमान अस्तख़री, अबूमूसा सिंधी, मुहम्मद-बिन-ज़याद सिंधी, रबीअ-बिन-शबीह, मकहोल सिंधी जैसे प्रमुख सूफ़ियों का नमन किया जाना भी जरूरी है। सूफ़ी संत नतहरवली (मृ. 1026 ई.) के नाम पर त्रिचनापल्ली में सूफी आध्यात्मिक केन्द्र बना ही  है।13

उत्तर भारत के सूफ़ियों का आगमन सुलतान महमूद ग़जनवी के मुलतान विजय (1009 ई.) से प्रारम्भ होता है। सुल्तान इल्तुतमिश के शासनकाल (1210-1235 ई.) में सूफ़ियों का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि सुलतान मुहम्मद गोरी के प्रशासक नसिरउद्दीन क़बाचा के विरुद्ध सूफ़ी संत शेख़ बहाउदीन ज़करिया (मृ. 1262 ई.) की शिकायत पर इल्तुतमिश ने उसका राज्य ही समाप्त कर दिया। जब शेख़ जलालउद्दीन तबरेजी़ (मृ.1226 ई.) दिल्ली पधारे तो इल्तुतमिश उनके स्वागत में शहर के बाहर तक गया और घोड़े से उतर कर उनका स्वागत किया। सुल्तान ग़यासउद्दीन बलबन (1266-1287 ई.) के बारे में कहा जाता है कि जब सूफ़ी शेख़ अली, दिल्ली से चिश्त वापस जाने को उद्धत हुआ तब बलबन ने उनके चरणों में गिरकर क़सम खायी कि यदि आप चिश्त गए तो मैं राज्य त्यागकर आपके साथ चल दूंगा। बलबन जब कभी बाबा फरीद गंजशंकर (मृ. 1269 ई.) की सेवा में उपस्थित होता, हाथ बांधे, गुनहगारों की भांति खड़ा रहता। सुल्तान अलाउद्दीन ख़िलजी (1316-1392 ई.) की ख़्वाजा निज़ामउद्दीन औलिया (मृ. 1224 ई.) के प्रति ऐसी श्रद्धा थी कि वह अपने दोनों बेटों-खिज्र ख़ान और शादी ख़ान को उनकी शरण में दे दिया था। सुल्तान फ़िरोजशाह तुगलक़ (1351-1388 ई.) के राज्य में ख़्वाजा जहांनियां-जहांगश्त (मृ. 1383 ई.) प्रत्येक दूसरे-तीसरे वर्ष दिल्ली पधारते तो सुल्तान शहर से बाहर जाकर उनका स्वागत करता।14

[bs-quote quote=”देखा जाये तो सूफीवाद का चरित्र एक स्त्रैण धर्म का है। पुरुष का समर्पण वाह्य कारकों से होता है जबकि स्त्री का अन्तःप्रेरणा से। इस्लाम में स्त्रैणता(जमाल) के अभाव को सूफीवाद पूरा करता है। ‘यहां अल्लाह का क़हर पौरुष भाव है और अल्लाह का रहम स्त्रैण भाव। अल्लाह के सारी सिफ़तों (गुणों) को तीन भागों में बांटा जा सकता है। एक पौरुषेयता(जलाल) के गर्म स्वभाव का गुण, दूसरा सौंदर्य और करुणा का गुण और तीसरा सर्वव्यापकता का गुण। जन्नत भी अल्लाह के जमाल यानी स्त्रैणता की अभिव्यक्ति है। तभी तो इब्नुल अरबी, शेखुल अकबर जैसे सूफी कवि स्त्री के चेहरे, उसके सौंदर्य को लेकर काव्य रचे। उनके अनुसार ईश्वर का सौन्दर्य स्त्री के मुखड़े में ही उच्चतम अभिव्यक्ति पाता है । स्त्री के रूपक में अल्लाह की बंदगी सूफ़ी मार्ग की मजबूत पाये बन गई ।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

