भारत देश में सदियों से अनुत्तरित जातीय भेदभाव का प्रश्न आज का भी सबसे बड़ा प्रश्न बना हुआ है। शायद दुनिया का ऐसा कोई दूसरा देश नहीं है जहां जन्म के आधार पर मनुष्य के साथ निर्दयतापूर्ण अमानुषिक अत्याचार किया जाता हो।आज के 95 साल पहले बाबासाहेब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने महाराष्ट्र के महाड़ में सार्वजनिक चोबदार तालाब का पानी पीने का हक़ दलित वर्ग को दिलाने के लिए दुनिया का एक अनूठा सत्याग्रह छेड़ा था जिसमें उनकी जीत हुई, ऐसी सामान्य धारणा है। इसी प्रकार कालाराम मंदिर में प्रवेश के आन्दोलन के ज़रिए, बाबा साहब ने सारी दुनिया के सामने हिंदू वर्ण व्यवस्था के भेद-भावपूर्ण रवैये की पोल को खोल दी तथा यह साबित कर दिया कि दलित और शूद्र जातियों को न मंदिर में जाने का अधिकार है, न ही सार्वजनिक कुओं-तालाबों से पानी पीने का अधिकार। ऐसी हज़ारों तरह की बंदिशें जो दलितों-शूद्रों पर लगाई गई हैं, उसके आधार पर बाबासाहेब ने ब्रिटिश हुकूमत एवं सारी दुनिया को यह बताने में कामयाबी पायी कि एक षड्यंत्र के तहत, यह वर्ग सामान्य हिंदू वर्ग से अलग-थलग पशुवत रखा गया है। परिणामस्वरूप सारी त्रासदी के बावज़ूद, सदियों की हड़प्पाई विरासत रीति-रिवाज़, सभ्यता-संस्कृति एवं धार्मिक मान्यताएं उसमें आज तक कमोबेश संरक्षित एवं क़ायम हैं। इसी आधार पर बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर ने साइमन कमीशन के सामने जो गवाही रखी थी, उसी की विश्वसनीयता के आधार पर ब्रिटिश हुकूमत ने दलित वर्ग के लिए कम्युनल अवार्ड देने की घोषणा किया था। यह कम्युनल अवार्ड ही बाबा साहब की सबसे बड़ी सफलता थी जिसके आधार पर जातिवाद की बेड़ियों से छुटकारा पाने में शीघ्रता और आसानी होनी प्रत्याशित थी। किंतु इस कम्युनल अवार्ड को, महात्मा गांधी द्वारा जान की बाज़ी लगाकर विरोध यानी आमरण अनशन के फलस्वरूप प्रायः प्रभावहीन कर दिया गया। यही कारण था कि डॉक्टर अंबेडकर को न चाहते हुए भी अनमने ढंग से पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करने पड़े थे। यह पूना पैक्ट बाबा साहेब के धार्मिक-सामाजिक संघर्षों की सफलताओं को निष्प्रभावी करने के लिए शासक वर्ग एक बड़ा हथियार साबित हुआ।
राजनीतिक गलियारों की बात करें तो राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है जो ज़ाहिरा तौर पर केंद्र की भाजपा सरकार को भला क्यों सुहाने लगी? स्वाभाविक है कि ऐसी घटनाएं राजनीतिक दलों को एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने के काम आती हैं तथा ऐसी जलती हुई आग में घी डालकर सरकारों को डांवाडोल करके गिराने तथा अपनी सरकार बनवाने तक का खेल चलता रहता