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किसान आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में विगत दशकों में चल रहे आंदोलन का एक सिलसिला

यह समय का पहिया घूमने जैसी बात है। दस साल हो रहे हैं जब 2009 में आई ग्रामीण विकास मंत्रालय एक मसविदा रिपोर्ट के 160 वें पन्‍ने पर भारत के आदिवासी इलाकों में कब्जाई जा रही ज़मीनों को धरती के इतिहास में 'कोलंबस के बाद की सबसे बड़ी लूट' बताया गया था। कमिटी ऑनस्‍टेट अग्रेरियन रिलेशंस एंड अनफिनिश्‍ड टास्‍क ऑफ लैंडरिफॉर्म्‍स शीर्षक से यह रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक विमर्श का हिस्‍सा नहीं बन पाई है, जिसने छत्‍तीसगढ़ और झारखण्‍ड के कुछ इलाकों में सरकारों और निजी कंपनियों (नाम समेत) की मिली भगत से हो रही ज़मीन की लूट से पैदा हो रहे गृहयुद्ध जैसे हालात की ओर इशारा किया था।

महाराष्‍ट्र में अभी किसान पदयात्रा की धमक खत्‍म भी नहीं हुई थी कि अहमदनगर से एक ऐसी ख़बर आई जिसने देश में किसान आंदोलन को तमाम विमर्शों के बीचोबीच लाकर खड़ा कर दिया। मुकेश अम्‍बानी का रिश्‍तेदार आभूषण व्‍यापारी नीरव मोदी, जो देश के बैंकों से भारी-भरकम कर्ज लेकर भाग गया है, उसकी खरीदी ज़मीन पर अहमदनगर के किसानों ने हल चलाकर कब्‍ज़ा कर लिया है। मामला वहां की करज़त तहसील में 125 एकड़ खेती की ज़मीन का है जिसके बारे में किसानों का कहना है कि नीरव मोदी की कंपनी ने उनसे यह ज़मीन औने-पौने दामों में खरीदी थी। शुक्रवार को कोई 200 बैलगाड़ी लेकर किसान उस ज़मीन पर पहुंचे और उन्‍होंने वहां तिरंगा झंडा गाड़कर ज़मीन पर कब्‍ज़ा कर लिया।

आमतौर से कृषि भूमि पर किसानों के कब्‍ज़े की खबरें ओडिशा या पंजाब से आती रही हैं लेकिन ऐसा पहली बार है कि इस किस्‍म के उग्र आंदोलन की खबर मध्‍य भारत से आई है। ओडिशा के आदिवासी जिले रायगढ़ा में एक वक्‍त सीपीआइ(एमएल)-न्‍यू डेमोक्रेसी के नेतृत्‍व में खेती की ज़मीनों को कब्‍ज़ा कर सहकारी खेती करने का अभियान चलाया गया था। आज भी रायगढ़ा के मुनीगुड़ा में आंदोलन की पहचान दिलाने वाले कई आदर्श गांव मौजूद हैं जहां आदिवासी सहकारी ढंग से खेती करते हैं। इसी तरह पंजाब में भूमिहीन दलित किसानों ने पिछले कुछ वर्षों से ज़मीन कब्‍ज़ाने का आंदोलन छेड़ा हुआ है। संगरूर से लेकर बरनाला और समूचे मालवा क्षेत्र में भूमिहीन दलितों ने बड़े पैमाने पर उन ज़मीनों पर कब्‍ज़ा किया है जिन पर कानूनी अधिकार तो उन्‍हीं का था लेकिन आज़ादी के वक्‍त से ही ऊंची जातियों के दबंग लोग उन पर कब्‍ज़ा जमाए बैठे थे। पंजाब में यह आंदोलन ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी के बैनर तले आज भी जारी है।