भारत के उत्तर-पश्चिम में सूफ़ियों का आगमन मध्य एशिया से हुआ। सर्वप्रथम शेख सफ़ीउद्दीन गाज़रूनी सिंध घाटी के ऊछ में (लगभग 1025 ई. के आसपास) आए। महमूद गज़नवी ने जब पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया तब मध्य एशिया से सूफ़ियों का आगमन शुरू हुआ। जुनैदिय परम्परा के सूफ़ी शेख अबुल फ़ज्ल मुहम्मद-बिन-हारून ख़त्तली ने अपने शिष्य हुसैन ज़नजानी को लाहौर में धर्म सेवा हेतु नियुक्त किया। फिर एक और शिष्य अबुल हसन अली-बिन-उस्मान हज़वेरी (‘कश्फ़- अलमहजूब‘ पुस्तक के रचयिता) को सन् 1035 ई. में नियुक्त किया। कहा जाता है कि लाहौर में ज़नजानी के यहां ख़्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती भी गए थे।15 ख़्वाजा सय्यद अली हज़वेरी को ‘दातागंजबख़्श‘ की उपाधि मिली हुई है। ख़्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती ने उनकी मज़ार पर श्रद्धा-सुमन स्वरूप निम्न पक्तियां प्रस्तुत की थीं-‘गंजे-बख़्शे-फै़ज़े-अलम,मज़हरे-नूरे-ख़ुदा/नाक़िसां रा पीरे-कामिल,कामिलां रा रहनुमां।’

ख़्वाजा सय्यद अली हज़वेरी का स्वर्गवास लाहौर में ही सन् 1072 ई. में हुआ। महमूद गज़नवी के बेटे ज़हीरउद्दीन ने वहां मज़ार बनवाया तथा बाद में सम्राट अकबर ने ख़ानकाह और ड्योढ़ी का निर्माण कराया। भारत में इनके अलावा चिश्ती, सुहरवर्दिया, कुबराविया, हमदानी, कश्मीरी सूफ़ी, फ़िरदौसिया, नक़्शबंदी, क़ादिरिया, क़लंदरी, रणबांकुरी के अलावा महिला सूफ़ी परम्परा का भी फैलाव हुआ। सूफ़ियों ने कुरान में व्यक्त सर्वशक्तिमान एकेश्वरवादी अल्लाह की मान्यता को स्वीकार किया। इब्नुल अरबी के मत को उद्धृत करते हुए एम.एम. शरीफ कहते हैं- ‘‘वह एक ही अपने को अनके रूपों में अभिव्यक्त करता है। उसी प्रकार जैसे कोई वस्तु विभिन्न दर्पणों में अभिव्यक्त होती है। प्रत्येक दर्पण विभिन्न दर्पणों में अभिव्यक्त होती है। प्रत्येक दर्पण अपनी प्रकृति और क्षमता के अनुसार उस पदार्थ को प्रतिबिम्ब रूप में अभिव्यक्त करता है। वह एक प्रकाशपुंज की भांति है जिससे असंख्य प्रकाश की किरणें फूटती हैं अथवा वह उस शक्तिमान समुद्र के समान है जिसकी सतह पर असंख्य उर्मियां प्रकट और लीन हुआ करती हैं।16

सूफी दर्शन रिसाल-ए-हकनुमा’(1646) दारा शिकोह लिखित किताब का एक चित्र

भारतीय सूफीवाद पर पूर्वगामी सिद्ध संतों का प्रभाव पड़ा। नाथ परंपरा से सूफियों ने और सूफियों ने नाथों से बहुत कुछ सीखा।  प्रेम प्रधानता को परलौकिक शक्ति और भक्ति का मूलाधार बनाया । कबीर की वाणी और रहीम के दोहे प्रेम की पराकाष्ठा तक गये। ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के शिष्य अमीर खुसरो(1253 ई.), सूफी दर्शन में ऐसे रमे कि उन्हें कहना पड़ा- प्रेम भटी का मदवा पिलाइके/मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके। बाद की मुगल संस्कृति, भारतीय संस्कृति की रक्त सम्मिलित संस्कृति बनी। औरंगजेब और मुराद को अपवाद मान लें तो ज्यादातर मुगल शासक सूफी संस्कृति में जीये। कई महत्वपूर्ण सूफी संतों से मुगलों का घनिष्ठ संबंध रहा। सलीम चिश्ती(फतेहपुर सिकरी) और ख्वाजा निजामुद्दीन(दिल्ली) की दरगाहों को दिया गया महत्व आज भी हमारे सामने हैं। मुमताज और शाहजहां का वारिस दारा शिकोह(20 मार्च, 1615-10 सितम्बर,1659ई.) को सूफियों  और हिंदू सन्यासियों के साथ देखा गया।  उसने ‘सूफीनात अल औलिया’, ‘सकीनात अल औलिया’ नामक सूफी संतों की जीवन चरित्र पर पुस्तकें लिखीं । उसकी ‘रिसाल-ए-हकनुमा’(1646), और ‘तारीकात-ए-हकीकत’ नामक सूफी दर्शन की पुस्तकें उल्लेखनीय हैं । उसने ‘मजमा अल बहरेन’ में वेदांत और सूफ़ीवाद के शास्त्रीय शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया । सिक्ख धर्म के उदय के बाद, संत और सूफी वाणी का लहजा गुरुनानक (अव्वल अल्ला नूर उपाया, कुदरत दे सब वंदे / एक नूर ते सब जग उपज्यां, कौन भले कौन मंदे।) से लेकर बुल्ले शाह, वारिस शाह और बाबा फरीद के कलामों में देखा जा सकता है ।

