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क्रीमीलेयर मामला : बहुजन भागीदारी के खिलाफ एक और ब्राह्मणवादी षड्यंत्र

एससी-एसटी समुदाय के आरक्षण में क्रीमीलेयर लागू करने के फैसले से सरकारी नौकरियों में आरक्षण व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त करने की साजिश भाजपा ने की है। सुप्रीम कोर्ट के कंधे पर बंदूक रखकर भाजपा ने यह गोली चलाई है। प्राचीनकाल से ब्राह्मणवादी व्यवस्था समाज पर हावी है, जिसे डॉ. आंबेडकर के प्रयासों के बाद पूना पैक्ट से आधुनिक मानवतावादी आरक्षण की शुरुआत हुई, जो संविधान का हिस्सा बनी। लेकिन एक अगस्त को आए फैसले का, इस वर्ग ने विरोध करते हुए 21 अगस्त को भारत बंद की घोषणा की है 

एक ऐसे समय में जबकि आरक्षण लगभग कागजों की शोभा बन चुका है, एक अगस्त को एससी-एसटी आरक्षण के उपवर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से आए फैसले से देश का माहौल गरम हो गया है। उस दिन शीर्ष अदालत ने बीस वर्ष पुराने पाँच जजों के ईवी चिनैया(2004) मामले में दी गई व्यवस्था को गलत ठहरा दिया, जिसमें पाँच जजों की पीठ नें कहा था कि अनुसूचित जाति समूह वर्ग है और इसका उपवर्गीकरण नहीं किया जा सकता। लेकिन एक अगस्त को सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की पीठ ने 6-1 के बहुमत से दिए फैसले मे कह दिया है कि अनुसूचित जाति वर्ग के ही ज्यादा जरूरतमंदों को आरक्षण का लाभ देने के लिए राज्य उनका वर्गीकरण कर सकते हैं। राहत की थोड़ी बात यह है कि कोर्ट ने कहा है कि वर्गीकरण तर्कसंगत सिद्धांत पर होना चाहिए। शीर्ष अदालत की ओर से क्रीमी लेयर का सुझाव देते हुए कहा गया है कि आरक्षण का लाभ लेकर सक्षम हो चुके लोगों को आरक्षण से बाहर करने की कवायद की जानी चाहिए। आरक्षण सिर्फ पहली पीढ़ी तक सीमित होना चाहिए और परिवार में कोई पीढ़ी आरक्षण का लाभ ले चुकी है और ऊंचा दर्ज हासिल कर चुकी है तो आरक्षण का लाभ दूसरी पीढ़ी को उपलब्ध नहीं होगा।

माननीय सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला प्रश्नातीत नहीं रहा। इस आरक्षण में किसी तरह के हस्तक्षेप या फेरबदल का अधिकार सिर्फ और सिर्फ जनप्रतिनिधियों की संस्था संसद के पास थी। राष्ट्रपति के हस्तक्षेप से संसद ही इसमें किसी तरह का बदलाव कर सकती थी। संसद के अलावा इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। लेकिन माननीय प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व में 7 जजों की पीठ ने 6 जजों के बहुमत से दलितों के आरक्षण में न सिर्फ हस्तक्षेप किया, बल्कि इसके साथ–साथ आगे भी हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट के एक अगस्त के फैसले ने दलितों को मिले आरक्षण का आधार(अस्पृश्यता) ही बदल दिया है। उसका आधार एक तरह से आर्थिक बना दिया गया है, जो कि दलितों के आरक्षण के संदर्भ में कहीं उल्लेख नहीं है। शायद इसीलिए सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ में अपना असहमति वाली अलग फैसला देते हुए जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने अनुसूचित जाति(एससी) में उपवर्गीकरण को संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध बता दिया। उनके अनुसार संविधान के अनुच्छेद–341, जिसमें अनुसूचित जातियों का विवरण होता है, में राज्यों द्वारा हस्तक्षेप की इजाजत नहीं दी जा सकती। उन्होंने 84 पन्नों मे दिए अपने फैसले में संविधान सभा में हुई बहस का हवाला देते हुए कहा है कि अनुसूचित जाति की अलग सूची तैयार करने का मूल आधार हिन्दू समाज में व्याप्त छुआछूत है और इसे सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों(ओबीसी) से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। जस्टिस बेला त्रिवेदी के अनुसार अनुसूचित जाति में क्रीमी लेयर द्वारा अलग वर्गीकरण की इजाजत भी अनुच्छेद- 341 नहीं देता, जिसमें पूरी जाति अनुसूचित जाति के रूप मे दर्ज है। उनके अनुसार अनुसूचित जाति एक समान समूह को प्रतिबिंबित करता है, उसमें विभाजन नहीं किया जा सकता।