है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि दलितों को मंदिर प्रवेश से लेकर सार्वजनिक कुओं-तालाबों से पानी लेने के साथ-साथ अन्य बहुत सारे अधिकारों को क़ानूनी रूप से स्वीकार कर लिया गया किंतु पूना पैक्ट ने, इन सारे अधिकारों के बावज़ूद सामाजिक परिवर्तन की दशा और दिशा को नख-दन्त विहीनसा- कर दिया। यही कारण है कि दलितों के प्रतिधार्मिक-सामाजिक सोच में लोगों का रवैया रत्ती भर भी नहीं बदला। बल्कि, भौतिक छुआछूत की जगह मानसिक छुआछूत ने अधिक मज़बूत जड़ें जमा लीं। आज भी दलितों-शूद्रों के अधिकारों के लिए क़ानून होने के बावज़ूद समाज का तथाकथित उच्च वर्ग इन क़ानूनों को अभी तक दिल से मानने से इंकार करता रहा तथा उसने मानसिक स्तर पर ये भेदभाव जारी रखे हैं। यही नहीं तथाकथित उच्च वर्ण में शुरू से ही यह मानसिकता घर किए हुए है कि दलितों-शूद्रों को जो समानता का अधिकार दिया गया है वह केवल डॉक्टर अंबेडकर का दलित-प्रेम था। जो भी हो तथाकथित उच्च वर्ण या वर्ग में हम आज भी पूर्व की तरह के जाति विद्वेष को पूरे ठसके के साथ उपस्थित पाते हैं।
राजस्थान के जालौर ज़िले के गांव में घटित हालिया घटना कोई स्थानीय या अलग-थलग घटना भर ही नहीं है जिसमें 9 साल की उम्र के एक मासूम स्कूली दलित बच्चे को, स्कूल के हेड मास्टर के लिए आरक्षित पानी के मटके से पानी लेकर पीने के जुर्म में, हेड मास्टर द्वारा बेरहम, निर्मम एवं अमाननीय हद तक पिटाई की गई। इसके परिणाम स्वरूप, कुछ दिनों के बाद ही उस बच्चे की अहमदाबाद के एक अस्पताल में मृत्यु हो गई। पिटाई की यह घटना 20 जुलाई, 2022 को घटित हुई थी।बच्चे की बुरी तरह पिटाई के बाद उसकी हालत बहुत ही गंभीर हो गई थी तथा इस बात का चारों तरफ़ हो-हल्ला मच गया था जिसके दबाव में आकर स्कूल के हेड मास्टर ने कथित रूप से डेढ़ लाख रुपये बच्चे के मां-बाप को उसके इलाज़ के लिए दिया था। बच्चे को अस्पताल में भर्ती कराया गया। वह जीवन और मृत्यु से संघर्ष करते हुए भारत की आज़ादी के अमृत महोत्सव के ठीक दो दिन पहले अहमदाबाद के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया। आखिरकार अमृत महोत्सव में अमृत के नाजायज़ बंटवारे पर उठने वाले प्रश्न ही तो विवादों के केन्द्र में रहे हैं। देश की आज़ादी के पचहत्तर साल पूरा होने पर अमृत महोत्सव के भव्य आयोजनों पर पलटकर सोचने को मजबूर होना पड़ता है-
- क्या स्वराज का तथाकथित फल पारंपरिक शासक जातियों को ही बदस्तूर मिलता रहेगा?
- क्या दलित वर्ग को ग़ुलामी से मुक्ति की चकाचौंधमें केवल उसके मालिक बदल गये- अंग्रेज़ों की जगह उच्चजातीय सवर्ण आ गये?
- क्या आज़ादी की लड़ाई में दलित वर्ग एक बार फिर धोखा खा गया?
