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स्याह सियासत का दौर और गर्त में जाता देश

अक्सर लोग अपने और अपने परिवार के बारे में सोचते हैं। परिवार के दु:ख-सुख की सीमा ही उनका कार्य-क्षेत्र होता है। कुछ जाति और वर्ग तक सोचते हैं। जहाँ हित सध जाए ठीक। इससे इतर कुछ लोग राष्ट्र तक ही सोचते हैं, वह भी सत्ता की राजनीति तक। उन्हें समाज के दु:ख-सुख से कुछ लेना-देना […]

अक्सर लोग अपने और अपने परिवार के बारे में सोचते हैं। परिवार के दु:ख-सुख की सीमा ही उनका कार्य-क्षेत्र होता है। कुछ जाति और वर्ग तक सोचते हैं। जहाँ हित सध जाए ठीक। इससे इतर कुछ लोग राष्ट्र तक ही सोचते हैं, वह भी सत्ता की राजनीति तक। उन्हें समाज के दु:ख-सुख से कुछ लेना-देना नहीं होता।किन्तु आज के राजनीतिक दौर में न केवल सामाजिक/धार्मिक क्षेत्र में अराजकता और आपसी द्वेष का ग्राफ बढ़ा है अपितु सार्वजनिक हलकों के साथ-साथ संसद भी गाली-गलौज का अखाड़ा बन गई  है। विदित है कि संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की जब भी बात होती है तो उसमें लगाए गए उचित प्रतिबंधों का भी जिक्र किया गया है।  भारतीय संविधान के अनुच्छेद-19(2) में ऐसा लिखा है। सांसदों को विशेषाधिकार है कि वे इसका पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं।  भारतीय जनता पार्टी (BJP) के सांसद रमेश बिधूड़ी ने शायद इसी विशेषाधिकार का भरपूर फायदा उठाया और संसद के भीतर ही गाली-गलौज पर उतर आए।

बिधूड़ी ने 21 सितंबर को लोकसभा में बहुजन समाज पार्टी के सांसद कुंवर दानिश अली के खिलाफ सांप्रदायिक बयान दिया और लगातार गाली देते नजर आए। इस तरह की भाषा का इस्तेमाल संसदीय इतिहास में शायद ही कभी किया गया हो। खेद की बात तो है कि रमेश बिधूड़ी जब ये आपत्तिजनक बयान दे रहे थे, उस वक्त उनके बगल में पूर्व स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन और पीछे पूर्व कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद बैठे हुए थे। वीडियो में दोनों नेता बिधूड़ी के बयान पर हंसते दिख रहे हैं। यहाँ तक संसद अध्यक्ष ओम विरला जी इस घटना संसदीय मर्यादा को भूलकर चुपचाप बैठे यह सब देखते रहे।

 हालाँकि हेट स्पीच पर सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि इसे रोकने के लिए 2018 में जारी की गई गाइडलाइन का ही पालन कराएंगे। कोर्ट ने 7 जुलाई 2018 को हेट स्पीच पर रोक लगाने के लिए गाइडलाइन जारी की थी। इसमें राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों को इस तरह की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए जिलों में नोडल अफसर तैनात करने को कहा था। लेकिन सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आज भी कुंडली मार कर बैठी है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से फिर तीन हफ्ते में राज्यों से इसका विवरण जुटाने को कहा है। जनता के हितों को केंद्र ने ताक पर उठा कर रख दिया। मणिपुर में महीनों से आग लगी हुई है किंतु राज्य और केंद्र सरकार ने तो इस ओर न आँख ही खोली हैं और न ही मुँह खोला है। मणीपुर में ही नहीं बल्कि हरियाणा के नूंह-गुरुग्राम में भी हिंदू-मुसलमान के बीच हिंसा का खेल खेला गया। यहाँ तक की राजनेताओं की रैलियों में एक समुदाय विशेष के प्रति भाषाई हिंसा का प्रयोग करके समाज में आपसी अलगाव के हालात पैदा किए जाते हैं। देश में यत्र-तत्र-सर्वत्र हो रहीं बलात्कार की घटनाएं भी ठंडे बस्ते में पड़ी हैं। समाज के दलित/दमित लोगों पर निरंतर हो रहे अत्याचारों की तो कहीं कोई गिनती ही नहीं है।

