Sunday, July 7, 2024
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वाराणसी : संघर्ष के धागे से ज्ञान की कायनात बुनते शैक्षिक शिल्पकार हैं सुरेन्द्र प्रसाद सिंह

यही वह प्रस्थान बिंदु बना जिसने एक नए सुरेन्द्र प्रसाद सिंह को रचना, गढ़ना शुरू किया। जिले के अन्य शिक्षक जहां इस सर्वे का प्रारूप ही नहीं तैयार कर पा रहे थे वहीं सुरेन्द्र प्रसाद सिंह ने सर्वे का पूरा फार्मेट सेट कर दिया था। इनके  बनाये हुये सर्वे का फार्मेट ही सर्वे का माडल पत्र बन गया। उसी प्रारूप को प्रिंट कराकर पूरे जिले में वितरित किया गया। यह सर्वजनिक जीवन में पहला ऐसा बड़ा काम था जिसकी प्रसंशा की गई और सुरेन्द्र प्रसाद सिंह वाराणसी शिक्षा विभाग की एक नई उम्मीद भी बने।

दोपहर साँझ की ओर बढ़ रही थी पर धूप की तल्खी अब भी ज्यों की त्यों कायम थी। लगभग 4 बजे के आस-पास हम इग्नस पहल के कार्यालय बड़ागांव पहुंचे। सुरेन्द्र प्रसाद  सिंह कार्यालय के अपने कमरे में अपनी टीम के साथ काम कर रहे थे। वैसे ‘काम करना’ कहना ठीक शब्द नहीं होगा बल्कि यह कहना ज्यादा बेहतर होगा कि वह आने वाले कल के वास्ते एक ख्वाब बुन रहे थे। हम सब मानते हैं कि पढ़ना एक जरूरी क्रिया है पर सुरेन्द्र प्रसाद सिंह से मिलने के बाद यह समझ में आता है कि पढ़ने के साथ यह तय करना और भी जरूरी क्रिया है कि क्या पढ़ा जाय। ज्ञान की दिशा को वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ देखा जाना कितना जरूरी है और यह दृष्टि एक बेहतर भविष्य का कैसे निर्माण करती है, इसी पथ का निर्माण करने में लगे हैं सुरेन्द्र प्रसाद सिंह।

निजी पुस्तकालय में तथा प्रशिक्षण देने के दौरान सुरेन्द्र प्रसाद सिंह.

सुरेन्द्र प्रसाद सिंह आज जहां पहुंचे हैं  उसके पीछे जीवन का कठिन संघर्ष और एक ईमानदार समर्पण रहा है। आज वह भले ही अंजुरी भर-भर कर ज्ञान का उजास फैला रहे हों पर खुद को लैंप पोस्ट में बदल देने से पहले उनके हिस्से में भी एक लंबी काली रात रही है। सातवीं क्लास में थे तब सर से पिता का साया हट गया। हर किसी के जीवन में पिता किसी छाते की तरह होते हैं, जो हर कठिन धूप और बरसात से बचा लेते हैं। सुरेन्द्र प्रसाद सिंह के सर से जब यह छाता हटा तो उन्हें ज़िंदगी की हर धूप और बरसात सीधे अपने सर पर ही धारण करना पड़ा। माँ को छोटी सी पेंशन मिलती थी, वह इतनी छोटी थी की उससे परिवार चलाना और और सुरेन्द्र सिंह के अन्य भाई बहनों को पढ़ाना लिखाना आसान नहीं था। नवीं क्लास तक पहुँचते-पहुँचते सुरेन्द्र प्रसाद सिंह को यह समझ में आ गया था कि उन्हें अब एक कठिन जीवन के लिए तैयार हो जाना चाहिए तभी वह अपने परिवार के लिए कुछ कर सकेंगे और अपने आगे बढ़ने का कोई रास्ता तलाश सकेंगे। सुरेन्द्र प्रसाद सिंह अपने परिवार के बारे में बताते हैं कि उनका जन्म वाराणसी के वीर धवलपुर गाँव के एक बड़े और संयुक्त परिवार में हुआ, लगभग 50 लोगों का खाना एक साथ बनता था। पिता जी पाँच भाई थे। उनके चारों भाई सरकारी नौकरी में थे जबकि वह खुद शिक्षक थे। सब एक साथ रहते थे। पिता जी भाइयों में सबसे छोटे थे। उनके बड़े भाइयों के बच्चे और हम भाई बहन सब एक साथ खेलते थे मस्ती करते थे। उन दिनों हम सभी बच्चों के लिए शनिवार और रविवार को स्कूल जाना अनिवार्य था। उस समय हमारे समाज और परिवार पर गांधी जी का बहुत ज्यादा प्रभाव था, जिसकी वजह से हमें यह सिखाया जाता था कि अपना हर काम हमें खुद ही करना है। जूते की मरम्मत से लेकर अपने फटे-पुराने कपड़े तक सब कुछ हम लोग खुद से सिलते थे। सब अच्छा चल रहा था पर यह अच्छा ज्यादा दिन चल नहीं पाया और जब मैं सातवीं कक्षा का छात्र था उसी दौरान पिता जी का निधन हो गया। यहीं से जीवन बदल गया। पहले तो संयुक्त परिवार होने की वजह से परेशानियों का उतना एहसास नहीं हुआ पर साल दो साल बाद घर-परिवार में भी बहुत कुछ बदल गया। मैं जब नवीं कक्षा में पहुंचा तब तक यह समझ में आ गया था कि अब मैं उस परिवार का बड़ा बेटा हूँ जिसमें कोई पिता नहीं है। घर से लगभग 10 किलोमीटर दूर बड़ागांव स्कूल जाता था। वहीं पर दो बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। एक जगह से कपड़े मिल जाते थे और दूसरी जगह से घर के लिए सामान और मशाले आदि मिल जाते थे। एकीकृत परीक्षा पास करने की वजह से छात्रवृत्ति भी मिलती थी।

