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ग्राउंड रिपोर्ट

कांवड़ के बहाने युवा उन्मादी भीड़ को हिंसक और बर्बर बना नफरत फैलाना है

जब खुद मुख्यमंत्री आदित्यनाथ कांवड़ियों के सत्कार में लगे हों, पुलिस के आला अफसरों की ड्यूटी उन पर फूल बरसाने की हो, थानों में पदस्थ अधिकारी और पुलिस के जवान महिला, पुरुष दोनों – कांवड़ियों के पाँव दबाने और पंजे सहलाने के काम में लगाये गए हों, ऐसा करते हुए उनके फोटो वीडियो सार्वजनिक किये जा रहे हों और इस तरह कोतवाल खुद मालिशिए हुए पड़े हों, तो फिर कांवरियों को किसका डर। डर तो दुकानदारों, होटल वालों और पैदल व गाड़ी पर चलने वाले लोगों को हो रहा है।

गुजरे 35-40 वर्षों, विशेषकर 1992 के बाद के भारत ने जो गंवाया है, उनमे से एक तीज-त्यौहार, यहाँ तक कि धार्मिक पर्व के उत्साह, उमंग से भरपूर उत्सवों से महरूम हो जाना है। ये सब ऐसे अवसर हुआ करते थे, जो चोटी और दाढ़ी और सलीब के फर्क को पीछे छोड़कर  हर चेहरे पर आल्हाद और ख़ुशी की वजह बनते थे। आज किसी भी धर्म के त्यौहार का आना चिंता की गहरी होती लकीरों, तनाव के मौकों में बदल जाना हो गया है। मानव समाज द्वारा कई हजार वर्षों में हासिल सदभाव और सहिष्णुता के गीलेपन को शुष्क करते हुए उसे एक ऐसी सूखी घास में बदला जा रहा है, जिसे कभी भी सुलगाकर देश को एक दावानल में झुलसाया जा सके।

2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से तो धार्मिक आयोजनों और समावेशों को प्रकोप बनाने के योजनाबद्ध प्रयत्नों ने जैसे महामारी का ही रूप ले लिया है; इनकी तीव्रता और बारम्बारता में जबर्दस्त उछाल आया है। इसकी हाल की एक मिसाल कांवड़ यात्रा है – जो पिछली कुछ वर्षों से उत्तरोत्तर आक्रामक से हिंसक होती जा रही है। हर साल इस यात्रा के नाम पर निकले लोगों की भीड़ के उत्पात की घटनाएं और उन्हें अंजाम देने के हौसले बढ़ते जा रहे हैं। इस बार की कांवड़ यात्रा से जो खबरें आ रही हैं, उसने बता दिया है कि चौतरफा फैली हरियाली वाले सावन का सुन्दर और मनोहारी महीना दुःख, पीड़ा और क्षोभ के माह में सिकुड़कर रह गया है।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मारपीट, तोड़फोड़, हमलों, विध्वंसों की इतनी सारी ख़बरें हैं कि एक कॉलम में उन सबको समेटना मुश्किल काम है। हरिद्वार, ऋषिकेश और मिर्जापुर से जो वीडियो सामने आए हैं, उनमें कांवड़ियों द्वारा आम लोगों से मारपीट, तोड़फोड़ और अराजकता की तस्वीरें देखी जा सकती हैं। कहीं मामूली सी टक्कर पर हाईवे जाम हो गया, तो कहीं सुरक्षा बलों को ही ठोक दिया गया।

–  उत्तर प्रदेश के बरेली-बीसलपुर मार्ग पर कार पर कांवड़िये भड़क गए और उन्होंने पुलिस के सामने ही ईंट-पत्थर मारकर गाड़ी का शीशा तोड़ दिया।

