हिन्दी सिनेमा के बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व जो मुझे बहुत पसंद हैं वे हैं राजकपूर, गुरुदत्त, गिरीश कर्नाड एवं अमोल पालेकर। चौदह साल की उम्र में गाँव से गोरखपुर आने के पहले मैं इन चारों के बारे में बिल्कुल नहीं जानता था। कुशीनगर के पडरौना कस्बे से आया हमारा दोस्त समीर अहमद राजकपूर और उनकी फिल्मों की चर्चा किया करता था। उसी के माध्यम से मैंने राजकपूर और उनकी फिल्मों के बारे में शुरू किया। अखबार पढ़ना भी हॉस्टल में आरंभ हुआ तो फिल्मों के बारे में कुछ और जानकारी मिलने लगी। इस बात में दो राय नहीं कि राजकपूर (1924-1988) हिन्दी सिनेमा के महान अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक थे। उन्नीसवीं सदी के चालीस और पचास के दशक में जब भारतीय सिनेमा आरंभिक दौर में था और देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ था, जब आर्थिक और तकनीकि संसाधनों की कमी थी उस दौर में राजकपूर की श्वेत-श्याम फिल्मों में विषय चयन, सम्पादन, गीत-संगीत, संवाद, विचारधारात्मक परिपक्वता जैसे तत्व हमें आश्चर्यचकित करते हैं। हृदय परिवर्तन (जिस देश में गंगा बहती है) और ट्रस्टीशिप (बूट पॉलिश) जैसे गाँधीवादी सिद्धांतों, नेहरुवियन समाजवाद (आवारा, श्री 420) से प्रेरित अपनी शुरुआती फ़िल्मों से लेकर 1980 के दशक तक प्रेम कहानियों को समाज सुधार और रोमांस जैसे तत्वों के साथ मनोरंजक अंदाज में रुपहले परदे पर पेश किया। उन्होंने हिंदी फ़िल्मों के इमारत की जो नींव रखी बॉलीवुड के फिल्मकार आज भी उसी के ऊपर अपनी फिल्मों का निर्माण कर रहे हैं।
विषयों की विविधता और मनोरंजक प्रस्तुतीकरण के कारण राजकपूर भारतीय सिनेमा के सबसे बड़े ‘शोमैन’ कहे जाते हैं। कहानियों को मनोरंजन और संदेश से संपृक्त कर परदे पर जिस अंदाज में पेश किया उससे भारत ही नहीं, सोवियत संघ और मध्य-पूर्व में राज कपूर की लोकप्रियता आज भी बरकरार है। उनकी फ़िल्मों, खासकर श्री 420 में मुंबई के विशाल भवनों में रहने वाले अमीर वर्ग और फुटपाथ पर रहने वाले गरीब वर्ग के बीच के गैप को जिस तरीके से प्रस्तुत किया गया है कमोबेश सात दशक बाद भी मुंबई की वह तस्वीर आज भी फ़िल्म निर्माताओं को आकर्षित करती है। राज कपूर की फ़िल्मों की कहानियां आमतौर पर उनके जीवन से अर्जित अनुभवों से जुड़ी होती थीं और अपनी ज्यादातर फ़िल्मों के मुख्य नायक वे खुद होते थे। उनकी सादगी, भोलेपन और चाल-ढाल में चार्ली चैपलिन का प्रभाव दिखता है। जिस तरह चार्ली चैपलिन व्यंग्य और हल्के-फुल्के अंदाज में समाज की गंभीर विसंगतियों पर सिनेमाई प्रहार करते हैं भारतीय सिनेमा में राजकपूर ने वही काम किया और ख्याति अर्जित की।
यथार्थवादी सिनेमा के पैरोकार