महाराष्‍ट्र में पहली बार इस किस्‍म का प्रयोग सुनने को मिला है। यह दिलचस्‍प इसलिए भी है क्‍योंकि ज़मीन एक ऐसे कारोबारी की है जो देश से कर्ज खाकर भाग गया है और कर्ज लौटाने से उसने सीधे इनकार कर दिया है। किसानों के मुताबिक प्रवर्तन निदेशालय ने नीरव मोदी के घोटाले की जांच के सिलसिले में इस भूखंड को मोदी की अन्‍य परिसंपत्तियों की तरह हीराजसात किया हुआ है। किसानों ने 17 मार्च को यहां तिरंगा गाड़ा और छत्रपति शिवाजी व बाबासाहब आंबेडकर की तस्‍वीरें लगा दीं। यह कार्रवाई स्‍थानीय किसान संगठन काली आई मुक्ति संग्राम के बैनर तले की गई।

लाल झंडे की वापसी

पिछले कुछ दिनों से एक चलन देखने में आ रहा है जिस पर मुख्‍यधारा में बहुत बात नहीं हो रही। दरअसल, बीते दस वर्षों के दौरान जिस तरीके से देश में खेती की ज़मीनों को लूटा गया है और औने-पौने दामों में कारोबारियों को हस्‍तांतरित किया गया है, उसने किसानों के भीतर अब निर्णायक कार्रवाई करने की बेचैनी पैदा कर दी है। अभी हाल तक हर लूट की लड़ाई मुआवज़े की लड़ाई पर आकर टिक जाती थी और किसान आंदोलन की चुपके से हवा निकाल दी जाती थी। ऐसा पिछले दो-तीन वर्षों के दौरान महसूस किया जा रहा है कि मुआवज़ा ले लेने से भी किसान की जिंदगी नहीं बच पाएगी। आखिरकार उसे अपनी ज़मीन चाहिए जिस पर वह खेती कर सके। उसके बदले में कुछ भी उसे स्‍वीकार नहीं है। यह बदलाव कृषि संकट के प्रति समझदारी बढ़ने के साथ पैदा हुआ है और इसीलिए हम देखते हैं कि धीरे-धीरे खेती-बाड़ी की लड़ाई सीधे कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के तहत लाल झंडे के साथ लड़ी जा रही है।

राजस्‍थान में पिछले दिनों सीकर में हुआ किसानों का महापड़ाव रहा हो, महाराष्‍ट्र में नासिक से मुंबई तक पैंतीस हज़ार किसानों की पदयात्रा या फिर लखनऊ में 15 मार्च को समाप्‍त हुई किसान रैली, एक गुणात्‍मक फ़र्क 2014-15 के मुकाबले यह देखा जा रहा है कि धीरे-धीरे कृषि के प्रश्‍न पर स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं और नागरिक अभियानों की भागीदारी खत्‍म होती जा रही है जिन्‍होंने मोदी सरकार के शुरुआती दिनों में भूमि अधिग्रहण अध्‍यादेश के सवाल पर दो बार दिल्‍ली को जाम कर दिया, देश भर में उसकी प्रतियां जलाईं और आखिरकार सरकार को बैकफुट पर जाने को बाध्‍य कर दिया था। अब मामला टोकन या प्रतीकात्‍मक कार्रवाई का नहीं रह गया है क्‍योंकि किसान खुद उसके लिए तैयार नहीं है। किसानों की बेचैनी जैसे-जैसे बढ़ी है, उनके संघर्षों से फैशनेबल तत्‍वों का खात्‍मा होता गया है और अब संघर्ष सीधे लाल झंडे के तले हो रहा है। यह एक अहम बात है। महाराष्‍ट्र के ज़मीन कब्‍जे को इस आलोक में भी देखा जाना होगा।

यह समय का पहिया घूमने जैसी बात है। दस साल हो रहे हैं जब 2009 में आई ग्रामीण विकास मंत्रालय एक मसविदा रिपोर्ट के 160 वें पन्‍ने पर भारत के आदिवासी इलाकों में कब्जाई जा रही ज़मीनों को धरती के इतिहास में ‘कोलंबस के बाद की सबसे बड़ी लूट’ बताया गया था। कमिटी ऑनस्‍टेट अग्रेरियन रिलेशंस एंड अनफिनिश्‍ड टास्‍क ऑफ लैंडरिफॉर्म्‍स शीर्षक से यह रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक विमर्श का हिस्‍सा नहीं बन पाई है, जिसने छत्‍तीसगढ़ और झारखण्‍ड के कुछ इलाकों में सरकारों और निजी कंपनियों (नाम समेत) की मिली भगत से हो रही ज़मीन की लूट से पैदा हो रहे गृहयुद्ध जैसे हालात की ओर इशारा किया था ।