 -सहारनपुर में कांवड़ियों ने इनोवा कार में तोड़फोड़ कर दी।

 -मुजफ्फरनगर में कांवड़ियों ने बाइक सवार की बेरहमी से पिटाई कर दी।

 -बस्ती जिले में कांवड़ियों ने कप्तानगंज थाना क्षेत्र के बस्ती-अयोध्या राष्ट्रीय राजमार्ग पर जम कर बवाल किया और पुलिस का बैरियर फूंक दिया।

 -यूपी के ही मिर्जापुर में रेलवे स्टेशन पर कांवड़ियों ने सीआरपीएफ के वर्दीधारी जवान गौतम को जमीन पर लिटाकर घसीट-घसीट कर पीटा। खबर है कि यह जवान मणिपुर में तैनात है और ब्रह्मपुत्र एक्सप्रेस से अपनी ड्यूटी की जगह जाने के लिए आया था।

 मेरठ में तो कांवड़ियों ने बच्चों की स्कूल बस को भी नहीं बख्शा; मेरठ के सदर बाजार थाना इलाके में दिल्ली रोड पर स्थित कैंटोनमेंट हॉस्पिटल के सामने से गुजर रही स्कूल की एक बस को चारों तरफ से घेर लिया और हंगामा करते हुए स्कूल बस में तोड़फोड़ कर दी।

इनमें से किसी भी घटना में गिरफ्तारियों की कोई सूचना नहीं है – कुछ अज्ञात लोगों के नाम पर एफआईआर लिखी गई, मगर वीडियोज होने के बाद भी किसी को पकड़ा नहीं गया। सीआरपीएफ के जवान के मामले में भी कुछ को कुछ देर थाने में बिठाया गया और फिर ससम्मान छोड़ दिया गया।

जब खुद मुख्यमंत्री आदित्यनाथ कांवड़ियों के सत्कार में लगे हों, पुलिस के आला अफसरों की ड्यूटी उन पर फूल बरसाने की हो, थानों में पदस्थ अधिकारी और पुलिस के जवान महिला, पुरुष दोनों – कांवड़ियों के पाँव दबाने और पंजे सहलाने के काम में लगाये गए हों और ऐसा करते हुए उनके फोटो वीडियो सार्वजनिक किये जा रहे हों और इस तरह कोतवाल खुद मालिशिए हुए पड़े हों, तो फिर डर काहे का।

पिछले साल की तरह इस साल भी सारे स्कूल-कालेजों में छुट्टियां घोषित कर दी गयी हैं। पढाई बंद होगी, तभी तो इस तरह की लड़ाई और कांवड़ उठाने के लिए वक़्त मिलेगा।

यह अचानक आया धार्मिकता का ज्वार नहीं है। यह कांवड़ ले जाने के प्रति अनायास उमड़ा भाव या गंगाजल लाने के लिए उफना अनुराग नहीं है। यह एक बड़ा – बहुत बड़ा – अत्यंत जघन्य राजनीतिक प्रोजेक्ट है। भीड़ को उन्मादी से हिंसक और बर्बर बनाने की महा परियोजना है। इसमें सिर्फ योगी, उनकी सरकार या प्रशासन भर ही नहीं लगा, भाजपा और आरएसएस का पूरा कुनबा इसमें तन-मन-धन से जुटा हुआ है।

कांवड़ों को प्रेरित और प्रोत्साहित किये जाने के बाकायदा कोटे बांटे गए हैं, उन्हें 10-10 हजार प्रति कांवड़ के हिसाब से पैसा मुहैया कराने के जिम्मे दिए गए हैं। पूरे रास्ते में जगह-जगह पर कांवड़ियों के स्वागत-सत्कार और भंडारों की व्यवस्थाएं, फूलमालाओं से उनके स्वागत के इंतजाम किये गए हैं। इनमें कई ‘भंडारों’ में शिव के प्रसाद के बहाने बूटी और आसव, घोंटा और चिलम जैसे आस्वादों की भी व्यवस्था है, जो सामान्यतः धार्मिक यात्राओं में वर्जित मानी जाती है। विधायकों, सांसदों, जिला परिषदों के प्रमुखों और भविष्य में यह सब बनने के लिए आतुरों को काम पर लगाया गया है। उनके किये की निगरानी के लिए बाकायदा संघ प्रचारकों को नियुक्त किया गया है।

