Thursday, December 26, 2024
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सामाजिक न्याय

सांसद प्रताप चंद्र सारंगी आरएसएस की विकृत परंपरा के वाहक हैँ

संसद के शीतकालीन अधिवेशन में गृहमंत्री अमित शाह द्वारा अंबेडकर पर की गई टिप्पणी के विरोध में प्रदर्शन के दौरान तथाकथित राहुल गांधी द्वारा दिए गए धक्के से घायल बालासोर के सांसद प्रताप चंद्र सारंगी का इतिहास पहले से ही धब्बेदार रहा है। वर्ष 1999 में फादर ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को गाड़ी में जला देने का काम इनके विहिप के प्रदेश अध्यक्ष रहने के समय हुई थी। वैसे भी आरएसएस लगातार अल्पसंख्यकों पर हमले करने का काम आज का नहीं बल्कि 1925 के बाद से जारी है। गुजरात का गोधरा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वर्ष 2014 के बाद सत्ता में आने के बाद संविधान विरोधी कामों को बढ़ावा देने का काम कर हिन्दुत्ववादी संगठनों को मजबूत कर इसी तरह का काम करवाने की सुविधा मुहैया करा रही है।

संघी धर्मोन्माद पर विजय का रास्ता सामाजिक न्याय से होकर जाता है

अम्बेडकर जानते थे कि सामाजिक संरचनाओं और गहराई से जड़ जमाए पूर्वाग्रहों को खत्म करने के लिए कानूनी और राजनीतिक सुधार किया जाना जरूरी है। वे चाहते थे कि उत्पीड़ित समुदाय इस के विरोध में आवाज उठाए और सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए उनके साथ हुए अन्याय के खिलाफ आंदोलन करे। सफल आंदोलन के लिए शिक्षा और संगठन के महत्व पर भी जोर दिया। वे कहते थे कि शिक्षित और संगठित समुदाय अपनी शिकायतों को व्यक्त करने, अपने अधिकारों की मांग के लिए और यथास्थिति की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं। आज उनके 68वें महापरिनिर्वाण दिवस पर उन्हें याद करते हुए..

भोपाल गैस त्रासदी : असंवेदनशील भारत सरकार ने पीड़ितों के हिस्से के मुआवजे के लिए खुद को कानूनी प्रतिनिधि घोषित किया

भोपाल गैस त्रासदी में हजारों मरने वाले और लाखों पीड़ित लोगों के लिए सरकार कितनी चिंतित थी, यह इस बात से ही पता चलता है कि औद्योगिक आपदा के मुख्य खलनायक - यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के तत्कालीन अध्यक्ष वॉरेन एंडरसन को तत्कालीन कांग्रेस सरकार के नेताओं ने भगाने में मुख्य भूमिका निभाई। अन्य आरोपियों को भी जमानत मिल गई और अब  मुआवजा की राशि के लिए भारत सरकार ने खुद को कानूनी अधिकारी बनाकर पीड़ितों को इस अधिकार से वंचित कर दिया। 

जोतीबा फुले : शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए नियुक्त प्रथम शिक्षा आयोग के अध्यक्ष  विलियम हंटर को सौंपा था प्रस्ताव 

महात्मा जोतीबा फुले  ने अपने वक्तव्य में कहा है कि ‘उच्च वर्गों की सरकारी शिक्षा प्रणाली की प्रवृत्ति इस बात से दिखाई देती है कि इन ब्राह्मणों ने वरिष्ठ सरकारी पदों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है। यदि सरकार वास्तव में लोगों का भला करना चाहती है, तो इन अनेक दोषों को दूर करना सरकार का पहला कर्तव्य है। अन्य जातियों के कुछ लोगों को नियुक्त करके, ब्राह्मणों के प्रभुत्व को सीमित किया जाना चाहिए जो दिनोंदिन बढ़ रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि इस स्थिति में यह संभव नहीं है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की नीतियों में गरीब कहाँ हैं?

भाजपा की मातृ संस्था आरएसएस देश की राजनीति की रणनीति तैयार करती है। उसकी रणनीति में पिछड़े-दलित का वोट लेना शामिल होता है लेकिन कल्याणकारी नीतियों में पूरी  तरीके से उपेक्षित कर दिए जाते हैं। कहने का मतलब है कि भाजपा के समर्थकों में सवर्णों के साथ भले ही पिछड़ी जातियों का एक बड़ा हिस्सा शामिल है लेकिन भाजपा की नीतियों में उनके लिए कोई स्थान नहीं है। जातिवाद की राजनीति करने में सबसे आगे हैं, चाहे वह नौकरी में आरक्षण का मामला हो या राजनैतिक मामला हो या शिक्षा का मामला हो, हर जगह उनके लिए आगे बढ़ने के रास्ते बंद कर दिए गए हैं।

वंचितों के लिए न्याय के एजेंडे पर हो भारत बंद

एक अगस्त को आए कोर्ट के फैसले बाद उपवर्गीकरण में लाभ देख रहे समूहों में आरक्षण के कथित हकमारों के प्रति जो शत्रुता का भाव पनपा है, वह प्रायः स्थाई हो गया है। इसलिए कोर्ट का फैसला पलटने से भी एकता के मोर्चे पर बहुत लाभ नहीं होगा, क्योंकि अनग्रसर समूहों मे अग्रसर समूहों को हकमार वर्ग के रूप में देखने की मानसिकता विकसित हो चुकी है, जिसमें निकट भविष्य में बदलाव आता कठिन लग रहा है।