हमारी मुराद सामाजिक लोकतंत्र के बिना राजनीतिक लोकतंत्र की कवायद में होने वाले भ्रम-जाल से है। शासक वर्ग पहले की तरह ही समाज को नियंत्रण करने की स्थिति में बना हुआ है तथा राजनैतिक अधिकारों में प्रमुखता से उसी की भागीदारी भी है ऐसे में शासक वर्ग द्वारा सामाजिक परिवर्तन के लिए ईमानदार कोशिश की उम्मीदें बेमानी हो गयी हैं। दलितों के ऊपर अत्याचार की यह कोई पहली घटना नहीं है।
आये दिन दलितों के साथ मार-पीट, हत्या, बलात्कार, उनके घर जलाने, उन्हें फ़र्ज़ी केस में फंसाकर सज़ा दिलवाने, उनकी मज़दूरी के पैसे न देने, उनसे बेगार लेने, उनको शादी में घोड़े पर नहीं चढ़ने देने आदि तमाम प्रकरण सामने आते हैं जिसके विरोध में कुछ समय तक हल्ला-गुल्ला मचता है, सत्ताधीशों द्वारा घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं, केस दर्ज होता है फिर घटना से उपजी बदलाव की आग ठंडी पड़ जाती है।
बहरहाल, यह घटना राजस्थान के जालौर जिले में स्थित तहसील सयाला के गांव सुराणा की है जहां इंद्र मेघवाल नाम का 9 वर्षीय बच्चा गांव के सरस्वती विद्या मंदिर विद्यालय में पढ़ता था (सरस्वती विद्या मंदिरों में शिक्षा के साथ संस्कार (?) के प्रश्नों पर विचार हमारे विषय के लिए प्रासंगिक हो सकता है किंतु यह अलग बहस की मांग करता है। लगभग 350 विद्यार्थियों वाले इस स्कूल में 8 अध्यापक थे जिसमें से 5 अध्यापक एससी/ एसटी/ ओबीसी समुदाय के ही थे। बताया जाता है कि प्यास के मारे बेहाल बच्चे ने हेडमास्टर के लिए अलग से रखे गए घड़े से पानी निकालकर पी लिया, जिसका संज्ञान लेकर हेड मास्टर ने बच्चे की बुरी तरह पिटाई कर दी। बच्चा कराहते-चिल्लाते हुए बेहोश हो गया तथा चारों तरफ़ इस घटना का शोर मच गया। अंततः बच्चे को अस्पताल में भर्ती कराया गया, किंतु, बच्चे ने लगभग 24 दिन के भीतर ही दम तोड़ दिया।
यह भी पढ़ें…
कभी कालीन उद्योग की रीढ़ रहा एशिया का सबसे बड़ा भेड़ा फार्म आज धूल फाँक रहा है!
बच्चे के पिता देवराम मेघवाल एवं माता पवनी देवी के ऊपर संतान की मृत्यु के हृदय विदारक दु:ख के साथ ही इस घटना से उपजे जाति-विवाद ने अजीब मानसिक-सामाजिक दबाव में डाल दिया है। उनके ऊपर तथाकथित उच्च जाति के राजपूत समुदाय द्वारा, उन्हें मुकदमा वापस लेने के लिए लगातार दबाव बनाया जा रहा है। गांव के दबंग राजपूत, सैकड़ों की संख्या में इकट्ठा होकर इस बात का प्रस्ताव पास किए हैं कि हेड मास्टर चैल सिंह (जो राजपूत जाति का ही है) के विरुद्ध किसी प्रकार की पुलिस कार्यवाही नहीं होनी चाहिए। इन लोगों ने, इस बाबत एक मेमोरेंडम भी, राज्य कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष को सौंपा है। कहने का तात्पर्य यह है कि इतनी बड़ी घटना होने के बाद भी ग़रीब-दलित के पक्ष में न्याय मिलने की संभावनाओं को लगातार क्षीण किया जा रहा है।
