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समाज विज्ञान के बरअक्स बौद्ध सभ्यता का सवाल

भाषा वैज्ञानिक डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह की पुस्तक ‘बौद्ध सभ्यता की खोज‘ में मौर्यकालीन मगध से सिंधु क्षेत्र तक फैली सभ्यता को बौद्ध परंपरा से जोड़ा है। इन क्षेत्रों से प्राप्त पुरातात्विक वस्तुओं में पीपल, स्तूप, बुद्ध का पहिरावा और ध्यान मुद्रा के चित्रों के आधार पर उसे बौद्ध सभ्यता करार दिया है। अपनी पुस्तक […]

भाषा वैज्ञानिक डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह की पुस्तक बौद्ध सभ्यता की खोज में मौर्यकालीन मगध से सिंधु क्षेत्र तक फैली सभ्यता को बौद्ध परंपरा से जोड़ा है। इन क्षेत्रों से प्राप्त पुरातात्विक वस्तुओं में पीपल, स्तूप, बुद्ध का पहिरावा और ध्यान मुद्रा के चित्रों के आधार पर उसे बौद्ध सभ्यता करार दिया है। अपनी पुस्तक की भूमिका में डा. प्रसाद ने कहा भी है कि प्राचीन भारत की जितनी पुरातात्विक सामग्री मिली है, वो बौद्ध सभ्यता की गाथा सुनाती है। वह यह भी घोषणा करते हैं कि पूरे एशिया का सांस्कृतिक इतिहास प्रकारांतर से भारत का सांस्कृतिक इतिहास है और पूरे भारत का सांस्कृतिक इतिहास एक आदमी की तमीज़ है, जिसे हम लाइट ऑफ एशिया यानी गौतम बुद्ध कहते हैं।

देश के सभी इतिहासवेत्ता यह मानते हैं कि सिंधु घाटी की खुदाई से प्राप्त एक मूर्ति शिव की है। शिव और बुद्ध में साम्य भी दिखता है। बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ प्रोफेसर सीएस उपासक भी शिव और बुद्ध में साम्य देखते हैं। वे पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों में प्रारंभिक तीन नाम- तणंकर, शणंकर व मेघंकर की चर्चा करते हुए बताते हैं कि शणंकर यानी शंकर।  शिव को शंभू भी कहा जाता है, क्योंकि वह बिना सद्गुरु के स्वयं के प्रयास से ज्ञान ( बुद्धत्व ) प्राप्त करते हैं, इसीलिए वह स्वयंभू ( शंभू ) हैं। शिव भक्त बोल बम का जयकारा लगाते हैं, जो बोल धम्म का परिवर्तित रूप है। जैसे बनारस और वाराणसी। इसके अलावा शिव का एक नाम मार्कण्डेय भी है। बुद्ध ने मार पर विजय प्राप्त की थी। उसका स्मरण दिलाता है मार्कण्डेय नाम।

अपनी पुस्तक बौद्ध सभ्यता की खोज में प्रोफेसर राजेन्द्र प्रसाद सिंह इस तथ्य को प्रकारांतर से कहते हैं। वह भाषा वैज्ञानिक हैं, इसलिए यह स्पष्ट करते हैं कि बुद्ध के तीनों पुरातन नाम द्राविड़ भाषा के हैं। वह सिंधु घाटी की सभ्यता को द्रविड़ करार देते हैं। उनकी दृष्टि में सप्त बुद्ध विपस्सी, सिखी, वेस्सभू, ककुसंध, कोनागमन, कस्सप और गोतम नाम प्राकृत भाषा के हैं, जो उत्तर भारत में मगध तक विभिन्न रूपों में बोले जाते रहे हैं। मगध के गोतम बुद्ध का संबंध भी पीपल के पेड़ से है। हालांकि अन्य बुद्धों का संबंध विभिन्न पेड़ों से रहा है। लेकिन, प्रश्न यह उठता है कि जब हम बौद्ध सभ्यता की बात करेंगे, तो जैन परंपरा को क्यों विस्मृत करें ? शिव दिगंबर हैं, तो महावीर जैन भी नग्नावस्था में दिखते हैं। महावीर जैन के पूर्व करीब दो दर्जन तीर्थंकर हैं, जिसमें कृष्ण के चचेरे भाई नेमिनाथ भी शामिल हैं। इसके अलावा हम इस संदर्भ में गोतम बुद्ध के पूर्ववर्ती महान चिंतक मक्खलि गोशालक को कैसे विस्मृत कर सकते हैं।