करीब दस साल पहले आई अपनी ही रिपोर्ट पर यदि समय रहते सरकारों ने अमल किया होता, तो आज न तो लंबी-लंबी पद यात्राओं की नौबत आती, न किसानों को कानून अपने हाथ में लेना पड़ता और न ही गांवों-जंगलों में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनती ।

यह रिपोर्ट ज़मीन की लूट में सरकारों और कंपनियों की जिस मिली भगत का जिक्र करती है, उसे आज हम देश के किसी भी कोने में देख सकते हैं। कहानियां एक से बढ़कर एक हैं और दिलचस्‍प हैं। बस अफ़सोस इस बात का है कि इन कहानियों को न तो कोई रिपोर्ट कर रहा है और न ही इनकी कहीं कोई सुनवाई है।

किसान आंदोलन के कुछ नए प्रयोग

छत्‍तीसगढ़

महाराष्ट्र के किसानों का लंबा मार्च खत्म होते ही छत्तीसगढ़ के किसानों ने आंदोलन की राह पकड़ ली। महाराष्‍ट्र की कवरेज चूंकि टीआरपी चलित महानगर मुंबई से जुड़ी थी सो मुख्‍यधारा के मीडिया में आ गई और सरकार चूं तक नहीं कर सकी लेकिन छत्तीसगढ़ में किसानों के शांतिपूर्ण प्रदर्शऩ का वहां की भाजपा सरकार ने बहुत ही निर्दयता के साथ दमन किया।उन्होंने न केवल किसानों को धमकाया बल्कि कुछ को हिरासत में भी ले लिया। छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले के पंडरिया ब्लॉक की पहाड़ियों में बसने वाले बेगा जनजाति बहुल गांवों ने तीन दिन का एक शांतिपूर्ण मार्च आयोजित किया।

मार्च कंडवानी से पंडरिया तक जाने वाला था। दो दिनों तक चलने वाला यह मार्च राज्‍य सरकार द्वारा कान्हा तथा अचानकमार टाइगर रिजर्व को जोड़ने वाले टाइगर रिजर्व कॉरिडोर परियोजना के खिलाफ था। 17 मार्च 2018 की सुबह जब बेगा लोग विभिन्न गांवों तथा बस्तियों से कंडवानी ग्राम पंचायत के बाहपनी गांव में एकत्रित हो रहे थे तभी पुलिस की तीन गाड़ियां मार्च स्थल पर पहुंच गईं। करीब आधे घंटे तक पुलिसवालों ने मार्च के लिए आए लोगों से पूछ-ताछ की तथा उन्हें मार्च न निकालने के लिए डराया धमकाया। पुलिसवालों का कहना था कि चूंकि प्रदर्शनकारियों ने थाने में मार्च के बारे में सही समय पर सूचना नहीं दी थी इसलिए उन्हें यह मार्च निकालने की अनुमति नहीं है। गांव बचाओ समिति नामक जनसंगठन ने दो दिन पहले ही कुकदर पुलिसथाने में तथा पंडरिया उपन्यायधीश को इस मार्च की सूचना दे दी थी। पुलिस साफ़ झूठ बोल रही थी।

प्रदर्शनकारियों द्वारा पुलिस को इस बात का पूरा आश्वासन दिए जाने के बावजूद की यह मार्च शांतिपूर्ण है, पुलिस ने लोगों के गिरफ्तार करने की धमकी दी। समिति सदस्य नरेश बुनकर और उनके पुत्र सत्यप्रकाश तथा कृष्ण परास्ते को मार्च स्थल से उठा लिया गया।

