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बहुजनों के समक्ष शेष विकल्प आज़ादी की लड़ाई

आज दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं दिखता जो लोकतान्त्रिक क्रांति के अनुकूलतम हालात का सद्व्यवहार कर सके। जिनमें संभावना थी, वे अब शासकों के दलाल में रूप में तब्दील होते नज़र आ रहे हैं। इससे निश्चय ही ही बहुजनों के आजादी की लड़ाई प्रभावित होगी। लेकिन नेतृत्व की कमी को यदि बहुजन बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट चाहें तो दूर कर सकते हैं। इसके लिए उन्हे अतिरिक्त बोझ वहन करना पड़ेगा।

आज 15 अगस्त है। भारत का स्वाधीनता दिवस! 78 साल पूर्व आज ही के दिन भारत के लोग विदेशियों की हजारों साल लंबी गुलामी झेलकर आज़ाद हुये थे। 1947 का वह दिन था भारत के निर्माण का हर प्रकार की विषमता से पार पाने का संकल्प लेने तथा उस संकल्प को पूरा करने का। इस विषय में आज़ादी के बाद का भारत नामक ग्रंथ में सुप्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चंद्र- मृदुला मुखर्जी- आदित्य मुखर्जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है। उन्होंने लिखा  है –‘भारत की आज़ादी इसकी जनता के लिए एक ऐसे युग की शुरुआत थी, जो एक नए दर्शन से अनुप्राणित था। 1947 में देश अपने  आर्थिक पिछड़ापन, भयंकर गरीबी, करीब-करीब व्यापक तौर पर फैली महामारी, भीषण सामाजिक विषमता और अन्याय के उपनिवेशवादी विरासत से उबरने के लिए अपनी लंबी यात्रा की शुरुआत थी।

15 अगस्त पहला पड़ाव था, यह उपनिवेश राजनीतिक नियंत्रण में पहला विराम था : शताब्दियों के पिछड़ेपन को अब समाप्त किया जाना था, स्वतन्त्रता के वादों को पूरा किया जाना था। भारतीय राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना था तथा राष्ट्रीय राजसत्ता को विकास एवं सामाजिक रूपान्तरण के उपकरण के रूप में विकसित एवं सुरक्षित रखना सबसे महत्वपूर्ण काम था। यह महसूस किया जा रहा था कि भारतीय एकता को आँख मूंदकर मान नहीं लेना चाहिए। इसे मजबूत करने के लिए यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत में अत्यधिक क्षेत्रीय, भाषाई, जातीय एवं धार्मिक विभिन्नताएँ मौजूद हैं। भारत की बहुतेरी अस्मिताओं को स्वीकार करते एवं जगह देते हुये तथा देश के विभिन्न तबकों को भारतीय संघ में पर्याप्त स्थान देकर भारतीयता को और मजबूत किया जाना था।’

‘वोट के जरिये लोकतान्त्रिक क्रांति के जो हालात आज भारत में पैदा हुए हैं, वैसे हालत विश्व इंतिहा में कभी किसी देश में उपलब्ध नहीं रहे। इस हालात में परस्पर शत्रुता से लबरेज मूलनिवासी समुदायों में क्रांति के लिए जरुरी ‘हम-भावना’(we-ness) का तीव्र विकास का तीव्र विकास हुआ। कॉमन वंचना ने बहुजनों को शक्तिसंपन्न वर्गों के विरुद्ध ‘हम-भावना’ से लैस करना शुरू कर दिया है. इस भयावह विषमता का सदव्यवहार कर बहुजन साहित्यकार वोट के जरिये क्रांति घटित करने लायक हालात बनाने में जुट गए हैं।’

