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सावित्री बाई फुले पहली महिला शिक्षिका ही नहीं, क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव की मिसाल थीं

आज से 193  वर्ष पहले भारत जैसे रूढ़िवादी, अंधविश्वास और पारंपरिक देश में सावित्री बाई फुले ने सामाजिक बदलाव की शुरुआत की। जब देश में लड़कियों को शिक्षा का अधिकार नहीं था न ही उनके लिए कोई स्कूल था। सावित्री बाई फुले और जोतिबा फुले ने मिलकर पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल स्थापित […]

आज से 193  वर्ष पहले भारत जैसे रूढ़िवादी, अंधविश्वास और पारंपरिक देश में सावित्री बाई फुले ने सामाजिक बदलाव की शुरुआत की। जब देश में लड़कियों को शिक्षा का अधिकार नहीं था न ही उनके लिए कोई स्कूल था। सावित्री बाई फुले और जोतिबा फुले ने मिलकर पुणे में लड़कियों के लिए पहला स्कूल स्थापित किया। उन दिनों यह कोई आसान काम नहीं था लेकिन उन्होंने यह क्रांतिकारी कदम उठाया। परिवार से छोड़ दी गईं और गर्भवती महिलाओं को अपने घर में आश्रय दिया। यह उन दिनों का काम था जब महिलाओं को घर से निकलने पर पाबंदी थी। आज  समाज में महिलाएं  बहुत असुरक्षित हैं और पितृसत्ता के दबाव में जी रही हैं, इन्हें याद कर इनके बताये रास्ते पर चलते हुए महिलाओं के लिए बेहतर समाज की उम्मीद कर सकते हैं। आज ऐसी क्रांतिकारी महिला की 193 जयंती है, उन्हें याद करते हुए  विद्याभूषण रावत  का यह लेख – संपादक 

भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री बाई फुले का जन्मदिन एक उत्सव के रूप में मनाया जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने देश की दलित-बहुजन जनता में क्रांति का दीपक जलाया। सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था। उनके पिता खंडोजी नवसे पाटिल एक बुजुर्ग ग्राम प्रधान थे। उनकी शादी जोतिबा फुले से सन् 1840 में हुई जब वह सिर्फ तेरह साल के थे और सावित्री बाई अपनी शादी के दौरान सिर्फ 9 साल की थीं। यहां तक की उन दोनों लोगों के माता-पिता जो अपने-अपने समुदायों में सम्मानित थे लेकिन इसके बावजूद भी अपनी बेटी की शिक्षित करने के महत्त्व को नहीं समझा। हो सकता है उन दिनों अपनी बेटी की शादी ‘सही उम्र में भी करना ज़रूरी था, भले ही वह पढ़ी-लिखी न हो। आज की तरह उस जमाने में बहुत सारे स्कूल नहीं थे और दलित पिछड़े समुदाय के लोगों के लिए शिक्षा प्राप्त करना तो वैसे भी असंभव था, क्योंकि समाज में अस्पृश्यता और जाति व्यवस्था बहुत अधिक प्रचलित थी।

उनके पति जोतिबा एक सामाजिक क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपने जीवनकाल में बहुजन समाज के लोगों विशेषकर  किसानों के साथ होने वाले व्यवहार को देखा था। माली जाति के होने के कारण उन्हें बहुत अपमान का सामना करना पड़ा था, लेकिन वे जानते थे कि अन्याय के खिलाफ लड़ाई तबतक सफल नहीं हो सकती, जबतक की उनके लोग शिक्षित न हों और अंधविश्वास से छुटकारा न पाएं। हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति और भी दयनीय थी। जबकि उच्च जाति की महिलाएं अपने परिवारों तक ही सीमित थीं, वही गरीब-पिछड़े समुदाय की महिलाओं में निरक्षरता सबसे अधिक थी। फुले अच्छी तरह से जानते थे कि एक दृढ़ प्रतिबद्धता वाले साथी के बिना उनके लिए यह संदेश फैलाना मुश्किल होगा। उन्होंने यह भी महसूस किया होगा कि अगर सावित्री बाई घर पर अनपढ़ और अशिक्षित रहेंगी, केवल घरेलू काम तक ही सीमित रहेंगी, तो यह महिलाओं को मुक्त करने के उनके लंबे दावों को खोखला बना देगा। वह जानते थे कि गांव की महिलाएं उससे ज्यादा सावित्री बाई के साथ जुड़ेंगी और इसलिए उन्होंने पहले सावित्री बाई को शिक्षित करने का फैसला किया।

