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ग्राउंड रिपोर्ट

सामाजिक न्याय के पक्ष में बड़ी भूमिका है डाइवर्सिटी के वैचारिक आन्दोलन की

15 मार्च, 2007 को बीडीएम की स्थापना हुई, हमलोगों ने मध्य प्रदेश में लागू हुई सप्लायर डाइवर्सिटी से प्रेरणा लेने के लिए भविष्य में भी डाइवर्सिटी डे मनाते रहने का निर्णय लिया। इस तरह बीडीएम के जन्मकाल से ही हर वर्ष 27 अगस्त को देश के जाने-माने बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में डाइवर्सिटी डे मनाने को जो सिलसिला शुरू हुआ ,वह आजतक जारी है और आज दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में 17 वें डाइवर्सिटी डे का आयोजन होने जा रहा है। 

आज मनाया जायेगा डाइवर्सिटी डे 

स्वतन्त्रता के बाद के भारत के दलित आंदोलनों के इतिहास में भोपाल सम्मलेन (12-13 जनवरी,2002) का अपना एक अलग महत्व है। इस आंदोलन में 250 से अधिक शीर्षस्थ दलित बुद्धिजीवियों ने शिरकत की थी। उस सम्मेलन में दो दिनों के गहन विचार मंथन के बाद 21 सूत्रीय भोपाल घोषणापत्र जारी हुआ था, जिसमें अमेरिका के  डाइवर्सिटी पॉलिसी का अनुसरण करते हुए वहां के अश्वेतों की भांति ही भारत के दलितों(एससी-एसटी) को सप्लायर, डीलर, ठेकेदार इत्यादि बनाने का नक्शा पेश किया गया था।किन्तु किसी को भी यकीन नहीं था कि डाइवर्सिटी नीति भारत में लागू भी हो सकती है पर, भोपाल घोषणापत्र जारी करते समय किये गए वादे के मुताबिक, एक अंतराल के बाद 27 अगस्त 2002 को, दिग्विजय सिंह ने अपने राज्य के छात्रावासों और आश्रमों के लिए स्टेशनरी,बिजली का सामान,चादर,दरी,पलंग,टाट- पट्टी ,खेलकूद का सामान इत्यादि का नौ लाख उन्नीस हज़ार का क्रय आदेश भोपाल और होशंगाबाद के एससी/एसटी के 34 उद्यमियों के मध्य वितरित कर भारत में ‘सप्लायर डाइवर्सिटी’ की शुरुआत की थी।