जैसे ही यह खबर फैली तो कवारदाह जिला पंचायत के निर्वाचित प्रतिनिधि तथा दोगी कांग्रेस पार्टी के लोग प्रदर्शनकारियों के समर्थन में पहुंच गए करीब शाम को तीन बजे पूरे जोशो-खरोश के साथ मार्च शुरु हुआ तथा करीब 300 बेगा लोगों ने कांडवानी से होते हुए बाफनी से कुकदर तक 20 किमी तक मार्च करके वह कुकदरमें रात्रिविश्राम के लिए रुके। 18 मार्च को पंडरिया ब्लॉक पर जाकर मार्च खत्म हुआ। 19 मार्च को एक जनसभा हुई तथा उपमंडलीय न्यायाधीश को ज्ञापन दिया गया।

मध्‍यप्रदेश

धार जिले की मनावर तहसील में अल्ट्राटेक सीमेंट फैक्टरी के लिए 32 गांवों में ज़मीन का अधिग्रहण किया गया है। ये इलाका संविधान की अनुसूची पांच के तहत आता है यानी यह आदिवासी क्षेत्र है। यहां के लिए नीति यह है कि अधिग्रहण के मामलों में ज़मीन के बदले ज़मीन दी जाएगी, पुनर्वास की जगह पर स्कूल और अस्पताल बनाए जाएंगे, विस्थापित परिवार के एक सदस्य को नौकरी दी जाएगी और 60 साल से अधिक उम्रवाले लोगों को पेंशन दी जाएगी। आंदोलन कारी नेताओं का इल्जाम है कि इन शर्तों पर आंशिक अमल ही हुआ है। नीति यह भी है कि किसी परियोजना के लिए जहां तक संभव हो, बंजर भूमि का अधिग्रहण होगा लेकिन इस मामले में  32 गांवों की पूरी तरह उपजाऊ ज़मीन ली गई।

आंदोलनकारी नेताओं का इल्जाम है कि मनावर तहसील में इन सभी प्रावधानों की अनदेखी की जा रही है। तो अब स्थानीय आबादी इंसाफ और अपने संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण के लिए सड़कों पर उतरी है।

आंदोलन के नेता पढ़े-लिखे हैं। उन्होंने संविधान के प्रावधानों का अध्ययन किया है। संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन के बारे में उन्होंने सोशल मीडिया का कारगर इस्तेमाल किया। इसके ज़रिए स्थानीय आबादी में जागरूकता लाई गई। फिर उन्हें गोलबंद किया गया। इस बात ने सहज ही ध्यान खींचा कि रविवार 11 मार्च को जब मनावर में ‘आदिवासी महापंचायत’ का आयोजन हुआ, तो उसमें जुटे हजारों लोगों में लगभग एक चौथाई महिलाएं थीं। इसी का नतीजा है कि ‘आदिवासी महापंचायत’ को अपना समर्थन देने के लिए दस राज्यों के आदिवासी संगठनों  के नुमाइंदे आये।

यह दुर्भाग्यपूर्ण हकीकत है कि सरकारें अक्सर आदिवासी आंदोलनों को वामचरमपंथियों द्वारा संचालित बता देती हैं। चूंकि कुछ राज्यों के कुछ आंदोलनों में ऐसे रूझान मौजूद रहे, इसलिए सत्ताधारी समूहों के लिए तमाम आदिवासी संघर्षों को इस रूप में चित्रित कर देना आसान बना रहा है। ऐसी धारणाओं को सरकारों ने उचित जनतांत्रिक आंदोलनों की मांगों को नज़र अंदाज करने और कुछ मामलों में आंदोलनों का दमन करने का बहाना बनाया है। अच्छी बात है कि मनावर के आदिवासी नेताओं ने अपने आंदोलन को ऐसी शक्ल दी है, जिसमें ऐसा करना आसान नहीं होगा बल्कि उनकी मांगें ना सुनना असंवैधानिक गतिविधि मानी जाएगी।

