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जयंती विशेष : आम्बेडकरवाद की रक्षा का आखिरी अवसर है लोकसभा चुनाव 2024

यह तय है कि यदि मोदी तीसरी बार सत्ता में आते हैं तो वह हिन्दू राष्ट्र की घोषणा के साथ बाबा साहेब का संविधान बदल कर मनु का विधान लागू कर देंगे, जिसमें उच्च वर्ण के लोग शक्ति के स्रोतों का  भोग करने के अभ्यस्त तो शुद्रातिशूद्र दैविक सर्वस्वहारा के रूप में जीवन जीने के लिए अभिशप्त होंगे।

आज देश भारतरत्न बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की जयंती एक ऐसे समय में मनाने जा रहा है , जब आम्बेडकरवाद बुरी तरह संकटग्रस्त हो चुका है और आज से कुछ ही दिन बाद आजाद भारत का सबसे निर्णायक लोकसभा चुनाव शुरू होने जा रहा है। आज जब आंबेडकरवाद दिन ब दिन दुनिया में विस्तारलाभ करते जा रहा है, इसके बुरी तरह संकटग्रस्त होने की बात कइयों को हजम नहीं हो सकती है। 

लेकिन आंबेडकरवाद के दुनिया में विस्तारलाभ पाते दौर में यह अप्रिय सच्चाई स्वीकार कर लेना ही बेहतर होगा कि भारत मे आंबेडकरवाद बुरी संकटग्रस्त हो चुका है और हर एकनिष्ठ आंबेडकरवादी का अत्याज्य कर्तव्य है कि वह इसे संकटमुक्त करने की दिशा में कुछ करे। लेकिन इस दिशा में कुछ करने के पहले या जान लेना जरूरी है कि क्या है आंबेडकरवाद और कैसे हो गया है यह संकटग्रस्त!

क्या है आंबेडकरवाद? 

वैसे तो आंबेडकरवाद की कोई निर्दिष्ट परिभाषा नहीं है, किन्तु विभिन्न समाज विज्ञानियों के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि जाति, नस्ल, लिंग, धर्म, भाषा,  क्षेत्र  इत्यादि जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि) से जबरन बहिष्कृत कर सामाजिक अन्याय की खाई में धकेले गए मानव समुदायों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का प्रावधान करने वाला सिद्धांत ही आंबेडकरवाद है और इस वाद का औजार है।

आरक्षण, भारत के मुख्यधारा के बुद्धिजीवियों द्वारा दया-खैरात के रूप में प्रचारित आरक्षण और कुछ नहीं, शक्ति के स्रोतों से जबरन बहिष्कृत किये गए लोगों को कानून के जोर से उनका प्राप्य दिलाने का अचूक औजार मात्र है। बहरहाल दलित, आदिवासी और पिछड़ों से युक्त भारत का बहुजन समाज प्राचीन विश्व के उन गिने-चुने समाजों में से एक है जिन्हें जन्मगत कारणों से शक्ति के समस्त स्रोतों से हजारों वर्षों तक बहिष्कृत रखा गया।

ऐसा उन्हें सुपरिकल्पित रूप से हिन्दू धर्म के प्राणाधार उस वर्ण-व्यवस्था के प्रावधानों के तहत किया गया जो विशुद्ध रूप से शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था नहीं। इसमें अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, भूस्वामित्व, राज्य संचालन, सैन्य वृत्ति, उद्योग-व्यापारादि सहित गगनस्पर्शी सामाजिक मर्यादा सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त उच्च वर्णों के मध्य वितरित की गयी। स्व-धर्म पालन के नाम पर कर्म-शुद्धता की अनिवार्यता के फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया, जिसे कई समाज विज्ञानी हिन्दू आरक्षण व्यवस्था कहते हैं।

हिन्दू आरक्षण व्यवस्था ने चिरस्थाई तौर पर भारत समाज को दो वर्गों में बांट कर रख दिया। एक विशेषाधिकारयुक्त सुविधाभोगी वर्ग और दूसरा, शक्तिहीन बहुजन समाज! इस हिन्दू आरक्षण में शक्ति के सारे स्रोत सिर्फ और सिर्फ विशेषाधिकारयुक्त तबकों के लिए आरक्षित रहे। इस कारण जहाँ विशेषाधिकारयुक्त वर्ग चिरकाल के लिए सशक्त तो दलित, आदिवासी और पिछड़े अशक्त व गुलाम बनने के लिए अभिशप्त हुए। इनमें सबसे बदतर स्थिति दलितों की रही। वे गुलामों के गुलाम रहे। इन्हीं गुलामों को गुलामी से निजात दिलाने की चुनौती इतिहास ने डॉ.आंबेडकर के कन्धों पर सौंपी, जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज में निर्वहन किया।