दिग्विजय सिंह की उस छोटी सी शुरुआत से दलितों में यह विश्वास पनपा था कि यदि सरकारें चाहें तो सदियों से उद्योग-व्यापार से बहिष्कृत किये गए एससी/एसटी को उद्योगपति-व्यापारी बनाया जा सकता है। फिर क्या था ! देखते ही देखते डाइवर्सिटी लागू करवाने के लिए ढेरों संगठन वजूद में आ गए, जिनमें आर. के. चौधरी का बीएस-4 भी था। बाद में इसी उद्देश्य से उत्तर भारत के बहुजन लेखकों ने 15 मार्च,2007 को ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’(बीडीएम) की स्थापना की गई, जिसका संस्थापक अध्यक्ष मुझे बनाया गया था। इसमें पूर्व केन्द्रीय मंत्री डॉ. संजय पासवान की बड़ी भूमिका रही, उन्होंने भोपाल घोषणापत्र जारी होने के बाद, पहली बार संसद में डाइवर्सिटी लागू करने की मांग उठाई थी।  बहरहाल जिन दिनों बीडीएम के निर्माण के लिए लेखकों से विचार-विमर्श की प्रक्रिया चल रही थी, उन्ही दिनों डॉ. संजय पासवान ने डाइवर्सिटी पर एक बड़ा सम्मलेन आयोजित करने का मन बनाया। उसके लिए हमलोगों ने दलित आंदोलनों की कई महत्त्वपूर्ण तिथियों की उपेक्षा कर उस दिन को चुना, जिस दिन मध्य प्रदेश में ‘सप्लायर डाइवर्सिटी’ लागू हुई थी। 27 अगस्त 2006 को उस सम्मलेन का आयोजन डॉ. पासवान द्वारा संचालित ‘वंचित प्रतिष्ठान’ और एमेटी यूनिवर्सिटी के ‘एमेटी दलित सिनर्जी फोरम’ द्वारा दिल्ली के ‘इंडिया इंटरनेशनल सेंटर’ में हुआ जिसमें दिग्विजय सिंह और भारत में डाइवर्सिटी के सूत्रधार चंद्रभान प्रसाद सहित पदमश्री डॉ. जगदीश प्रसाद, प्रो. वीरभारत तलवार, पत्रकार अभय कुमार दुबे, चर्चित दलित साहित्यकार डॉ. जय प्रकाश कर्दम, एमेटी विवि के ए.के. चौहान और मैनेजमेंट गुरु अरिंदम चौधरी जैसे जाने-माने बुद्धिजीवी शामिल हुये थे। उस आयोजन का नाम ‘डाइवर्सिटी डे’ रखा गया था, जिसमें डाइवर्सिटी पर मेरी छः और डॉ संजय पासवान की एक किताब का विमोचन हुआ था। प्रचुर मात्रा में हुआ डाइवर्सिटी केन्द्रित किताबों का वह विमोचन,‘डाइवर्सिटी डे’ का जरूरी अंग बन गया। फलतः इस अवसर पर हर साल डाइवर्सिटी केन्द्रित चार-छः किताबें विमोचित होती रही हैं ।

“बीडीएम शुरू से ही राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में अपना एजेंडा शामिल करवाने के लिए चुनावों के समय विशेष अभियान चलाता रहा है। इसमें सफलता भी मिली। भाजपा, कांग्रेस सहित अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के घोषणापत्रों में डाइवर्सिटी एजेंडा शामिल हुआ। इस बार का डाइवर्सिटी डे  ‘लोकसभा चुनाव: 2024’ को ध्यान में रखते हुए आयोजित हो रहा है।”

बाद में जब 15 मार्च, 2007 को बीडीएम की स्थापना हुई, हमलोगों ने मध्य प्रदेश में लागू हुई सप्लायर डाइवर्सिटी से प्रेरणा लेने के लिए भविष्य में भी डाइवर्सिटी डे मनाते रहने का निर्णय लिया। इस तरह बीडीएम के जन्मकाल से ही हर वर्ष 27 अगस्त को देश के जाने-माने बुद्धिजीवियों की उपस्थिति में डाइवर्सिटी डे मनाने को जो सिलसिला शुरू हुआ ,वह आजतक जारी है और आज दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में 17 वें डाइवर्सिटी डे का आयोजन होने जा रहा है।  बहरहाल जिस बीडीएम की हिस्ट्री में आज का दिन ‘ डाइवर्सिटी डे ‘ के रूप में चिन्हित है, बहुजन लेखकों का यह संगठन बीडीएम मुख्यतः साहित्य के ऊपर निर्भर रहकर डाइवर्सिटी का वैचारिक आन्दोलन चला रहा  है। इस कारण ही महज डेढ़ दशक पूर्व वजूद में आया यह संगठन साहित्य के लिहाज से देश के समृद्धतम संगठनों में से एक हो गया है। बीडीएम द्वारा प्रकाशित 100 से अधिक किताबें ही भारत में भीषणतम रूप में फैली मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या, ‘आर्थिक और सामाजिक विषमता’ के खात्मे पर केन्द्रित हैं। इस समस्या से पार पाने के लिए सभी किताबें ही शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक, में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रदर्शन की रूपरेखा देश के योजनाकारों, राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों के समक्ष पेश करती हैं।