ओडिशा

ओडिशा के कालाहांडी और रायगढ़ा जिलों को घेरती नियमगिरि की पहाडि़यों पर बसने वाले दुर्लभ डोंगरिया कोंढ और झरनिया कोंढ आदिवासियों ने वसंत का स्वागत एक बार फिर बहुराष्‍ट्रीय कंपनी वेदांता की लूट के खिलाफ संकल्‍प लेकर किया है। पिछले 15 साल से यहां नियमित रूप से हो रहे नियमराजा के पूजा-अर्चन पर्व ने आज से पांच साल पहले 2013 में राजनीतिक संदर्भ ले लिया था जब यहां के 70 गांवों के करीब दस हज़ार आदिवासियों ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर हुई पल्‍लीसभा (ग्रामसभा) की 12 जनसुनवाइयों में वेदांता कंपनी को एक सिरे से मात दे दी थी और पहाड़ियों से बॉक्‍साइट निकालने की उसकी योजना पर पानी फेर दिया था।

नियमगिरि के शिखर पर मनाया जाने वाला यह पर्व इस बार नियमगिरि सुरक्षा समिति के सदस्‍य दसरू कडरका के दो साल बाद रिहा होकर वापस आने के चलते विशिष्‍ट हो गया। उन्‍हें माओवादी होने के आरोप में पकड़ा गया था। देशभर से आए समर्थकों के बीच दसरू कडरका ने कहा- ‘सरकार हमारी प्राकृतिक संसाधनों की लड़ाई को माओवाद का झूठा नाम देकर हमारा उत्पीड़न कर रही है। वह हमें बिना किसी सबूत के झूठे आरोपों में गिरफ्तार कर हमारे हौसले को तोड़ने की कोशिश कर रही है लेकिन हमारी लड़ाई हमारे प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा की लड़ाई है। हमारे प्राकृतिक संसाधन हमारा अस्तित्व है। इस जल-जंगल-जमीन तथा हमारे नियामराजा के बिना डोंगरिया कोंढ जनजाति का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए अपने इस अस्तित्व को बचाने के लिए हम तब तक लड़ेंगे जब तक वेदांता हमारे इलाके में मौजूद है।’

बीते पांच साल के दौरान वेदांता कंपनी के खिलाफ स्‍थानीय आदिवासियों की 2013 में हुई कानूनी जीत को पलटने के काफी प्रयास हुए हैं। ओडिशा की सरकार ने जहां एकबार फिर कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, वहीं कंपनी की परियोजना को साकार करने के उद्देश्‍य से बीते साल केंद्रीय गृह मंत्रालय ने नियमगिरि के सहज-सुंदर आदिवासियों को माओवादी पार्टी से जोड़ने का षडयंत्र रचा। मंत्रालय ने अपनी सालाना रिपोर्ट में 2017 में नियगिरि सुरक्षा समिति को माओवादियों का जनसंगठन घोषित करते हुए कहा कि यह संगठन स्‍थानीय लोगों के विस्‍थापन के मुद्दे का बहाना बनाकर माओवादियों के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है।

गृह मंत्रालय की इस रिपोर्ट के बाद नियमगिरि में एकबार फिर सरकार का दमनचक्र शुरू हुआ। पुलिस गोलीबारी में एक आदिवासी को गोली लगी और दो को गिरफ्तार कर लिया गया। आज स्थिति यह है कि इलाके में सीआरपीएफ का एक स्‍थायी कैम्‍प लगाया जा चुका है।

नियमगिरी के आदिवासी कारोबारी अनिल अग्रवाल की लंदन स्थित कंपनी वेदांता से अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचाए रखने के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे हैं। हरे-भरे जंगलों से भरपूर नियमगिरी पर्वतों के भीतर बॉक्‍साइट मौजूद है। यह बॉक्साइट ही इस पर्वत की हरियाली तथा यहां से फूटनेवाले झरनों के मीठे पानी का स्रोत है। इसी खनिज संसाधन पर वेदांता पिछले 14 साल से अपनी नजर गड़ाए हुए है। कालाहांडी के लांजीगढ़ में कई साल से वेदांता की रिफाइनरी बनकर तैयार खड़ी है लेकिन स्‍थानीय बॉक्‍साइट का खनन न हो पाने के चलते यहां दूसरी जगहों के बॉक्‍साइट का परिशोधन होता है। आज से करीब आठ साल पहले ही कंपनी ने रिफाइनरी से नियमगिरि तक कनवेयर बेल्‍ट बिछा दिया था लेकिन डोंगरियों के र्धर्य और साहस भरे संघर्ष के चलते बेल्‍ट का लोहा आज ज़ंग खा चुका है।

