देश के ग्रामीण क्षेत्रों में आय का सबसे सशक्त माध्यम कृषि है। देश की आधी से अधिक ग्रामीण आबादी कृषि पर निर्भर करती है। इसके बाद जिस व्यवसाय पर ग्रामीण सबसे अधिक निर्भर करते हैं वह है पशुपालन। बड़ी संख्या में ग्रामीण भेड़, बकरी और मुर्गी पालन कर इससे आय प्राप्त करते हैं। जम्मू कश्मीर में तो बाकायदा गुजर बकरवाल नाम से एक समुदाय है जो सदियों से भेड़ और बकरी पालन का काम करता आ रहा है। इस समुदाय को जम्मू कश्मीर में अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है। जम्मू कश्मीर की तरह राजस्थान में भी बड़ी संख्या में ग्रामीण भेड़, बकरी और ऊंट पाल कर आमदनी प्राप्त कर रहे हैं। हालांकि पशुधन जहां आय का प्रमुख जरिया है वहीं इसके पालन और चारा की व्यवस्था एक बड़ी समस्या के रूप में भी रहती है।
राजस्थान के बीकानेर स्थित लूणकरणसर ब्लॉक के कालू गांव के ग्रामीण भी बड़ी संख्या में पशुधन आय का माध्यम बना हुआ है। यह गांव ब्लॉक मुख्यालय से लगभग 20 किमी और जिला मुख्यालय से करीब 92 किमी दूर है। इस गांव की जनसंख्या करीब 10334 है। यहां अनुसूचित जाति की संख्या करीब 14.5 प्रतिशत है। गांव में साक्षरता की दर लगभग 54.7 प्रतिशत है, जिसमें महिलाओं की साक्षरता दर मात्र 22.2 प्रतिशत है। इस गांव में 250 ऐसे घर हैं जो भेड़ बकरियां पालने का काम करते हैं। प्रत्येक परिवार के पास कम से कम 100 भेड़ बकरियाँ और ऊंट अवश्य है। जबकि कुछ परिवार ऐसे भी हैं जिनके पास लगभग 400 से भी अधिक मवेशियाँ हैं। जिन्हें चराने के लिए कई बार पशुपालकों को काफी समस्याओं का सामना करनी पड़ती है। भेड़ बकरियों को चराने के लिए जब वह उन्हें खेत में लेकर जाते हैं तो कई बार खेत के मालिक उन्हें वहां चराने से मना कर देते हैं। वहीं कई बार जब खेतों में चारा खत्म हो जाता है और बारिश नही होती है तो इन्हें अपने मवेशियों को लेकर अन्य स्थानों की ओर पलायन करने पर मजबूर होना पड़ता है।
गांव से कुछ किमी दूर सेना के अभ्यास के लिए फायरिंग रेंज एरिया है, अक्सर ग्रामीण वहां अपने मवेशियों को चराने ले जाते हैं। लेकिन भारतीय सेना के लिए यह स्थान आरक्षित होने के कारण इन्हें वहां अपने जानवरों को चराने में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। हालांकि ग्रामीणों की इस समस्या को देखते हुए स्थानीय संस्था उर्मुल द्वारा एक सी.एफ.सीसेंटर (कॉमनफैसिलिटी सेंटर) खोला गया है। यह गांव की गोचर भूमि है. जिसे 150 बीघा जमीन में बनवाया गया है। इसमें चारों ओर तारे बंधी हुई हैं। जिसमें चारे की उचित व्यवस्था की गई है। यहां पर पानी की व्यवस्था के लिए 4 कुंड भी बनाए गए हैं. इसके अतिरिक्त इस भूमि पर एक जोहड़ (कुंड) की भी व्यवस्था करवाई गई है जिसमें वर्षा के दिनों में पानी इकट्ठा करने की व्यवस्था की गई है। इसके अतिरिक्त इस सेंटर में भेड़ों की ऊन कटिंग की व्यवस्था भी की गई है। जहां पशुपालक आधुनिक मशीनों के माध्यम से अपनी अपनी भेड़ों के ऊन उतरवाते हैं। इसके अतिरिक्त यहां मवेशियों वैक्सीन की भी व्यवस्था की गई है, तथा उनके बीमार होने पर इलाज का भी पूरा इंतज़ाम किया गया है. इतना ही नहीं, इस दौरान पशुपालकों के लिए ठहरने के लिए भवन का भी निर्माण किया गया है. इस चारागाह में सालाना कम से कम 1900 से अधिक मवेशी आते हैं।