जैसा कि पिछली बार के कांवड़ उत्पातों के समय दर्ज किया जा चुका है, यह प्रक्रिया गढ़ी ही इस प्रकार से जाती और नियमतः अमल में लाई जाती है, जैसे जब ये गरीब गुरबे, निम्न मध्यवर्गीय श्रद्धालु कांवड़ यात्रा पर निकलते हैं, तो शहर के वणिक-व्यापारी अपने नौनिहालों को किसी आईआईटी, आईएएस कोचिंग या लन्दन, पेरिस, ऑस्ट्रेलिया पढने के लिए सुरक्षित भेजने के पुण्यकार्य से निवृत्त होने के बाद अपनी कारों में, सजे-धजे परिवार के साथ लदकर कांवड़ियों को स्टेशन और बस अड्डे पर विदा करने आते हैं। उन्हें पत्रम, पुष्पम, वस्त्रम, द्रव्यम देकर उनके मन में खुद के प्रति कुछ क्षणों के आभासीय आत्मगौरव की गलतफहमी और दाताओं के प्रति श्रद्धा और आदरभाव पैदा करते हैं।

इतना भर करने के बाद ये प्रायोजक गण वापस अपने वातानुकूलित ड्राइंग रूम्स से पहुँच कर ‘घर घर में ‘कांवड़िया पैदा होना चाहिए मेरे घर को छोड़कर’ का जाप करते हुए निश्चिंतता की नींद सो जाते हैं – धर्म के प्रति इनकी प्रतिबद्धता इतनी अगाध चुनिन्दा और सजग होती है कि ये भूले से भी अपने घर, परिवार या रिश्तेदार को ऐसी यात्रा पर नहीं भेजते। कहने की जरूरत नही कि यह विदाई समारोह स्वतःस्फूर्त नहीं होता; उस इलाके के नेकरिया भाई साहब और भाजपा शासित प्रदेशों में प्रशासनिक अमला बाकायदा योजना बनाकर इसे करता है। इन हजारों की भीड़ में किसी सांसद, विधायक, मंत्री, भाजपा या संघ के नेता का पूत-सपूत नहीं दिखाई देता। कांवड़ियों का विराट बहुमत उन जातियों का है, जिनकी पहुँच से ब्राह्मण धर्म और उसके पूजा स्थल अभी भी बाहर हैं। इसमें जाने वाले ज्यादातर लोग दलित हैं या फिर उन अति पिछड़ी जातियों के हैं, जिन्हें आम बोलचाल में भले ओबीसी कहा जाने लगा हो मगर शास्त्रीय पारिभाषिक शब्दावली और आम आचार में शूद्र ही माना जाता है।

कांवड़ यात्रा के बाद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आता। ऐसी अनेक घटनाएं हर साल अखबारों में छपती रहती हैं, जिनमे गंगा से लाये पानी को अपने गाँव के शिवालय में लगी शिव की मूर्ति पर डालकर उनका जलाभिषेक करने से इसलिए रोक दिया गया, क्योंकि कांवड़िया शूद्र या कथित नीची जाति का था। कई जगहों पर ऐसा करने की कोशिश करने वाले कांवड़ियों पर हमले हुए, कुछ की तो इन हमलों में मौतें तक हो गयीं। मगर इसके बाद भी इसे हर तरह से प्रोत्साहित करने वाले जानते हैं कि इस प्रक्रिया से गुजरते में काँवडधारियों के व्यक्तित्व, सोच और रुझान में एक ऐसा परिवर्तन लाया जा सकता है, जिसके चलते वह जो अब तक उनका नहीं है, वह कुछ-कुछ उनका हो सकता है, देर-सबेर उसे पूरा अपना बनाया जा सकता है। इस तरह उचक-उचककर आम नागरिकों, दुकानदारों, सड़क चलते लोगों को मारने वाली भीड़ में अधिकाँश वे लोग हैं, जो जहाँ से आये हैं, वहां खुद पिटते रहते हैं – इस कुछ दिन की यात्रा के बाद गांव-बस्ती के अपने घर लौटकर फिर उसी तरह की हर पिटाई की यंत्रणा को झेलना है। उनकी यही दमित कुंठा और खीज है जिसे इस तरह सजा-संवार कर संघ-भाजपा ऐसी हिंसक भीड़ में बदल देना चाहता है, जो उसके फासीवादी एजेंडे के हमलों के समय मैदानी गुर्गों – फुट सोल्जर्स – के रूप में इस्तेमाल की जा सके।