सन 1947 में जब देश आजाद हुआ तो गरीबी, बेरोजगारी, सांप्रदायिकता, पलायन, बाल विवाह, अन्तर्जातीय और विधवा पुनर्विवाह के संबंध में नकारात्मक विचार, बाल श्रम एवं जातिवाद जैसी अनेकों समस्याएं विद्यमान थीं। कल-कारखानों और चिकित्सा सुविधाओं की कमी, कृषि भूमि के अधिकतर हिस्से पर जमींदारों का कब्जा, उत्पादन के साधनों पर मुट्ठी भर शहरी अमीर लोगों का एकाधिकार जैसी समस्याओं को दूर करके संविधान में किए गए वादे के अनुसार समाजवादी गंणतंत्र की स्थापना तत्कालीन राजनेताओं का लक्ष्य था। राजकपूर ने इन समस्याओं को चुनौती के रूप में लिया और अपनी फिल्मों की विषय वस्तु बनाकर मनोरंजन के साथ जन शिक्षण का काम किया। इसी कारण हम उनकी फिल्मों में भारतीय जनजीवन से जुड़े यथार्थपरक मुद्दों का चित्रण हुआ है। समीक्षकों ने राजकपूर की फिल्मों की विषयवस्तु के आधार पर नव-यथार्थवाद का स्पष्ट प्रभाव दर्ज किया है। वास्तव में राजकपूर अपने पिता के नाट्यदल के साथ बचपन से ही काम कर रहे थे अतः उन्हें अभिनय और उससे जुड़ी बारीकियों के बारे में पर्याप्त अनुभव था। मुंबई और अन्य शहरों में आयोजित होने वाले अन्तराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में उन्हें दुनिया के नामचीन फ़िल्मकारों की फिल्में देखने और उनसे अंतःक्रिया करने का मौका भी मिलता रहा जिससे उन्होंने बहुत कुछ सीखा और अपनी फिल्मों मे प्रयोग भी किया। एक तरफ ब्रिटिश गुलामी से आजाद हुए देश में अनेकानेक समस्याओं पर राजकपूर की नजर थी तो दूसरी तरफ वे देश-विदेश में बनने वाली फिल्मों से ऐसी समस्याओं के चित्रण को सीखने-समझने की कोशिश कर रहे थे। राजकपूर की पुत्री ऋतु नंदा द्वारा लिखित उनकी जीवनी शोमैन: राजकपूर में राजकपूर ने स्वीकार किया है कि उनकी आरंभिक फिल्मों आग, बरसात और आवारा पर विदेशी फिल्मों का प्रभाव था।
उन्होंने कहा है कि, My early films Aag, Barsaat and Awara were influenced by the foreign films I saw. Mostly by the three Italians who had visited the 1952 film festival in Bombay: Roberto Rossellini, Vittorio De Sica and Cesare Zavattini. They were the pioneers of the neorealism movement in Italy. I was tremendously moved by De Sica’s films, especially Miracle in Milan, Bicycle Thieves and Shoeshine. Zavattini was De Sica’s screenplay writer and I had long chats with him. Frank Capra was also in India for the festival and I had long talks with him too. The Capra films, It Happened One Night and Mr. Deeds Goes to Town, influenced me too. I was also an admirer of Cecil B. DeMille, I saw all his films, but the ones that impressed me most were The Ten Commandments, Reap the Wild Wind and The Greatest Show on Earth.
