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पंकज  : एक  प्रतिबद्ध  रूपांतरण

सरकारी मासिक पत्रिका के संपादक से प्रतिबद्ध मासिक पत्रिका के संपादक बनने की यात्रा निश्चित ही सहज नहीं होनी चाहिए। मानसिक,पारिवारिक और आर्थिक स्तरों पर बेहद चुनौतीपूर्ण रहनी चाहिए। सिर्फ प्रताप सिंह बिष्ट उर्फ़ पंकज बिष्ट के लिए ही नहीं, हर उस व्यक्ति के लिए जो संवेदनशीलता के साथ साथ चेतना संपन्न है और अपने […]

सरकारी मासिक पत्रिका के संपादक से प्रतिबद्ध मासिक पत्रिका के संपादक बनने की यात्रा निश्चित ही सहज नहीं होनी चाहिए। मानसिक,पारिवारिक और आर्थिक स्तरों पर बेहद चुनौतीपूर्ण रहनी चाहिए। सिर्फ प्रताप सिंह बिष्ट उर्फ़ पंकज बिष्ट के लिए ही नहीं, हर उस व्यक्ति के लिए जो संवेदनशीलता के साथ साथ चेतना संपन्न है और अपने इर्द-गिर्द व  देश-जहान के माहौल से बाखबर रहता है। लेकिन, पंकज  अपनी  सहज-स्वाभाविक शैली में समयांतर पत्रिका के संपादन की  दो दशकीय यात्रा तय करने जा रहे हैं। बगैर ढिंढोरा पीटे सरकारी नौकरशाही की सतह से उठ कर प्रतिबद्ध पत्रकारिता की ज़मीन पर इतने लम्बे समय तक बिना किसी प्रतिष्ठानी घराने की बैसाखियों के जमें रहना स्वयं में किसी उपलब्धि से घाट नहीं है।

 उपलब्धि इसलिए कही जाएगी क्योंकि समयांतर पत्रिका का एक भी अंक इस लम्बे सफ़र में ‘मिस’ नहीं हुआ है। निरंतर निकलती चली आ रही है और वो भी किसी बड़े ताम-झाम और बड़बोलेपन के। इस पत्रिका में विज्ञापन भी अपनी शर्तों पर लिए जाते हैं। कुप्रचारवाले विज्ञापन अवांछित श्रेणी में शुमार किये जाते हैं। बेशक़,पत्रिका को इससे आर्थिक क्षति ही उठानी पड़ती है, पंकज बिष्ट को यह सब कुछ मंजूर है, अपनी प्रतिबद्ध पत्रकारिता और सम्पादकीय स्वतंत्रता के खातिर।

 मैंने देखा है इन दो दशकों में कई लघु पत्रिकाओं को बंद या अनियतकालीन बनते हुए, समझौता करते व बदलते हुए भी, प्रतिबद्धता को तिड़कते हुए। लेकिन पंकज अपनी यात्रा से विचलित नहीं हुए। सदे डगों के साथ अपनी यात्रा जारी रखी। सरकारी पत्रिका ‘आजकल ‘ के संपादक पद से पिंड ( वी.आर.एस.) छुड़ा कर अपने ही दम पर इस पत्रिका को पुनर्जीवित कर दिया। पत्रिका की शुरुआत उनके पिता ने की थी लेकिन,लम्बे समय तक ‘कोमा’ में रही। पंकज ने पत्रिका को  कोमा मुक्त कर इसे नये तेवर के साथ निकाला। संपादन के पथ पर अकेले निकल पड़े। यात्रा में लोग साथ आते गए, कुछ दूर तक साथ दे कर बिछुड़ते भी रहे। लेकिन पंकज ने अपनी यात्रा जारी रखी और अगले अपने प्रतिबद्ध संपादन के बीस वर्ष पूरा कर लेंगे।

