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ओम बिरला, वेंकयानायडू और हरिवंश की रीढ़  डायरी (13 अगस्त, 2021)

भारत में लोकतंत्र बड़ी तेजी से पतन की ओर अग्रसर है। जिस तरह से भारत में सत्तासीन नरेंद्र मोदी सरकार लोकतांत्रिम परंपराओं का अवमूल्यन करती जा रही है, उसे देखते हुए आने वाले समय में यह कहने की आवश्यकता भी नहीं रहेगी कि भारत में केवल नाम मात्र का लोकतंत्र है। यह बेहद भयानक स्थिति […]

भारत में लोकतंत्र बड़ी तेजी से पतन की ओर अग्रसर है। जिस तरह से भारत में सत्तासीन नरेंद्र मोदी सरकार लोकतांत्रिम परंपराओं का अवमूल्यन करती जा रही है, उसे देखते हुए आने वाले समय में यह कहने की आवश्यकता भी नहीं रहेगी कि भारत में केवल नाम मात्र का लोकतंत्र है। यह बेहद भयानक स्थिति है। सरकार के इशारे पर ट्वीटर विपक्ष के नेताओं का अकाउंट बंद कर देता है। ट्वीटर तो ट्वीटर लोकसभा का अध्यक्ष संसद के अंदर विपक्षी सदस्यों को पिटवा देता है। अब और क्या शेष रह जाता है?

दरअसल, भारत की अधिकांश आबादी अपने देश में लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या को देखकर मौन है। उसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता है कि संसद के अंदर क्या हो रहा है। उसे तो यह भी फर्क नहीं पड़ता है कि जम्मू-कश्मीर की पूरी जनता को आज भी बंधक बनाकर रखा गया है। वहीं पूर्वोत्तर के हालात भी सामान्य नहीं हैं। महंगाई का भी भारत के लोगों पर कोई असर नहीं है। क्यों है ऐसा?

मैं तो दिल्ली से प्रकाशित हिंदुस्तान को देख रहा हूं। इसके पन्नों पर जो सूचनाएं दर्ज हैं, वे इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारत में शांति ही शांति है। कहीं कोई कुव्यवस्था नहीं। मीडिया पहले से भी दंडवत होती रही है लेकिन कहना पड़ेगा कि अब उसने अपने कपड़े भी उतारना प्रारंभ कर दिया है।

[bs-quote quote=”राजद नेता और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सह पूर्व केंद्रीय मंत्री लालू प्रसाद यादव का यह कथन कितना सटीक है कि सरकार के लिए ओबीसी की स्थिति गाय, सूअर, कुत्ते और बिल्लियों के समकक्ष भी नहीं। सरकार जनगणना में सबकुछ का हिसाब संग्रहित करती है लेकिन यह संग्रहित करना जरूरी नहीं समझती है कि इस देश में ओबीसी कितने हैं और किन-किन जातियों के हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

खैर, कल केंद्रीय सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री डॉ. वीरेंद्र कुमार ने प्रेस कांफ्रेंस किया था। यह कांफ्रेंस क्यों किया गया था, यह अपने आप में एक सवाल है। पहले जब मुझे इसकी जानकारी मिली तो एकबारगी लगा कि शायद सरकार अब यह ऐलान करने वाली है कि इस बार की जनगणना में जाति को भी शामिल किया जाएगा। परंतु मैं गलत था। प्रेस कांफ्रेंस में मंत्री महोदय यह बताने के लिए प्रकट हुए थे कि 2011 की जनगण्ना में जाति संबंधित जो आंकड़े सामने आए, उनमें काफी जटिलताएं थीं। वे अपने ही बयान को बार-बार बदल रहे थे। एक तरफ तो वे आंकड़ों को जटिलतम की उपाधि दे रहे थे तो दूसरी आंकड़ों को बेहद पुराना बता रहे थे। जब वे ऐसा कह रहे थे तब जेहन में एक सवाल आ रहा था कि कितने पुराने हैं आंकड़े? भारत में पिछड़े वर्गों के लिए जिस आंकड़े को आधार बनाया जा रहा है, वह 1931 का है। तो 1931 का आंकड़ा अधिक पुराना है या फिर 2011 का?