इटालियन सिनेमा के निर्देशकों वित्तोरियो डी सीका, सेसारे जवाटिनी और फ्रैंक कापरा ने देखे और भोगे हुए यथार्थ पर नव यथार्थवादी फिल्में बनाने की जिस परंपरा का आगाज किया उसे राजकपूर ने बॉलीवुड में आगे बढ़ाने का काम किया। कापरा की फिल्म इट हैप्पेंड वन नाइट और मिस्टर डीडस गोज टू टाउन से प्रभावित होकर जागते रहो जैसी उल्लेखनीय फिल्म बनाई।
राजकपूर की फिल्में
आग (1948), अंदाज (1949), बरसात (1949), आवारा (1951), बूट पोलिश (1954), श्री 420 (1955), चोरी चोरी (1956), जागते रहो (1956), अब दिल्ली दूर नहीं (1957), फिर सुबह होगी (1958), मैं नशे में हूँ (1959), अनाड़ी (1959), जिस देश में गंगा बहती है (1960), नजराना (1961), दिल ही तो है (1963), दूल्हा दुल्हन (1964), संगम (1964), तीसरी कसम (1966), अराउन्ड द वर्ल्ड इन 8 डॉलर (1967), मेरा नाम जोकर (1970), कल आज और कल (1971), बॉबी (1973), सत्यम शिवम सुंदरम (1978) प्रेम रोग (1982), राम तेरी गंगा मैली (1985), हिना (1991)। सन 1991 में रिलीज हुई फिल्म हिना राजकपूर का ड्रीम प्रोजेक्ट थी जिसके निर्माण के दौरान उनकी मृत्यु हो गयी।
आवारा (1951) फिल्म समाजशास्त्र और दर्शनशास्त्र की एक किताब की तरह है। यह हेरीडिटी बनाम एनवायरनमेंट के डिबेट का प्रस्तुत करती है। समाजशास्त्र में कई उदाहरणों से यह समझाने की कोशिश की गयी है कि इंसान के बच्चे जानवरों के बीच में पले तो वे चार पैरों से चलने लगे उन्हीं की तरह भोजन और भाषा का प्रयोग करने लगे और जब उन्हें वापस मानव समाज में लाकर रखा गया तो धीरे-धीरे उन्होंने इंसानों की तरह व्यवहार करना शुरू किया। इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर जज की भूमिका में हैं वे एक अपराधी के बेटे जग्गा को एक मामूली से केस में यह टिप्पणी करते हुए जेल भेज देते हैं कि ‘शरीफ का बेटा शरीफ और डाकू का बेटा डाकू होता है’। जग्गा को यह बात इतनी चुभती है कि वह जज के बेटे को अपराधी और गुंडा बनाने की कसम खाता है ताकि वह साबित कर सके कि जज की सोच गलत है। किसी व्यक्ति के अपराध की तरफ कदम बढ़ाने या डाकू बनने के कुछ सामाजिक कारण होते हैं। जग्गा डाकू उस जज के बेटे को जेबकतरा और छोटे-मोटे अपराध करने वाले नौजवान में बदल भी देता है जो हत्या के आरोप में जेल जाता है और कोर्ट में पेश होता है।
आवारा फिल्म के बारे में विश्लेषण करते हुए श्रेयश गोयल हॉलिवुड फिल्म डिपारटेड (2006) के एक चरित्र फ्रैंक कोसटेलों (जैक निकॉल्सन) के एक संवाद का जिक्र करते हुए लिखते हैं जो वह अपने बारे में कहता है कि ‘I am not a product of my environment. My environment is a product of me.’ आवारा फिल्म में स्थिति इसके उलट है क्योंकि राज एक जज का बेटा है लेकिन वह गलत संगत में पड़कर अपराधी बन जाता है। फिल्म यह साबित करती है कि एक व्यक्ति का जीवन केवल जैविक गुणों से ही नहीं होता बल्कि उसके पर्यावरण, संगत और परिस्थितियों से भी बहुत हद तक तय होता है।
