इतिहासकार सैयद शाहनवाज अहमद कादरी की किताब Blood Speaks Too (The Role Of Muslims in India’s Independece में डॉ सुरेश खैरनार का अंग्रेजी भाषा में छपा हुआ आमुख –
इतिहासकार सैयद शाहनवाज अहमद कादरी ने 2017 में लोकबंधु राजनारायण प्रकाशन से ‘लहू बोलता भी है’, (स्वतंत्रता संग्राम के मुस्लिम चरित्र) नामक 480 पृष्ठों की पुस्तक प्रकाशित करके बहुत बड़ा काम किया गया था।
आज शाम हैदराबाद के रविन्द्र भारतीय ऑडिटोरियम में इस किताब के अंग्रेजी संस्करण Blood Speaks Too (The Role Of Muslims in India’s Independece) का विमोचन है। अब्दुल वसी के संपादन में इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद किया है परवेज़ आलम सिद्दीकी ने।
लंबे समय से भारतीय इतिहासकार इस बात को लेकर चिंतित हैं कि किस तरह से सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने के उद्देश्य से स्कूल और कॉलेज की पाठ्य पुस्तकों में इतिहास को विकृत करने का काम लगातार चल रहा है।
क्या भारतीय मुसलमानों को विदेशी माना जाना चाहिए, क्या वे राष्ट्रीय संघर्ष के गद्दार हैं? ये प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इन सवालोंके साथ कुछ अन्य पूर्वाग्रह भारतीय मुसलमानों के विरुद्ध पक्षपात और घृणा उत्पन्न करते हैं। एक अस्सी वर्षीय भारतीय ‘दिग्गज’ अक्सर यह कहते हैं कि ‘इतिहास संपूर्ण सत्य का चित्रण है और केवल सत्य ही है’ फिर भी उनकी पुस्तक में आधा-अधूरा सत्य ही है, यह वास्तविक सत्य से कोसों दूर है। इतिहासकार का कार्य हजारों तथ्यों के पीछे न पड़कर अधिक नुकसानदायक तथ्यों से परिचित कराना है इसके लिए सबका अपना तरीका और विकल्प होता है।’
जब भारतीय इतिहासलेखन की शुरुआत हुई, तब कई ब्रिटिश और भारतीय हस्तियों जैसे कि एलफिंस्टन, चार्ल्स स्टीवर्ट, टॉड, विंसेंट स्मिथ, रॉबर्ट्स आदि ने अच्छी तरह से संभाला था और एक लंबे अंतराल के बाद डॉ. जदुनाथ सरकार ने 1921 में भारतीय इतिहास के सबसे संवेदनशील चरण – मुगल साम्राज्य के पतन पर चार खंड लिखकर नाइटहुड की उपाधि अर्जित की। यह विलक्षण कार्य उस समय किया गया था, जब भारत महात्मा गांधी के नेतृत्व में हिंदू-मुस्लिम एकता के उत्साहजनक चरण का गवाह बना था।
डॉ. जदुनाथ सरकार की महानता उनकी कार्यप्रणाली में निहित है। लेकिन तथ्यों को छांटना और कुछ उद्देश्यपूर्ण प्रक्षेपणों को आगे बढ़ाना ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लोगों को और अधिक विभाजित करने के उद्देश्य से किया गया। इन सब में उनकी प्रतिभा शामिल थी। इस साम्राज्यवादी अ-प्रेरित इतिहासलेखन ने तीस और चालीस के दशक के भारतीय बुद्धिजीवियों की पीढ़ी पर गहरा और स्थायी प्रभाव छोड़ा, जिसके योग्य प्रतिनिधि हमारे प्रख्यात इतिहासकार डॉ. आर.सी.मुजूमदार माने गए। उनका आकर्षक चुंबकीय व्यक्तित्व युवा विद्वानों को आकर्षित करता था जो उनके सहयोगी के रूप में उनकी सेवा करते रहे; उनमें एक महान कृति लिखने की क्षमता थी, जिसे भारतीय विद्या भवन द्वारा उदारतापूर्वक संरक्षण दिया जाता रहा। इस प्रकार वे सांप्रदायिक पक्षपात में विशिष्टता के साथ इतिहास के रूढ़िवादी स्कूल के मुख्य पितामह बन गए हैं।
आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ के 1969 के दीवाली अंक में उन्होंने ‘सत्य और केवल सत्य’ की प्रस्तुति के प्रकाश में अपने दर्शन को विस्तृत किया कि सांप्रदायिकता की जटिल समस्या को हल करने के लिए सभी मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए। घृणा के घातक दर्शन और पंथ की चुनौती का सामना करने के लिए, जिसने हजारों नाथूराम गोडसे पैदा किए और कर रहे है।