अबुल हसन अली-बिन-उस्मान हज़वेरी

देखा जाये तो सूफीवाद का चरित्र एक स्त्रैण धर्म का है। पुरुष का समर्पण वाह्य कारकों से होता है जबकि स्त्री का अन्तःप्रेरणा से। इस्लाम में स्त्रैणता(जमाल) के अभाव को सूफीवाद पूरा करता है। ‘यहां अल्लाह का क़हर पौरुष भाव है और अल्लाह का रहम स्त्रैण भाव। अल्लाह के सारी सिफ़तों (गुणों) को तीन भागों में बांटा जा सकता है। एक पौरुषेयता(जलाल) के गर्म स्वभाव का गुण, दूसरा सौंदर्य और करुणा का गुण और तीसरा सर्वव्यापकता का गुण। जन्नत भी अल्लाह के जमाल यानी स्त्रैणता की अभिव्यक्ति है। तभी तो इब्नुल अरबी, शेखुल अकबर जैसे सूफी कवि स्त्री के चेहरे, उसके सौंदर्य को लेकर काव्य रचे। उनके अनुसार ईश्वर का सौन्दर्य स्त्री के मुखड़े में ही उच्चतम अभिव्यक्ति पाता है । स्त्री के रूपक में अल्लाह की बंदगी सूफ़ी मार्ग की मजबूत पाये बन गई ।’17

सूफ़ियों की सर्वात्मवादी भावनाएं विकसित होकर ईश्वर और जीव के संबंध में अद्वैत भावना तक पहुंच गईं। इस्लाम भावना के अंतर्गत ‘मैं ब्रह्म हूं (अहं ब्रह्मास्मि) की भावना का स्थान नहीं है। वहां ईश्वर और जीव की अलग-अलग सत्ताएं मानी गयी हैं। सूफ़ियों ने अपने चिंतन में इस ब्रह्मवादी विचार का समावेश किया। बायजीद विस्तामी ने कहा -‘तकून अंतजाक‘ अर्थात ‘वह तू ही है।‘ मंसूर हल्लाज का प्रसिद्ध वाक्य -‘अनहलक‘ (मैं ही सत्य ब्रह्म हूं), ‘अहं ब्रह्मास्मि‘ का अनुवाद प्रतीत होता है। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘किताबुल तवासीन‘ में लिखा- ‘मैं’ ‘वह’ (खुदा) हूं जिसे मैं प्रेम करता हूं और जिसे मैं प्रेम करता हूं वह ‘वह’ है । हम दो आत्माएं, एक शरीर है । यदि तुम मुझे देखते हो तो उसे भी देखते हो और यदि तुम उसे देखते हो तो हम दोनों को देखते हो।‘18 इन अद्वैतवादी विचारों का प्रसिद्ध सूफ़ी चिंतक इब्नुल अरबी ने विस्तार से वर्णन किया है। इन विचारों के परिणामस्वरूप सूफ़ियों के दो विचार मिलते हैं। एक ‘वहदतुल वजूद‘ में और दूसरा ‘वहदतुल शहूद‘ में विश्वास प्रकट करता है। ‘वहदतुल वजूद‘ का तात्पर्य है अस्तित्व, अन्य का नहीं। शेष अस्तित्व उसके प्रतिबिम्ब हैं जो उससे भिन्न नहीं कहे जा सकते। इसके प्रतिकूल ‘वहदतुल शहूद‘ के प्रतिपादक ईश्वर को एकमात्र सत्य मानते हैं। सृष्टि, उनके अनुसार प्रतिबिम्ब या आभास मात्र है। छाया में उस परमसत्य का आभास अवश्य मिलता है पर छाया को ही सत्य नहीं माना जा सकता। उपरोक्त दोनों विचारधाराएं इस्लामी ‘तौहीद‘ (एकेश्वरवाद) को प्रतिपादक बताती है। ‘तौहीद‘ की मूलभावना यह है कि ईश्वर एक है, पर सूफ़ी चिन्तकों ने इस विचार को एक डग आगे बढ़ाकर यह प्रतिपादित किया कि एक ईश्वर ही है अन्य कोई नहीं। सूफ़ी विचारकों में एक विचार प्रभाव बायजीय विस्तामी, मंसूर हल्लाज जैसों का है जिसके मुख्य प्रतिपादक इब्नुल अरबी तथा अब्दुल करीम-अल-जिली हैं जिन्होंने सूफ़ी दर्शन को भारतीय अद्वैतवाद की पीठिका पर अवस्थित करने का प्रयास किया। इसके प्रतिकूल दूसरा प्रभाव उन विचारकों का है जो मूल इस्लाम और तौहीद के दायरे के भीतर ही सूफ़ी दर्शन को समेटने का प्रयास करते हैं, जैसे प्रसिद्ध मीमांसक अल गज़ाली।