समयांतर के संपादन में मैंने पंकज को एक नए पंकज को जन्म लेते देखा है। यह पंकज सरकारी संपादक प्रताप सिंह बिष्ट से नितान्त भिन्न है। आजकल में उपसंपादक के रूप में जब पंकज ने अपनी सरकारी नौकरी शुरू की  थी तब मेरे लिए वह  कॉलेज के एक सामान्य ‘सहपाठी ‘ से लेखक -साहित्यिक पत्रकार बनने जा रहे थे। मैं एक न्यूज़ एजेंसी में  राजनीतिक संवाददाता के रूप में अपना सफ़र शुरू करने वाला था। मैं निजी क्षेत्र में था और पंकज सरकारी क्षेत्र में। राजधानी दिल्ली की महानगरीय दुनिया में हम लोगों की कोई हैसियत रही हो, ऐसा मुझे याद नहीं। अलबत्ता, पंकज अपने छोटे-मोटे लेखकीय दुनिया में रमे रहे, और मैं  छोटे-बड़े नेताओं के साथ। उन दिनों कांग्रेस का राज़ था, इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं पर दिल्ली की सरकार की लगाम तत्कालीन जनसंघ के नेता विजयकुमार मल्होत्रा के हाथों में थी। तब उन्हें मुख्य कार्यकारी पार्षद कहा जाता था, मुख्यमंत्री नहीं।

पंकज का दफ्तर इण्डिया गेट के पास पटियाला हाउस में थे,और मेरा मंडी हाउस में.दोनों के दफ्तरों का फासला दो-तीन किलो मीटर का रहा होगा। मेरे पास बजाज स्क्टूर था इसलिए दूरी बेमानी रहती। गाहे-बगाहे मिलते रहते और इंडिया कॉफ़ी हाउस पहुँच जाते(कनाट प्लेस ) पहुँच जाते। शुरू में इस सवारी की कुछ दुश्वारियां रहीं । पंकज ने अपने संस्मरण में इनका अच्छा चित्रण किया है। मैं इस संस्मरण में सिर्फ पंकज के ट्रांसफॉर्मेशन की ही खोज-खबर लूँगा।

यह इत्तफाक ही था किदोनों ने लगभग साथ पत्रकारिता की शुरुआत की। अर्थाभाव के कारण हिचकोले भी लेते रहे, मैंने न्यूज़ एजेंसी में यूनियनबाज़ी शुरू कर दी और वो भी संघ समर्थित एजेंसी (हिन्दुस्थान) में। क़ीमत चुकानी पड़ी और नौकरी से छुट्टी। पंकज अपने पद पर जमे रहे। उनकी साहित्यिक दुनिया का फैलाव होता रहा। छोटे-बड़े नामधारी लेखक उसमें शामिल होते रहे। जहाँ तक मुझे याद है कुछ अरसे  बाद  पंकज और असग़र वजाहत का साझा कहानी संग्रह प्रकाशित भी हुआ। हालाँकि, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स आदि में उनकी रचनाचर्चा भी होने लगी थी। यह बतलाना मुनासिब रहेगा कि इस समय तक  पंकज और न ही मैं, मार्क्सवादी बने थे । वैसे, पंकज इकनोमिक पोलिटिकल वीकली, जन, जैसी गंभीर पत्रिकाओं के दीवाने ज़रूर थे। समाजवादी ज़रूर थे, विरासत में पिता का ‘असर’ जो मिला था। ज़िद्दी, हठी, स्वयंनिष्ठ जैसे प्रवृतियां पंकज की दोस्त तो कॉलेज के ज़माने से रही हैं.इसलिए मैं और कवि सहपाठी इब्बार रब्बी सावधानी के साथ बतियाते थे पंकज से। रूठने की आशंका रहती थी। एक बार बिगड़ गया भाई, तो महीनों-सालों की छुट्टी (थोड़ा बहुत भय आज भी रहता है !)

तो 1971 में मैं युद्ध संवाददाता के रूप में ढाका तक पहुँच गया। 1972 में दिल्ली लौटा तो मैं बदल चुका था। पूर्णकालिक राजनीतिक एक्टिविस्ट की पारी शुरू हो गयी। मार्क्सवाद ने दबोच लिया था। इस बदलाव की सिलसिलेवार कहानी मेरी आत्मकथा में है। जहाँ तक पंकज का सवाल है, वह एकनिष्ठता से आजकल में सेवारत रहे।

[bs-quote quote=”पंकज, एक कथाकार के रूप में मज़ते-ज़मते चले गए। कहानियां छपती रहीं। जब उनका पहला उपन्यास ‘ लेकिन दवाजा ‘ मार्केट में आया तो दिल्ली का लेखक समाज स्तब्ध रहा गया। साहित्य अकादमी के गलियारों में गूँज होने लगी। राजधानी के कतिपय चिरपरिचित चेहरों को उपन्यास में अपने चहरे प्रतिबिंबित होने लगे। ज़ाहिर है, प्रशंसा और आलोचना की बारिश में दोस्त भीगने लगा। पर पंकज ने न तो अपना रचना कर्म छोड़ा, और न ही अपना मिजाज़ चोला बदला; कभी आजकल, कभी आकाशवाणी, कभी फिल्म डीवीजन जैसी सरकारी संस्थाओं में पूरे मनोयोग से काम करते रहे। किसी को अपनी भावी योजनाओं की भनक नहीं लगने दी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