बहरहाल माननीय सुप्रीम कोर्ट के एक अगस्त को आरक्षण के उपवर्गीकरण पर आए फैसले को दलितों ने पूना पैक्ट के बाद आरक्षण पर सबसे बड़े हमले के रूप में लिया और से देखते ही देखते उनमें रोष की ज्वाला भड़क उठी। उसके बाद उन्होंने आरक्षण पर सबसे बड़े हमले पर विरोध जताने के लिए 21 अगस्त को भारत बंद का एलान कर दिया।

इस निर्णय के समर्थन व विरोध में नेताओं की अपनी राजनीति है 

दलित एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवियों की तरह बसपा सुप्रीमो मायावती, लोजपा के चिराग पासवान और रामदास आठवले ने भी कोर्ट के फैसले पर असहमति जताई। उधर सरकार में  शामिल तेलगु देशम पार्टी, एनडीए का हिस्सा जीतनराम मांझी के अलावा बीजेपी के कई  सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट के सुझाव का स्वागत किया, लेकिन पार्टी के ही करीब सौ एससी–एसटी सांसदों ने इसका विरोध किया और प्रधानमंत्री मोदी से मिलकर एससी-एसटी वर्ग में क्रीमी लेयर वाले कोर्ट के सुझाव को न लागू करने की मांग की। उनकी मांग का सम्मान करते हुए पीएम मोदी ने सांसदों से कह दिया कि क्रीमी लेयर को लेकर जो सुप्रीम कोर्ट ने कहा है वह सिर्फ जजों का सुझाव और उनकी व्यक्तिगत राय है। सरकार क्रीमी लेयर को लेकर कोर्ट का सुझाव लागू नहीं करेगी। केंद्र सरकार की तय आरक्षण व्यवस्था जारी रहेगी। कोर्ट के सुझाव का आरक्षण पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

केन्द्रीय कैबिनेट द्वारा एससी-एसटी समुदाय के आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू न करने के फैसले से राष्ट्रवादी मीडिया में काफी निराशा है और उसने इस घटना को मोदी सरकार की राजनीतिक विवशता का परिचायक बताया। उधर बसपा सुप्रीमो मायावती ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके केंद्र सरकार पर आरोप लगा दिया कि सुप्रीम कोर्ट में एससी–एसटी से जुड़े आरक्षण के महत्वपूर्ण मसले पर मजबूती से पैरवी नहीं की गई, जिसकी वजह से आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू करने और उपवर्गीकरण के संबंध मे कोर्ट ने निर्णय दे दिया। इस सिलसिले में उन्होंने यह भी कह दिया कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पदों में भी आरक्षण की व्यवस्था लागू होनी चाहिए, जिससे एससी–एसटी वर्ग के लोगों की हिस्सेदारी बढ़ सके। उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा सरकारी नौकरियों को समाप्त कर आरक्षण व्यवस्था को कमजोर कर रही है।

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पीएम मोदी का एससी के निर्णय के बाद झुनझुना पकड़ाना 