राजस्‍थान

एक ओर सरकार बजट में किसानों की आय बढ़ाने की बात कर रही है तो वहीं दूसरी ओर पानी के अभाव में सूख रही अपनी फसलों को बचाने के लिए किसानों को आंदोलन करना पड़ रहा है। वाकया राजस्थान के बूंदी जिले का है, जहां के छापड़दा गांव के किसानों ने फरवरी 2018 में अपनी मांग को लेकर प्रशासन के खिलाफ प्रदर्शन किया और पेड़ से उल्टा लटककर अपना विरोध दर्ज कराया।

उनकी मांग है कि प्रशासन पानी के अभाव में उनकी सूख रही फसलों के लिए नहर से पानी उपलब्ध कराए। लेकिन प्रशासन की अनदेखी के चलते उन्हें न सिर्फ अपनी मांग के समर्थन में धरने और क्रमिक अनशन पर बैठना पड़ा, बल्कि प्रशासन का ध्यान खींचने के लिए विरोध के विभिन्न तरीकों को भी आजमाना पड़ा।

आंदोलनरत किसान सरकार और प्रशासन का ध्यान अपनी मांग की ओर खींचने के लिए रोज नये-नये तरीके आजमा रहे हैं।कभी वे मुर्गा बनकर तो कभी सिर मुंडवाकर, तो कभी चारा खाकर या भैंस के आगे बीन बजाकर अपना रोष व्यक्त करते हैं।

उत्‍तर प्रदेश

गत 20 जनवरी को उत्‍तर प्रदेश के सीतापुर जिला की कोतवाली महमूदाबाद के ग्राम भौरीं में दलित किसान ज्ञानचंद्र पुत्र संतलाल की फाइनेंस कंपनी द्वारा ट्रैक्टर से कुचलकर हुई हत्या के मामले में मृतक के परिजनों की मदद किसान सभा ने की और गॉव पहुंचकर मृतक की पत्नी ज्ञानादेवी को 1 लाख का चेक सौंपा। प्रदेश महासचिव मुकुटसिंह के मुताबिक घटना की जानकारी मिलते ही किसान सभा ने आकर परिवार से मुलाकात की थी। केरल से पूर्व विधायक व अखिल भारतीय किसान सभा के कोषाध्यक्ष पी कृष्ण प्रसाद, राष्‍ट्रीय संयुक्त सचिव एन के शुक्ला, प्रदेश अध्यक्ष भारत सिंह, राज्‍य कमेटी सदस्य प्रवीण सिंह, माकपा राज्य कमेटी सदस्य प्रदीप शर्मा, वरिष्ठ अधिवक्ता अजय द्विवेदी के साथ मृतक के घर पहुंचकर अखिल भारतीय किसान सभा के माध्यम से 1 लाख रुपयों की चेक दी और संवेदना व्यक्त की।

खेती का मूल तर्क बहाल करने की जंग

हम देखते हैं कि बीते एक साल में जमीन की लूट को लेकर किसानों की समझदारी बढ़ी है और आंदोलन के लिए राजनीतिक व सामाजिक संगठनों पर उनकी निर्भरता भी कम हुई है। इसीलिए वे अपनी ओर सरकार का ध्‍यान खींचने के लिए नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। तमिलनाडु के किसानों का दिल्‍ली में धरना एक नज़ीर बन चुका है जिसे देश भर में स्‍थानीय स्‍तर पर दुहराया जा रहा है। सीतापुर की घटना ने दिखाया है कि किसान संगठनों ने भी अब अपने काम करने का ढर्रा बदला है। वे किसानों के सुख-दुख में भागीदार बन रहे हैं और केवल आंदोलन से ही नहीं बल्कि रुपये-पैसे से भी उनकी मदद कर रहे हैं। यह रुझान आने वाले समय में बढ़ेगा क्‍योंकि अभी जितने उदाहरण दिख रहे हैं, वे आकार में छोटे हैं जबकि बड़ी परियोजनाओं का कहर अब भी बाकी है।

