भारत वर्ष में जाति आधारित आरक्षण देने का प्रावधान नया नहीं है। समाज के एक वर्ग तक सदियों से साधन और संसाधन आसानी से पहुँच रहे हैं, उनसे वंचित समाज व पिछड़ी जातियां किसी भी तरह से प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकती थीं, उनके लिए आरक्षण की सुविधा लागू की गई ताकि समतावादी समाज की स्थापना हो सके। लेकिन पिछले दस वर्षों से सरकारी नौकरियों में निकलने वाली भर्तियों में आरक्षण को लेकर लगातार खुलकर खेल हो रहे हैं। मनुवादी सरकार नहीं चाहती कि एसटी, एससी और ओबीसी कभी आर्थिक व शैक्षणिक रूप से मजबूत हो मुख्यधारा में शामिल हो सकें। हरियाणा उच्च न्यायालय में चपरासी की भर्ती के लिए आरक्षण के नियमों में खुले रूप से खेल हो रहा है। पढ़िये ज्ञानप्रकाश यादव की रिपोर्ट।
ताज़ा उदाहरणों से भी जानना हो कि भाजपा को ज्यादा पीछे रह गए ओबीसी-एससी-एसटी समाज की कितनी चिंता है तो लैटरल इंट्री की ख़तरनाक पॉलिसी को ही देख लीजिए, जिसे अभी-अभी भारी दबाव के चलते स्थगित तो करना पड़ा है। इसके जरिए भारत की नौकरशाही पर कारपोरेट वर्चस्व को न केवल स्थापित करना है बल्कि आरक्षण को भी हायर लेवल पर पूरी तरह खत्म करने की योजना की झलक साफ-साफ दिखती है।