सूफ़ियों ने ईश्वर के साथ ही आत्मा के संबंध में अपने विचार प्रकट किए हैं। इस्लामी सृष्टि-प्रक्रिया के अनुसार-अल्लाह ने अपनी इच्छा से ही सृष्टि का निर्माण किया। उसके मुख से ‘कुन‘ (हो जा) शब्द निकलने से सृष्टि निर्मित हो गई। सबसे पहले उसने ‘मुहम्मदीय आलोक‘ (नुरूल मुहम्मदिया) का निर्माण किया। इसी से चार तत्व (अग्नि, हवा, जल और पृथ्वी), स्वर्ग, आकाश, तारे आदि का निर्माण हुआ। इसी से आदम, पैग़म्बर तथा सभी जीव बने। सूफ़ियों के अनुसार आत्मा, परमात्मा में लौटने के लिए अनजाने ही उत्सुक रहती है, क्योंकि वही उसका मूल उद्गम है। सूफी आत्मा के दो भेद बताते हैं-नफ़्स और रूह। ‘नफ़्स’ निम्नकोटि का माना जाता है जो कुप्रवृतियों का स्थल होता है। ‘रूह‘ सद्प्रवृतियों का उद्गम स्थल है और विवेक द्वारा परिचालित होता है। सूफ़ी नफ़्स पर नियंत्रण करके रूह को परमात्मा की ओर उन्मुख करने का प्रयास करते हैं।

सूफ़ी अपनी साधना को एक यात्रा मानते हैं जो चार पड़ावों से होकर गुजरती है। ये पड़ाव हैं- शरीअत, तरीक़त, मारिफ़त, और हक़ीकत। सभी इस्लाम धर्मानुयायियों के लिए शरीअत अर्थात कुरान के नियम के अनुसार आचरण करना आवश्यक है। यद्यपि मुसलमान के लिए शरीअत ही लक्ष्य है पर सूफ़ी इसके द्वारा आत्मनियंत्रण कर, आगे बढ़ जाता है। इस अवस्था में सूफ़ी साधक को ‘मोमिन‘ कहा जाता है। सूफ़ी आत्मनियंत्रण के लिए, सलात (नमाज़), जक़ात (दान), सौम या रोजा, तथा हज्ज का सहारा लेता है।