इस कॉमनफैसिलिटी सेंटर के कारण कालू गांव के पशुपालकों को अपने मवेशियों को चराने की समस्या लगभग समाप्त हो गई है। मवेशियों को पर्याप्त चारा और मेडिकल सुविधा मिलने के कारण जानवर काफी स्वस्थ रहते हैं। जिसका लाभ ग्रामीणों को अधिक आय के रूप में मिलने लगा है। इस संबंध में गांव के निवासी माना राम का कहना कि वर्तमान में मेरे पास 97 भेड़ और 8 बकरियां हैं. जिन्हें बेच कर मुझे एक साल में दस हजार तक की आमदनी हो जाती है। इसके अतिरिक्त एक साल में तीन बार भेड़ और ऊन के बालों की कटिंग भी करते हैं। जो अलग अलग महीनों में अलग अलग दामों पर बिकते हैं।
मार्च में जहां भेड़ के बाल 170 रुपए किलो बिकता है वहीं जुलाई में इसकी कीमत 70 से 80 रुपए किलो होती है. हालांकि नवंबर और दिसंबर में यह 50 से 60 रुपए किलो बिकती है. उन्होंने बताया कि एक बार में भेड़ से डेढ़ किलो ऊन प्राप्त हो जाता है. वहीं एक अन्य मवेशी पालक प्रेम का कहना है कि मेरे पास 68 भेड़ें और 17 बकरियां हैं. जिनसे मुझे सालाना 60 से 70 हजार रुपए तक की आमदनी हो जाती है. भेड़ों का ऊन बेचकर जहां काफी लाभ मिलता है. वहीं उनका मीट350 रुपए किलो बिकता है. प्रेम कहते हैं कि मुझे बकरी का दूध बेचकर भी काफी लाभ मिल जाता है. कई बार बीमारों के लिए लोग ऊंचे दामों में बकरियों का दूध भी खरीदते हैं. जिसकी हमें अच्छी कीमत मिलती है।
वहीं एक अन्य पशुपालक राजू राम कहना है कि मेरे पास 386 भेड़ हैं। हम परिवार के चार लोग साल में आठ महिने घर से बाहर भेड़ों को चराने के लिए ले जाते हैं. इन मवेशियों से मेरे परिवार को सालाना ढाई लाख रुपए की आमदनी हो जाती है. हालांकि इस आमदनी को प्राप्त करने में हमें काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. जब हम एक साथ इतनी सारी भेंडो को लेकर गांव से पलायन करते हैं तो कई बार रोड पर एक्सीडेंट से हमारी भेंड़े मर भी जाती हैं. सरकार द्वारा हमारे मवेशियों का कोई बीमा भी नहीं होता है. जिससे मरने वाले जानवरों का कोई मुआवज़ा भी नहीं मिलता है. इससे हमें काफी नुकसान उठाना पड़ता है. इसके अतिरिक्त रास्ते में चारे पानी की भी कोई उचित व्यवस्था नहीं हो पाती है. बीमारी आने पर उन मवेशियों के लिए किसी प्रकार की वैक्सीनेशन की व्यवस्था भी नहीं होता है. इसके कारण हमें जानवरों का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है. गांव में जब हम वापस आते हैं तो इतनी सारी भेड़ो को रखने के लिए उचित स्थान भी नहीं होता है. वहीं आंधी और बारिश के समय भी बहुत से मवेशी मारे जाते हैं. जिसके नुकसान की कोई भरपाई नहीं हो पाती है।
राजधानी दिल्ली में दो साल से क्यों आंदोलनरत हैं आंगनवाड़ी वर्कर्स?
बहरहाल, गांव में कॉमनफैसिलिटी सेंटर की व्यवस्था होने के कारण पहले की तुलना में मवेशी पालकों को काफी सुविधाएं मिलने लगी हैं। लेकिन जानवरों का बीमा नहीं होना इन मवेशी पालकों के लिए आज भी एक समस्या बनी हुई है। ऐसे में सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे कि इन्हें धरातल पर सभी सुविधाओं का लाभ मिल सके। ताकि मवेशी पालक अधिक से अधिक मवेशी पालने को प्रोत्साहित हो सकें क्योंकि वर्तमान में कृषि के बाद जिस प्रकार से मवेशी पालन ग्रामीणों की आय का प्रमुख स्रोत बनता जा रहा है, वह न केवल उनके लिए बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी सकारात्मक संकेत कहे जा सकते हैं। (साभार चरखा फीचर)