बूट पॉलिश (1954) बालश्रम, बच्चों से दुर्व्यवहार, भीख मांगने की समस्या, मेहनत और स्वाभिमान की सीख, समाज के सक्षम वर्ग द्वारा वंचित वर्ग के बच्चों को उचित शिक्षा और संस्कार देने में सहयोग करने के लिए आगे आने की प्रेरणा देती हुई यह फिल्म दो बच्चों बेबी नाज़, रतनकुमार (भोला और बेलू) एवं चरित्र अभिनेता डेविड की कहानी है। बड़े शहरों में बच्चों से भीख मंगवाना एक संगठित रोजगार में बदल चुका है। राजकपूर ने इस समस्या का समाधान सुझाया था कि समृद्ध लोग गरीब बच्चों की देख-रेख में सहयोग कर राष्ट्र निर्माण में भूमिका निभाने को आगे आए और गांधी जी के न्यास सिद्धांत का अनुसरण करें। परंतु सच्चाई यह है कि 53 साल बाद यह समस्या समाप्त होने के बजाय और विकराल हो चुकी है क्योंकि सन 2007 मे मधुर भंडारकर निर्देशित फिल्म ट्रेफिक सिग्नल ने पूरे देश को दर्शकों को इस सच से अवगत कराया कि मेट्रोपॉलिटन शहरों की चमक-दमक के बीच ट्रेफिक सिग्नलों पर भीख मांगने और मँगवाने का धंधा किस तरह संगठित रोजगार मे तब्दील हो चुका है जिससे हम हर रोज रूबरू होते हैं। बच्चा चोरी के आंकड़ों तथा इन अपराधों में लिप्त लोगों का विश्लेषण करने पर भी यह बात सामने आती है कि भीख मँगवाने के लिए बच्चों की चोरी संगठित अपराधियों के गिरोह करते हैं।
सन् 1956 राज कपूर के जीवन का महत्त्वपूर्ण वर्ष रहा क्योंकि ‘जागते रहो’ और ‘चोरी चोरी’ की सफलता ने राजकपूर को लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचा दिया। जागते रहो फिल्म को कार्लोरीवेरी अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ‘ग्रैंड प्रीं’ पुरस्कार मिला। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत होने के उपरान्त इस फिल्म को अधिक सफलता प्राप्त हुई। उस समय तक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी भारतीय फिल्म को इतना बड़ा पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ था। यह पुरस्कार मिलने के बाद भारतीय दर्शकों ने ‘जागते रहो’ को खूब देखा और फिल्म बड़ी हिट साबित हुई। कला समीक्षकों ने इसे हिन्दी सिनेमा की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बताया। गाँवों में तमाम शहरी सुविधाएं पहुँच चुकी हैं। संचार और यातायात के साधनों ने गाँव और शहर के बीच की भौतिक दूरियाँ कम की हैं। रोजगार और शिक्षा के लिए लोग बड़ी संख्या में गांवों से शहरों की ओर प्रवास भी करने लगे हैं फिर भी नगरों का भद्रलोक श्रमिकों, दिहाड़ी मजदूरों और गरीब किसानों को सम्मान की नजर से नहीं देखता है।
‘जागते रहो’ (1956) सिर्फ अपने समय का नहीं बल्कि हर समय का विराट सच है और आधुनिक समाज के परिदृश्य में तो इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ती जाती है। यह एक कालजयी फिल्म है। इस फिल्म के नायक का कोई नाम नहीं है, जिसे शहरी सफेदपोश वर्ग चोर समझ बैठा है, पूरी फिल्म में वह एक शब्द नहीं बोलता है सिर्फ देखता है, इशारे करता है और खुद को बचाने के लिए विशालकाय बहुमंजिली इमारत में इधर से उधर भागता रहता है। रात भर एक चोर को तलाशने और पकड़ने का प्रयास करने वाले सभी लोग पुरुष हैं। क्लाइमैक्स पर जब सुबह होती है तो एक चार साल की बच्ची गरीब देहाती किसान की समस्या