अपनी टीम के साथ सुरेन्द्र प्रसाद सिंह।

इन तमाम झंझावातों के साथ सुरेन्द्र प्रसाद सिंह पढ़ाई की डोर पकड़कर आगे बढ़ते रहे। हाई स्कूल पास करने के बाद मडुवाडीह आ गए वहाँ चाचा जी की नर्सरी थी। नर्सरी के कामों में मदद करते और और वहीं से क्वींस कालेज में पढ़ाई करने जाते। इंटर करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए बीएचयू और यूपी कालेज की प्रवेश परीक्षा दी। सुरेन्द्र प्रसाद सिंह बताते हैं कि बीएचयू की पहली लिस्ट में नाम नहीं आया जिसकी वजह से यूपी कालेज में एडमिशन ले लिया। बाद में बीएचयू की दूसरी लिस्ट जारी हुई जिसमें मेरा नाम दूसरे नंबर पर ही था पर जब घर वालों को बताया तो कोई बीएचयू में एडमिशन कराने को तैयार नहीं हुआ। उस समय बीएचयू की फीस 264 रूपये थी पर घर के आर्थिक संकट की वजह से यह फीस दे पाना मेरे लिए मुनासिब नहीं हो सका। तब तक बड़ी बहन की उम्र भी शादी लायक हो चुकी थी। जिसकी वजह से मैंने यूपी कालेज ही अपनी पढ़ाई जारी रखी। आर्थिक मुश्किलें बढ़ती जा रही थी इसी बीच सन 1989 में परिवार में संपत्ति का विभाजन भी हो गया और संयुक्त परिवार एकल परिवार में तब्दील हो गया। जीवन कठिन होता जा रहा था तभी एक सरकारी शासनादेश जारी हुआ कि ‘शिक्षकों की संतान जो शिक्षक बनने की पात्रता रखते हैं उन्हें सीधी प्रक्रिया में शिक्षक के पद पर अनुकंपा नियुक्ति दी जाएगी’। उस समय मेरा बीएससी का सेकेंन्ड ईयर चल रहा था पर परिवार के लोग दबाव बनाने लगे कि मुझे शिक्षक भर्ती में आवेदन कर देना चाहिए। मैंने सोचा कि मेरा छोटा भाई इंटर कर ले तब वह पिता जी के स्थान पर अनुकंपा नियुक्ति प्राप्त कर लेगा। दुर्भाग्य से वह हाई स्कूल में ही फेल हो गया जिसकी वजह से मुझे अपना विद्यार्थी जीवन अधूरे में छोड़कर शिक्षक बनने के लिए आवेदन करना पड़ा और अगस्त 1990 में मैं शिक्षक बन गया। शिक्षक बनने के साथ ही कालेज तक की दूरी नापने की वह मुश्किल खत्म हो गई जिसमें उन्हें हर रोज 23-24 किलोमीटर सायकिल चला कर घर से कालेज जाना पड़ता था और फिर इतनी ही दूरी घर वापस आने में भी तय करनी पड़ती थी। जिस सायकिल से अब तक वह ज्ञान लेने जाते थे अब उसी सायकिल से से शिक्षा देने जाने का सफर शुरू हुआ और बनारस(अब वाराणसी) में पहली पोस्टिंग मिली। मैंने नौकरी करना शुरू ही किया था कि कुछ दिन में एक सर्वे  करने का काम आया जिसे हर स्कूल को करना था। मेरे स्कूल ने सर्वे का फार्मेट बनाने का काम मुझे सौंप दिया और कहा कि तुम नए आदमी हो इस पहेली का उत्तर तुम ही खोजो।