यह परियोजना ध्रुवीकरण को तेज करने का काम भी साथ-साथ करती जाती है, ताकि इन फुट सोल्जरों के ध्यान में बार-बार बिठाया जा सके कि उन्हें पहले किसे निशाने पर लेना है। इस पूरी यात्रा के रास्ते में पड़ने वाली दुकानों, ढाबों, रेस्तराओं के मालिकों की पहचान सार्वजनिक करने की मुहिम आगे बढ़ी है। इस साल उत्तर प्रदेश सरकार ने कांवड़ रूट पर मौजूद सभी ढाबा, होटल और दुकान का मालिकाना हक़ रखने वालों को क्यू आर कोड स्टीकर और खाद्य सुरक्षा विभाग का लाइसेंस लगाने के निर्देश दिए हैं। अब बात केवल मालिकाने तक नहीं रुकी है, यह हिन्दू मालिकों के रेस्तराओ में काम करने वाले कर्मचारियों की जांच पड़ताल तक आ गयी है। यह जांच पड़ताल भी कोई सरकारी एजेंसी नहीं कर रही – स्वयंभू हिंदुत्ववादी गिरोहो की गुंडा वाहिनी कर रही है।

ढाबों, दुकानों पर धावा बोलकर सबके आधार कार्ड देखे जा रहे है – कई जगह तो पैंट-पायजामे उतरवा कर जांच किये जाने के शर्मनाक कारनामे भी अंजाम दिए गए हैं। यूपी में कांवड़ यात्रा 11 जुलाई से शुरू हुई, मगर कथित हिंदू संगठनों ने दिल्ली-देहरादून नेशनल हाईवे-58 पर चेकिंग अभियान उसके पहले ही शुरू कर दिया। खबर है कि इसमें अकेले कथित स्वामी यशवीर महाराज नाम के एक व्यक्ति ने 500 लोगों की एक टीम बनाई है। बाकी गिरोह अलग हैं और इन सबका मकसद साफ है। यह मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार के साथ-साथ उनके प्रति विषैले नफरती उन्माद के उभारने की भी हरकत है। इस बार तो यह सिलसिला यात्रा शुरू होने के महीने भर पहले से ही शुरू कर दिया गया था। सनद रहे कि इस सबमें भी मौलिक कुछ भी नहीं; सारा तरीका और उसे अमल में लाने की प्रक्रिया सीधे-सीधे हिटलर और मुसोलिनी के किये-धरे से उठाई गयी है। मकसद भी मनुष्यता के अब तक के सबसे बड़े इन दोनों अपराधियों की तरह लम्पट, हिंसक और हमलावर भीड़ तैयार करने का है। अब ऐसे में चौबीसों घंटा, सातों दिन गरल बहाने वाला मीडिया भला इस आग में घी डालने में पीछे कैसे रह सकता है; वह भी आतंकी हमलों की तैयारी की झूठी और गढ़ी खबरे फैलाकर सनसनी फैलाने में लगा हुआ है।