 भारत छोड़ो आन्दोलन का वह समय था जब हमारे लक्ष्यों और आदर्शों की निष्ठा ने राष्ट्र को एक सूत्र में पिरो दिया था। उस आन्दोलन मेन न तो जातियाँ ही आड़े आईं और न धर्म ही। फिर आजादी प्राप्त होने के बाद क्या हो गया कि सामाजिक  न्याय के सूत्रधार जाति-भेद की विषमता मिटाने के नाम पर व धार्मिक ठेकेदार धर्म के नाम पर जातिगत एवं धार्मिक विद्वेष और राजनैतिक मोर्चोंबन्दी पुख्ता कर रहे हैं। आदमी को आदमी से दूर करने लगे हैं। आजादी प्राप्ति से पूर्व के जो राष्ट्रीय लक्ष्य एवं मूल्य, जो आदर्श भारतीयों को सामुहिक रूप से स्फुरित करते थे, जैसे बिखर गए हैं। आत्मनिर्भरता के सुस्वप्न में देखा गया राष्ट्रीय स्वाभिमान जैसे आज विलुप्त हो गया है। हमारी राजनीति की तो लगता है, सुचिता ही भंग हो गई है। आस्थाएं डगमगा रही हैं। सामाजिक न्याय का लक्ष्य मात्र भाषणों या फिर कागजों में सिमटकर रह गया है। आजादी प्राप्ति के बाद की राजनीति ने अवसरवादिता एवं शून्यवाद को ही जन्म दिया है। नीति और नीयत दोनों ही गुड़-गोबर हो गई हैं। मूल्यों के बिखराव के वर्तमान दौर में सभी राजनैतिक पार्टियाँ उठापटक में लगी हैं। ‘आओ! सरकार सरकार खेलें’ के खेल में लिप्त हैं। भारतीयता जैसे नैपथ्य में चली गई है। धर्मांधता, जातियता, धन-लोलुपता और विलासता राजनैतिक मंच पर निर्वसन थिरक रही है। राजनैतिक नारे दिशाहीनता ही पैदा कर रहे हैं। सरकारी स्तर से ग्रामीणों हेतु शिक्षा की आड़ में विदेशियों को पुन: भारत आने का न्यौता दिया गया। सरकार ने बेशक इसे आर्थिक मुहिम की संज्ञा दी थी, किंतु ये है तो परतंत्रता का ही द्योतक। भारत जैसे स्वाभिमानी और विकासशील राष्ट्र के लिए यह गर्वित होने की बात नहीं है। भारत की आम-जनता के लिए यह हानिकारक ही सिद्ध होगी।

अभी हाल ही में  तीन अक्टूबर (भाषा) को दिल्ली पुलिस के विशेष प्रकोष्ठ ने समाचार पोर्टल न्यूजक्लिक और उसके पत्रकारों के घरों पर सुबह छापेमारी की। अधिकारियों ने बताया कि विशेष प्रकोष्ठ ने एक नया मामला दर्ज कर जांच शुरू की है। इससे पहले, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने भी ‘न्यूजक्लिक’ के वित्त पोषण के स्रोतों की जांच के तहत कंपनी के परिसरों पर छापे मारे थे। विशेष प्रकोष्ठ केंद्रीय एजेंसी से मिली जानकारी के आधार पर छापे मार रहा है। घटनाक्रम की जानकारी रखने वाले अधिकारियों ने बताया कि पुलिस ने ‘न्यूजक्लिक’ से जुड़े कुछ पत्रकारों के लैपटॉप और मोबाइल फोन का ‘डंप डेटा’ (किसी कंप्यूटर, लैपटॉप या मोबाइल से किसी दूसरे उपकरण में स्थानांतरित किया गया डेटा) बरामद किया। उन्होंने बताया कि कुछ पत्रकारों को लोधी रोड विशेष प्रकोष्ठ कार्यालय ले जाया गया,, लेकिन अभी तक किसी को गिरफ्तार नहीं किया गया है।