स्टेट करिकुलम फ्रेमवर्क राजस्थान की एडिटोरियल टीम को प्रशिक्षित करते हुए सुरेन्द्र प्रसाद सिंह।

यही वह प्रस्थान बिंदु बना जिसने एक नए सुरेन्द्र प्रसाद सिंह को रचना, गढ़ना शुरू किया। जिले के अन्य शिक्षक जहां इस सर्वे का प्रारूप ही नहीं तैयार कर पा रहे थे वहीं सुरेन्द्र प्रसाद सिंह ने सर्वे का पूरा फार्मेट सेट कर दिया था। इनके  बनाये हुये सर्वे का फार्मेट ही सर्वे का माडल पत्र बन गया। उसी प्रारूप को प्रिंट कराकर पूरे जिले में वितरित किया गया। यह सर्वजनिक जीवन में पहला ऐसा बड़ा काम था जिसकी प्रसंशा की गई और सुरेन्द्र प्रसाद सिंह वाराणसी शिक्षा विभाग की एक नई उम्मीद भी बने। इसी वजह से उन्हें सामन्य स्कूल से बीआरसी बड़ागांव पर ट्रांसफर कर दिया गया। इसके बाद सुरेन्द्र प्रसाद सिंह ने खुद को ऐसे दीपक में बदलना शुरू कर दिया जो खुद जलता है ताकि औरॉ को रोशनी और राह मिल सके। इसी दौरान परिवार ने दबाव बनाकर शादी करवा दी।

फिलहाल अब सुरेन्द्र प्रसाद सिंह जीवन के उस पथ पर आगे बढ़ रहे थे जिस पथ पर चल कर उन्हें ज्ञान को सम्यक ज्ञान में तब्दील करने का रास्ता खोजना था। वह जितने जिज्ञासु थे उतना ही अध्ययन के प्रति समर्पित भी थे। इसी समर्पण की वजह से वह अक्सर अपने सहकर्मियों से अलग और आगे दिखते थे। स्कूल शिक्षक से शिक्षक ट्रेनर तक उन्होने लंबी यात्रा की इसी बीच उनकी मुलाक़ात सुबीर शुक्ला से हुई। सुबीर शुक्ला भारत सरकार के चीफ कंसलटेंट इन एजूकेशन थे। वह अलग-अलग राज्यों में जाकर काम करते थे। उनका पाँच साल का कार्यकाल पूरा हो गया तो उन्होने अपनी एक अलग फर्म बना ली।  सुरेन्द्र प्रसाद सिंह नौकरी के साथ सुबीर जी की फर्म से भी जुड़ गए। इसके लिए उन्होने कभी विभागीय अनुमति ली तो कभी अवकाश लिया और बाद में यह भूमिका आगे बढ़ी तो सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर पूरी तरह से सपनों के उस मिशन पर लग गए जिसके सहारे दुनिया को थोड़ा ज्यादा सभ्य और और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपन्न किया जा सके।

हम जब उनके सपने के बारे में उनसे पूछते हैं तो वह बताते हैं की ‘जब मैं आठवीं में था तब मैंने शपथ ली थी कि गाँव में कोई निरक्षर ना रहे। दूसरा यह था कि जब कोई कहता कि भैया शहर में घर बनवा लो तब मैं कहता था कि मैं शहर को ही गाँव में ले आऊँगा। मैं आज भी ज्ञान और श्रम को एक दूसरे के समानान्तर देखता हूँ और चाहता हूँ कि एक कुदाल वाला एक कलम वाले की जितनी इज्जत करता है उतनी ही इज्जत एक कलम वाला एक कुदाल वाले की भी करे। दूसरी ओर वह एक ऐसा सेंटर बनाने का सपना सँजोये हुये हैं जहां सीखने के नए मॉडल विकसित किए जा सकें और उनके माध्यम से समाज के सबसे हाशिये पर जीने वाले बच्चों को भी उतनी ही बेहतर शिक्षा दी जा सके जितनी बेहतर शिक्षा आभिजात्य वर्ग को उपलब्ध है।’ इसी सपने को पूरा करने के लिए उन्होने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। अब वह पूरी शिद्दत से अपने सपने को पूरा करने में लग गए हैं। इसके लिए उन्होने इगनस पहल नाम से एक गैर सरकारी संगठन की स्थापना की है और इसी संस्था के माध्यम से वह लगातार मुख्यधारा की शिक्षा में बदलाव का प्रयास कर रहे हैं।