जहाँ तक मैं जनता हूँ, पंकज कॉलेज के दिनों से ही संयमी रहे हैं। अनावश्यक बड़बोलेपन से बचना, अतिउत्साह के प्रदर्शन से दूर रहना, अराजक महत्वाकांक्षा को पास नहीं फटकने देना, सधी चाल से चलते रहना, व्यर्थ के विवादों  में उलझना नहीं, वाचलता से काफी दूरी। लेकिन, जो रास्ता सही है उसे छोड़ना भी नहीं। इससे पंकज की छवि में निखार आता गया। मित्र मंडली में जहाँ पंकज एक ‘टेरर’ के रूप में कुख्यात थे वहीँ  अपने ‘खरेपन ‘ व रिश्तों के प्रति ईमानदारी के लिए भी उतने ही विख्यात थे। संकटों में दोस्तों के साथ खड़े रहना पंकज की आदत रही है। मुझे इसका निजी अनुभव है, किसी की मदद के सार्वजनिक बखान से पंकज बचते रहे हैं। कुल जमा हाल रहा, पंकज की दोस्ती प्रगतिशीलों से ही आबाद रही। अलबत्ता, दोस्त नाराज़ होते रहे, जुड़ते भी रहे। नाराज़ होनी की वजह, दोस्त या लेखक को उसके मुंह पर ही खरी-खोटी सुना देना। जो जैसा है, वैसा कहना, मन भावन जुमलों से बचना। यह सही है, मेरा दोस्त, पर प्रशंसा के  मामले में मारवाड़ी बनिया को भी लजा सकता है ! बेहद कंजूस तारीफ को लेकर, स्वयं को लेकर भी कोई उदारता नहीं। इससे एक प्रकार की आत्मनिष्ठता की गंध आ सकती है।

पंकज, एक कथाकार के रूप में  मज़ते-ज़मते चले गए। कहानियां छपती रहीं। जब उनका पहला उपन्यास ‘ लेकिन दवाजा ‘ मार्केट में आया तो दिल्ली का लेखक समाज स्तब्ध रहा गया। साहित्य अकादमी के गलियारों में गूँज होने लगी। राजधानी के कतिपय चिरपरिचित चेहरों को उपन्यास में अपने चहरे प्रतिबिंबित होने लगे। ज़ाहिर है, प्रशंसा और आलोचना की बारिश में दोस्त भीगने लगा। पर पंकज ने न तो अपना रचना कर्म छोड़ा, और न ही अपना मिजाज़ चोला बदला; कभी  आजकल, कभी आकाशवाणी, कभी फिल्म डीवीजन जैसी सरकारी संस्थाओं में पूरे मनोयोग से काम करते रहे। किसी को अपनी भावी योजनाओं की भनक नहीं लगने दी। अपन राम भी राजनीतिक घाट से वापस पूर्ण कालिक पत्रकारिता में आ गए। दैनिक नयी दुनिया के ब्यूरो प्रमुख के रूप में राजनेताओं के साथ देश-विदेश नापते रहे। उधर पंकज की आखरी ठौर  ‘आजकल‘ ही रही, इसलिए जहाज के पंछी को पुनि पुनि लौटकर इंड़िया गेट के पड़ोस में स्थित पाटियाला हाउस में ही आना पड़ा।

