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वाराणसी : बहुत कठिन है काठ की कला में लगे हुये लोगों का जीवन

समय के साथ-साथ बहुत सी चीजें बदल रही हैं। जो चीजें कल तक अपने उठान पर थीं आज वे पीछे छूट गई हैं लेकिन उनसे जुड़े हुये लोग अभी भी इस उम्मीद में हैं कि उनकी आजीविका शायद मुसलसल चलती रहे। ऐसा ही हाल बनारस के लकड़ी की कारीगरी का है जो अब एक मुश्किल […]

समय के साथ-साथ बहुत सी चीजें बदल रही हैं। जो चीजें कल तक अपने उठान पर थीं आज वे पीछे छूट गई हैं लेकिन उनसे जुड़े हुये लोग अभी भी इस उम्मीद में हैं कि उनकी आजीविका शायद मुसलसल चलती रहे। ऐसा ही हाल बनारस के लकड़ी की कारीगरी का है जो अब एक मुश्किल दौर से गुजर रही है। एक ज़माना था जब साधारण जीवन में लकड़ी की चीजों की भरमार थी लेकिन अब उनमें से अनेक की जगह प्लास्टिक की चीजों ने ले ली है। ऐसे में उन्हें बनाने वाले कारीगरों ने उन्हें बनाना छोड़ दिया और दूसरे कामों में लग गए या फिर इसी काम में वे मजदूरी करने तक सिमट गए हैं। वाराणसी शहर के कश्मीरीगंज-खोजवाँ मोहल्ले में जहां कभी लकड़ी की गंध एक स्वाभाविक पहचान थी वह अब लगभग विस्मृत हो चुकी है। शहर के पश्चिमी छोर के एक गाँव करोमा में जब हमको पता लगा कि यहाँ लकड़ी के कारीगरों का एक पूरा समुदाय काम कर रहा है तो उनसे मिलने हम करोमा गाँव गए।

वाराणसी। अशोक शर्मा की उम्र लगभग पैंसठ साल है और अपने घर में वे तीसरी पीढ़ी के सदस्य हैं जिसने लकड़ी की कारीगरी में जीवन खपाया और

अशोक शर्मा

आजीविका के साथ नाम भी कमाया। वह कहते हैं कि ‘बनारस में जब हैंडीक्राफ़्ट का काम शुरू हुआ है लगभग तभी से उनके दादा उससे जुड़ गए। उनका नाम रामदौर विश्वकर्मा था और वह 1901 में पैदा हुये थे। अपनी युवावस्था में रामदौर विश्वकर्मा अपने गाँव से बनारस एक दुकान में काम करने आते थे। यह 1920 का समय था जब चौखंभा मोहल्ले में एक गुजराती परिवार था जिसका लकड़ी के खिलौने का एक कारख़ाना था। वहाँ कारीगरों को काम करते देख दादा के मन में जिज्ञासा पैदा हुई और एक-दो  बार वहां देखने के लिए चले गए। वहां के जो मालिक थे उनको देखा तो उनसे पूछा क्या काम आप कर सकते हो तो उन्होंने कहा क्यों नहीं कर सकतें हैं। तब उन्होंने कहा करना है तो करिए। उसी के दूसरे दिन अपना काम छोड़ वहाँ चले गए।

‘दादा जी धीरे-धीरे इस काम में पारंगत हो गए। कई साल वहाँ काम करने के दौरान उन्होंने और भी बहुत से लोगों को सिखाया। जो मालिक थे धीरे-धीरे उनकी ब्रांच कलकत्ता, मद्रास, बंबई,  दिल्ली में भी बन गई थी।  बनारस में सिर्फ़ उन्हीं का कारखना था और किसी का कारखना नहीं  था। कुछ दिनों बाद सरकार ने हाथी-दांत पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बाद उनके कारखाने में चंदन का काम शुरू हुआ और कुछ दिनों तक चला। लेकिन फिर चन्दन पर भी रोक लग गई। कुछ साल काम चलाने के बाद उन्होंने अपना कारखाना बंद कर दिया।  इससे कई लोग बेरोजगार हो गए। हालांकि अब मूल्यवान लकड़ियों पर नक्काशी का काम संभव नहीं रह गया था लेकिन दादाजी को लगा कि अभी भी इसमें संभावना है। उन्होंने अपना कारख़ाना खोल लिया और काम को आगे बढ़ाते गए। वह नए-नए कारीगर रखते गए और बहुत से मशीनें लाये, नए  औजार बनाए। दादा जी तो पहले ही काम सीख कर और लोगों को सिखाया था। उन्होंने बनारस में लक्ष्मीकुंड (लक्सा) के पास अपना कारखाना खोला। जिन कारीगरों ने काम सीखा था उनमें से भी कई लोगों ने बड़ी पियरी, लहरतारा आदि इलाकों में अपना कारखाना खोल लिया। इसके बाद  इसी तरह कारीगर बढ़ते गए। लोग धीरे-धीरे अपना कारखाना चालू किये  और अच्छे पैमाने में काम चलने लगा।