[bs-quote quote=”हमारे कतिपय बौद्ध समर्थक इतिहास के इस तथ्य को भूल रहे हैं कि मातृ समाज के बाद पुरुष प्रधान समाज अस्तित्व में आता है। मातृ सत्ता को खत्म करके पुरुष समाज पर अपना वर्चस्व कायम करता है। नारी दासी और दोयम दर्जे की नागरिक बना दी जाती है। जैन और बौद्ध चिंतन परंपरा पुरुष प्रधान समाज की उपज एवं अभिव्यक्ति है। यह समाज दास प्रथात्मक भी है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

प्रश्न यह है कि क्या समाज विज्ञान इतिहास के मानदंडों के आधार पर हम किसी बौद्ध सभ्यता की बात कर सकते हैं ? समाज विज्ञान की दृष्टि से इतिहास क्या है ? सुप्रसिद्ध इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसंबी ने बताया है कि इतिहास राजाओं का लेखा-जोखा नहीं है। वह इतिहास को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि किसी देश-प्रदेश में  उत्पादन के साधनों और उत्पादन संबंधों में होने वाले क्रमिक विकास-परिवर्तन का समेकित अध्ययन इतिहास है। इस परिभाषा के आधार पर क्या हम किसी बौद्ध या जैन सभ्यता की बात कर सकते हैं ? इतिहास में हमें वन्य, ग्राम और नगरीय सभ्यता दिखती है। जंगल जब गांव बनते हैं, तो उसमें पशु पालन और कृषि कार्य होते हैं। इतिहास में नगरों का उदय कुटीर उद्योग और व्यापारिक केंद्र के रूप में दिखाई पड़ता है। कालांतर में भारत में औद्योगिक केंद्र के रूप में शहर  विकसित होते हैं। जैसे जमशेदपुर, भिलाई, बोकारो।

सिंधु घाटी की सभ्यता को नगरीय माना जाता है। मौर्य काल में मगध के राजगीर और पाटलिपुत्र भी नगर हैं, जो विभिन्न राजाओं की राजधानी रही है। तब यह सवाल उभरता है कि क्या बुद्ध और अन्य बौद्धों का चिंतन नागर सभ्यता की उपज और अभिव्यक्ति है ? अगर हम मगध और आसपास के इलाके के ग्रामीण जीवन ( लोक जीवन ) पर गौर करते हैं कि सभी पुराने और नए गांवों में  काली माई का मंदिर और नीम का पेड़ दिखता है। काली मंदिर में भी नरमुंड वाली शास्त्रीय काली की प्रतिमा नहीं होती है। इन मंदिरों में सात पिंड होते हैं, क्योंकि काली माई सीतला, फूलमती सहित सात बहनें हैं। उनका एक भाई है- भैरव। ध्यातव्य है कि मगध व भोजपुरी प्रदेशों के गांवों में मांगलिक कार्य का प्रारंभ देवी गीत से होता है। किसी देवता के गीत नहीं गाए जाते हैं। यह इस बात का द्योतक है कि यह प्रदेश प्राचीन काल से ही देवी पूजकों का रहा है, जो मूर्ति कला से अनभिज्ञ थे। जबकि आर्य देव पूजक थे।

प्रश्न यह है कि नागर सभ्यता में ग्राम और नगर दोनों हैं, जहां पशु पालक, किसान, कारीगर और व्यापारी का संबंध जुड़ा होता है। इसके साथ प्रशासक के रूप में राजा अपनी भूमिका निभाता है। राजा के पास अगर विशाल सेना होती है, तो उनका खर्च कौन वहन करता है? तय है कि राजा किसानों से राजस्व की वसूली करेगा। राजमहल और उसके सेवक और कर्मचारियों तथा विशाल सेना का खर्च किसानों से राजस्व वसूली पर आधारित होता था। ऐसे में किसानों की आर्थिक स्थिति कैसी होगी ? बुद्ध के चिंतन, शिक्षा और कर्म में किसान, कारीगर और व्यापारी तबके किस रूप में नजर आते हैं ? विदित हो कि संघ में स्त्रियों और दासों का प्रवेश निषेध था। श्वेत वस्त्रधारी आनंद के प्रयास से ही स्त्रियों को संघ में प्रवेश की आज्ञा मिली। लेकिन, बुद्ध ने आज्ञा देते हुए अपने संघ के अधोगति होने की संभावना प्रकट करते हुए दुख जताया है। हम यह भी सवाल उठा सकते हैं कि राजाओं और बड़े कारोबारियों ने गोतम बुद्ध को मान-सम्मान तथा अनेक सुविधाएं क्यों उपलब्ध करायी? अन्य अनार्य परंपरा के दार्शनिकों की उपेक्षा क्यों कर दी गई?