यदि हम इस घटना/ घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में इसके पीछे चलने वाले मानसिक एवं वैचारिक अवयवों की पड़ताल करें तो हम पाएंगे कि यह छुआछूत भौतिकन होकर मानसिक है। पानी पीने के प्रकरण को छुआछूत से जोड़कर हम यदि इतिहास का पुनरावलोकन करें तो हम देखते हैं कि बाबा साहब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर द्वारा सन 1927 ईस्वी में महाड़ (महाराष्ट्र) के चोबदार तालाब पर दलितों द्वारा पानी पीने के लिए किया गया आंदोलन केवल पानी पीने मात्र का आंदोलन नहीं था। यह आंदोलन इस बात की घोषणा भी था कि दलित भी मनुष्य हैं और मनुष्य के लिए दी गई प्राकृतिक संपदा में उनका भी उतना ही हक़ है जितना किसी और का है। छुआछूत के स्तर पर यदि हम विचार करें तो यह बात महाड़ के तथाकथित सवर्णों को भी मालूम थी कि इस तालाब का पानी कुत्ते-बिल्ली, जंगली जानवर से लेकर मांसभक्षी चील-कौवे तक सभी पीते हैं जिससे उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। इसका अर्थ हम यूं समझ सकते हैं कि कुत्ता-बिल्ली, पशु-पक्षी आदि के पानी पीने से जो गंदगी हो रही है उससे उन सवर्णों का परहेज नहीं है। इससे यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि यह दलितों को पानी पीने से मनाही का मामला- पानी के दूषित होने मात्र का मामला नहीं है, बल्कि, मनुष्य के रूप में उनके (सवर्णों के) सामने ही रहने वाली दलित जातियों पर उनके वर्चस्व (हीगोमनी) को क़ायम करने के लिए भी यह एक अच्छा हथियार है।
अगोरा प्रकाशन की इस किताब को Amazon से मंगवाने के लिए यहाँ Click करें…
हम राजस्थान के सुराणा गांव की घटना का गहराई से विश्लेषण करते हैं तो यही पाते हैं कि यह दलितों के ऊपर सवर्णवादी वर्चस्व स्थापित करने, उसे बनाते रखने एवं उसका सार्वजनिक प्रदर्शन करते रहने का मामला अधिक है। इसके प्रमाण में हम देख सकते हैं कि-
- उसी गांव सुराणा के कई दलितों का कहना है कि अभी भी यहां पर नाई दलितों के बाल काटने से मना कर देता है तथा उन्हें कई बार दूसरे गांव में जाकर बाल कटाना पड़ता है या तो तहसील के मुख्यालय पर जाकर बाल कटाना पड़ता है।
- गांव में मृत्यु के उपरांत किए जाने वाले मृत्यु संस्कारों के लिए भी अलग-अलग अन्तेष्टि-स्थान हैं।
- इसी क्षेत्र में वर्चस्व की इतनी मान्यता है कि पाली जिले के एक कोविड-19 के स्वास्थ्यकर्मी जीतेंद्र मेघवाल को दो सवर्णों ने छुरा घोंप कर इसलिए जान से मार दिया था कि वह बड़ी-बड़ी मूछें रखता था। दलित द्वारा बड़ी मूछें रखा जाना, सवर्ण समुदाय-ख़ास करके राजपूत समुदाय के लिए नीचा दिखाने जैसा मानते हैं जिसे वे क़तई बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। यह इसी वर्ष की घटना है।
- यही नहीं 2019 में बीकानेर में शादी में दलित द्वारा घुड़चढ़ी देखकर सवर्णों ने उनके साथ मारपीट किया तथा उनके कारवां में शामिल एक मोटर वाहन को भी जला डाला।
- इतना नहीं बल्कि वहां शेरवानी पहन कर शादी करने पर भी सवर्णों को मानसिक कष्ट तथा दिल में जलन होती है।
यह केवल राजस्थान के बारे में ही सत्य नहीं है बल्कि इस तरह के हजारों उदाहरण देश के दूसरे भागों में भी देखने सुनने को मिलते रहते हैं। ऐसी घटनाएं एक तरफ़ पीड़ित व्यक्ति को मानसिक रूप से हतोत्साहित कर देती हैं वहीं दूसरी तरफ इस समुदाय के व्यक्तियों को भी आतंकित करती हैं।
अगोरा प्रकाशन की इस किताब को Amazon से मंगवाने के लिए यहाँ Click करें…
दलित छात्र की हत्या के उपरोक्त घटनाक्रम के आधार पर यह मानने का कोई औचित्य दिखाई नहीं देता कि दलितों की पढ़ाई से वहां का सवर्ण तबका ख़ुश रहा होगा। इसलिए दलितों को नीचा दिखाने के लिए तथा उन्हें उनके पुराने ज़माने की औक़ात याद दिलाने के लिए ऐसी घटनाएं, समय-समय पर अंजाम दी जाती हैं।
