Tuesday, July 1, 2025
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राजनीति

संघ का ‘एकात्म मानववाद‘ बहुजन समाजों के विषमतापूर्ण विभाजन का दर्शन है

संघी विचारक बार-बार एकात्म मानववाद का बखान करते हैं और भारत के बहुजन समाजों को एक प्रतिगामी इतिहास से जोड़ने की साजिश करते हैं। व्यावहारिक तौर पर यह ब्राम्हणवादी मूल्यों को बढ़ावा देता है और इसके चलते मंदिर (मस्जिदों को ढहाया जाना), पवित्र गाय (लिंचिंग), लव जिहाद और धर्मपरिवर्तन एजेंडे के मुख्य मुद्दे बन गए हैं। इस विचारधारा की मान्यता यह है कि भारत को पहले मुस्लिम राजाओं और फिर अंग्रेजों ने गुलाम बनाया। यह विचारधारा हिंदू समाज की बहुत सी खराबियों के लिए, खासतौर से मुस्लिम राजाओं के अत्याचारों को दोषी मानती है। तथ्य यह है कि हिंदू धर्म की बहुत सी कमियां जाति, वर्ण और लिंग आधारित ऊंच-नीच की वजह से हैं जिनका जिक्र हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाले कई प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।

बोधगया : महाबोधि मंदिर को ब्रह्मणवाद के कब्जे से मुक्ति जरूरी क्यों है?

आज खुलेआम धर्म का इस्तेमाल राजनैतिक एजेन्डे को आगे बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। बौद्ध मंदिर का संचालन ब्राम्हणवादी तौर-तरीकों से हो रहा है और सूफी दरगाहों का ब्राम्हणीकरण किया जा रहा है।  बौद्ध भिक्षु अपने पवित्र स्थान का संचालन उनकी अपनी आस्थाओं और मानकों के अनुसार करना चाहते हैं और उसके ब्राम्हणीकरण का विरोध कर रहे हैं।

क्या बिहार की राजनीति में नए अरविंद केजरीवाल होनेवाले हैं प्रशांत किशोर

प्रशांत किशोर की उपस्थिति ने बिहार की राजनीति को काफी हद तक गरमा दिया है हालांकि उनको लेकर ढेरों सवाल भी खड़े हो रहे हैं। खासतौर से प्रशांत किशोर को भाजपा की बी टीम के रूप में देखा जा रहा है। बरसों से बिहार की सत्ता पर चले आ रहे पिछड़ों के कब्जे पर सेंध लगाने के लिए भी प्रशांत किशोर को एक माकूल व्यक्ति माना जा रहा है। लेकिन बातें इतनी आसान नहीं हैं। यह तो भविष्य बताएगा कि प्रशांत किशोर क्या रंग दिखाते हैं लेकिन उनकी राजनीति में शामिल घटकों का बेबाक विश्लेषण कर रहे हैं मनीष शर्मा।

बिहार चुनाव में मोदी-नीतीश की चुनावी रणनीति क्या होगी?

प्रधानमंत्री मोदी अपने जंगलराज को ढंकने की रणनीति के तहत ही,शायद बस्तर नरसंहार को बिहार में एजेंडा बना रहे है और बिहार में 2014 बाद से माओवाद को लगभग ख़त्म कर देने का श्रेय लेने की कोशिश अपने संबोधन में कर रहे हैं। हालांकि इस नए नैरेटिव के बावजूद यह देखना  बाकी है कि पुराना जंगलराज का नैरेटिव अभी की नई परिस्थितियों में भी कितना कारगर हो पाएगा।

खून में बहते सिंदूर के व्यापार का समय

सीमाओं पर जिन जवानों ने अपना खून बहाया, वह व्यर्थ गया। इसलिए कि देश को सिंदूर की जरूरत है और सिंदूर की जगह वे अपना खून बहा गए। अब खून की कोई कीमत रही नहीं, क्योंकि हमारा देश तो आए दिन खून-खराबा देख रहा है। यह खून दंगों को तो भड़का सकता है, लेकिन राष्ट्रवादी जोश को नहीं। अब देशभक्ति इस पैमाने से नापी जाएगी कि किसकी रगों में कितने प्रतिशत सिंदूर बह रहा है

सरकार जनता से डरी हुई है इसलिए आंदोलनों को बेरहमी से कुचल देना चाहती है

बनारस में जातिगत जनगणना और किसान आन्दोलन जैसे विभिन्न मुद्दों को लेकर जाने-माने अधिवक्ता और सामाजिक चिंतक प्रेम प्रकाश सिंह यादव बहुत दिनों से...

अमित शाह को काला झंडा दिखाने वाली नेहा बनी समाजवादी छात्र-सभा की अध्यक्ष

इलाहाबाद में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को काला झंडा दिखाने वाली नेहा यादव को समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने...

बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे

लोहिया और बाद में जे.पी. के समय जो ग़लती समाजवादियों से हुई उसके प्रायश्चित का समय नजदीक आता जा रहा है। पर क्या यह...

कांग्रेस के संकट का मुकाम क्या है?

कांग्रेस के संकट पर चर्चा अब उबाऊ हो चला है, यह बहुत लम्बे समय से चला आ रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में...

सत्ता की बिसात पर 2022

सियासत सम्भावनाओं का खेल है । खेल है तो नहीं परन्तु कुर्सी-केंद्रित सियासत ने इसे खेल बना दिया है। वर्तमान चुनाव प्रणाली और बहुमत...

काबुल का फ़ितना

तालिबान वापस आ गये हैं, इस बार पहले से अधिक मजबूती और स्वीकार्यता व वैधता के साथ। नाइन इलेवन के ठीक पहले उनकी यह...
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