आंबेडकरी आरक्षण से हुई हिन्दू आरक्षण की काट 

अगर जहर की काट जहर से हो सकती है तो हिन्दू आरक्षण की काट आंबेडकरी आरक्षण से हो सकती थी, जो हुई भी। पूना पैक्ट के जमाने से इसी आंबेडकरी आरक्षण से सही मायने में सामाजिक अन्याय के खात्मे की प्रक्रिया शुरू हुई। हिन्दू आरक्षण के चलते जिन सब पेशों को अपनाना अस्पृश्य आदिवासियों के लिए दुसाहसपूर्ण सपना था, अब वे खूब दुर्लभ नहीं रहे। इससे धीरे-धीरे वे सांसद, विधायक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा से जुड़ने लगे। दलित आदिवासियों पर आंबेडकरवाद के चमत्कारिक परिणामों ने जन्म के आधार पर शोषण का शिकार बनाये गए अमेरिका, फ़्रांस, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका इत्यादि देशों के वंचितों के लिए मुक्ति के द्वार खोल दिए।

संविधान में डॉ. आंबेडकर ने अस्पृश्य-आदिवासियों के लिए आरक्षण सुलभ कराने के साथ धारा 340 का जो प्रावधान किया, उससे परवर्तीकाल में मंडलवादी आरक्षण की शुरुआत हुई, जिससे कई राष्ट्रों के बराबर विशाल संख्यक पिछड़ी  जातियों के लिए भी सामाजिक अन्याय से निजात पाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। उसके बाद ही आंबेडकरवाद नित नई ऊंचाइयां छूते चला गया तथा दूसरे वाद म्लान पड़ते गए। लेकिन मंडल की जिस रिपोर्ट के बाद आंबेडकरवाद नित नई ऊंचाइयां छूना शुरू किया, उसी से इसके संकटग्रस्त होने का सिलसिला भी शुरू हुआ और इसे संकटग्रस्त करने में भूमिका निभाया आरएसएस और उसके राजनीतिक संगठन ने।

आंबेडकरवाद को  संकटग्रस्त करने के लिए सर्वाधिक जिम्मेवार : मोदी

पूना पैक्ट के जमाने से ही हिंदुत्ववादी भाजपा का पितृ संगठन आरएसएस आरक्षण के खात्मे की साजिश में जुटा रहा। वह इसलिए कि संघ अपने जन्मकाल से ही उस हिन्दू राष्ट्र का आकांक्षी रहा है जिसमें देश उन हिन्दू धर्मशास्त्रों के तहत चलेगा जिसमें शक्ति के स्रोतों के भोग का अधिकारी सिर्फ उच्च वर्ण होगा और शुद्रातिशूद्रों का काम होगा, तीन उच्च वर्णों की निःशुल्क सेवा। संक्षेप में संघ के हिन्दू राष्ट्र का लक्ष्य शक्ति के समस्त स्रोत उच्च वर्णों के हाथों में देना और शुद्रातिशूद्रों को वैसी स्थिति में पहुंचाना, जिस स्थिति में उन्हे रहने का निर्देश हिन्दू धर्मशास्त्र देते हैं।

लेकिन आंबेडकरी आरक्षण ने हालात बदल दिए। हिन्दू धर्म के गुलाम आरक्षण के जरिए शासन-प्रशासन इत्यादि में हिस्सेदारी पाकर उस स्थिति में पहुंचने लगे, जिस स्थिति के भोग अधिकार धर्मशास्त्रों ने सिर्फ उच्च वर्णों को दिए थे। इसीलिए ही हिंदुत्ववादी संघ पूना पैक्ट के जमाने से आरक्षण का विरोधी रहा।        

बहरहाल पूना पैक्ट के जमाने से ही आरक्षण के खात्मे की ताक में बैठे संघ परिवार को 7, अगस्त, 1990 के बाद उस समय मौका मिल गया, जब पिछड़ों के आरक्षण के खिलाफ हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के तमाम तबके के छात्र और उनके अभिभावक, लेखक, पत्रकार और साधु-संत और धन्ना सेठ आरक्षण के खात्मे के लिए लामबंद हो गए। ऐसे में आरक्षण विरोधी जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग को एक साथ इकट्ठे होते देख संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा ने साधु-संतों, लेखक, पत्रकारों इत्यादि को साथ लेकर राम मंदिर आंदोलन छेड़  दिया।