फुले से हम एक बात सीख सकते हैं कि सदियों पुरानी प्रथाओं को एक या दो दिन में समाप्त नहीं किया जा सकता है। यह एक प्रक्रिया है और हमें इसे अपने घर से शुरू करने की जरूरत है। फुले ने उस समय अंग्रेजी शिक्षा की वकालत की क्योंकि वह जानते थे कि इससे उच्च जातियों के लिए दरवाजे खुल गए हैं और उन्होंने ब्रिटिश सरकार के दौरान सत्ता और पद हासिल कर लिया है और इसलिए बहुजन जनता के लिए भी अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करना महत्वपूर्ण था और यही एकमात्र कारण है कि उन्होंने ईसाई मिशनरी स्कूलों का पूरी तरह से समर्थन किया और उनकी सेवाओं की सराहना की क्योंकि उन्हें पता था कि सामान्य सरकारी स्कूल कभी भी निम्न जाति के लोगों को शिक्षा के लिए अनुमति नहीं देगा।

जोतिबा से कैसे प्रेरित हुईं सावित्री बाई फुले

जोतिबा के साथ उनके द्वारा विकसित विचारों ने अंततः उन्हें 1 मई, 1847 को पिछड़े समुदाय के बच्चों के लिए अपना पहला स्कूल खोलने में मदद की, लेकिन अज्ञानता और समाज के गहरे पारंपरिक पैटर्न के कारण फुले दंपति को न केवल उच्च जाति के सामंती लोगों का बहुत प्रतिरोध झेलना पड़ा, बल्कि उस समुदाय के भीतर से भी लोगों के विरोधाभास का सामना करना पड़ा, जिसके भले के लिए वह काम कर रहे थे जो रूढ़िवाद की चपेट में था। इसलिए जोतिबा के लिए यह महत्वपूर्ण था कि वह पहले सावित्रीबाई को शिक्षित करें और उन्हें एक आदर्श शिक्षक के रूप में विकसित करें, जो न केवल प्रारंभिक शिक्षा की बात करे, अपितु महिला अधिकारों के बारे में भी पढ़ा सके और समाज में एक सम्मानजनक स्थान कैसे सुनिश्चित करे, यह बता सके। इसके लिए उन्होंने सावित्री बाई को खूब प्रशिक्षित किया और फिर 1 जनवरी 1848 को भिडेवाड़ा, नारायण पेठ, पुणे नामक जगह पर लड़कियों के लिए अपना पहला स्कूल शुरू किया।

वंचित व बहुजन समाज के बीच शिक्षा की मशाल जलाई

यह ध्यान देने की जरूरत है कि फुले पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने बहुजन के बारे में बात की और उन्होंने न केवल अपने समुदाय में बल्कि मुस्लिम महिलाओं के साथ जुड़कर कार्य किया और सावित्री बाई के साथ शिक्षा का अलख जगाने के लिए एक मुस्लिम महिला फातिमा शेख को बढ़ावा देकर आंदोलन को पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष बना दिया। जहां हमें ऐसे क्रांतिकारी आदर्श लोग मिले हैं, जो न केवल अपने घर से शुरुआत करते हैं बल्कि अन्य समुदायों को बदलाव की मुख्यधारा में लाने के लिए कदम उठाते हैं।

फुले दंपति ने जातियों की संकीर्ण सीमाओ से परे हटकर सभी को गले लगाया, तब भी उन्हें वास्तव में कभी आकर्षित नहीं किया, ऐसे में उन दोनों पर अत्याचार किया गया और जातिगत भेदभाव से देखा गया। उन्होंने विभिन्न जातियों और समुदायों की लड़कियों को बढ़ावा दिया और प्रोत्साहित किया साथ ही उनके स्कूल में विभिन्न जातियों की 9 लड़कियों ने खुद को छात्रों के रूप में नामांकित किया था। महिला शिक्षा के लिए आंदोलन पूरे क्षेत्र में फैला और फुले दंपति ने वर्ष 1848 तक पांच और स्कूल स्थापित किए। ब्रिटिश सरकार ने सबसे हाशिए के समुदायों की महिलाओं के बीच शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उनके काम को स्वीकार किया और सावित्री बाई फुले को सम्मानित किया।