हाथी दांत पर दादा जी द्वारा बनया हुआ शिल्प।

‘हम लोग भी बनारस में रहकर पढाई किये और इसी काम में पिता जी के साथ लग गए। 1985 में दादा चल बसे इसके बाद पिता जी के कंधों पर कारखाने  की पूरी ज़िम्मेदारी आ गई। वैसे तो पिता जी बचपन से ही दादा जी के साथ कारखाने के काम लगे रहते थे।  उनके साथ काम सीखते थे। फिर भी मेरे पिता जी कारीगरी में बहुत आगे थे। उन्होंने फूलदान, नमकदानी, लैम्प, मूर्ति और कई दूसरे हैंडीक्राफ़्ट आदि बहुत तरह की चीजे बनायी। इस समय बनारस में मेरा घर भी है।  काशी विश्वनाथ के पास दुकान और शोरूम भी है।’

वह कहते हैं ‘अब हम कदंब और जामुन की लकड़ी पर काम कर रहे है। हम  लोग छः भाई हैं। दो भाई शोरूम देखते थे। बचे चार लोग तो ये लोग हैंडीक्राफ़्ट के काम में लगे रहते थे साथ ही दो-चार कारीगर और भी काम के लिए रखे गए थे। कोई कटिंग करता था, तो कोई कार्विंग का काम करता। सबके हिस्से में अलग-अलग काम थे।
जब हम लोगों की कम्पनी बनी तो हम कम्पनी के द्वारा माल बेचते थे। कम्पनी के नाम पर कारखाना भी था। उसमें थोड़े-बहुत कारीगर काम भी करते थे और जब हम लोगो के पास स्टाक नही रहता था तब ग्राहक आते थे ऑर्डर दे जाते थे और हम लोग किसी और से सामान खरीद कर उनके ऑर्डर को पूरा करते थे।

दादा रामदौर विश्वकर्मा तथा पिता पन्नालाल विश्वकर्मा के स्मृति चित्र

अशोक जी बताते हैं कि ‘आर्थिक स्थिति तो जब दादा जी काम शुरू किये तो सुधरने लगी और दिक्कतें  ख़तम हो गईं। दादा जी ने एक मकान से दो मकान, दो से तीन मकान कर लिए। इसके बाद उनका शोरूम का काम भी अच्छा चलता था लेकिन अब फिर आर्थिक दिक्कते आ गई हैं। पहले जब कोई कारीगर काम करता था तो उसके कामों पर अच्छी-खासी मजदूरी दी जाती थी। लेकिन अब काम अच्छा चाहिए और मजदूरी कम देते हैं। मेरा सामान महंगा जरूर रहता है लेकिन मेरे काम में सफाई होती है। और लोगों के यहाँ आप देखते होंगे कि अशोक स्तम्भ की मूर्ति बनायेंगे तो  शेर का मुंह समझ में नहीं आता है कि क्या वह शेर का मुंह है या किसी और जानवर का है। आज के समय में 12 इंच का जो अशोक स्तम्भ बन रहा है वह हम लोगों का 500 रुपये का पड़ेगा। घर पर मेन्युफेक्चरिंग में 300 का पड़ेगा और लोग जो बेच रहे हैं उन्हें  हमारा सामान महंगा पड़ रहा है।  लेकिन लगता है कि शेर है।  हम चाहते है कि एजेंटों को 10 रुपये और बढ़ा कर दें।  हमारे देश की कला और  विरासत विदेशों में जाये तो लोग कहें कि यह बनारस की कला है।  मैं जब दिल्ली या मुंबई में एक्जीबिशन लगाने जाना जाता हूँ तो देखता हूँ कि उन लोगों के अन्दर इस काम को लेकर कोई जागरूकता नहीं  है।  शेर है तो क्यों है? क्या होना चाहिए? जब तक अपने देश की कला को अपने देश में एक नई पहचान नहीं दी जाएगी।  जब तक यहाँ के लोगों को जागरूक नहीं किया जायेगा तब तक इस कला का विकास नहीं हो पायेगा। अपने देश के साथ-साथ विदेशों में भी आर्ट को लेकर महत्व मिलना चाहिए। विदेशों में आर्ट का बहुत महत्व है। हमारे कस्टमर जब दुबई से आते हैं तो दो-चार लाख का सामान लेकर जाते हैं।  इस काम को लेकर बदलाव होना चाहिए।’