अब जब ये सब के सब अंधेरों से पूरा सौदा किये बैठे हैं, तो कौन ऐसे में कोई शम्मा जलाने देगा! ऐसे में तर्क और विवेक की बात, भले वह अपना ही कोई क्यों न करे, कैसे बर्दाश्त की जा सकती है। उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के बहेड़ी कस्बा के एमजीएम इंटर कॉलेज के हिन्दी प्रवक्ता और कवि डॉ. रजनीश गंगवार ने इस यथार्थ को भुगतकर देख लिया। उन्होंने अपने कालेज के विद्यार्थियों को अपनी ‘तुम कांवड़ लेने मत जाना, ज्ञान का दीप जलाना’ शीर्षक की कविता क्या सुनाई कि उनकी पिटाई और नौकरी छिनाई दोनों की नौबत आ गयी। युवाओं से शिक्षा, ज्ञान, विवेक और मानव सेवा की ओर बढ़ने का आह्वान करना उन्हें काफी महँगा पड़ा, जबकि वे खुद कुनबे के ख़ास थे और उसकी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के नगर अध्यक्ष थे, यह अध्यक्षी गयी सो गयी, नाक रगड़ कर माफ़ी अलग से मांगनी पड़ी।

रजनीश गंगवार तो लगते कहाँ हैं? आज यदि खुद स्वामी विवेकानंद होते, तो उनकी तो जान तक के लाले पड़ जाते: ‘वह देश जहां करोड़ों व्यक्ति महुआ के पौधे के फूल पर जीवित रहते हैं, और जहां दस लाख से ज्यादा साधू और कोई दस करोड़ ब्राह्मण हैं, जो गरीबों का खून चूसते हैं। वह देश है या नर्क? वह धर्म है या शैतान का नृत्य?’ कहने के ‘अपराध’ में उन्हें जेल में डाल दिया जाता।’

‘पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान इतने उच्च स्वर से मानवता के गौरव का उपदेश करता हो, और पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान गरीबों और नीच जाति वालों का गला ऐसी क्रूरता से घोंटता हो।’ कहने पर तो उन्हें सूली पर ही चढ़ा दिया जाता।

नौजवानों से ‘लात मारो इन पुरोहितों को। ये हमेशा प्रगति के खिलाफ रहे हैं, ये कभी नही सुधरने वाले। इनके दिल कभी बड़े नहीं होने वाले। ये सदियों के अंधविश्वास और निरंकुश निर्दयता की औलादें हैं। सबसे पहले इस पुरोहिताई को जड़ से मिटाओ।’ का आव्हान करने पर तो उनकी लिंचिंग ही कर दी जाती।

असल बात इसी में है और वह यह कि दुनिया हो या भारत इनको एक बंद, घुटन भरे, फासिस्ट समाज में बदलने की अमानवीय मुहिम में मुब्तिला साजिशिये बाकी सबके साथ, बाकी सबके पहले खुद उस धर्म को ही नुक्सान पहुंचा रहे हैं, जिस धर्म की रक्षा की आड़ लेकर वे सारा तमाशा करते हैं।

मशहूर शायर निदा फाजली और जहीर कुरैशी के शेर जो फ़िक्र जता गए थे वह आज असल में दिखने लगी है। निदा साहब ने कहा था कि : ‘उठ उठ के मस्जिदों से नमाज़ी चले गए/ दहशतगरों के हाथ में इस्लाम रह गया।’

जहीर साब ने लिखा था कि: ‘मंदिरों में घुस गए दानव/ देव प्रतिमाएं सड़क पर हैं।’

धार्मिकता की भावना का शुद्ध कुत्सित राजनीति के लिए इस्तेमाल वहां तक पहुंचता दिखा रहा है, जहां तक का उन्होंने अंदेशा दिखाया था। ठीक यही बात है कि यह उमड़-घुमड़ कर आता और सारे आसमान पर छाता खतरा सब की बात है, सिर्फ कुछ जाग्रत या समझ-बूझ वालों की बात नहीं है।

बादल सरोज
बादल सरोज
लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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