एक वरिष्ठ पत्रकार अभिसार शर्मा ने सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर लिखा, ‘दिल्ली पुलिस मेरे घर पहुंची। मेरा लैपटॉप और फोन ले लिया’।एक अन्य पत्रकार भाषा सिंह ने भी ‘एक्स’ पर लिखा, ‘अंतत: मेरे फोन से आखिरी ट्वीट। दिल्ली पुलिस मेरा फोन जब्त कर रही है।’ ‘प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने कहा, ‘न्यूजक्लिक’ से जुड़े पत्रकारों और लेखकों के घरों पर की गई कई छापेमारी से बेहद चिंतित हैं। हम घटनाक्रम पर नजर रखे हुए हैं और एक विस्तृत बयान जारी करेंगे।’ इस कार्रवाई को लेकर न केवल पत्रकारों ने रोष व्यक्त किया अपितु समाज के बुद्धिजीवियों ने भी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने की सरकार की इस प्रक्रिया पर घोर आपत्ति दर्ज की है। पी सी आई ने कहा, ‘हम पत्रकारों के साथ एकजुटता से खड़े हैं और सरकार से मांग करते हैं कि वह इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे।’ सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ की जांच का हवाला देते हुए हाल में दावा किया था कि ‘न्यूजक्लिक’ के धन के लेन-देन की जांच से ‘भारत विरोधी एजेंडे’ का पता चला है।

समाज में हिंसा और भ्रष्टाचार निरंतर निर्बाध गति से बढ़ता जा रहा है। लोगों की मानसिकता हिंसक होती जा रही है। ऐसे में बेहतर प्रशासन की उम्मीद रखना मिथ्या विचार ही होगा। 20 अप्रैल 1995 को दिल्ली में, दिल्ली क्राइम रिपोर्टरस एशोसियेशन द्वारा आयोजित आशुतोष हांडु स्मारक व्याख्यान माला में ‘क्या पुलिस उतनी ही बुरी है जितनी उसकी छवि है’ पर बोलते हुए दिल्ली के तत्कालीन आयुक्त मा. निखिल कुमार ने यह तथ्य भी उजागर किया कि 1961 में देश में महज पाँच प्रतिशत काला धन था जबकि आज देश में 77 प्रतिशत से भी अधिक काला धन है। यह निरंतर सिकुड़ती और कलुषित मानसिकता का ही परिणाम है। भ्रष्टाचार का ये आलम है कि कभी कोई भूखा केवल रोटी की चोरी करता था किंतु आज अमीर और अमीर बनने के लिए चोरी करता है। करोड़ों की बोफोर्स दलाली, अरबों का प्रतिभूति घोटाला, कभी चीनी घोटाला तो कभी शराब घोटाला  जी-2 से जुड़े तमाम घोटाले आदि इसके जीवंत उदाहरण हैं। इन तमाम घोटालों के पीछे किन-किन ताकतों का हाथ रहा, किसको नहीं पता? जब रक्षक ही भक्षक बन जाएं तो फिर कोई क्या कर सकता है? हाँ! अगर जनता ही एकजुट हो जाए तो कुछ बात बन सकती है।

इन्दिरा गान्धी का ‘गरीबी हटाओ’ नारा, राजीव गान्धी का 21वीं सदी में प्रवेश करने का नारा, सत्ता में आई प्रत्येक राजनैतिक पार्टी सत्ता में आने के बाद के 100 दिनों में मंहगाई कम करने का वायदा बड़े जोर-शोर से करती है किंतु मंहगाई है कि निरंतर बढ़ती ही जा रही है। तमाम के तमाम राजनैतिक वायदे आम-जनता की आँख में धूल झोंकने का काम करते हैं। राजनैतिक मंचों से धार्मिक उदघोष ने राजनीति में और कालिख घोल दी है।