भोपाल घोषणा से जुड़ी टीम और बीडीएम से जुड़े लेखकों की सक्रियता से एससी/एसटी ही नहीं, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों में भी नौकरियों से आगे बढ़ कर उद्योग-व्यापार सहित हर क्षेत्र में भागीदारी की चाह पनपने लगी। संभवतः उद्योग-व्यापार में बहुजनों की भागीदारी की चाह का अनुमान लगा कर ही उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार ने जून 2009 में एससी/एसटी के लिए सरकारी ठेकों में 23 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की थी। इसी तरह केंद्र सरकार ने 2011 में लघु और मध्यम इकाइयों से की जाने वाली खरीद में एससी/एसटी के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण घोषित किया। सन 2015 में बिहार में, पहले जीतन राम मांझी और उनके बाद नीतीश कुमार ने सिर्फ एससी/एसटी ही नहीं, ओबीसी के लिए भी सरकारी ठेकों में आरक्षण लागू किया। यही नहीं बिहार में तो नवम्बर-2017 से आउट सोर्सिंग जॉब में भी बहुजनों के लिए आरक्षण लागू करने की बात प्रकाश में आई, किन्तु बहुजनों द्वारा सरकार पर जरुरी दबाव न बनाये जाने के कारण इसका लाभ नहीं मिल सका। हाल के वर्षों में कई राज्यों की सरकारों ने परम्परागत आरक्षण से आगे बढ़कर अपने-अपने राज्य के कुछ-कुछ विभागों के ठेकों, आउट सोर्सिंग जॉब, सप्लाई इत्यादि में आरक्षण देकर राष्ट्र को चौकाया है। कई राज्यों सरकारों ने आरक्षण का 50 प्रतिशत का दायरा तोड़ने के साथ निगमों, बोर्डो, सोसाइटियों में एससी/एसटी,ओबीसी को आरक्षण दिया। धार्मिक न्यासों में वंचित जाति के पुरुषों के साथ महिलाओं को शामिल करने का निर्णय लिया तो उसके पीछे कहीं न कहीं डाइवर्सिटी के वैचारिक आन्दोलन की भी भूमिका है। डाइवर्सिटी आन्दोलन को अबतक सबसे बड़ी सफलता झारखण्ड में मिली है, जहां 2020 में हेमंत सोरेन सरकार ने 25 करोड़ तक ठेकों में एसटी, एससी, ओबीसी को प्राथमिकता दिए जाने की घोषणा कर राष्ट्र को चौका दिया था। निश्चय ही सरकार के उस फैसले के पीछे डाइवर्सिटी के वैचारिक आन्दोलन की बड़ी भूमिका थी।