रामजी विश्वकर्मा

अपने पुराने दिनों को याद करते हुये अशोक शर्मा के पड़ोसी रामजी विश्वकर्मा बताते हैं कि ‘1972 से ही हम हाथी दांत का काम करते थे।’ वह बताते हैं कि  करोमा गाँव में पट्टीदारी के हिसाब से सभी लोग हाथी दांत का काम करते थे। मैं खुद ही कई किलोमीटर साइकिल चलाकर तरना बाजार से शिवपुर फाटक से होते हुये अस्सी तक जाते थे।  इस काम में मुझे मेरे परिवार वाले लेकर आये क्योंकि पहले से ही मेरे चाचा के लड़के कालिका प्रसाद शर्मा इसी काम को करते थे। उन्होंने एक 14 बत्ती का बड़ा-सा लैम्प बनाया था जिसकी वजह से उनको दिल्ली से 1965 के लगभग नेशनल अवार्ड मिला था।’

रामजी बताते है कि ‘मेरी उम्र 72 के आस-पास है। मैं वहां से 1970-72 से जुड़ा। इसके बाद 2000 में नागर जी कारखाना बंद हो गया।  ब्रिजमोहन दास आकर लकड़ी का  काम बंद करा दिए।  वह बोले कि मशीन ले जाओ।  हम पार्टी बता दें रहे हैं। तुम लोग अपना माल बनाओ और बेचो। अब इतना दूर जयपुर कौन आये और जाये इसलिए छोटे-छोटे व्यपारी आते हैं तो हम उनको ही अपना माल बेचते हैं। जयपुर के लोग ले जाते हैं।  जयपुर से एक्सपोर्ट हो जाता है।  अभी भी मैं अपने कारखाने में 5-6 घंटे अपने बेटे के साथ काम करता हूँ। 1990 से मेरा बेटा भी यही काम करने लगा। वही अपना माल बेचता है। पहले जब हम लोग हाथी के दांत का काम करते थे तो 10 पीस बनाते थे और 800-900 कमा लेते थे। इस काम में गैर बिरादरी वालों को आने नहीं दिया जाता था।  सिर्फ विश्वकर्मा जाति के ही लोग काम करते थे। जब तक कारखाना चला तब तक वहां 20 से 25 विश्वकर्मा लोग ही काम करते थे। जब हाथी-दांत का काम होता था तब ये हाथी-दांत उड़ीसा और अफ्रीका से आता था।
रामजी कहते हैं कि हम लोगों ने काफी संघर्ष किये हैं। पहले हम लोग 9 बजे घर छोड़ देते थे। 22 किलोमीटर दूर मैदागिन जाते थे।  इसके बाद आधा घंटा पैदल चलकर जे आर कंपनी पहुचते थे। उसके बाद थोडा आराम करते थे।  फिर इसके बाद तीन घंटे तक मशीन चलाते थे। इसके बाद लंच होता था, इसके बाद फिर शाम पांच बजे तक मशीन चलती थी। जब हम लोगो के घर आने का समय होता था तो  सेठ लोग बोलते थे कि जिसको एक-दो घंटा और काम करना है तो ले जाओ।  तब  हम लोग चार पैसा और कमाने के लिए 400-500 का काम लेकर आ जाते थे और 7-8 बजे तक घर पहुचते थे। उन दिनों एक कड़ा की मुरेरी काटने की 4 रुपये होते थे।  दो घंटे का समय निकाल कर हम लोग 20 से 25 कड़ा काटते थे और 5 से 6 हजार महीना तक कमा लेते थे।