आज के भारत में आतंकवाद, नक्सलवाद, धार्मिक हिंसा और जाति-संबंधी हिंसा महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जो भारतीय राष्ट्र के राजनीतिक वातावरण को प्रभावित कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो जनता के सामाजिक और आर्थिक स्तर अर्थात सार्वजनिक जीवन स्तर को ऊँचा करना राजनीति का सरोकार नही रह गया है। वैचारिक दृष्टिकोण से नागरिक स्तर पर या व्यक्तिगत स्तर पर कोई विशेष प्रकार का सिद्धान्त एवं व्यवहार राजनीति (पॉलिटिक्स) कहलाती है। किंतु अधिक राजनीतिक/सामाजिक/धार्मिक संकीर्णता के चलते  शासन में पद प्राप्त करना तथा सरकारी पद का उपयोग न करना ही आज की राजनीति है।

स्वतंत्रता के बाद से भारतीय राजनीति, आर्थिक विकास और सामाजिक परिवर्तन के कुछ पर्यवेक्षकों का तर्क है कि यह राज्य की नीतियां नहीं हैं, भारत में राजनीतिक शक्ति के निर्माण की जटिलताएं जो मुख्य रूप से राजनीतिक विघटन और आर्थिक विफलताओं के लिए जिम्मेदार हैं। एक दृष्टिकोण यह भी है कि भारतीय समाज में संरचनात्मक ताकतें, मजबूत सामाजिक वर्ग हैं, जिनके कार्य राजनीतिक अभिजात वर्ग को पूर्व के हितों के खिलाफ नीतियों को लागू करने से रोकते हैं। राज्य की नीतियां तेजी से प्रभुत्वशाली वर्गों के हितों को साधने में लगी हैं।

एक अन्य दृष्टिकोण के अनुसार, ग्रामीण इलाके जमींदार जातियों के बढ़ते राजनीतिक और आर्थिक प्रभुत्व के अधीन आ गए हैं। हरित क्रांति के बाद की अवधि में भारतीय कृषि के व्यावसायीकरण ने उन ताकतों को ढीला छोड़ दिया है जिन्होंने ग्रामीण इलाकों में पारंपरिक सामाजिक संबंधों को कमजोर कर दिया है और वर्ग ध्रुवीकरण और वर्ग संघर्ष को बढ़ावा दिया है। ये ग्रामीण इलाकों में बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता और जातिवाद जैसे विसंगतियां हिंसा के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। उदारवादी राजनीति जैसे पूर्णरूपेण: विफल हो गई है। इतना ही नहीं वर्तमान सत्ता ने न केवल संविधान को बदलने का मुद्दा जोरों से उछाला है अपितु मनुस्मृति को समाज में पुन: लागू करने का प्रयास तेज कर दिया है। यह अलग बात है कि आज बहुजन समाज की जागरुकता, आर एस एस और भाजपा सरकार को भारी पड़ रही है जिससे भाजपा और आर एस एस की सत्ता खोने की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। महिला आरक्षण में एस सी / एस टी और ओ बी सी वर्ग को आरक्षण से दूर रखने की कोशिश सरकार के गले की हड्डी बन गई है।

 मनुवादी प्रयोगशाला में फला-फूला भारतीय समाज आज भी पूरी तरह साम्प्रदायिकता के चंगुल में फँसा हुआ है। कहना अतिश्योक्ति न होगा कि  साम्प्रदायिकता को लेकर जिस प्रकार की समस्या भारत देश में है, शायद ही किसी अन्य देश में हो। यह भी सत्य है कि विविधताओं और विभिन्नताओं से भरा भारत जैसा कोई दूसरा देश हो। जाति-दर-जाति से निर्मित हमारे सामजिक ढाँचे को देखकर सब दाँतों तले उँगलियाँ दबाते हैं। जाति-प्रथा का सम्पूर्ण ढाँचा ही सामाजिक दृष्टि से ऊँच-नीच की मानसिकता पर आधारित है।