पीएम मोदी के आश्वासन पर कहा है कि केंद्र सरकार आरक्षण में क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू नहीं करेगी, लेकिन केवल आश्वासन देने से कुछ नहीं होने वाला। बहरहाल प्रधानमंत्री द्वारा क्रीमी लेयर लागू न करने के आश्वासन से भारत बंद करने की घोषणा करने वाले वाले दलितों में कुछ कन्फ्यूजन पैदा हुआ पर, लगता है वे इससे जल्द उबर भी गए। उनका मानना है की आरक्षण का उपवर्गीकरण प्रधान मुद्दा है जिस पर उन्होंने कोई आश्वासन नहीं दिया। लिहाजा वे 21 अगस्त को भारत बंद करेंगे, जो शायद 2 अप्रैल, 2018 से भी बड़ा होगा। इससे आरक्षण पर संघर्ष में एक नया अध्याय जुड़ने की संभावना पैदा हो गई है, जिसे समझने के लिए मार्क्स के वर्ग संघर्ष सिद्धांत पर दृष्टि निक्षेप कर लेनी होगी !

दुनिया के महान समाज विज्ञानी कार्ल मार्क्स के अनुसार अगर दुनिया का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है तो भारत मे वह आरक्षण पर संघर्ष का इतिहास है। कारण, हिन्दू धर्म का प्राणाधार जिस वर्ण व्यवस्था के द्वारा यह देश सदियों से परिचालित होता रहा है, वह मुख्यतः शक्ति के स्रोतों आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक और मार्क्स के शब्दों में कहें तो उत्पादन के साधनों के बंटवारे की व्यवस्था रही। चूंकि वर्ण व्यवस्था में जन्मसूत्र से विविध वर्णों अर्थात विविध सामाजिक समूहों के पेशे/ कर्म तय रहे तथा इन पेशों की विचलनशीलता पूरी तरह निषिद्ध रही, इसलिए वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था, हिन्दू आरक्षण का रूप ले लिया, जिसमें उत्पादन के समस्त साधन सिर्फ हिन्दू ईश्वर के उत्तमांग(मुख-बाहु-जंघे) से जन्में तीन उच्च वर्णों के लिए चिरकाल के लिए आरक्षित होकर रह गए। इसमें हिन्दू ईश्वर के जघन्य अंग (पैर) से जन्मे शुद्रातिशूद्रों के हिस्से मे आई तीन उच्चतर वर्णों की सेवा, वह भी पारिश्रमिक रहित।

 हिन्दू आरक्षण में इन्हें शक्ति के स्रोतों अर्थात उत्पादन के साधनों का एक टुकड़ा भी नहीं मिला। प्राचीन काल से हिन्दू धर्म के वंचितों का वर्ण/जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष वास्तव में हिन्दू आरक्षण को ध्वस्त कर शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी के लिए रहा। प्राचीन युग से हिन्दू आरक्षण के खिलाफ जारी बहुजनों का संघर्ष रंग लाया और डॉ. आंबेडकर के अक्लांत प्रयासों के फलस्वरूप पूना पैक्ट से आधुनिक मानवतावादी आरक्षण की शुरुआत हुई, जिसका स्वाधीन भारत के संविधान में स्थायी व्यवस्था हुई।