स्वाभाविक रूप से इतिहासकारों की एक नई पीढ़ी अपनी बौद्धिक शक्ति और शैक्षणिक विशिष्टता के साथ उभरी है। ऐतिहासिक शोध के क्षेत्र में, सत्य की उनकी अथक खोज के सामने, डॉ. जदुनाथ सरकार और डॉ. मजूमदार जैसे प्रख्यात ब्रिटिश और भारतीय इतिहासकारों के कई पुराने सिद्धांतों को विकृत और लगभग ध्वस्त कर दिया गया। विध्वंस के इस काम में सामाजिक नृविज्ञान ने भी बहुत बड़ा योगदान दिया है। काफी हद तक, इन सामाजिक वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम किया। महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा परिकल्पित राष्ट्रवादी परंपरा को सरदार भगत सिंह, अशफाकउल्ला, मातंगिनी, लखन प्रधान और भारत के कोने-कोने से आए असंख्य शहीदों के खून ने अलग आकार दिया।
दो विचारधाराओं के बीच इस बुनियादी संघर्ष में, मैं गांधीजी, टैगोर और हमारे देश के अन्य शहीदों का पक्ष लेने से नहीं बच सकता।
सैयद शहनवाज कादरी की किताब क्या कहती है
इसी तत्परता के साथ सैयद शहनवाज कादरी ने इस पुस्तक में 1765 के आरम्भ से ही भारत को ब्रिटिश दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने की हमारी जनता की कहानी को सामने लाने का प्रयास किया है, जिसमें स्पष्ट कारणों से भारतीय मुसलमानों की भूमिका पर विशेष ध्यान दिया गया है।
सैयद शाहनवाज अहमद कादरी ने 23 जून, 1757 को प्लासी में मुर्शिदाबाद के नवाब सिराजुद्दौला के नेतृत्व में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, 1899 में श्रीरंगपट्टनम में मैसूर के नवाब टीपू सुल्तान के युद्ध और 1857 में भारत के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में हुए दूसरे सबसे बड़े स्वतंत्रता संग्राम तथा महात्मा गांधी द्वारा 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बाद हुए आंदोलन के बारे में बहुत ही सटीक जानकारी दी है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने इस युद्ध में 1192 मुस्लिम शहीदों के साथ 41 मुस्लिम महिलाओं की शहादत का विस्तृत विवरण देकर बहुत बड़ा काम किया है क्योंकि 1857 के बाद अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति के तहत दोनों समुदायों के सांप्रदायिक तत्वों की पहचान की, उनके माध्यम से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का काम शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने पर्दे के पीछे से दोनों धर्मों के लिए अलग-अलग संगठन बनाने का काम शुरू किया। जिसके कारण 19वीं सदी की शुरुआत में हिंदुओं का भारत महामंडल बना, जिसके अध्यक्ष दरभंगा के महाराजा थे। जिसमें अंग्रेजों की बहुत बड़ी भूमिका थी। जिसे 1906 में हिंदू महासभा में बदल दिया गया। इसी तरह ढाका के नवाब सलीमुल्लाह खान ने दिसंबर 1906 में मुसलमानों का अखिल भारतीय परिसंघ शुरू किया जो अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के नाम से जाना गया। उसके बाद 1925 में दशहरा के दिन नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई।
सौ साल से भी ज़्यादा समय से RSS का एक ही लक्ष्य रहा, मुसलमानों के खिलाफ़ भ्रांतियाँ फैलाने का, जिसे उसने भलीभांति अंजाम दिया। इसमें सबसे बड़ी बात है मुसलमानों पर देशद्रोही होने का आरोप लगाना और आज़ादी की लड़ाई की जगह उन्हें देश के बंटवारे के लिए ज़िम्मेदार ठहराना, इस संदर्भ में यह किताब RSS द्वारा किए जा रहे दुष्प्रचार का करारा जवाब दे रही है हालाँकि RSS का आज़ादी की लड़ाई से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। इसके उलट वे ब्रिटिश पुलिस और सेना में लोगों की भर्ती करने में लगे हुए थे।