संदीप विश्वकर्मा

संदीप विश्वकर्मा युवा हैं और अशोक शर्मा के भतीजे हैं। इस काम को लेकर उनकी कई योजनाएँ हैं जिनमें से एक पर उन्होंने काम पूरा कर लिया है। प्रगति पथ फ़ाउंडेशन नामक संगठन के दीपक पुजारी और नीलम पटेल की प्रेरणा से उन्होंने श्रीविश्वकर्मा वुड कार्विंग प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड नामक कंपनी बनाई है और पिछले वर्ष कंपनी ने साठ लाख का कारोबार किया था जो बहुत उत्साहजनक है।

संदीप बताते हैं कि जो हमारे कारखानेदार है किसी के मातहत रह कर कारीगर का काम कर रहे हैं। उनकी मदद के लिए हमने लोगों के साथ एक छोटा-सा एग्रीमेन्ट किया है। सरकार ने कोरोनाकाल में वाल्मीकि फंड दिया था कंपनी को चलाने के लिए, लेकिन उस समय तो काम चल नहीं रहा था। तो हम लोगों ने ऐसा उपाय किया जिससे कारीगर जीवित रहें और कारखाने भी चलते रहें। हमलोगों ने किसी को 25 हजार तो किसी को पचास हजार दिया और इस तरह  हमने 4, 6, 10 लोगों को दिया था। बाद में वे लोग पैसा वापस कर देते है। इन सारे कारीगरों के पास जमीन है। इनमें सारी जाति के लोग हैं – विश्वकर्मा, लोहार, पासी, यादव सभी काम करने वाले हैं लेकिन इनमे से ज्यादातर समूह विश्वकर्मा ही  हैं। यह हमारी तीसरी पीढ़ी है। पन्ना लाल विश्वकर्मा मेरे पिता जी के मामा जी हैं। ये अपने ज़माने में बहुत बड़े आर्टिस्ट थे। इन्हीं के पुत्र अशोक शर्मा जी हैं। मेरे दादा जी सीताराम विश्वकर्मा के ज़माने में हाथी-दांत पर काम होता था, फिर चंदन लकड़ी में आया फिर धीरे-धीरे कार्विंग वुड में आया।  चंदन काफी महंगा हो गया। गवर्नमेंट ने बैन कर दिया।

‘अब सरकार द्वारा सुविधा मुहैया कराई जाती है जिसके तहत औजार वितरण होता है।  पांच से सात हजार तक का औजार मिलता है। साथ ही टेक्सस्टाइल विभाग के द्वारा ट्रेनिंग प्रोग्राम चलता है जो नही सीखे हैं या कम सीखे है,वे सीखने के लिए आते हैं। उनको दैनिक 300 रुपया दिया जाता है। एक घंटे में कारीगर 500 या 600 कमा लेता है। सारनाथ और काशी विश्वनाथ लोकल बाजार हैं। यहां जो टूरिस्ट आते हैं वे जो कम दाम के प्रोडक्ट हैं उन्हें ले जाते हैं।

‘कारीगर और बाजार के बीच हम लोग ही आते हैं। हम ही लोग बनाते हैं। जो व्यापारी जानते हैं वे आते हैं। ऑर्डर देकर दो या चार दिन में लेकर चले जाते हैं।  बहुत सारे व्यापारी दिल्ली और मुंबई में भी हैं। टीएफसी (ट्रेड फेसिलिटेशन सेंटर) में दुकानें बनी हुई हैं।  6000 रुपया मासिक शुल्क लेते हैं। वहां कोई खास कोई बिक्री नहीं होती है। वहां ज्यादा कोई भीड़-भाड़ की जगह भी नही है। महीने में अगर 2 या 4 हजार का सामान बिक गया तो न उसमें कोई खर्चा निकलेगा न कोई फायदा होगा।