खोये हुए बुद्ध की खोज

विदित हो कि कि प्राचीन बौद्ध परंपरा में हिंसा और पशु बलि की प्रथा भी थी। इतिहास में हिंसा और अहिंसा के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक कारण रहे हैं।  बेशक, भारतीय इतिहास में चिंतन के क्षेत्र में बौद्ध और जैन परंपरा है, लेकिन समाज में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन के अनुसार उनका रूप-स्वरूप बदलता भी रहा है। समाज विज्ञान की दृष्टि से हम किसी सभ्यता को बौद्ध या जैन सभ्यता नहीं कह सकते हैं। यूं भाषा वैज्ञानिक डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह की ‘खोये हुए बुद्ध की खोज पुस्तक के बाद उनकी यह नई किताब बौद्ध सभ्यता की खोज दरअसल भारत के विभिन्न इलाके में बौद्ध धर्म व चिंतन के प्रभाव को रेखांकित तथा तार्किक रूप से सप्रमाण उजागर करती है। इस नजरिए से ‘बौद्ध सभ्यता की खोज’ भारत के इतिहास का अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं व अध्येताओं के लिए एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस शोधपूर्ण पुस्तक के लिए भाषाविज्ञानी डा. राजेंद्र प्रसाद सिंह साधुवाद के पात्र हैं।

यह भी सच है कि आजकल कुछ बुद्धिजीवी और सामाजिक- राजनीतिक कार्यकर्ता बौद्धिज्म का खूब गुणगान कर रहे हैं। यह स्वीकार करने में किसी को कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि भारत के इतिहास में बुद्ध की परंपरा का सकारात्मक योगदान रहा है, लेकिन पूरे प्राचीन समाज को बौद्धमय सिद्ध करने की कोशिश एक सनक कही जाएगी। इस बौद्धिक सनक में  भारतीय इतिहास के बुद्ध के पूर्व समाज और उसकी परंपराओं की अनदेखी की जा रही है। जबकि उसके सामाजिक और सांस्कृतिक जीवाश्म हमारे समाज में आज भी जीवंत रूप में उपलब्ध हैं।

हमारे कतिपय बौद्ध समर्थक इतिहास के इस तथ्य को भूल रहे हैं कि मातृ समाज के बाद पुरुष प्रधान समाज अस्तित्व में आता है। मातृ सत्ता को खत्म करके पुरुष समाज पर अपना वर्चस्व कायम करता है। नारी दासी और दोयम दर्जे की नागरिक बना दी जाती है। जैन और बौद्ध चिंतन परंपरा पुरुष प्रधान समाज की उपज एवं अभिव्यक्ति है। यह समाज दास प्रथात्मक भी है। निजी संपत्ति, विवाह और शोषण मूलक वर्ग का उदय हो चुका है। राजसत्ता भी अस्तित्व में आ गई है। नारी और दास की नियति- हालात से समझौता करने की है। इसका चिंतन हमें मक्खलि गोसाल के चिंतन में दिखता है।

मगही और भोजपुरी प्रदेश के हर गांव में काली माई का चौरा  होता है। सावन और चैत में लोक विधि से काली माई की पूजा पूरे गांव के लोग समवेत रूप से करते हैं। काली माई की मूर्ति नहीं होती है। सात पिंड होते हैं, जो फूलमती और सीतला सहित सात बहनों के प्रतीक हैं। यह पाषाण कालीन मानव जीवन का सांस्कृतिक जीवाश्म है। गांवों में हर मांगलिक अनुष्ठान का प्रारंभ औरतों के समवेत रूप से गाए जाने वाले देवी- गीत से होता है। किसी देवता का गीत नहीं गाया जाता है। यह भी मातृ समाज का जीवाश्म है। प्रश्न उठाना चाहिए कि क्या जैन और बौद्ध धर्म के चिंतन- दर्शन के इतिहास में समाज के दलित, शोषित- पीड़ित मानवता तथा किसान, पशुपालक, कारीगर-शिल्पी सहित सभी मेहनतकश तबके की पीड़ा, दुख प्रतिबिंबित है ? बौद्ध धर्म या चिंतन को सम्राट अशोक मौर्य का संरक्षण मिला, तो जैन धर्म- चिंतन को व्यवसायी तबके का।

हमारे ग्रामीण समाज के सामाजिक- सांस्कृतिक जीवन में जैन- बौद्ध परंपराएं क्यों नहीं दिखती हैं? हमारे लोक जीवन से महान बौद्ध परंपराएं लुप्त क्यों हैं ? क्यों आज भी पूरे मगध प्रदेश के अलावा भोजपुरी इलाके में भी देवी पूजन की परंपरा कायम है, जिसमें बकरे और सूअर की बलि भी दी जाती है? इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि देवदत्त की परंपरा लोक जीवन में है, लेकिन बौद्ध चिंतन और धर्म अनुपस्थित है। आखिर क्यों ?

कुमार बिन्दु प्रतिष्ठित कवि और पत्रकार हैं । सासाराम में रहते हैं ।

 

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