खेती-किसानी और ज़मीन की लूट से जुड़े बड़े मसले वाकई इतने बड़े हैं कि उनसे होनेवाले नुकसान का अंदाजा लगाना इतना सहज नहीं है। इसी तरह उनकी प्रतिक्रिया में आंदोलन क्‍या रुख लेंगे, इस बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। केंद्र सरकार ने जो ‘मेक इन इंडिया’ नाम का कार्यक्रम शुरू किया था, उसकी वेबसाइट पर ‘लाइव प्रोजेक्‍ट्स’ नाम का एक टैब है। उसे खोलने पर आंखें भी खुल सकती हैं और दिमाग भी। यह कहता है कि 2014-15 के बजट में पांच औद्योगिक गलियारा परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है जिन के इर्द-गिर्द 100 स्‍मार्ट सिटी बसाई जाएंगी।

दिल्‍ली-मुंबई इंडस्ट्रियल कोरिडोर, बंगलुरु-मुंबई इकनॉमिक कोरिडोर, चेन्‍नई-बंगलुरु इंडस्ट्रियल कोरिडोर, विजैग-चेन्‍नई इंडस्ट्रियल कोरिडोर, अमृतसर-कोलकाता इंडस्ट्रियल कोरिडोर नाम की ये पांच विशाल परियोजनाएं तकरीबन समूचे भारत को छेक लेती हैं। सिर्फ इससे अंदाजा लगाएं कि दिल्‍ली से मुंबई के बीच बन रहा गलियारा 1500 किलोमीटर लंबा और 300 किलोमीटर चौड़ा है।

अगर यह गलियारा बन गया, तो साल 2031 तक राजस्‍थान की 65 फीसदी ज़मीन इसमें चली जाएगी। इन पांचों गलियारों को आपस में जोड़ने वाले लिंक राजमार्ग अलग से होंगे जो बीच की ज़मीनें निगल जाएंगे। इन सभी परियोजनाओं में जे बी आई सी, ए डी बी जैसी विदेशी एजेंसियों का पैसा लगा है और कहा जा रहा है कि इनसे जी डी पी की वृद्धि दर बहुत ऊंची हो जाएगी। यह सब कुछ खेती-किसानी की कीमत पर ही होगा।

महाराष्‍ट्र में दिल्‍ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे के खिलाफ आंदोलन चलाने वाली समाजकर्मी उल्‍का महाजन कहती हैं, ‘खेती को घाटे का सौदा बताने वाले और प्रचार करने वाले लोगों की मंशा दरअसल कंपनियों और सरकारों के हित में किसानों से ज़मीन छीनने में आसानी पैदा करना है।”क्‍या किसान वाकई खेती को घाटे का सौदा नहीं मानता? फिर किसानों पर इतना कर्ज कैसे चढ़ गया? क्‍या यह धंधे में उनकी नाकाबिलियत का नतीजा है?आखिर किसानों की बढ़ती खुदकुशी क्‍या ज़मीन की लूट का प्रत्‍यक्ष परिणाम है? क्‍या खेती को डकार जाने वाली इन प्रस्‍तावित परियोजनाओं के बावजूद खेती की जा सकती है? ज़ाहिर है, जो किसान अपनी ज़मीनें बचाने के संघर्ष में जुटे हैं, उन्‍हें इसका भरोसा तो होगा ही। इसीलिए वे नए-नए तरीकों से संघर्ष को अंजाम दे रहे हैं। फिर सवाल ये है कि आंदोलनों का अगला चरण क्‍या होगा?