टर्निंग मशीन चलाते हुये कारीगर

आर्टिजन के लिए हम लोगों ने टेंडर भी डाला था लेकिन सरकार ने जब रेट लगाया तो दुकानें इतनी महंगी थीं हमारी पहुँच से बाहर ही रहीं। या तो दुकानें सस्ती हों या सरकार हम लोगों को कुछ सालों के लिए सब्सिडी के रूप में दे ताकि हम लोग वहां स्टेबल हो पाएँ। हम लोग बड़े व्यापारी नही हैं। वहां कम से कम एक लाख पचीस हजार का तो हर महीने खर्चा  है। जब बीस लाख का माल बिकेगा तो 20 % ही कमा पाएंगे न। उसमें से दो लाख मेंटेनेंस में निकाल देंगे। स्टाफ का अलग और मेरा खर्चा आने-जाने का खर्चा है। कुल मिलाकर
बहुत फायदे का मामला नहीं है। हालांकि सरकार का नज़रिया साफ़ है लेकिन मिला-जुला रवैया है, क्योंकि  वह अपने स्तर पर प्रोग्राम निकाल रही है। जगह-जगह एग्जिबिशन लगवा रही है। हर बिजनसमैन को खाना-पीना रहना दिया जा रहा है।

हम लोगों का प्रयास रहता है कि बिचौलिएँ हटें। हम लोगों को ऐसा एजुकेशन दिया जाए कि हम काम को बहुत आगे ले जा सकें। एक्सपोर्ट करने के लिए बाहर भेजा जाए। हम लोग एग्जिबिशन यहाँ लगा रहे हैं  क्योंकि हम लोग भी बार बार एक ही जगह लगाकर थक गए हैं। हम लोगों को एक स्थाई बाजार दिया जाए। जैसे हम लोगो को काशी विश्वनाथ के पास एक दुकान मिल जाती तो अच्छा होता क्योंकि वह भीड़-भाड़ का इलाका है वहां आराम से चार-पांच हजार की कमाई हो जाती। वहां एक आर्टीजन बैठता जिसकी आजीविका आराम से चल जाती। इससे एक अच्छा बाजार हम लोगों मिलता लेकिन सरकार इस पर ध्यान ही नहीं दे रही है।

काठ को तराशता कारीगर

संदीप विश्वकर्मा इस कला के भविष्य के बारे में बहुत निराशा व्यक्त करते हैं। वह कहते हैं कि ‘जो आगे दिख रहा है वह अंधकारमय है। आगे क्या होगा कुछ भी सुनिश्चित नहीं है। इसके बावजूद हम लोग प्रयास कर रहे हैं कि इसे बचाया जा सके और कार्विंग कलाकारों को बेहतर काम मिले ताकि उनका जीवन इस काम से अच्छी तरह चल सके। हम लोग प्रयास कर रहे हैं कि आर्टीजन को बचाया जाये।’

अशोक शर्मा कहते हैं कि ‘एक समय था जब एक कारीगर एक दिन में 800-900 रुपए कमा लेता था लेकिन आज इसका बाजार सिकुड़ गया है, ऐसे में इसका असर उत्पादक और मजदूर दोनों पर पड़ रहा है।’

अशोक शर्मा के घर में सात कारीगर काम कर रहे थे। हमने वहाँ देखा कि लकड़ी के बुरादा चारों ओर बिखराय हुआ है और उससे बचने के लिए कारीगरों ने अपने मुंह ढँक रखे हैं। ज़्यादातर अशोक स्तम्भ की अनुकृतियाँ बन रही हैं। दूसरे कमरे में पॉलिश करने और फिनिशिंग का काम हो रहा है।

संदीप ने बताया कि ‘करोमा में उनकी कंपनी में इस समय लगभग 40-45 लोग काम करते हैं। हालांकि अभी कारखाने में केवल पैकेजिंग का काम होता है क्योंकि कार्विंग का काम आर्टिजन्स को बाँट दिया जाता है। कोई भी कलाकृति छ: स्टेज से होकर पॅकिंग के लिए आती है। जिसमें लकड़ी की कटिंग,शैप, टर्निंग, कार्विंग, घिसाई, पॉलिश  होने के बाद ही पैकिंग के लिए तैयार होती है। जो आर्टिजनस जिस काम में माहिर होता है उसे वही काम दिया जाता है।’