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व्यापक स्तर पर जाति या मजहब आधारित सांप्रदायिक झगड़े भारत में नए माने जाते हैं किंतु इसके मूल में जो घृणा-भाव काम करता है, वह नया नहीं है। अंग्रेजों के आने तक शायद यें बातें भारतीयों को ज्यादा परेशान न करती हों। विभिन्न जातियों के लोग कभी-कभार आपस में थोड़ी-बहुत गाली-गलौज अथवा सिर-फुट्टवल तो कर लेते थे, किंतु इस प्रकार के द्वेष को देर तक न ढोते थे। आज जो भी सांप्रदायिक झगड़े भारत में होते हैं, वे सब राजनीति की देन हैं। आश्चर्यजनक तो यह है कि जाति-प्रथा के पोषक ही आज जाति-पाँति के उभरने की बात करने लगे हैं। उनसे कोई तो पूछे कि भारत में जाति-पाँति का वर्चस्व कब नहीं था। अंतर केवल इतना है कि पहले का दलित लुट-पिटकर भी चुप रहने को बाध्य था, पर आज के दलित में जातीय चेतना जाग उठी है। वह सामाजिक न्याय और सम्मान पाने की बात पर उतारू है।

खैर, कुछ भी हो इस प्रकार की साम्प्रदायिक घृणा देश के स्वास्थ्य के लिए अच्छी नहीं है। पंजाब में सिख साम्प्रदायिकता, असम में बोडो समस्या, कश्मीर में मुस्लिम साम्प्रदायिकता तो कहीं कोई और समस्या, यह है आज के भारत में साम्प्रदायिकता का विकराल रूप। इन सबको पीछे छोड़ती हुई, एक और बड़ी समस्या है, साम्प्रदायिक ताकतों के सिर पर चढ़ा ‘हिन्दू-राष्ट्र’ की स्थापना का भूत। चलो! भारतीयों ने अंग्रेजो से कुछ तो सीखा। बँटे हुई जनता को और बाँटना, विभिन्न वर्गों के मतभेदों को और बढ़ाना और इस सब के चलते सत्ता-लाभ प्राप्त करना ही आज के राजनेता की नियति है।

अब ऐसे प्रदूषित वातावरण मे आम आदमी का दम घुटने लगा है। इस प्रकार की साम्प्रदायिक घृणा का धुआँ सबसे पहले और अधिक मात्रा में इसकी आँख में ही घुसता है। साम्प्रदायिक व धार्मिक उन्माद भड़काने वाले आम-आदमी का चीर हरण  करते हैं। छ: दिसम्बर 1992 का अयोध्या प्रकरण इसी कड़ी का एक काला हिस्सा है। समझ से परे की बात है कि जब देश ही हिन्दुओं का है तो फिर राजनैतिक मंच से मन्दिर-मस्जिद के विवाद को क्यों उठाया गया? हिन्दुवादी मान्यता है कि ईश्वर सर्वत्र वास करते हैं। फिर क्या आवश्यकता थी, भगवान राम को परिधि प्रदान करने की? दुख से कहना पड़ता है कि इस प्रकार के विध्वंशी लोग धार्मिक नहीं हैं, हिन्दु भी नहीं हैं: राम नाम जपने के अधिकारी भी नहीं। यदि वे कुछ है तो केवल सत्ता के पीछे भागने वाले सामाजिक घृणा के जनक या फिर स्वार्थी राजनैतिक-तत्व।