जोतिबा और सावित्रीबाई दोनों हमारे समाज में विधवाओं की दुर्दशा के बारे में चिंतित थे व उनके विकास के लिए प्रक्रिया शुरू की। उन्होंने युवा विधवाओं के लिए घर पर स्कूल शुरू किया और सती प्रथा के खिलाफ काम किया। यह एक क्रांतिकारी कार्य था, क्योंकि दलित-बहुजन समुदायों में भी महिलाओं के प्रति बहुत पूर्वाग्रह थे और फुले दम्पति ने पूरे बहुजन विमर्श में महिलाओं के सवालों को शामिल किया, जो उस युग के लिहाज से तो निस्संदेह बदलाववाहक और क्रांतिकारी था। पिछड़े वर्ग से आने के बावजूद भी उन्होंने दलितों के प्रश्नों विशेषकर जातिभेद, छुआछूत पर हमेशा बेबाक राय रखी और बहुजन समाज की एकता की दिशा में अपने कार्यों के जरिये एकता लाने के प्रयास किया।

विधवाओं और परित्यक्ता गर्भवती महिलाओं के लिए क्रांतिकारी कदम उठाया  

इन सब में उन्होंने ऐसे क्रांतिकारी काम किये, जिसपर आज भी हम लोग मुंह चुराते है और समाज के सामने खड़े होने की भी हिम्मत नहीं करते। उनके जिस कदम ने रूढ़िवाद को झकझोर दिया वो था विधवा विवाह और गर्भवती-विधवा महिला को उनका निर्विवाद समर्थन। उन्होंने उन लोगों को आशा दी, जिन्होंने कम उम्र में अपने पति को खोया और वे अच्छी तरह से जानते थे कि बाल विवाह के परिणामस्वरूप बाल विधवा भी होती है, क्योंकि पुराने समय में अक्सर बेमेल विवाह होते थे, जिसमें पति की उम्र बहुत अधिक होती थी और पत्नी बहुत कम उम्र की होती थीं। इन सबके खिलाफ लड़ने के लिए फुले दंपति ने लोगों की बहुत मदद की, विशेष रूप से उन महिलाओं को जो विधवा होने के बाद अपमान और अलगाव में जीवन जीने की बजाय मरना पसंद करती थीं।

फुले ने महसूस किया कि ब्राह्मणों ने भगवान के नाम पर गरीबों को बेवकूफ बनाया है और इसलिए उन्होंने अपने लोगों को उनकी ‘रणनीति’ का शिकार न होने की चेतावनी दी। उन्होंने सत्य शोधक समाज का गठन किया। एक ऐसा समाज जो सत्य को प्राप्त करने के लिए काम करता है। सावित्रीबाई फुले ने बड़े जोश और दृढ़ विश्वास के साथ अपने पति की विरासत को संभाला।

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जातिवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ 

आज जब हमसब महिलाओं के अधिकारों की बात कर रहे हैं, तो सावित्रीबाई फुले और उनके संघर्ष को याद करना लाजमी बन जाता है। जब हम अपने समाज के पुरुषों के अधिकारों के बारे में बात करते हैं, तो आइए याद करते हैं जोतिबा फुले को कि कैसे उन्होंने अपने साथी को शिक्षित किया। संकीर्ण दृष्टि से खुद को सीमित रखने वाले सभी लोगों को फुले दंपति के संघर्ष से सीख लेनी चाहिए। उन्होंने खुद को केवल ब्राह्मणवाद विरोधी बयानबाजी तक सीमित नहीं रखा, बल्कि एक विकल्प बनाया जिसे सत्यशोधक समाज कहा जाता था। इसका मतलब है कि विकल्प के अभाव में हम समाज का निर्माण नहीं कर पाएंगे। फुले ने कभी भी चीजों को करने के लिए सरकार पर भरोसा नहीं किया, लेकिन उन्होंने काम और सुधार शुरू किए। वह मूलरूप से एक आधुनिकतावादी थे और इसलिए उन्होंने आधुनिक वैज्ञानिक मानववादी शिक्षा के विचार को बढ़ावा दिया।