सवर्ण वर्चस्ववाद के प्रमाण स्वरूप यह भी दिखाई दे रहा है कि इस घटना के बाद सवर्ण राजपूत समुदाय के लोगों द्वारा पश्चाताप करने और माफ़ी मांगने की बज़ाय जातीय पंचायतें करके उस सवर्ण हेडमास्टर को बचाने के लिए वे लोग जी जान से जुटे हुए हैं। सवर्णों द्वारा भी इस घटना के विरुद्ध जिस मुखरता एवं प्रखरता सेदेश के कोने-कोने से शान्तिपूर्ण धरना-प्रदर्शन होने चाहिए थे, वे नहीं हुए। दलितों के ऊपर होने वाले ज़ुल्म के ख़िलाफ़ धरना-प्रदर्शन एवं आंदोलन को दलित संगठनों के हिस्से देकर उनके ऊपर छोड़ दिया गया है। ऐसी मानसिकता के होते हुए हम जातिवाद के ख़ात्मे एवं समाज के विभिन्न तबकों के बीच भ्रातृ-भाव द्वारा एकता होने के प्रति कैसे आश्वस्त हो सकते हैं? कुल मिलाकर यह सब घटनाक्रम इस बात को दर्शाते हैं कि राजस्थान के उस गांव में भौतिक छुआछूत से बढ़कर सवर्णों के मानसिक वर्चस्ववाद तथा अपने बड़े होने की हुंकार भरने का मामला अधिक है।
अगोरा प्रकाशन की इस किताब को Amazon से मंगवाने के लिए यहाँ Click करें…
राजनीतिक गलियारों की बात करें तो राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है जो ज़ाहिरा तौर पर केंद्र की भाजपा सरकार को भला क्यों सुहाने लगी? स्वाभाविक है कि ऐसी घटनाएं राजनीतिक दलों को एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने के काम आती हैं तथा ऐसी जलती हुई आग में घी डालकर सरकारों को डांवाडोल करके गिराने तथा अपनी सरकार बनवाने तक का खेल चलता रहता है। सत्ता हासिल करने के लिए दलितों-आदिवासियों की जान भी चली जाए तो स्वार्थी-सत्तालोलुपों को क्या फ़र्क पड़ता है ? यदि ऐसी घटनाएं राजनीतिक कारणों से प्रायोजित नहीं भी हैंतो भी उनसे फ़ायदा उठाने के लिए लोग तैयार बैठे हैं । ऐसे में हमें यह विचार करना होगा कि क्या देश में ऐसेसामाजिक-जातीय भेदभाव से स्थाई शांति कायम रह सकती है ? राजनीति की आलोचना करने वाले लोग यह क़तई स्वीकार नहीं कर सकते कि इन सब के मूल में हिन्दूवर्ण व्यवस्था जनित सामाजिक-धार्मिक कारण ही मुख्यत: सबसे बड़े कारण हैं जो आज भी जब के तहत मौज़ूद हैं। इसके लिए कोई और नहीं यह भारतीय समाज ही ज़िम्मेदार है। सरकारें एवंराजनीतिक दल भी तो हमारे सामाजिक यथार्थ की सत्य प्रतिलिपि ही हैं।
बीआर विप्लवी जाने-माने ग़ज़लकार, लेखक और चिंतक हैं।
[…] […]
हजारों साल से क्षत्रियों में जातीय उच्चता का अहंकार होने के कारण, गरीबों पर अमानवीय शोषण और अत्याचार करना ही अपना शौर्य और धर्म समझते हैं । इसके विपरित इतिहास में इनकी वीरता का नगण्य योगदान रहा है। अपने ही घरों में सभी मारे पीटे घसीटे गये है। जान बचाने के वीरता इतनी कि अपनी बहन बेटियों को भी दुष्मन के हवाले कर दिया । कहावत भी इनपर ही चरितार्थ है कि रस्सी जल गई पर ऐंठन नहीं गई। हमारा पिछड़ा वर्ग शूद्र अपने गौरवशाली पैदाइशी रिसर्चर, इन्जीनियर, टेक्नीशियन के रूप में उत्पादन कर्ता रहा, सभी प्राणी जाती को जीवनदान दिया, सभी धरोहरों को संजोकर रखा हुआ है। इतनी जानकारी होने के बावजूद आज भी मूर्खता में अहंकार बस क्षत्रिय बनने की होड़ में लगा हुआ है। दुखद है।