बहुजनों के समक्ष शेष विकल्प आज़ादी की लड़ाई

आज दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं दिखता जो लोकतान्त्रिक क्रांति के अनुकूलतम हालात का सद्व्यवहार कर सके। जिनमें संभावना थी, वे अब शासकों के दलाल में रूप में तब्दील होते नज़र आ रहे हैं। इससे निश्चय ही ही बहुजनों के आजादी की लड़ाई प्रभावित होगी। लेकिन नेतृत्व की कमी को यदि बहुजन बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट चाहें तो दूर कर सकते हैं। इसके लिए उन्हे अतिरिक्त बोझ वहन करना पड़ेगा।

क्रीमीलेयर मामला : बहुजन भागीदारी के खिलाफ एक और ब्राह्मणवादी षड्यंत्र

एससी-एसटी समुदाय के आरक्षण में क्रीमीलेयर लागू करने के फैसले से सरकारी नौकरियों में आरक्षण व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त करने की साजिश भाजपा ने की है। सुप्रीम कोर्ट के कंधे पर बंदूक रखकर भाजपा ने यह गोली चलाई है। प्राचीनकाल से ब्राह्मणवादी व्यवस्था समाज पर हावी है, जिसे डॉ. आंबेडकर के प्रयासों के बाद पूना पैक्ट से आधुनिक मानवतावादी आरक्षण की शुरुआत हुई, जो संविधान का हिस्सा बनी। लेकिन एक अगस्त को आए फैसले का, इस वर्ग ने विरोध करते हुए 21 अगस्त को भारत बंद की घोषणा की है 

स्वार्थ की राजनीति ने हमेशा जाति जनगणना को रोककर आरक्षण मुद्दे पर पेंच फंसा सामाजिक न्याय की धज्जियां उड़ाईं

इधर कुछ वर्षों से लगातार जाति जनगणना की बात उठाई जा रही है। हमारे देश में इसका कराया जाना जरूरी है क्योंकि आरक्षण का प्रावधान बहुत वर्ष पहले लागू किया गया था। अब जबकि देश की जनसंख्या में वृद्धि हुई है, ऐसे समय में इस कराते हुए जातियों के नए प्रतिशत के हिसाब से आरक्षण दिया जाना होगा। जिससे सामाजिक और आर्थिक स्थिति में समानता आए और सभी सममानपूर्वक जीवन के हकदार हों सकें।

दलितों के वर्गीकरण से पहले संविधान और सफाईकर्मियों की समझ जरूरी है – डॉ. रत्नेश कातुलकर

सुप्रीम कोर्ट ने अभी हाल ही में अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण में वर्गीकरण और इसमें क्रीमी लेयर लगाने का सुझाव दिया है। यह ऐसा फैसला है, जिसका कुछ लोग स्वागत कर रहे हैं तो काफी लोग विरोध भी। यह मामला दलितों के भीतर सफाई के काम व अन्य अस्वच्छ माने जाने वाले कामों में संलग्न जातियों का है, जिनके बारे में आम लोगों को सीमित जानकारी है। वे मान्यताओं के आधार पर जानकारी रखते हैं। यह अज्ञानता न सिर्फ सामान्य लोगों में ही नहीं बल्कि प्रख्यात चिंतक योगेंद्र यादव तक में नज़र आई। जिन्होंने इस निर्णय पर अपने आलेख और इंटरव्यू से सबका ध्यान आकर्षित किया है। इस समस्या की वास्तविकता को जानने के लिये हमने सफाईकर्मी जाति समूह पर अध्ययन करने वाले समाज वैज्ञानिक डॉ. रत्नेश कातुलकर से विस्तार जानना चाहा है। जिन्होंने उत्तर भारत के हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश और छ्त्तीसगढ़ राज्यों के सफाईकर्मी समुदाय का एक लम्बे समय तक अध्ययन किया है। इस पर उन्होंने अपनी किताब ‘ऑउटकास्ट्स ऑन मार्जिन्स: एक्स्क्लुज़न एंड डिस्क्रिमिनेशन ऑफ स्केवेंजिंग कम्युनिटिस’ लिखी है। पेश है इस मामले में डॉ. सुरेश अहिरवार की डॉ. रत्नेश कातुलकर से बातचीत 

विश्व आदिवासी दिवस : धरती पर मासूमियत को जिंदा रखने का संघर्ष

विश्व के सभी आदिवासियों में जागरूकता फैलाने के साथ उनके अधिकारों के संरक्षण के लिए हर वर्ष 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है। संयुक्त रासत्र महासभा ने 1994 को पहली बार अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी वर्ष घोषित किया था। विकास के नाम पर हमने आदिवासियों के लिए मापदंड तय कर दिए हैं। यदि वे अपनी मौलिकता, अद्वितीयता और अस्मिता खोकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था की पोषक धर्म परंपरा को स्वीकार कर लें तो हम उन्हें देश की धार्मिक-सांस्कृतिक मुख्य धारा का अंग मान लेंगे। यदि वे सहर्ष अपना जल-जंगल-जमीन त्यागकर स्वामी से सेवक बन जाएं तो हम अपनी कल्याणकारी योजनाओं द्वारा उनका उद्धार करेंगे। यह लेख राजू पांडे द्वारा लिखित है, जिसे 9 अगस्त 2022 को gaonkelog.com में छापा था। आज यह लेख पुन: प्रकाशित किया जा रहा है।