 समाज का एक और अहम पक्ष है ‘गरीबी’। हर सरकार का दावा रहा है कि गरीबी घट रही है। किंतु ‘इंडियन कांउसिल फोर रिचर्स आन इन्टरनेशनल इक्नामिक्स रिलेसंस’ के निदेशक डा. एस.पी. गुप्ता जैसे अर्थशास्त्रियों, विचारकों, समीक्षकों, समाज-शास्त्रियों  के अनुसार सरकारी आँकड़े न केवल भ्रामक है अपितु झूठे हैं। दीनदयाल शोध संस्थान के डा. महेश शर्मा के अनुसार, ‘पहले गरीबी और अमीरी में इतनी असमानता नहीं थी। पश्चिम की औद्योगिक क्रांति  और उपभोगतावादी संस्कृति ने गरीबों को और संकट में डाला है। अक्सर मानना है कि जब तक डार्विन का सिद्धांत रहेगा, गरीबी और अमीरी के बीच असमानता बढ़ती रहेगी। ऐसी हालत में सरकारी झूठे आँकड़ों का निहितार्थ क्या है? क्या अर्थ है ऐसे अर्थशास्त्र का जिससे बेरोजगारी और गरीबी बढ़ती ही जाती है।

दिन पर दिन महिलाओं पर अत्याचार और उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। सबसे जघन्य अत्याचार बलात्कार है। मणीपुर इसका ताजा उदाहरण है। सरकार है कि मणिपुर की घटना पर मुँह बंद किए बैठी है। जब से भाजपा सरकार में आई है हिंदू और मुसलमान के बीच की खाई को पाटने के बजाय उसे और गहरी और चौड़ी करने का उपक्रम लगातार कर रही है।  एक सर्वेक्षण के अनुसार बलात्कार के मामले निरंतर बढ़ते ही जा रहे। बलात्कार का नजरिया चाहे जो भी रहा हो, किंतु बलात्कार जैसी निन्दनीय घटनाएं न केवल शर्मनाक हैं अपितु इनके निरंतर बढ़ते प्रभाव से सामाजिक अवधारणा/ चरित्र में अत्याधिक गिरावट का संकेत तो मिलता ही है।

भारतीय न्याय प्रणाली का कछुए की चाल से चलना भी चिंता का विषय है। तमाम राजनैतिक पार्टियाँ और धार्मिक संस्थान समाज में सिर उठाए आनर (हारर) किलिंग जैसे मुद्दों पर चुप्पी साधे हुए हैं। महज इसलिए कि मुँह खोलेंगे तो वोटों को दाव पर लगाएंगे। खाप-पंचाएंते सरकार से ऊपर हो गई हैं। सरकार इनके निर्णय के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाती। राजनेताओं और बाबाओं के एजेंडे में भुखमरी और सामाजिक असमानता के खिलाफ लड़ने का कोई बिन्दु नहीं है।

वोटों की राजनीति के चलते राजनेताओं ने सामाजिक और आर्थिक अपराधियों से खुले तौर पर व्यापक रूप से जो सांठ-गाँठ की है, वह निसंदेह सत्ता-लोलुपता और सुविधा-भोगी मानसिकता की परिचायक है। राष्ट्रीय और सामाजिक हित दूर होते जा रहे हैं।  आज हमारे देश में राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और जातीय; सभी प्रकार का आतंक फैला हुआ है। ऐसे में सामाजिक न्याय की बात करने का कोई औचित्य नजर नहीं आता। सम्मोहक खलनायकों के वर्तमान युग में कमजोर और मध्यवर्गीय समाज प्रत्येक दृष्टि से निराश और हताश है। उसके अन्दर जैसे आक्रोश का दावानल सुलग रहा है। इस आक्रोश की बे-आवाज आँधियाँ कब ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ें, कुछ नहीं कहा जा सकता, किंतु वर्तमान संदर्भों हमें इतना तो सोचना ही होगा कि आज की सामाजिक/ धार्मिक व राजनितिक विक्षिप्त परिस्थिति देश को  किस ओर ले जा रही हैं। कहीं गृहयुद्ध की ओर तो नहीं?

 

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