को समझती है। उसके आँसू पोंछती है और सहारा देकर खड़ी करती है। वह लड़की अपने घर का दरवाजा खोलकर डरे-सहमे गरीब देहाती व्यक्ति को बाहर निकलने का साहस देती है। पास के मंदिर से किसी महिला (नरगिस) के भजन गाने की मधुर आवाज आती है –जागो मोहन प्यारे जागो, नवयुग चूमे नयन तिहारे। मजदूर के कदम सहज ही भजन और मंदिर की तरफ बढ़ जाते हैं जहां उसे निडर होकर अपनी प्यास बुझाने का अवसर मिलता है। भजन के आरंभ के साथ ही राष्ट्रनायकों गांधी, टैगोर, स्वामी विवेकानंद और नेहरू के चित्र दीवार पर टंगे दिखते हैं। फिल्म का संदेश साफ है कि गुलामी की अंधियारी रात बीत चुकी है। गांधी, टैगोर और अन्य महान नेताओं के बताए रास्ते पर चलकर देश को आगे ले जाने में सभी आमिर गरीब को मिल-जुलकर लगना होगा। यह फिल्म निर्माण के 66 वर्ष बाद भी कथानक और अनूठे प्रस्तुतिकरण के कारण एक अलहदा मुकाम रखती है।
‘फिर सुबह होगी’ (1958) यह फिल्म फयोडोर दोस्तोवॉसकी के उपन्यास क्राइम एंड पनिशमेंट पर आधारित है। ‘जिस देश मे गंगा बहती है’ (1960) नदियों के कछार में रहने वाले डाकुओं के एक समुदाय को मुख्यधारा से जुड़ने की कहानी है। बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी जैसे गीत घूम-घूम कर गाने वाला राजू (मेरा नाम राजू घराना अनाम) अपना परिचय एक भाँट के रूप में देता है। गांधी के हृदय परिवर्तन और ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं’ के सिद्धांत में भरोसा करने वाला नायक डाकुओं का समर्पण कराकर उनके बीवी-बच्चों को समाज की मुख्य धारा में जोड़ने और शिक्षा दिलाकर अच्छे नागरिक बनाना चाहता है और कई बाधाओं के बाद सफल भी होता है।
‘संगम’ (1964) इस फिल्म ने बॉलीवुड में प्रेम त्रिकोण पर बनने वाली फिल्मों की परंपरा की नींव डाली जिसकी कहानी पर आगे उनकी ही अंतिम फिल्म हिना और ऋषिकपूर-दिव्या भारती की फिल्म दीवाना में दुहराया गया। ‘तीसरी कसम’ (1966) राजकपूर के परम मित्र गीतकार शैलेन्द्र की एक निर्माता के रूप में ड्रीम प्रोजेक्ट फिल्म थी जो उन्होंने महान कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम के आधार पर बनाया था। राजकपूर एक बैलगाड़ी हाँकने वाले गाड़ीवान की भूमिका (हीरामन) में तथा वहीदा रहमान (हीराबाई) नौटंकी में नाचने वाली बाई जी बनी थीं जिनकी आवाज फेनुगिलासी की तरह लगती है। फिल्म में महुआ घटवारिन की एक मिथकीय कथा है जिसे उसकी सौतेली माँ एक सौदागर के हाथ बेच देती है। इस गीत की विषयवस्तु हीरामन और हीराबाई के मन में एक दूसरे के लिए उपजे अधूरे प्रेम की तरह ही लगती है। दो अभिशप्त प्रेमी एक दूसरे से ये जानते हुए भी प्रेम कर रहे हैं कि वे कभी भी एक दूसरे के नहीं हो सकते। निजी जीवन में भी राजकपूर असफल प्रेम के साथ अभिशप्त ही रहे क्योंकि फिल्मों में आने से पहले ही उनकी शादी हो चुकी थी और दस साल मे 16 फिल्में साथ करने के बाद भी वे नरगिस से शादी नहीं कर सके।