विडंबना यह है कि आज वे स्वयंभू देशभक्त बनकर देशभक्ति और देशद्रोह का सर्टिफिकेट बाँट रहे हैं। मैं इस किताब को इतने विस्तार से लिखने के लिए सैयद शाहनवाज़ अहमद कादरी को ख़ास तौर पर धन्यवाद देता हूँ।
बहरहाल, इस विषय पर हमारे कलकत्ता के मित्र प्रोफेसर शांतिमय रॉय ने अंग्रेजी में 160 पृष्ठों की एक पुस्तक लिखी है जिसका शीर्षक है ‘फ्रीडम मूवमेंट एंड इंडियन मुस्लिम इन ब्रीफ’, जिसे 1979 में नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने प्रकाशित किया था। प्रोफेसर शांतिमय रॉय की पुस्तक को मैं सैयद शाहनवाज अहमद कादरी की पुस्तक ‘लहू बोलता भी है’ की प्रस्तावना के रूप में देख रहा हूं।
भारत में ब्रिटिश राज की शुरुआत 23 जून 1757 को हुई जब अंग्रेजों ने प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हराया। जो बाद में अठारहवीं सदी के अंत में दक्कन के नवाब टीपू सुल्तान के साथ 4 मई 1899 को श्रीरंगपट्टनम के युद्ध में हुआ, भारत के दो बड़े शासकों से सत्ता छीनने के बाद, पेशवाओं के खिलाफ 1898 में पुणे के पास भीमा कोरेगांव के युद्ध में जीत हासिल करने के बाद, चालीस साल के अंदर, दिल्ली के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में (1857), जिसमें अहमद अब्दुल्ला, बेगम हजरत महल, राजकुमार फिरोज शाह, बल्लभगढ़ के राजा बख्त खान, इलाहाबाद के मौलवी लियाकत अली, रानी लक्ष्मीबाई, पेशवा बाजीराव, नाना फड़नवीस, तात्या टोपे, वीर कुंवर सिंह, राजा देवी बख्श सिंह, और मौलवी फजले हक खैराबादी और उनके साथी मौलवियों ने सिर पर कफन बांधकर आजादी की लड़ाई लड़ी, इतनी बहादुरी और साहस के साथ कि जितनी तारीफ की जाए कम है!
1857 के इस युद्ध के बाद अंग्रेजों ने पूरे भारत पर अपना शासन स्थापित कर लिया। अगले नब्बे सालों में और 1857 के युद्ध के बाद लोगों को लगने लगा कि अब इस तरह के बिखरे हुए प्रयासों की बजाय एकजुट होकर प्रयास किए जाने चाहिए और इसलिए पूरे भारत में जगह-जगह संगठन बनने लगे, उदाहरण के लिए (1) बंगाल में इंडियन एसोसिएशन (2) बॉम्बे में प्रेसीडेंसी एसोसिएशन (3) मद्रास में महाजन सभा (4) पूना में सार्वजनिक सभा। इन सबके अलावा सर ह्यूम नामक एक सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय संघ की शुरुआत की, जिसे बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नाम से जाना गया।
1885-1905 के दौरान कांग्रेस में मुसलमानों की भागीदारी कम थी, लेकिन बाद में यह देखा गया कि अलग-अलग संगठनों द्वारा किए जा रहे प्रयासों की आड़ में अंग्रेज दोनों समुदायों के लोगों के मुद्दों को सुलझाने के बजाय उन्हें और उलझाने में मददगार साबित हो रहे थे। फिर नागपुर में आयोजित मुस्लिम लीग के 1910 के अधिवेशन में कांग्रेस के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने का फैसला लिया गया। जिसका कांग्रेस ने स्वागत किया। बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना, जो मुस्लिम लीग के सख्त खिलाफ थे, मोहम्मद अली जौहर और सर वजीर हसन के बीच हुई बातचीत में तय हुआ कि आजादी की लड़ाई के लिए मुस्लिम लीग और कांग्रेस को सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मिलकर काम करना चाहिए, जिसके लिए जिन्ना तैयार नहीं थे। लेकिन कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व ने उन्हें हरी झंडी दे दी तो पटना अधिवेशन में दोनों धर्मों के लोगों ने मिलकर आजादी की लड़ाई लड़ने का फैसला किया। 