आंबेडकरी आरक्षण ने हिन्दू धर्म के प्राणाधार वर्ण व्यवस्था के जरिए मानवेतर में तब्दील किए अस्पृश्य और आदिवासियों को उन सब पेशों को अपनाने का अधिकार दे दिया जो हिन्दू आरक्षण में सिर्फ सवर्णों के लिए आरक्षित रहे। इससे मानवेतरों के सांसद-विधायक, डॉक्टर-इंजीनियर-प्रोफेसर इत्यादि बनने की संभावना उजागर हो गई, जो उच्च वर्ण हिंदुओं को रास नहीं आई और उन्होंने इसे अपने धर्म के खिलाफ माना क्योंकि इससे उन हिन्दू धर्मशास्त्रों और भगवानों के भ्रांत साबित होने की संभावना पैदा हो गई, जिनका मानना रहा कि शूद्रातिशूद्र सिर्फ दासत्व के गुणों से सम्पन्न हैं, वे लिखने-पढ़ने, शासन-प्रशासन का कार्य सम्पन्न करने के योग्य नहीं है। यही नहीं हिन्दू धर्म शास्त्रों में आस्था के कारण वे इस धारणा के शिकार रहे कि शक्ति के समस्त स्रोतों का भोग उनका दैवीय-अधिकार(डिवाइन- राइट्स)है। चूंकि आंबेडकरी आरक्षण हिन्दू धर्मशस्त्रों और भगवानों को भ्रांत साबित करने के साथ हिन्दू धर्म द्वारा टुकड़ों- टुकड़ों में बांटे गए मानवेतरों को एक करता है, इसलिए हिन्दू धर्म का ठेकेदार आरएसएस पूना पैक्ट के जमाने से ही इस के खात्मे में जुट गया, जिसका चरम परिणिती 7 अगस्त, 1990 को मंडलवादी आरक्षण की घोषणा के बाद हुआ।  मंडलवादी आरक्षण की घोषणा के साथ आरएसएस की ओर से आरक्षण के खिलाफ आधुनिक भारत में सबसे बड़ा संघर्ष छेड़ दिया गया। पर, हिन्दू अरक्षणवादियों द्वारा आरक्षण को निष्प्रभावी करने का अभियान तो संविधान के लागू होते ही शुरू हो गया था।

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राज्यों ने अपनी जरूरत के हिसाब से आरक्षण की व्यवस्था की 

आजाद भारत में प्रभावी तरीके से शुरू हुए आंबेडकरी आरक्षण को निष्प्रभावी करने के लिए हिन्दू आरक्षणवादियों ने तीन खास उपाय किए। पहला, पदों के लिए उम्मीदवार नहीं हैं; दूसरा, पदों के लिए योग्य उम्मीदवार उपलब्ध नहीं हैं और तीसरा, आरक्षित पदों के लिए योग्य उम्मीदवार हैं, पर यह स्वीकार योग्य नहीं हैं।

शासन-प्रशासन में छाए हिन्दू अरक्षणवादियों द्वारा तीन उपायों से आरक्षण को निष्प्रभावी करने का अभियान छेड़ा तो विभिन्न सरकारों  ने आयोग और समितियाँ गठित कर इसे छिन्न-भिन्न करने में अग्रसर हुईं। इसकी शुरुआत 1963 में केंद्र सरकार ने जस्टिस लोकुर की अध्यक्षता में एक कमीशन गठित करके किया, जिसने 1965 में जारी अपनी रिपोर्ट में कहा, ’हर राज्य में अनुसूचित जाति के उन समुदायों को आरक्षण की सुविधा से वंचित कर देना चाहिए जो शिक्षा और सरकारी सेवा में आगे बढ़ गए हैं।’

लोकुर कमीशन के तर्ज पर 1972 में पंजाब सरकार ने एससी-एसटी के आरक्षण के मूल्यांकन के लिए एक समिति गठित कर दी, जिसने रविदसिया सिख और मजहबी यानी सफाई करने वाले समुदायों को 50-50 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की, जिसके फलस्वरूप रविदसिया और मजहबी सिख आपस में गाँव-गाँव में भिड़ गए, जिसका सिलसिला आज भी अटूट है।

पंजाब सरकार की भांति 1990 में हरियाणा सरकार ने जस्टिस गुरनाम सिंह की अध्यक्षता में एक समिति बनाई, जिसने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि एससी–एसटी को ब्लॉक ए और बी बनाकर अलग-अलग आरक्षण दिया जाए। इस रिपोर्ट से हरियाणा में एससी-एसटी के लोग बिखर गए।