दार्शनिक अंदाज की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के फ्लॉप होने बाद घाटे से उबरने के लिए राजकपूर ने अपने बेटे ऋषि कपूर और सोलह बरस की डिम्पल कपाड़िया को लेकर किशोर वय की ताजा प्रेम कहानी बनाई, जिसे दर्शकों ने हाथों हाथ लिया। ‘बॉबी’ (1973) एक अमीर बाप के बेटे का मछुआरे की लड़की से प्रेम और उससे उपजे कान्फ्लिक्ट को चित्रित करती फिल्म है। बॉबी फिल्म में डिम्पल कपाड़िया के बोल्ड अंदाज ने राजकपूर को आलोचनाओं का शिकार भी बनाया। प्रेम रोग (1982) विधवा पुनर्विवाह और अन्तर्जातीय प्रेम विवाह की समस्या को दर्शाती हुई अत्यंत प्रभावी फिल्म है जिसकी नायिका अपने जेठ के द्वारा यौन शोषण की शिकार होती है फिर भी समाज और उसके घर वाले इज्जत के नाम पर उस युवा विधवा लड़की को वापस ससुराल भेज देना चाहते हैं।
‘राम तेरी गंगा मैली’ (1985) मंदाकिनी के बोल्ड दृश्यों की वजह से चर्चा में रही लेकिन इस फिल्म की विषयवस्तु इतनी प्रांसगिक है और राजकपूर साहब ने इतने प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है कि यह फिल्म अपना कोई सानी नहीं रखती। गंगा हिमालय के गोमुख से निकलती है और अत्यंत पवित्र नदी मानी जाती है। पहाड़ों के लोग भी बहुत सरल हृदय होते हैं और उनकी स्त्रियाँ भी अत्यंत सुकोमल और संबंधों को निभाने वाली होती हैं। स्त्री और नदी (गंगा) को सम्मान न देने से संस्कृति और सभ्यता दोनों का अस्तित्व खतरे में पड़ता है। राजकपूर साहब इस फिल्म को कोलकाता के भद्र लोक से गोमुख के विरल पहाड़ी स्थल को एक डोर से जोड़ते हैं। हमारे देश में विविधता है क्षेत्रीय विशालता है, भाषा बोली पहनावे में भिन्नता है लेकिन एक मूल्य में सभी भरोसा रखते हैं कि स्त्री और नदी का सम्मान होना चाहिए। परंतु धन पशु और देश के संसाधनों को लूटकर अपनी जेब भरने की प्रबल इच्छा रखने वाले भोगवादी लोग स्त्री और गंगा दोनों को दूषित करने का काम कर रहे हैं – राम तेरी गंगा मैली हो गई पापियों के पाप धोते–धोते। राजकपूर ने गंगा से जुड़े तीन स्थलों गंगोत्री से बनारस और फिर कोलकाता और उनको जोड़ने वाली गंगा और भारतीय रेल सभी की भूमिका को चित्रित किया है। गंगोत्री से चलकर अपने बेटे को हक दिलाने के लिए निकली गंगा नामक स्त्री के साथ इस देश मे कदम-कदम पर छल और धोखाधड़ी होती है।
कुछ बात अलग थी राजकपूर की फिल्मों में
उनको सद्यः स्नात नायिकाओं के सौन्दर्य को परदे पर चित्रित करने वाला शोमैन कहा जाता है। राजकपूर की पहले की फिल्मों में नायक गाँव से शहर की तरफ जाता है और गाँव-शहर के भिन्न सांस्कृतिक मूल्यों की टकराहट से जो नाटकीय वातावरण उनके सिनेमा में चित्रित होता है वह दर्शकों को सावधान करता है कि वे मनुष्य की मनुष्यता और मानवता को अन्य चीजों से ऊपर रखें। उनकी फिल्मों के माध्यम से हम एक फिल्मकार के नजरिए में समय के साथ या रहे बदलाव के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था और लोगों की सोच में या रहे बदलाव को भी दर्ज कर सकते हैं। आवारा, जागते रहो, जिस देश में गंगा बहती है, राम तेरी गंगा मैली, सत्यम शिवम सुंदरम सभी फिल्मों में पानी को बहुत ही महत्वपूर्ण कारक के रूप में चित्रित किया गया है। राजकपूर अपनी आरंभिक फिल्मों के कुछ दृश्यों, गीतों और कहानियों को बाद