सावित्री बाई फुले एक क्रांतिकारी महिला थीं और भारत के भ्रष्ट व बेईमान जातिवादी बौद्धिक अभिजात वर्ग का शिकार हुईं, जिन्होंने उनकी उपलब्धियों और संघर्ष को छिपाने की कोशिश की। उन दोनों के काम की मात्रा का बेहतर उल्लेख कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पाठ्य पुस्तकों में किया जाना चाहिए। काश, हमारे युवा इन संघर्षों को जानते भी नहीं और फिर उन अन्यायों के खिलाफ लड़ने में असमर्थ होते हैं, जो भ्रष्ट सामाजिक व्यवस्था की उपज हैं, जो महिला विरोधी है।

एक क्रांतिकारी का जन्मदिन धूम-धाम से मनाया जाना चाहिए और इसे नकारात्मक अर्थों में नहीं देखा जा सकता है। आज हम अपना सिर ऊंचा रखते हैं और महिलाओं व वंचितों के बीच गरिमा एवं स्वाभिमान के लिए उनके संघर्ष को नमन करते हैं। हमें उन मूल्यों को बनाए रखना चाहिए जिनके लिए वह खड़ी थीं कि कैसे युवा समाज को बदल सकते हैं। हम ये भी समझे कि बदलाव तबतक नहीं आ सकता जबतक वह हमारे व्यक्तिगत जीवन में हम उन विचारों को नहीं चाहते। फुले ने भीतर से बदलाव की शुरुआत की और सबसे पहले सावित्रीबाई को शिक्षित किया। सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए वे सच्चाई और दृढ़ विश्वास की उल्लेखनीय मूर्ति हैं। फुले दंपति से भारतीयों को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। भारतीय पुरुषों के लिए जोतिबा एक वास्तविक परिवर्तन निर्माता हैं, जिन्होंने हर तरह से अपनी पत्नी के साथ घर से परिवर्तन की शुरुआत की और भारतीय महिलाओं के लिए सावित्री बाई से यह बात सीखनी चाहिए कि महिलाओं की गरिमा की लड़ाई पुरुषों से नफरत करने से नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन से आ सकती है। सावित्री बाई और जोतिबा एक-दुसरे के पूरक थे। आज के समय में क्या कोई कल्पना कर सकता है कि 19वीं सदी में एक महिला अपने पति की चिता को जलाएगी, यह संभव ही नहीं है। सावित्रीबाई ने सच्चे साथी के रूप में जोतिबा फुले का अंतिम संस्कार किया। वो जोतिबा की सच्ची सहयोगी थीं और सत्यशोधक आन्दोलन की प्रेरणास्रोत।

फुले को पुरोहित वर्ग की कुटिलता का एहसास तब हुआ, जब उन्होंने हमारे कर्तव्यों और महिलाओं को पराधीन किया। उन्होंने शिक्षा पर जोर दिया जो लोगों को अज्ञानता और अंधविश्वास से मुक्त कर सकती है। इसलिए उन्होंने महिलाओं की मुक्ति पर ध्यान केंद्रित किया। दोनों दंपतियों ने कभी नहीं सोचा था कि वे इसका मुकाबला मात्र जुमलों, नारों और ‘शब्दजाल’ के साथ कर सकते हैं। यह हम सभी के लिए एक महान सबक है कि दूसरों को बदलने के बारे में सोचने की बजाय हम अपने आप से इस प्रक्रिया को शुरू करें, क्योंकि सभी दान पहले घर से शुरू होने चाहिए। आइए हम जोतिबा फुले के सत्यशोधक आंदोलन को जाति व्यवस्था के बंधन से मुक्त एक प्रबुद्ध भारत के सपने को साकार करने के लिए मजबूत करें। जहां महिलाओं को अपनी पसंद की पूर्ण स्वतंत्रता का आनंद मिले, जहा अंधविश्वास और जातिभेद के कारण किसी भी प्रकार का शोषण न हो और सभी को आगे बढ़ने के अवसर मिले।

क्रांतिकारी जोतिबा और सावित्री बाई फुले को उनके परिवर्तनकारी संघर्षो के लिए हम सलाम करते हैं। उनका संघर्ष हमारी प्रेरणा है।

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