बीडीएम के दस सूत्रीय एजेंडे में एक खास एजेंडा पौरोहित्य (पुजारी कार्य) में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करवाने का रहा है। बीडीएम, बाबा साहेब की क्रन्तिकारी रचना ‘जाति का उच्छेद’ का अनुसरण करते हुए अपने जन्मकाल से ही यह मानता रहा है कि धर्म भी शक्ति का एक स्रोत है, जिसका सदियों से सम्पूर्ण लाभ सिर्फ ब्राह्मण समाज में जन्मे पण्डे- पुजारी ही उठाते रहे हैं। बाबा साहेब ने जाति का उच्छेद में धर्म को आर्थिक शक्ति के समतुल्य एक स्रोत बताने के साथ यह भी कहा था कि यदि पौरोहित्य के पेशे का प्रजातंत्रीकरण कर दिया जाय, अर्थात विभिन्न सामाजिक समूहों का प्रतिधित्व सुनिश्चित करा दिया जाय तो ब्राह्मणशाही का खात्मा हो जायेगा। बाबा साहेब के इस मूल मन्त्र का अनुसरण करते हुए बीडीएम  देश के लाखों संगठनों के विपरीत ‘ब्राह्मणवाद के खात्मे’ में अपनी उर्जा न व्यर्थ कर, मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में विभिन्न समुदायों के स्त्री और पुरुषों को हिस्सेदारी देने तथा मठों-मंदिरों की भूमि दलित- आदिवासियों को दुकाने खोलने हेतु वितरित करने का अभियान चलाया। इसका सुखद परिणाम 2019 में आंध्र प्रदेश में सामने आया जहां जगनमोहन रेड्डी सरकार धार्मिक ट्रस्टो के ट्रस्टी बोर्ड में दलित, आदिवासी, पिछड़ों और महिलाओं की नियुक्ति का आदेश जारी किया। विगत वर्षों में केरल में पुजारियों की नियुक्ति में विविधता लागू होने का दृष्टांत स्थापित हुआ।  किन्तु इस मामले में क्रांति  हुई  तमिलनाडु में, जहां जून 2021  में स्टालिन सरकार ने वहां के 36,000 मंदिरों में गैर-ब्राह्मणों और महिलाओं की पुजारी के रूप में नियुक्ति का ऐतिहासिक निर्णय लेकर राष्ट्र को चौका दिया। स्टालिन सरकार के उस क्रान्तिकारी फैसले के पीछे अवश्य ही कहीं न कहीं डाइवर्सिटी आन्दोलन की भूमिका है। इस वर्ष 16 जून को  राजस्थान की गहलोत सरकर ने ‘राजस्थान देवस्थान विभाग’ में एक आदेश जारी कर 22 पुजारियों की नियुक्ति की, जिसमे आठ महिलाओं सहित दलित, आदिवासी और ओबीसी वर्ग के लोगों को पुजारी बनने का अवसर मिला। इसे लेकर वहां के विप्र संगठनों की ओर से तीव्र विरोध जारी है।

बहरहाल बीडीएम शुरू से ही राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में अपना एजेंडा शामिल करवाने के लिए चुनावों के समय विशेष अभियान चलाता रहा है। इसमें सफलता भी मिली। भाजपा, कांग्रेस सहित अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के घोषणापत्रों में डाइवर्सिटी एजेंडा शामिल हुआ। इस बार का डाइवर्सिटी डे  ‘लोकसभा चुनाव: 2024’ को ध्यान में रखते हुए आयोजित हो रहा है। 2024 का चुनाव सामाजिक न्याय पर केन्द्रित हो तथा उसमें  डाइवर्सिटी एजेंडे को जगह मिले, इसके लिए बहुजन डाइवर्सिटी मिशन तथा सह- आयोजक ‘संविधान बचाओं संघर्ष समिति’ की ओर से ‘इंडिया’ में शामिल दलों के समक्ष 2000 शब्दों की एक अपील जारी की जा रही है। यूँ तो 17वें डाइवर्सिटी डे पर  आजादी के अमृत महोत्सव पर : बहुजन डाइवर्सिटी मिशन की अभिनव परिकल्पना, मिशन डाइवर्सिटी-2021, मिशन डाइवर्सिटी-2022, यूपी विधानसभा चुनाव 2022-सामाजिक न्याय की राजनीति का टेस्ट होना बाकी है, डाइवर्सिटी  पैम्फलेट, राहुल गांधी: कल, आज और कल तथा सामाजिक न्याय की राजनीति के नए आइकॉन : राहुल गाधी जैसी सात किताबें रिलीज होने जा रही हैं, पर, सर्वाधिक महत्वपूर्ण होगा बहुजन डाइवर्सिटी मिशन और संविधान बचाओ संघर्ष समिति की ओर से जारी इंडिया के समक्ष हमारी अपील। हर बार की तरह इस बार भी कुछ शख्सियतों को’ डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ द इयर’ और ‘डाइवर्सिटी वुमन ऑफ़ द इयर’ के खिताब से नवाजा जायेगा। इसके लिए जिनका नाम चयनित हुआ है, वे हैं प्राख्यात एडवोकेट और पॉलिटिकल-सोशल एक्टिविस्ट आर. आर. बाग़, स्त्री- काल के सम्पादक और लेखक संजीव चन्दन तथा ‘द मूकनायक’ की संस्थापक और एडिटर इन चीफ मीना कोतवाल।

 

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

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