एक लम्बे अरसे के बाद पंकज का दूसरा उपन्यास ‘उस चिड़िया का नाम’ प्रकाशित हुआ। साहित्यिक बिरादरी में फिर हलचल हुई। लेकिन पहले उपन्यास ‘लेकिन दरवाजा’ के समान नहीं। इसकी वजह साफ़ थी, पहले उपन्यास की संरचना सुगम थी, लेखक व पाठक दोनों के लिए। कथा सामग्री में भी नवीनता थी एक सीमा तक। इसलिए सभी ने नए उपन्यासकार का दिल खोल स्वागत किया। लेकिन दूसरे उपन्यास से यह सुख लेखक को नहीं मिला होगा क्योंकि इसकी कथा रचना जटिल थी। एक प्रकार से प्रयोगात्मक थे। लेखक ने इसमें ‘जादूई यथार्थ ‘ का प्रयोग किया। मिथकों के माध्यम से अपनी कथा को आगे बढाया। कहा जा सकता है हर्बर्ट मार्कुस का कहीं असर रहा होगा। उन दिनों उनके  विश्व प्रसिद्द उपन्यास ‘हण्ड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलीक्यूड’ की काफी चर्चा रही थी। लिकं, मेरी दृष्टि में यह उपन्यास पहले से कहीं अधिक सशक्त था। अपनी जटिलताओं की बावजूद, प्रयोगधर्मिता के धरातल पर मज़बूत था। सपाट ढंग से चीजें नहीं थीं। पात्र, आगे-पीछे के बारे में काफी कुछ कहा जाते हैं। संभवतया, हिंदी जगत में इसका प्रवेश समय की अपरिपक्व्ता की निशानी है; आलोचक, लेखक और पाठक इसके लिए तैयार नहीं थे। कुछ ऐसी ट्रेजेडी पंकज के तीसरे उपन्यास  ‘पंखोंवाली नाव ‘ के साथ भी  घटी है। विषय वस्तु के स्तर पर यह नितांत ही भिन्न है। मुझे लगता है, बौद्धिकता व अमूर्तता, दोनों लेखक पर हावी हो जाते हैं जिसके लिए व्यापक स्तर पर हिंदी समाज अभी तैयार नहीं है।

मूलतः हिंदी समाज सीधी-सपाट कथावस्तु का लम्बे समय से अभ्यस्त है। जादूई यथार्थ से अपरिचित भी उसे यह विधा सहज गम्य नहीं है। इसलिए अपेक्षित स्वागत इन दोनों कृतियों को नहीं मिला। वैसे लेखक को इसकी परवाह भी नहीं है। स्वांतसुखाय के लिए वह लिखते हैं, कहते भी हैं कि ‘मैंने तीन उपन्यास लिखे हैं। अपनी कसौटियों पर लिखे हैं। मेरे लिए पर्याप्त हैं। जितना मान-सम्मान मिलना था, काफी है।  मैं चाहता तो और भी लिख सकता था पर मैंने ऐसा नहीं किया ।’

[bs-quote quote=”जब नयी सदी की शुरुआत के साथ समयांतर ने दस्तकें देना आरम्भ किया तो कुछ क्षेत्रों को अविश्वसनीय भी लगा। शुरू के कुछ अंको में लिखा भी। जैसे जैसे पत्रिका का सफ़र आगे बढ़ता गया पंकज का नया रूप निखरता गया। प्रतिबद्धता की धार पैनी होती चली गयी। पंकज एक नए अवतार में सामने आ रहे हैं। इस नए रूप से तो मैंने यही महसूस किया कि समयांतर एक लावा बन कर पंकज के सीने में धधकता रहा है। बाहर फूटने के बस इंतज़ार में था। मौक़ा मिलते ही बाहर बह निकला। इसे लेखक का  कैथार्सिस भी कह सकते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

सरकारी सेवा में पंकज जब तक रहे, मैं नहीं समझता उन्होंने राजनीतिक वैचारिकी के स्तर पर कोई जोहर दिखाए हों। वे सरकारी सेवा के अनुशासन का ईमानदारी के साथ पालन करते रहे। कभी उन्होंने मार्क्सवादी चेतना के बडबोलेपन का प्रदर्शन भी नहीं किया। वे दिल्ली से बाहर किसी तबादले पर भी नए गए; दिलशाद गार्डन, शाहदरा, चांदनी चौक, पुरानी दिल्ली, पटियाला हाउस, आकाशवाणी भवन, कनाट प्लेस, कॉफ़ी हाउस, सप्रू हाउस, मंडीहाउस, साहित्य अकादमी,  इण्डिया इंटर नेशनल सेंटर जैसे स्थानों के इर्द-गिर्दअपनी दिनचर्या को घुमाते रहे लेकिन, अपने कंसर्न व्यापक रखे। बहसों में इसकी भड़ांस निकलती रही। लेकिन, सरकारी नौकरी से पिंड छुड़ा लेंगे, इसका अंदाज़ा मुझे नहीं था। भला इस ज़माने में भला कौन सरकारी नौकरी और पेंशन से  इस तरह जल्दी पीछा छुड़ाना ! परिवार की ज़िम्मेदारी भी तो कोई चीज़ है; दो बेटियां और एक बेटा है। उनको पढ़ाना -लिखाना और शादी जो करना है। माना, पत्नी ज्योत्सना एक सरकारी डॉक्टर हैं। अस्पताल में हैं, भविष्य सुरक्षित है लेकिन, पंकज अधबीच में सर्विस छोड़ कर घर बैठ जायेंगे, भरोसा नहीं था। पंकज अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां सफलतापूर्वक निभाते रहे हैं; भाई-बहनों की अच्छी देखभाल, माता-पिता को देखना, रिश्तेदारी को निभाना, मैं समझता हूँ पंकज आंतरिक रूप से बेहद सुव्यवस्थित रहे हैं। अनावश्यक ‘तुर्रमखां‘ बनने की कोशिश नहीं करते हैं। यह प्रवृति कॉलेज के दिनों से ही देखता आ रहा हूँ। जब मैंने एक रोज़ सुना कि पंकज ने अपनी मर्ज़ी से समयपूर्व नौकरी को तलाक दे दिया है, तो कुछ हैरत हुई। उन दिनों मैं भोपाल में एक मीडिया विश्विद्यालय में प्रोफेसरी कर रहा था। दिल्ली 1999 में छोड़ दी थी। सदा यायावरी की है, नौकरी में रहूँ या बाहर। बेतरतीब!