अशोक शर्मा के पड़ोस में ही स्व. जोखू विश्वकर्मा का कारख़ाना है। उनके बेटों ने जयपुर में इस काम को बड़े पैमाने पर शुरू किया है और यहाँ भी उनका माल तैयार होता है। तलघर में इस समय करीब बीस कारीगर काम करते हैं और पहली मंजिल पर महिला कामगारों के काम के लिए जगह बनाई गई है।

कारोमा में लकड़ी पर कारीगरी का  काम करने वाले मनोज कुमार ने बताया कि 2006 में वे आगरा गए थे और वहाँ पत्थर पर कारीगरी का काम करने लगे थे लेकिन 2016 में काम मंदा होने के कारण मन नहीं लगने की वजह से वहाँ से घर वापिस आ गए और यह लकड़ी पर काम करने लगे। वाराणसी में हमारा घर भी है, तब से यहीं रहकर काम कर रहे हैं। प्रति घंटा 60/- हमें  मिलता है। आठ से दस घंटे काम करता हूँ। 100 से 150 पीस तक बना लेना हूँ।’ हमने देख उनके आसपास सैकड़ों लकड़ी के अशोक स्तम्भ के छोटे नमूने बने हुए बिखरे हुए थे।

प्रमोद

कक्षा आठ तक पढे प्रमोद कुमार, जो हाल ही में तीन महीने पहले इस काम में आए। वे अभी ट्रैनिंग पीरियड  में हैं। इस वजह से उन्हें अभी 30/- ही प्रति घंटे के हिसाब से मजदूरी मिल रही है। वह कहते हैं ‘कोई न कोई काम तो करना ही पड़ेगा, पेट पालने के लिए। इस वजह से अपने जीजा के साथ यहाँ आया और अब सीख रहा हूँ। दस घंटे काम करके 300/- प्रतिदिन कमा लेते हैं।’

इसी तरह गणेश कुमार बताते हैं कि वह 20 साल से यही काम कर रहे हैं। ‘2004 में जयपुर में अपना कार्विंग का काम शुरू किया था, जहां चार मजदूर काम करते थे लेकिन लॉकडाउन लगने से वापस आना पड़ा। बहुत नुकसान हुआ और इस वजह से मुझे नौकरी करनी पड़ी। पहले वुड कार्विंग चंदन की लकड़ी पर होता था तो उस समय इस काम की बहुत मांग थी और बहुत अच्छा चलता था लेकिन चंदन की लकड़ी पर रोक लगने से यह काम मंदा पड़ गया। अब वह रौनक नहीं है जो पहले हुआ करती थी। मैंने कार्विंग का काम अपने सीनियर से सीखा। अभी मुझे 12-15 रुपए प्रति पीस मजदूरी मिलती है।’

मैंने पूछा ‘कितना बना लेते हैं?’ जवाब में गणेश ने बताया कि ‘25 पीस बना लेता हूँ। 400-500 रुपये का काम हो जाता है।‘

करोमा के ही निवासी विनोद कुमार भी बीस साल से इस काम को कर रहे हैं। कलमदान बनाते हुए उन्होंने बताया कि हमें इतना अनुभव हो गया है कि हम बिना डिजाइन बनाए हुए ही लकड़ी पर डिजाइन बनाते हैं। ‘एक दिन में 400-500 रुपये तक का काम कर लेता हूँ। हफ्ते में एक दिन छुट्टी मिलती है जिसका पैसा नहीं मिलता। मतलब जितना काम करेंगे उतना ही पैसा मिलेगा। और किसी भी तरह की कोई सुविधा नहीं मिलती।’ विनोद के तीन बच्चे हैं लेकिन इस काम में कोई नहीं आया। सभी अच्छी पढ़ाई कर रहे हैं। इनका एक बेटा बीएससी में है, एक इन्टर में और एक बीटीसी कर रहा है।