मंदिर आंदोलन के सहारे भाजपा चुनाव दर चुनाव मजबूत होते-होते आज अप्रतिरोध्य बन गई है। मंदिर आंदोलन से मिले राजसत्ता सत्ता का इस्तेमाल संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्रियों अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी ने हिन्दू राष्ट्र की जमीन तैयार करने किया, जिसके लिए आरक्षण का खात्मा जरूरी था, जो उन्होंने किया! इस मामले में नरेंद्र मोदी ने अटल बिहारी वाजपेयी को बिल्कुल ही बौना बना दिया। चूंकि हिन्दू राष्ट्र का छुपा एजेंडा उच्च वर्णों के हाथों में शक्ति के समस्त स्रोत सौंपना तथा शूद्रातिशूद्रों को उस स्थिति में पहुंचाना रहा ,जिस स्थिति में रहने का निर्देश हिन्दू धर्मशास्त्र देते हैं, इसलिए नफरती राजनीति के चूड़ामणि नरेंद्र मोदी हिन्दू राष्ट्र के हिडेन एजेंडे के तहत  देश का सारा कुछ अपने चहेते उच्च वर्णों के हाथों मे सौंपने की दिशा में सर्वशक्ति से आगे बढ़े और प्रत्याशा से अधिक सफल हो गए।                    

शक्ति के समस्त स्रोतों पर हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग का 80- 90 प्रतिशत कब्जा 

हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए मोदी राज में पिछले दस सालों में जो नीतियाँ ग्रहण की गई हैं, उसके फलस्वरूप आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के परम्परागत सुविधाभोगी जैसा शक्ति के स्रोतों पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है। आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हैं। मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दूकानें इन्हीं की है। चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हीं की होती हैं।

देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल व पोर्टल्स प्राय इन्हीं के हैं। फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्हीं का है। संसद, विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है। मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों के हैं। शक्ति के स्रोतों पर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के बेनजीर वर्चस्व के मध्य जिस तरह मोदी-राज में विनिवेशीकरण और निजीकरण के साथ लैट्रल इंट्री को जूनून की हद तक प्रोत्साहित करते हुए रेल, हवाई अड्डे, चिकित्सालय, शिक्षालय इत्यादि बेचने सहित ब्यूरोक्रेसी के निर्णायक पद  उच्च वर्णों को सौपें जा रहे हैं, उससे डॉ. आंबेडकर द्वारा रचित संविधान की उद्द्येशिका में उल्लिखित तीन न्याय- आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक पूरी तरह एक सपना बनता जा रहा है। इस क्रम में ही भारत में आंबेडकरवाद संकटग्रस्त हुआ है और तेजी से अपना असर खोता जा रहा है।

आंबेडकरवाद को संकट-मुक्त करने का आखिरी अवसर है: लोकसभा चुनाव- 2024  

बहरहाल आज हिन्दू राष्ट्र निर्माण की परिकल्पना के तहत मोदी जिस अमृत-काल का उद्घोष कर रहे हैं, वह बहुतों के हिसाब से अन्याय-काल है। आंबेडकरवाद के संकटग्रस्त होते इसी अन्यायकाल में 18वीं लोकसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है और इस चुनाव में मोदी जहां भी जा रहे हैं, वहां अबकी बार 400 पार की अपील मतदाताओं से कर रहे हैं। वह 400 पार की अपील, 2025 में जब संघ की स्थापना के सौ साल पूरे होंगे उस अवसर पर हिन्दू राष्ट्र की घोषणा करने तथा आंबेडकर के संविधान को बदलने के मकसद से कर रहे हैं, यह ढेरों राजनीतिक विश्लेषकों ने प्रमाणित कर दिया है।

ऐसे में यह तय है कि यदि मोदी तीसरी बार सत्ता में आते हैं तो वह हिन्दू राष्ट्र की घोषणा के साथ बाबा साहेब का संविधान बदल कर मनु का विधान लागू कर देंगे, जिसमें उच्च वर्ण के लोग शक्ति के स्रोतों का  भोग करने के अभ्यस्त तो शुद्रातिशूद्र दैविक सर्वस्वहारा के रूप में जीवन जीने के लिए अभिशप्त होंगे। ऐसे में मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने से पहले से ही संकटग्रस्त आंबेडकरवाद की क्या स्थिति हो सकती है, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।

अतः कहा जा सकता है कि आंबेडकरवाद को संकट-मुक्त करने का आखिरी अवसर है लोकसभा चुनाव- 2024! यदि इस अवसर का इस्तेमाल कर आंबेडकरवादी  संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा को सत्ता में आने से रोक सके तो न सिर्फ आंबेडकरवाद संकट-मुक्त हो जाएगा, बल्कि इसकी जड़ें इतनी मजबूत हो जाएंगी कि उसे खत्म करने का सपना देखने में भी हिंदुत्ववादी संघ परिवार के पसीने छूट जाएंगे। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि इंडिया गठबंधन जिस एजेंडे और घोषणापत्र के साथ मोदी की भाजपा को चुनौती देने के लिए आगे बढ़ रहा है, उसमें आंबेडकरवाद के एवरेस्ट सरीखी ऊंचाई छूने के भरपूर तत्व हैं।

       

 

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

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