बलरामपुर और अयोध्या। प्रसिद्ध नाटककार और कहानीकार भुवनेश्वर ने अपने एक नाटक में अपने एक पात्र के संवाद में लिखा है कि तुम तो इतने संवेदनहीन हो कि आदमी द्वारा खींचे जा रहे रिक्शे पर भी शान से बैठ सकते हो। यह संवाद बेशक लेखक की मानवीय संवेदना का उच्चतर मान प्रदर्शित करता है लेकिन आज भी रिक्शे वाले आदमी को खींचते हुये न केवल हाँफ और खाँस रहे हैं बल्कि लोगों द्वारा उनको कम मेहनताना मिलता है। लोगों द्वारा उनकी मेहनत के मुक़ाबले जायज़ किराया देने की जगह धौंस देकर कम किराया देने का व्यवहार आम है तथा रिक्शेवाले अक्सर पुलिस के अपमान, गालियों और डंडे के शिकार होते हैं। शहर में किसी वी आई पी के आने का सबसे अधिक खामियाजा रिक्शेवाले ही भुगतते हैं।
सड़कों, शहरों और वाहनों के बदलते स्वरूप ने भी रिक्शेवालों के रोजगार को छिन लिया है। हर शहर में ई रिक्शा की बढ़ती तादाद ने भी रिक्शे की स्थिति को प्रभावित किया है। जिन जगहों पर कोई अन्य वाहन नहीं जाता वहाँ पहुँचने का एकमात्र साधन रिक्शा ही है, खासतौर से पुराने शहरी मुहल्लों और घने बाज़ारों में से सामान लेकर बस अड्डों और स्टेशनों पर छोड़ने का काम रिक्शों द्वारा ही संभव है। मेहनत के मुक़ाबले रिक्शेवालों की मजदूरी कहीं-कहीं बराबर होती है लेकिन अक्सर मोलभाव करने पर वे कम पर चलने को ही राज़ी हो जाते हैं क्योंकि ऐसा न करने पर दूसरे लोग ले जाएंगे और हाथ आया रोजगार चला जाएगा।
बलरामपुर जिले के अंतिम ब्लॉक पचपेड़वा के रेलवे स्टेशन और बाज़ार के बीच रिक्शा चलानेवाले इशू का रिक्शा ऑटो स्टेंड पर खड़ा था तो रिक्शे की बनावट ने मेरा ध्यान खींचा। वह आम रिक्शों के मुक़ाबले अलग था और जुगाड़ से बनाया गया था। किसी पुराने रिक्शे की चेसिस पर लकड़ी से बना यह रिक्शा देखकर यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि रिक्शा निर्माता कंपनियाँ बड़े और घने शहरों में ही रिक्शे बेचती हैं। छोटे शहरों और कस्बों में सेकेंडहैंड अथवा जुगाड़ से बने गए रिक्शे ही चलते हैं। मैं लगभग हर शहर अथवा कस्बे में चलनेवाले रिक्शों और रिक्शावानों के फोटो लेने की कोशिश करती हूँ।रिक्शों का अंदाज, बनावट, ऊँचाई और छतरी के अलावा सजावट उन शहरों के मिजाज को बताता है। अधिक नए सजावट वाले रिक्शे सवारियों को आकर्षित करते हैं और पर्यटन केन्द्रों पर रिक्शेवाले ठीक-ठाक कमा लेते हैं। लेकिन सभी रिक्शेवालों को नियमित सवारियाँ नहीं मिलतीं।
रिक्शेवालों के बारे में यह जाना-माना तथ्य है कि यह रोजगार का अंतिम विकल्प है। बहुत से बर्बाद किसान और दलित मजदूर इस काम को अपनाते हैं। लेकिन यह एक मशक्कत भरा काम है जो न केवल बुरी तरह थका देता है बल्कि अभाव और कुपोषण के चलते उन्हें टीबी का मरीज भी बना देता है। वे शहरों में लगातार पुलिस-उत्पीड़न और अवैध वसूली के शिकार होते हैं लेकिन कोई संगठन न होने से उनकी कोई आवाज नहीं उठती और न ही कोई सुनवाई होती है।