शिल्पकारी करता कारीगर

इस कारखाने में 18-20 लोग अलग-अलग काम कर रहे थे। उन्होंने बताया कि सभी लोगों को सब काम आता है। काम की शुरुआत के समय मालिक तय करता है कि किसे कौन सा काम करना है। विनोद ने बताया कि उन्हें टर्निंग का काम छोड़कर सभी काम आता है। इस कारखाने में कटाई, टर्निंग, कार्विंग, घिसाई, पॉलिश का काम हो चल रहा था। टर्निंग के काम के लिए अलग लोग हैं, जो मशीन चलाने में माहिर होते हैं। बाकी सभी काम धीरे-धीरे सभी लोग सीख लेते हैं।

टर्निंग का काम करते हुए विजय कुमार को 25-30 साल हो गए हैं। टर्निंग का काम थ्री-चक मशीन पर होता है। चार मशीनें चल रही है, जहां लकड़ी की छोटी-छोटी डिब्बियाँ बन रही थीं। प्रति डिब्बी एक रुपया मिलता है, 500-600 पीस बना लेते हैं। विजय कुमार सुबह 5 बजे अपने काम पर आ जाते हैं और दस बजे नहाने-खाने जाते हैं और फिर 12 बजे तक वापस आकर 7-8 बजे तक काम करते हैं। बच्चे पढ़ रहे हैं और वे इस काम में नहीं आएंगे, पढ़-लिखकर नौकरी करेंगे। वह कहते हैं कि ‘अपना काम शुरू करने के लिए मशीन लाकर रखा हूँ लेकिन मोटर नहीं है। पैसे की व्यवस्था होते ही मोटर खरीदूँगा।’ ‘कितने की आती है मोटर?’ उन्होंने बताया 3500/- की।

पूरे कारखाने मशीन चलाने के लिए बिजली के तार फैले हुए थे। और सिर के ऊपर बल्ब जल रहे थे ताकि काम के लिए सही रोशनी उन तक पहुंचे। विनोद ने बताया कि जरा सी असावधानी से बिजली का करंट लगने का खतरा हमेशा बना रहता है।

पूरे काम के दौरान हम जितने भी लोगों से मिले सबकी अपनी कुछ आकांक्षाएँ और सपने हैं। वे जी जान से इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि इस काम का भविष्य उज्ज्वल हो जिससे दाल-रोटी चलती रहे। सभी किसी न किसी रूप में एक दूसरे पर निर्भर हैं लेकिन उत्पादकों की तरह कारीगरों के पास काम को अधिक आगे ले जाने के लिए कोई खास परियोजना नहीं है। बेहिसाब मेहनत के बावजूद कारीगरों का हासिल किसी तरह घर चला लेना ही है। वे अपने बच्चों को इसमें नहीं आने देना चाहते क्योंकि इसमें धूल, बुरादे, थकान और असुरक्षा के अलावा बहुत कुछ नहीं है। इसीलिए सब अपने बच्चों को दूसरे कामों में एक सुरक्षित भविष्य देने की कोशिश कर रहे हैं।

बेशक संदीप विश्वकर्मा जैसे युवा व्यवसायी अपने लिए अनेक विकल्पों को टटोल रहे हैं और निर्मम बाज़ारवाद के भीतर अपने भविष्य की सुनहरी किरणें तलाश रहे हैं। करोमा वुड कॉर्विंग में अब एक जाना-पहचाना नाम हो रहा है। उसकी जीआई पहचान है और हम उम्मीद कर सकते हैं कि आनेवाला समय काष्ठ कला के लिए बेहतर होगा!

 

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।
1 COMMENT
  1. बहुत यथार्थपरक लेख है! बाज़ारवाद की विषमताओं से आम वर्ग का संघर्ष बहुत बढ़ गया है! इतनी सारी बातें पता चलीं, अच्छा लगा! सरकार को और अच्छी नीतियाॅं बनानी चाहिए जिससे युवा पीढ़ी उत्साह से जुड़े और यह कलात्मक कार्य जोर-शोर से चल निकले! संदीप जी को आशीर्वाद! आज युवा वर्ग देश-विदेश में अपने बिज़नेस को इंटरनेट के माध्यम से आगे बढ़ा सकता है!

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