कल के प्रेस कांफ्रेंस में मंत्री ने बिना पूछे ही यह जानकारी दी कि जनगणना में कुल कितना खर्च आएगा और जनगण्ना में क्या-क्या गिने जाएंगे। मसलन उन्होंने बताया कि इस बार की जनगणना को पूरा करने में 8557 करोड़ 23 लाख रुपए का खर्च आएगा। वहीं इस बार जनगणना में आवासीय स्थिति, सुविधाएं और संपत्तियां, जनसंख्या संरचना, धर्म, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति, भाषा, साक्ष्ररता और शिक्षा, आर्थिक गतिविधियां, विस्थापन और प्रजनन क्षमता जैसे आंकड़े संग्रहित किए जाएंगे।

राजद नेता और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सह पूर्व केंद्रीय मंत्री लालू प्रसाद यादव का यह कथन कितना सटीक है कि सरकार के लिए ओबीसी की स्थिति गाय, सूअर, कुत्ते और बिल्लियों के समकक्ष भी नहीं। सरकार जनगणना में सबकुछ का हिसाब संग्रहित करती है लेकिन यह संग्रहित करना जरूरी नहीं समझती है कि इस देश में ओबीसी कितने हैं और किन-किन जातियों के हैं।

[bs-quote quote=”प्रेस कांफ्रेंस में मंत्री महोदय यह बताने के लिए प्रकट हुए थे कि 2011 की जनगण्ना में जाति संबंधित जो आंकड़े सामने आए, उनमें काफी जटिलताएं थीं। वे अपने ही बयान को बार-बार बदल रहे थे। एक तरफ तो वे आंकड़ों को जटिलतम की उपाधि दे रहे थे तो दूसरी आंकड़ों को बेहद पुराना बता रहे थे। जब वे ऐसा कह रहे थे तब जेहन में एक सवाल आ रहा था कि कितने पुराने हैं आंकड़े? भारत में पिछड़े वर्गों के लिए जिस आंकड़े को आधार बनाया जा रहा है, वह 1931 का है। तो 1931 का आंकड़ा अधिक पुराना है या फिर 2011 का?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

खैर, मुझे यकीन है कि इस बार भी जातिगत जनगणना को अंजाम नहीं दिया जाएगा। इस देश के ओबीसी के पास अभी भी चेतना उस अनुपात में नहीं है जितना कि दबाव बनाने के लिए आवश्यक है। वैसे भी इस देश का ओबीसी कुकर 1990 में गैस पर चढ़ा है। डेमोक्रेसी में प्रेशर बनने में समय लगता है।

ओह, प्रेशर कुकर  शब्द का उपयोग शायद इस वजह से हो गया है कि मैं इन दिनों कुकिंग करने का प्रयास कर रहा हूं और कूकर से सहयोग नहीं मिल रहा। एक सप्ताह पहले एक कुकर  खरीदा था। वर्तमान में मैं अकेला हूं तो इसी हिसाब कुकर  का आकार भी है। लेकिन परेशानी यह है कि इसमें कुछ भी पकाते समय प्रेशर बनने पर सीटी के साथ ही पानी का अधिकांश हिस्सा बाहर निकल जाता है। ऐसा क्यों होता है, दुकानदार से पूछा तो उसने कहा कि पानी की मात्रा कम रखें।

[bs-quote quote=”मुझे यकीन है कि इस बार भी जातिगत जनगणना को अंजाम नहीं दिया जाएगा। इस देश के ओबीसी के पास अभी भी चेतना उस अनुपात में नहीं है जितना कि दबाव बनाने के लिए आवश्यक है। वैसे भी इस देश का ओबीसी कुकर 1990 में गैस पर चढ़ा है। डेमोक्रेसी में प्रेशर बनने में समय लगता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

बहरहाल, मैं इस देश के ओबीसी के बारे में सोच रहा हूं। मैं अपने देश के बारे में सोच रहा हूं। मैं लोकतंत्र के बारे में सोच रहा हूं और यह भी कि ठीक दो दिनों के बाद यह देश आजादी का 75वां जश्न मनाएगा। मैं यह सोच रहा हूं कि इस लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला, राज्यसभा के सभापति व उपराष्ट्रपति वेंकैयानायडू और उपसभापति हरिवंश क्या सोच रहे होंगे। क्या वे यह नहीं सोच रहे होंगे कि नरेंद्र मोदी ने उन्हें अपना गुलाम बना लिया है?

शायद वे नहीं सोच रहे होंगे। उन्होंने अपनी रीढ़ उतार कर रख दी है।

कल देर रात तक नींद नहीं आयी। नींद के लिए उर्दू साहित्य का सहारा लेना और महंगा पड़ा। लेकिन बशीर बद्र की यह रचना अच्छी लगी। नींद के नहीं आने का दुख न रहा।

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो

मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न हो

 

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं .

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