संभवतः पंजाब और हरियाणा सरकार से प्रेरित होकर 1996 में आंध्र प्रदेश सरकार ने जस्टिस पी. रामचन्द्र राजू की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जिसने अपने प्रतिवेदन में एससीएसटी को ए, बी, सी और डी चार ग्रुपों में बांट कर आरक्षण देने का सुझाव दिया। आंध्र प्रदेश के प्रायः एक दशक बाद बिहार सरकार द्वारा गठित महादलित आयोग ने दुसाध, पासी, धोबी और चमार को दलित और बाकी को महादलित में बांटने का काम अंजाम दिया। बाद में दुसाधों को छोड़कर सबको महादलित में शामिल कर लिया गया। इसके फलस्वरूप दुसाधों  के प्रति महादलितों में जो शत्रुता का भाव पनपा, उससे देखने वालों की रूह कांप गई।

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लेकिन पूना पैक्ट के बाद से आरक्षण के खात्मे पर नजर गड़ाए संघ नें 7 अगस्त, 1990 को मण्डल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के कुछ सप्ताह बाद आरक्षण के खात्मे के लिए जो राम जन्मभूमि मुक्ति अभियान छेड़ा, उससे आरक्षण के विरुद्ध हिन्दू आरक्षणवादियों के षड्यन्त्र का सबसे बड़ा अध्याय रचित हो गया। राम मंदिर आंदोलन के सहारे संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा का भारतीय राजनीति पर अभूतपूर्व वर्चस्व हो गया और मंदिर आंदोलन से मिली राजसत्ता का संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्रियों ने अधिकतम उपयोग विनिवेश के जरिए सिर्फ और सिर्फ आरक्षण के खात्मे में किया।

 विनिवेश नीति को आरक्षण के खिलाफ अचूक हथियार बनाने के लिए सबसे पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने बाकायदे विनिवेश मंत्रालय ही गठित कर दिया, जिसका भार चरम आंबेडकर विरोधी अरुण शौरी को सौंपा। लेकिन आरक्षण के खात्मे में वाजपेयी को भी बौना बना दिए संघ प्रशिक्षित एक और प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर मोदी! देश के वर्तमान पीएम संघी मोदी अपने वर्ग- शत्रुओ बहुजनों को फिनिश करने के लिए न सिर्फ सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों मे देने में मुस्तैद हुए, बल्कि लैटरल इंट्री और 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण(ईडब्लूएस) के जरिए आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दीं।

मोदी ने किस हद तक आरक्षण के खात्मे में अपनी ऊर्जा लगाई, उसका साक्षी, 5 अगस्त, 2018 को उनके सीनियर मंत्री नितिन गडकरी द्वारा खुली घोषणा की गई कि सरकारी नौकरियां नहीं है और जब नौकरियां ही नहीं हैं तो आरक्षण का कोई अर्थ ही नहीं है। गडकरी के 5 अगस्त  2018 वाले बयान से स्पष्ट है कि मोदी पीएम बनने के कुछ ही साल में आरक्षण के खात्मे के संघ के एजेंडे को पूरा करने मे सफल हो गए। लेकिन आरक्षण के कागजों की शोभा बनने से ही संघ का एजेंडा पूरा नहीं हो सकता। पूरा हो सकता हैं तब जब आरक्षित वर्ग के वंचितों को इकट्ठा करने की इसकी प्रभावकारिता को खत्म कर दिया जाता। ऐसे में मोदी आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने के बाद वंचितों की एकता को तोड़ने के अधूरे काम में मुस्तैद हुए।

हिन्दू धर्म द्वारा शत्रुता और घृणा की बुनियाद पर कई हजार जातियों और उपजातियों मे विभाजित वंचित जातियाँ इकट्ठा न हो सकें, इसके लिए सबसे बड़ा काम उन्होंने 2 अक्टूबर, 2017 को  रोहिणी आयोग गठित करके किया, जिसकी रिपोर्ट  13 एक्सटेंशन के बाद 21 जुलाई, 2023 को राष्ट्रपति को सौंपी  जा चुकी है। खबर है कि रोहिणी आयोग ने ओबीसी के आरक्षण को तीन भागों में बांटने की सिफारिश की है, जिसके मुताबिक 7% मजबूत, 9% कम मजबूत और 11% आरक्षण कंमजोरों में बँटेगा। आरक्षण के इस विभाजन से ओबीसी को छिन्न-भिन्न करने मे कितनी सफलता मिलेगी, इसका कयास एक दूध पीता बच्चा भी लगा सकता है।