कुछेक रिक्शेवाले मिलते हैं जिनके पास अपना रिक्शा है लेकिन यह संख्या एकाध प्रतिशत से अधिक नहीं है। ज्यादातर रिक्शाचालक किराये पर रिक्शा लेते हैं। इस प्रकार वे एक ऐसे मजदूर हैं जिनके पास कुछ भी नहीं है। शहरों में उनके रहने अथवा पार्किंग के लिए कोई जगह निश्चित न होने से अक्सर उन्हें बड़े वाहनमालिकों अथवा चालकों द्वारा दुत्कार कर भगा दिया जाता है। कई रिक्शे ऐसे भी मिले जिनके रिक्शों में ब्रेक ही नहीं था और वे पैरों को पहिये की तीलियों में फँसाकर रिक्शे रोकते हैं।
मैं नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलने के लिए निकला हूं
बिसुनपुर गाँव के रहनेवाले इशू ने बताया कि आजकल यहाँ ई रिक्शे बढ़ गए हैं इसलिए मेरी आमदनी बहुत कम है। वह कहते हैं कि सवारियाँ तो अब ई रिक्शा में ही बैठती हैं। हम तो सिर्फ बोझा ढोते हैं। बहुत मुश्किल से गुजारा होता है। एक दिन के रिक्शे का किराया तीस रुपया देना होता है।
बनारस लौटते हुये जब हम फैजाबाद बस अड्डे पर आए तो दर्जनों ई रिक्शेवाले आ गए और स्टेशन, होटल अथवा अयोध्या जाने के बारे में पूछने लगे। हम पैदल ही स्टेशन की ओर जाने लगे तब कुछ दूर पर बाराबंकी जिले की रुदौली तहसील के बेलइया, हरिहरपुर गाँव के राममिलन अपना रिक्शा लिए आ गए। राममिलन की उम्र 65 साल है। पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके बच्चे नहीं हैं। घर में पत्नी है और मुझे ही जीवन भर कमाना है। जब तक दम चलेगा यह काम करूँगा। वह रोज रिक्शे का पचास रुपए किराया देते हैं। पहले चार सौ से पांच सौ तक रोज कमा लेते थे लेकिन अब ई रिक्शा के लोगों के पास अपनी गाडी हो जाने के कारण दिनभर में बामुश्किल दो सौ रुपया कमा पाटा हूँ और उसमें से भी पचास रूपये किराये के देने होते हैं। अभी महंगाई इतनी बढ़ गई कि गुजारा करना बहुत कठिन हो गया है।
मैंने पूछा कि रिक्शे खरीदने के लिए सरकार की सब्सिडी की कोई योजना नहीं है? उन्होंने बताया कि ‘एक बार मैं बैंक में लोन के लिए गया था लेकिन इतना दौड़ाया कि मैं थक गया और जाना छोड़ दिया। मुझे लगता है कि हम पचास रुपए किराए में ही ठीक हूँ।’
किसी भी शहर में जाइए। रिक्शों का आकार-प्रकार चाहे जैसा हो लेकिन रिक्शेवाले अमूमन एक जैसे ही मिलेंगे। निर्विकल्प, थके हुये, कुपोषण और अधिकतर टीबी के शिकार। सरकार ने इनके लिए कुछ नहीं किया है और प्रशासन उन्हें लगातार खदेड़ता है और ट्रेफिक जाम का कारण मानता है। जबकि हर रिक्शा चलाने वाले के पास अपना निजी रिक्शा अनिवार्यतः होना चाहिए। मजदूरी का एक मानक होना चाहिए और उनका किसी भी प्रकार का उत्पीड़न बंद होना चाहिए। शहरों में बेघर रिक्शेवालों के लिए रैनबसेरे और किफ़ायती सामूहिक रसोई होनी चाहिए।
एक संप्रभु देश के नागरिक के नाते रिक्शेवाले उन तमाम सहूलियतों के हकदार हैं जो सामाजिक न्याय के मानकों पर अनिवार्य मानी गई हैं।
[…] हर शहर में सबसे अधिक उपेक्षित होते हैं… […]