की फिल्मों में नए कलेवर में दुहराते भी हैं। जैसे जिस देश मे गंगा बहती है के गीत आ अब लौट चलें पर इसी शीर्षक से उनके स्टूडियो ने फिल्म बनाई। इसी फिल्म के स्वयंवर के स्टाइल में फिल्माए गए गीत हम भी हैं तुम भी हो की तरह राम तेरी गंगा मैली फिल्म का गाना सुन साहिबा सुन फिल्माया गया है जिसमें नायिका एक बाहरी पुरुष से अपने प्रेम का इजहार करती है जो आगे विवाद का कारण बनता है। इस फिल्म का नायक राजू डफली बजाकर गीत गाता है, ऋषिकपूर अपनी फिल्म सरगम में डफली वाले की भूमिका मे दिखते हैं। संगम फिल्म में नायक के गायब होने उसके लौट कर आने के बाद उसकी शादी की घटना को कुछ परिवर्तनों के साथ हिना फिल्म मे दुबारा प्रस्तुत किया है। राजकपूर की फिल्मों में ग्रामीणों, आदिवासियों को ईमानदारी, सच्चाई, प्रेम के प्रति समर्पित और सहज दिखाया गया है जबकि शहरी वणिक वर्ग को लालची, दोहरेपन का शिकार, और स्वार्थी बताया है।
राजकपूर भारत देश की विविधता का सम्मान करते हुए अपनी फिल्मों की स्टारकास्ट और कथानकों को समावेशी बनाने का प्रयास किया है। ललिता पवार, डेविड, रजा मुराद, शैलेन्द्र, रवींद्र जैन को लगातार अपनी टीम मे रखकर काम करने का अवसर उपलब्ध कराना इसका उदाहरण है। जिस देश में गंगा बहती है फिल्म में गांधी-नेहरू के राष्ट्र निर्माण की दृष्टि, वंचित और हाशिये के समुदायों और समाजों को राष्ट्र निर्माण की मुख्य धारा में शामिल कर एक साथ आगे बढ़ने का सपना और संकल्प प्रस्तुत करती है यह फिल्म। इस फिल्म का नायक राजू कहता है कि, ‘बंदूक ने गांधी को नहीं पहचाना तो यह हमको तुमको क्या पहचानेगी। दुनिया में बराबरी बंदूक और डाकू नहीं लाएंगे यह तो संविधान और कानून के रास्ते से आएगा’’। राजकपूर एक ऐसे नायक की तरह उभरते हैं जो देखने में भोला और दुनियादारी की कम समझ रखने वाला आदमी लगता है लेकिन मन के साफ दर्पण में उसे सब कुछ स्पष्ट दिखता है और भटके हुए लोगों को वह सच्ची और सीधी राह पर लाने का हुनर और भरोसा दोनों रखता है।
सन् 1951 में प्रदर्शित फिल्म आवारा हिन्दी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। इसने राज कपूर को नायक के रूप में नयी और अलग पहचान दी। आवारा ने ही फिल्मकार के रूप में एक दृष्टिकोण दिया; और आवारा ने ही उनकी फिल्मों को सामाजिक यथार्थ के धरातल पर ला खड़ा किया। सुप्रसिद्ध फिल्म-समालोचक प्रह्लाद अग्रवाल लिखते हैं, आवारा ने इस सत्ताइस साल के नौजवान को उस ऊँचाई पर पहुँचा दिया, जहाँ तक पहुँचने के लिए बड़े-से-बड़ा कलाकार लालायित हो सकता है। आवारा ने ही उसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की। यहाँ तक कि वह पंडित नेहरू के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तित्व बन गया—सोवियत रूस में। रूस और अनेक समाजवादी देशों में आवारा को सिर्फ प्रशंसा ही नहीं मिली, वरन् वहाँ की जनता ने भी बेहद आत्मीयता के साथ इसे अपनाया।’ लेखक-पत्रकार विनोद विप्लव ने भी राजकपूर की विश्वव्यापी ख्याति के बारे में अपनी टिप्पणी में लिखा है कि, ‘भारत ने विश्व स्तर पर चाहे जो छवि बनायी हो और उसके जो भी नये प्रतीक हों, लेकिन इतना तय है कि चीन, पूर्व सोवियत संघ और मिस्र जैसे देशों में राजकपूर हमेशा के लिए भारत का प्रतीक बने रहेंगे। चीन के सबसे बड़े नेता माओ त्से तुंग ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि आवारा उनकी सर्वाधिक पसंदीदा फिल्म थी। शायद यही कारण है कि आज भी पेइचिंग और मास्को की सड़कों पर घूमते-टहलते हुए आवारा हूं गीत सुनाई पड़ने लगते हैं। यह राज कपूर की लोकप्रियता के विशाल दायरे का एक उदाहरण मात्र है।’
राजकपूर आजाद भारत के एक युवा, दूरदर्शी कलाकार और फिल्मकार थे। आजादी के बाद देश के सामने अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, जातीय भेदभाव, महिलाओं के शोषण, शहरों की तरफ पलायन, डाकुओं की समस्या एवं सांप्रदायिकता जैसी गंभीर समस्याएं थीं। स्वतंत्रता संग्राम के नायकों गांधी, पटेल और नेहरू और अंबेडकर के हाथों में देश की बागडोर थी जिनके सामने राष्ट्र निर्माण का लक्ष्य था। गांधी-नेहरू के आदर्शों से प्रेरित होकर एक समावेशी और समानता आधारित समाजवादी राष्ट्र निर्माण के लिए राजकपूर जैसे फ़िल्मकारों ने फिल्में बनाई। चार्ली चैपलिन की भांति आम आदमी का सिनेमा बनाकर जिस भोलेपन सादगी और बेचारगी का अपने अभिनय में समन्वय कर राजकपूर परदे पर प्रस्तुत किया वह बॉलीवुड की उपलब्धि है। बॉलीवुड या भारतीय सिनेमा के इतिहास में राजकपूर एक महान शोमैन के तौर पर सदैव दर्ज किए जाएंगे।
राजकपूर की फिल्मों के देखने के बाद मै यह कहना चाहूँगा कि ‘अधूरे प्यार की कसक लिए सार्थक सिनेमा का संसार रचता हुआ भारतीय सिनेमा का महान शोमैन राजकपूर कम उम्र में ही इस दुनिया को अलविदा कह गया। उन्होंने औपचारिक शिक्षा कम अर्जित की थी लेकिन भारतीय समाज के मुद्दों की समझ इतनी बेहतरीन थी कि उनकी फिल्में देखते हुए लगता है कि समाजशास्त्र का एक विद्वान प्रोफेसर परदे पर गरीबी, बेरोजगारी, रुरल-अर्बन बाइनरी, मूल्यों के टकराहट और संकट, मानवीय पूर्वाग्रह बनाम सामाजिक पर्यावरण, रूढ़ियाँ, पुरानी और नई परम्पराओं की टकराहट, रवींद्र नाथ टैगोर का यूनिवर्सल नेशनलिज़्म, नेहरू का समाजवाद और राष्ट्र निर्माण सब कुछ क्लासरूम के ब्लैकबोर्ड पर बड़ी ही कुशलता से एक के बाद दूसरा पढ़ा रहा हो जो विद्यार्थियों के जेहन मे बैठता जा रहा हो।’
फिल्म निर्माण में उनके अमूल्य योगदान को देखते हुए सन 1971 मे पद्म भूषण तथा सन 1987 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया। पृथ्वीराज कपूर से शुरू होकर रणवीर और करीना कपूर तक आज चौथी पीढ़ी बॉलीवुड मे सफलतापूर्वक अपना योगदान दे रही है। राजकपूर के विषयों पर उनके बेटे और पोतियाँ भी ‘आ अब लौट चलें’ तथा ‘अनारी’ (करिश्मा कपूर) फिल्में बनाकर ख्याति अर्जित कर रहे। राजकपूर ने नहाती हुई औरतों/नायिकाओं के भीगी साड़ी में लिपटे हुए दृश्य जिस देश मे गंगा बहती है (पद्मिनी) से लेकर सत्यम शिवम सुंदरम और राम तेरी गंगा मैली तक फिल्माए। करिश्मा कपूर ने फिल्म जानवर में इसी तरह का दृश्य शूट कर अपने दादा द्वारा स्थापित सौन्दर्य को चित्रित करने की परंपरा को आगे बढ़ाया।