जब नयी सदी की शुरुआत के साथ समयांतर ने दस्तकें देना आरम्भ किया तो कुछ क्षेत्रों को अविश्वसनीय भी लगा। शुरू के कुछ अंको में लिखा भी। जैसे जैसे पत्रिका का सफ़र आगे बढ़ता गया पंकज का नया रूप निखरता गया। प्रतिबद्धता की धार पैनी होती चली गयी। पंकज एक नए अवतार में सामने आ रहे हैं। इस नए रूप से तो मैंने यही महसूस किया कि समयांतर एक लावा बन कर पंकज के सीने में धधकता रहा है। बाहर फूटने के बस इंतज़ार में था। मौक़ा मिलते ही बाहर बह निकला। इसे लेखक का  कैथार्सिस भी कह सकते हैं। कितनी प्रकार की त्रासदियाँ एक रचनाकार की आंतरिक दुनिया में घटती रहती हैं, कौन जानता है। सिर्फ  उसकी कृतियाँ हीं माध्यम बनती हैं आंतरिक त्रासदियों की।

लावा बहता आ रहा है। समयांतर ने पंकज को नयी पहचान दी है और उन्होंने पत्रिका को हिंदी में एक स्वस्थ्य विमर्श और पोलिमिक्स का अभाव शिद्दत से खटक रहा था। राजेंद्र यादव जी ने ‘हंस’ के ज़रिये ज़रूर इस कमी को पाटा। लेकिन, हंस पत्रिका का मिज़ाज़ साहित्यिक ज्यादा रहा। रमेश उपाध्याय की पत्रिका ने भी इस क्षेत्र में अपनी भूमिका निभायी थी। आनंद स्वरुप वर्मा की ‘तीसरी दुनिया ‘को भी इस कतार में रख सकते हैं लेकिन, ये पत्रिकाएं कभी बसंत-कभी पतझर की चपेट में रहती रहीं, नियमित नहीं रह सकीं। इस दृष्टि से मित्र पंकज आज तक अपने मोर्चे पर डेट हुए हैं। पंकज ने अपनी पत्रिका को  सोशल साइंस के ओज़ारों से लैस रखा है। लघु पत्रिका होने के बावजूद अंग्रेजी के खांटी नामधारी  बुद्धिजीवी इसमें अपनी उपस्थिति सहर्ष दर्ज कराते  हैं, नियमित स्तम्भ लिखते हैं। हिंदी के किसी भी संपादक के लिए यह ईर्षा का विषय हो सकता है।

सारांश में, समयांतर  ‘वन मैन शो‘ है। एक समय ट्रस्ट का विचार भी हुआ था लेकिन किन्ही कारणों से यह बन नहीं सका। इच्छा होते हुए भी पंकज इसे साकार नहीं कर सके। इस मोर्चे पर उन्होंने पर्याप्त इच्छा शक्ति दिखाई नहीं। ऐसा मुझे लगता है। मैं गलत भी हो सकता हूँ, लेकिन ’आत्ममोह या उचित  टीम का अभाव’ दो कारण हो सकते हैं। अर्थाभाव के कारण स्थाई रूप से सहयोगी नहीं रख सकते। वैसे  समयांतर के सफर को आगे भी जारी रखना साझी ज़िम्मेदारी है। मैं समझता हूँ, यह ‘सपना‘ पंकज का भी होगा।

गाँव के लोग
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