रोहिणी आयोग के जरिए ओबीसी की एकता का जनाजा निकालने का पुख्ता इंतजाम करने के बाद वह, बिना खास शोर शराबे के दलित आरक्षण के विभाजन की परिकल्पना में निमग्न है। जिसका खुला संकेत उन्होंने 23 नवंबर, 2023 को आंध्र प्रदेश में किया। उस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिकंदराबाद में मदिगा रिजर्वेशन पोराटा समिति (एमआरपीएस) द्वारा आयोजित चुनावी रैली को संबोधित करते हुए कहा था, ‘मैं यहाँ आपसे कुछ मांगने नहीं आया हूँ। मैं यहाँ उन सभी राजनीतिक दलों की ओर से माफी मांगने आया हूँ, जिन्होंने आजादी के बाद आपको धोखा दिया।’ उन्होंने आगे कहा था, ‘हम सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हम गुर्रम जशुवा और उनके सामाजिक न्याय के कार्यों को अपनी प्रेरणा मानते हैं। अपने साहित्य में उन्होंने एक दलित भाई का चित्रण किया है, जिसने बाबा विश्वनाथ के साथ अपनी दुर्दशा साझा की थी।‘

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मोदी ने एमआरपीसी नेता मंदा कृष्णा मदिगा, जो आंध्र प्रदेश में तीन दशकों से आरक्षण के उप वर्गीकरण की लड़ाई लड़ रहे हैं, को अपना भाई बताते हुए कहा था, मेरे भाई कृष्णा! आपके संघर्ष में आपको कई सहयोगी मिले हैं। आज से आपके पास एक और सहयोगी होगा।’ कृष्णा आरक्षण के वर्गीकरण की अपनी लड़ाई में मोदी का अपना सहयोगी पाकर भावुक हो गए थे। उस रैली में मोदी ने मदिगा समुदाय को सशक्त बनाने के लिए एक समिति गठित करने का वादा किया था।

मोदी ने नवंबर, 2023 में तीन दशकों से आरक्षण के वर्गीकरण की लड़ाई लड़ रहे एमआरपीएस की रैली में जिस अंदाज में संबोधित किया था, उससे लगा था कि दलित आरक्षण के वर्गीकरण में जल्द ही कुछ बड़ा होगा। लेकिन जल्द नहीं, नौ महीने बाद मोदी नहीं, सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से एक अगस्त, 2024 को आरक्षण के वर्गीकरण का फैसला आया और दलितों में हाहाकार मच गया।

इसे इतिहास का एक विचित्र संयोग कहा जाएगा कि सुप्रीम कोर्ट के जरिए  9 नवंबर, 2019 को भाजपा के राम मंदिर निर्माण का एजेंडा पूरा हुआ था, ठीक उसी तरह एक अगस्त, 2024 को उसके आरक्षण के वर्गीकरण का एजेंडा भी सुप्रीम कोर्ट के जरिए पूरा हुआ! और यह कोई बहुत विस्मित करने वाली बात नहीं थी। कारण, आंबेडकरी आरक्षण के खिलाफ हिन्दू आरक्षणवादियों की अधिकतर लड़ाई सवर्णपलिका मे तब्दील न्यायपालिका की ओर से लड़ी गई है। यह खुद में आरक्षण पर संघर्ष के इतिहास का एक बड़ा अध्याय है, जिस पर विस्तार से चर्चा अन्य किसी लेख में करूंगा। फिलहाल यह बात ध्यान मे रखना होगा कि बहुजनों के आरक्षण के खिलाफ  हिन्दू आरक्षणवादी कई हजार वर्षों से चक्रांत करते रहे हैं और आगे भी तब तक जारी रखेंगे जब तक आंबेडकरी आरक्षण की जगह नए सिरे से हिन्दू धर्माधारित आरक्षण व्यवस्था स्थापित नहीं हो जाती!

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

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