1913 तक बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम लीग के सदस्य भी नहीं बने थे। कांग्रेस के सदस्य के तौर पर उन्होंने सरोजिनी नायडू और विष्णुनारायण डार के साथ पटना, कलकत्ता और लखनऊ के छठे अधिवेशन में हिस्सा लिया लेकिन सैयद शाहनवाज अहमद कादरी ने अन्य लेखकों की पुस्तकों का बहुत प्रयास से अध्ययन करने के बाद पाया कि 1914 तक उनका 1906 में गठित मुस्लिम लीग से कोई लेना-देना नहीं था। इसके विपरीत वे वैचारिक रूप से मुस्लिम लीग के गठन के खिलाफ थे। इसके विपरीत कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए मुस्लिम लीग के साथ मिलकर काम करने का फैसला किया। 1915 में मुंबई में दोनों दलों के अधिवेशन एक ही समय चल रहे थे। जिसमें महात्मा गांधी के साथ लॉर्ड सिन्हा, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, पंडित मदन मोहन मालवीय, श्रीमती ऐनी बेजेंट, सरोजिनी नायडू, बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना ने उनसे आने का अनुरोध किया था। इस सिलसिले की शुरुआत के दूसरे साल लखनऊ में लीग के अधिवेशन के अध्यक्ष बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना थे और कांग्रेस अध्यक्ष अंबिका चरण मजूमदार के बीच लखनऊ समझौता हुआ।
यह भी पढ़िए –राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौ साल : सांप्रदायिकता के एजेंडे से भारतीय सामाजिकता को बांटने का हासिल
1921 तक दोनों दलों के अधिवेशन एक साथ होते रहे। लेकिन यहीं से अंग्रेजों ने एक षड्यंत्र के तहत पाकिस्तान के निर्माण की नींव रखी, जिसके कारण देश का विभाजन हुआ। ऐसा लगा कि विभाजन के बाद दोनों समुदाय के लोग शांति से रहेंगे। लेकिन 1925 में दशहरे के दिन स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पिछले सौ सालों से लगातार हिंदू और मुसलमानों के बीच ध्रुवीकरण करने में लगा हुआ है। यहां तक कि इसके गीतों, बौद्धिकता और खेलों में भी सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने का काम 12 महीने 24 घंटे जारी रहता है।
सत्ता में आने के बाद गोलवलकर के कथनानुसार, ‘भारत में रहने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की सद्भावना के आधार पर जीने की आदत डालनी होगी। अगर उन्हें इस देश में रहना है, तो उन्हें बहुसंख्यक लोगों की इच्छा के अनुसार जीना होगा।’ बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर का निर्माण इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगाने और सत्ताधारी पार्टी बनने के बाद एक झटके में कश्मीर की धारा 370 ख़त्म कर दी। उसका राज्य का दर्जा खत्म कर दिया। अब वक्फ बिल लाने का चल रहा दुष्प्रचार इसका सबूत है। आज कपड़ों से लेकर खाने तक हर चीज़ पर फ़तवे जारी हो रहे हैं। सत्ताधारी पार्टी के त्यौहारों में शामिल होने से लेकर सरकार द्वारा ब्राह्मणों को पूजा-पाठ करवाने के लिए संसद में लाने के उदाहरण भारत की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठा रहे हैं। आज भारत एक अघोषित हिंदू राष्ट्र बन चुका है। इस संदर्भ में मुझे उम्मीद है कि हमारे मित्र सैयद शाहनवाज़ अहमद कादरी की किताब ‘Blood Speaks Too’ कुछ ग़लतफ़हमियाँ दूर करने में उपयोगी होगी!