ज़मीन कब्‍ज़ाने और सकारात्‍मक तरीके से आंदोलन करने के बावजूद खेती का संकट अपनी जगह बना हुआ क्‍योंकि खेती  के मूल तर्क को बहाल करने की लड़ाई अब तक इस देश में संगठित रूप से शुरू नहीं हुई है। खेती-किसानी का बुनियादी तर्क यह था कि आदमी अपने खाने-पकाने के लिए अनाज उपजाता था। जो बच जाता था, उसे वह बेच देता था। पहले पेट भरता था, फिर बचे तो मंडी। खेती के मूल तर्क को बहाल करने की लड़ाई अब तक इस देश में संगठित रूप से शुरू नहीं हुई है

आजादी के बाद से किसान एफसीआई के गोदामों के लिए उपजाने लगा क्‍योंकि उस दौर में वैश्विक राजनीति का एक बड़ा आयाम खाने में आत्‍मनिर्भरता का था। इसके चलते बहुफसली खेती चौपट हुई।बाजार के लिए एक फसली उपज होने लगी। नब्‍बे के दशक में किसान को कहा गया कि घरेलू नहीं, वैश्विक बाजार के लिए अन्‍न उपजाओ। कौन सा अन्‍न? सोयाबीन, कपास, जटरोफा, सूरजमुखी, आदि। किसान बीते तीन दशक से जो उपजा रहा है, वह अपने पेट के लिए नहीं बल्कि कारों का पेट भरने के लिए है। सोयाबीन, जतरोफा, सूरजमुखी, गन्‍ना, मकई आदि से बायोडीजल बन रहा है। खेती का पूरा तर्क ही सिर के बल खड़ा कर दिया गया है। किसान जान रहा है कि उसे वैश्विक बाजार के लिए उपजाना है और खुद भूखे मरना है, इसलिए वह खेती से कन्‍नी काट रहा है।

अभी दो-तीन साल पहले तक यह स्थिति थी कि इस तर्क को दरकिनार करके सिर्फ ज़मीन बचाने की लड़ाई चल रही थी। दिल्‍ली के बड़े मंचों पर नुमाइंदगी करने वाले नेता इस बात को स्‍वीकार करने से कतराते रहे कि सारी जंग सही मुआवजे की है। उन्‍होंने कभी नहीं माना कि किसान ज़मीन बेचने को तैयार बैठा है जबकि किसान बार-बार यही कह रहा था। ऐसे में किसानों की मूल भावना और किसान मंचों की प्रायोजित भावना के बीच बड़ी दूरी पैदा होती गई। इसी का नतीजा हुआ कि किसान महासभा जैसे राजनीतिक संगठनों ने व्‍यापक मोर्चे का दामन त्‍याग कर अपनी लड़ाइयां स्‍वतंत्र कर लीं। इसका परिणाम हमें राजस्‍थान और महाराष्‍ट्र में साफ़ देखने को मिला। अब आंदोलन के स्तर पर ची़जें थोड़ा साफ़ हो रही हैं। धुंधलका कम हुआ है। अनावश्‍यक तत्‍वों की छंटाई हो रही है और किसान खेती करना चाहते हैं, इस तर्क को अपनाकर संघर्षों को अंजाम दिया जा रहा है जिसकी सीमा केवल मुआवजा बढ़ाना या दिलवाना नहीं रह गया है। यह सरकारों के लिए खतरे की घंटी है।

रघुवीर सहाय ने बहुत पहले लिखा था, ‘खतरा होगा, खतरे की घंटी होगी, उसे बादशाह बजाएगा, रमेश!’ खतरे की यह घंटी 2009 में ही बजा दी गई थी। बादशाह ने ही बजाई थी। बीते दस साल में इसे किसी ने नहीं सुना। सुनकर भी नजरंदाज़ किया। आज कोलंबस पूरे देश को चर चुका है, तो अपने रहनुमाओं से आजिज आकर किसानों ने घंटी खुद अपने हाथ में ले ली है। किसान अब राष्‍ट्रीय विमर्शों के केंद्र में आ चुका है। देश में अगला कोई भी बड़ा राजनीतिक परिवर्तन किसानों की उपेक्षा कर के नहीं लाया जा सकेगा। कम से कम इतना अब तय हो चुका है।

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