इग्नस पहल पुस्तकालय के उदघाटन में बच्चों के साठ संवाद करते सुरेन्द्र सिंह।

सुरेन्द्र प्रसाद सिंह बताते हैं की इस यात्रा में कई बार जातीय स्तर पर पीठ पीछे उन्हें ट्रोल करने के प्रयास हुये पर उससे भी ज्यादा वह इस बात से आहत हैं की जातीय विभाजन की खांई कम होने के बजाय अब और बढ़ चुकी है। अब योग्यता से ज्यादा बड़ी मानक जाति बन चुकी है। वह बताते हैं कि तमाम संघर्ष में किताबों ने मेरा बहुत साथ दिया। वह कहते हैं कि मुझे पढ़ने का बहुत शौक था और वही जीवन के संघर्षों में मेरी ताकत थी। अपने किताब प्रेम का एक किस्सा सुनाते हुये वह बताते हैं कि एक बार मैं नैनीताल से लौट रहा था,लखनऊ बहुत सुबह आ गया था और बनारस के लिए बस का इंतजार कर रहा था वहीं पर किसी ने बताया की अमीनाबाद में बहुत सस्ते दाम पर पुरानी किताबें मिलती हैं, मैं वहाँ चला गया, वहाँ मैंने खूब सारी किताबें चुनी कोई दो रूपये की, कोई पाँच रूपये की, इतने सस्ते दाम पर किताबें पाकर मैं तो जैसे पागल हो गया। खूब सारी किताबें चुन ली जब हिसाब किया तो किताबों का भुगतान करने के बाद मेरे पास केवल सौ रूपये बच रहे थे। तब दुकानदार ने पूछा इसे ले कैसे जाएँगे, तब मैंने कहा , अरे यह तो मैंने सोचा ही नहीं। तब उसने जूट का एक झोला दिया और कहा की यह पचास रूपये का है। मैंने खैर झोला लिया और किताबें लेकर चल दिया। बीस रूपये रिक्शे में निकल गए और तब तक भूख भी लग गई थी तो शेष पैसों से जो मिल सकता था वह लेकर खा-पी लिया पर अब बनारस जाने के लिए मेरे पास किराये के पैसे ही नहीं थे। उस स्थिति में मुझे अपने पड़ोस के एक बस ड्रायवर की याद आई और मैंने काउंटर पर जाकर उनका नाम लेकर पूछा कि क्या उनकी बस आती है यहाँ, तब बताया गया कि उनकी बस 9:40 पर आएगी और 15-20 मिनट रुककर बनारस के लिए जाएगी। अब मेरे पास उनका इंतजार करने के सिवा कोई उपाय नहीं था। पैसे भी नहीं बचे थे इसलिए बस नल का पानी पी लेता था और उनका इंतजार करता रहा। 10 बजे उनकी बस आई तो मैं उनके पास गया, वह पिता जी के मित्र थे, मेरी स्थितियों से अवगत होने के बाद उन्होने अपना आधे घंटे का रेस्ट टाइम भी नहीं लिया और महज 10 मिनट में वह बस लेकर निकाल पड़े जैसे ही बस लखनऊ से बाहर आई उन्होने एक जगह बस रोककर मुझे खाना खिलाया और खुद से टिकट भी बनावाया।। इस तरह की बहुत सी कहानियां उनके किताब प्रेम की हैं। उन्होने किताबों से प्रेम किया और किताबों के इस प्रेम से जो हासिल किया है आज उसे समाज के आखरी हिस्से तक पहुंचाने में लगे हुये हैं।

समूह के साथियों के साथ।

वह भविष्य के बच्चों को उस तरह का पाठ्यक्रम देना चाहते हैं जो उन्हें किसी तरह की विभाजक रेखा पर चाक ना करे बल्कि उन्हें बेहतर मनुष्य बनाने का खूबसूरत प्रयास करे। सुरेन्द्र प्रसाद सिंह आज भी उसी ऊर्जा के साथ अपने मिशन में लगे हुये हैं। इग्नस पहल के माध्यम से वह सिर्फ बच्चों के लिए किताबें नहीं रच रहे हैं बल्कि वह एक सुनहरे कल का बीज भी बो रहें हैं ताकि आने वाले कल के बच्चे भविष्य के बेहतर इंसान बन सकें। घृणा, सामप्रदायिकता, नफरत और जातिवाद के जहर से मुक्त इंसान।

3 COMMENTS

  1. शिक्षा में नवाचार और शिक्षा के विस्तार को समर्पित एक जुझारू व्यक्ति को जितना मैं जानने का गुमान रखता था उससे की गुना जानने को मिला। आलेख के लेखक को मेरा साधुवाद।

  2. जमीनी परिवर्तन में लगे साथियों पर लेख प्रकाशित करनें के लिए पत्रिका को धन्यवाद।

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