दूसरे पड़ाव तरीक़त में सूफी को ‘सालिक‘ कहा जाता है। दूसरे पड़ाव के लिए सूफ़ी को एक गुरु  की आवश्यकता होती है। यहां सूफ़ी समस्त सांसारिक संबंधों को छोड़कर गुरु की शरण में चला जाता है और परमात्मा के विरह में तड़पने लगता है। तीसरा पड़ाव मारिफ़त का होता है। यह अवस्था सूफ़ियों का ज्ञानकांड है। ज्ञान के दो भेद होते हैं-इल्म और म्वारिफ़। इल्म सांसारिक ज्ञान है और म्वारिफ़ ईश्वरीय। इस अवस्था में सूफ़ी ‘आरिफ‘ (ज्ञानी) कहलाता है। यहां पहुंचकर सूफ़ी को परमात्मा की परमसत्ता का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। वह उसके समस्त रहस्यों को जान जाता है। इसमें ‘हाल‘ (मूच्र्छा) की स्थिति आती है। वास्तव में सूफ़ियों का प्रधान साधन म्वारिफ़ ही है। जब आरिफ़ परमात्मा के सभी गुप्त रहस्य जान लेता है और उसके स्मरण (जिक्र) एवं ध्यान (फिक्र) द्वारा उसमें तल्लीनता के स्तरों को पार करता हुआ तदाकार हो जाता है, तब उसमें और उसके प्रियतम परमात्मा के बीच समस्त अंतर समाप्त हो जाता है। वह स्वयं हक बन जाता है। यह जीव की मुक्तावस्था (मकाम) होती है। यही वह अवस्था है जहां पहुंचकर साधक घोषित करता है कि मैं ही सत्य हूं (अनलहक)।

अंत में इतना और कि भारत में कारीगरों की जमात बहुतायत में सूफी पंथ की ओर आकर्षित हुई, विशेषकर बुनकरों की। कबीर भी उसी श्रेणी में आते हैं। सूफीवाद के अनेक विकल्प दूसरे पंथों में यथा-तांत्रिकों और भक्ति साधकों में दिखाई पड़ते हैं। सिक्ख धर्म पर भी सूफीवाद का जबरदस्त प्रभाव रहा है।  अपने परिवर्तनगामी, संगीत-प्रियता और साधना-संस्कृति के कारण कई बार सूफियों को कट्टरपंथियों का कोपभाजन बनना पड़ा है। फिर भी अपनी लोकतांत्रिकता, जनपक्षधरता के कारण वे आबाद रहे हैं ।19 सूफ़ी संस्कृति के चलते मजारों, उर्स और मेलों की जो परम्परा भारत में पनपी है, वैसी कहीं और नहीं। दुनिया के अधिकांश भव्य दरगाह और मेले इसी देश में स्थित हैं। देवमणि पांडेय के अनुसार -‘सूफियाना कलामों के जरिये सूफी शायरों और संतों ने लोगों को मुहब्बत का ऐसा खूबसूरत पैगाम दिया है कि उन्हें अपनी रूह के आईने में सारी दुनिया का अक्स नजर आने लगा।’ यहां धर्म की दीवारें ढहा दी गई हैं। इन मेलों में लाखों ने सूफ़ीरस का पान किया है। ऐसा हो भी क्यों न ? यह जीवन प्रेम रूपी दो दिनी मेला जो है। फिर तो-‘चार कहांर मिल डोलिया उठाई, संग परोहत, भाई‘। कौव्वालियों की जितनी खूबसूरत ‘समाअ‘ यहां बंधती है, अन्यत्र दुर्लभ है। यहां इस्लाम, अद्वैतवाद और रहस्यवाद का हिन्दवी ओज है, जहां आत्मा, परमात्मा के प्रेम कुएं में बढ़ती हुई कठिन परीक्षा के दौर से गुजरती है और मन कह उठता है -‘और सखी सब पी पी माती, मैं बिन पियां ही माती/प्रेम भट्ठी को मैं मद पीयो, छकी फिरूं दिन राती।’

(सुभाष चन्द्र कुशवाहा जाने-माने कवि, कथाकार,  संस्कृतिकर्मी और इतिहासकार हैं )   

 

संदर्भ ग्रंथ-

1-प्रेम सिंह, लोकसंघर्ष पत्रिका, जून 2010

2-वही

3-इस्लामी अध्यात्म सूफ़ीवाद-जाफर रजा, पृष्ठ 14

4-इन्फ्लुएंस ऑफ इस्लाम ऑन इंडियन कल्चर-ताराचंद पृष्ठ 51

5-वही, पृष्ठ 50

6-वही, पृष्ठ 52

7-सूफ़ीमत साधना और साहित्य-रामपूजन तिवारी पृष्ठ 183

8-इस्लामी अध्यात्म सूफ़ीवाद-जाफर रजा पृष्ठ 17

9-वही पृष्ठ 18

10-सहीह-अलबुखारी, हदीस सं. 766-3/1

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