यह सपना है उस आज़ाद भारत का जिसे 16 अगस्त, 1947 के ही दिन से मूर्त रूप देने में जुट जाना था। पर आजादी के 74  सालों बाद क्या हुआ उस सपने का और क्या है उसका वास्तविक चित्र आज भले ही देश विश्व आर्थिक महाशक्ति बनने का दावा करे पर, सच्चाई है रोग-व्याधि, अशिक्षा के मामले मे हम विश्व चैंपियन है। जिस लोकतन्त्र हमारे गर्व का अंत नहीं है, उस लोकतन्त्र के मंदिर पर 2050 तक बंदूक के बल पर कब्जा जमा लेने की चुनौती एक तबके की ओर से दी जा चुकी है। विभिन्न अंचलों में छोटे-बड़े राज ठाकरों का उदय देश की अखंडता को चुनौती पेश कर रहा है। हम महिला सशक्तिकरण के मोर्चे पर बांग्लादेश, नेपाल इत्यादि अत्यंत पिछड़े प्रतिवेशी मुल्कों से भी पीछे हैं। सच्चर रिपोर्ट में उभरी मुस्लिम समुदाय के बदहाली की तस्वीर राष्ट्र को सकते में डाल चुकी है।

 शासकों ने संविधान निर्माता के चेतावनी की अनदेखी 

सबसे दुखद बात तो यह है कि 25 नवंबर,1949 को राष्ट्र को संविधान सौंपने के एक दिन पूर्व संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. अंबेडकर मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या, आर्थिक और सामाजिक विषमता से पार पाने के लिए राष्ट्र को जो चेतावनी दी थी, उसकी भी शासकों ने बुरी तरह अनदेखी कर दिया। स्मरण रहे डॉ. अंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को संसद के केंद्रीय कक्ष से राष्ट्र को सावधान करते हुये कहा था कि 26 जनवरी 1950 से हम एक विपरीत जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति के क्षेत्र में हम समानता का भोग करेंगे, किन्तु आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में मिलगी भीषण असमानता। हमें इस असमानता को निकटतम भविष्य के मध्य खत्म कर लेना होगा नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता लोकतन्त्र के उस ढांचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से तैयार किया है।

अगर बाकी बातें  भूलकर स्वाधीन भारत के हमारे शासक सिर्फ और सिर्फ आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के मोर्चे पर सर्व-शक्ति लगाया होता, आज़ादी के सपनों को हासिल कर लिया गया  होता। किन्तु इसके लिए उन्हे शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागू करनी पड़ती अर्थात शक्ति के स्रोतों का सवर्ण, ओबीसी, एससी/एसटी और धामिक अल्पसंख्यकों के मध्य  वाजिब बंटवारा करना पड़ता।  लेकिन  लोकतन्त्र के ढांचे के विस्फोटित होने कि संभावना को देखते हुये भी हमारे शासक, जो जन्मजात विशेषाधिकारयुक्त व सुविधाभोगी वर्ग अर्थात सवर्ण वर्ग से रहे, अपने स्ववर्गीय हित के हाथों मजबूर होकर विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा कराने की दिशा में अग्रसर न हो सके।  परन्तु शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा न कराने के बावजूद भी 7 अगस्त, 1990 को मण्डल की  रिपोर्ट प्रकाशित होने के पूर्व तक वे भारत के जन्मजात वंचितों के प्रति कुछ- कुछ सदस्य बने रहे, इसलिए संविधानगत कुछ-कुछ अधिकार देकर शक्ति के स्रोतों में प्रतीकात्मक ही सही, कुछ-कुछ शेयर वंचितों को देते रहे।

‘जिस नवउदारवादी नीति की शुरुआत नरसिंह राव ने किया एवं जिसे भयानक हथियार के रूप इस्तेमाल किया मोदी ने, उसके फलस्वरूप आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के सवर्णों जैसा शक्ति के स्रोतों पर पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है। आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें  80-90 प्रतिशत फ्लैट्स जन्मजात सुविधाभोगी सवर्णों के हैं।मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दुकानें इन्हीं की है। चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हीं की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल प्राय इन्हीं के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्हीं का है।’

किन्तु मण्डल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के अगले दिन से वंचितों के प्रति उनकी करूणा शत्रुता में बदल गई और वे शक्ति के स्रोतों से वंचितों को दूर धकेलने के षडयंत्र  में लिप्त हो गए। बाद मे 24 जुलाई, 1991 को वंचितों को संवैधानिक अवसरों से महरूम करने के लिए नरसिंह राव ने भारत की धरती पर लागू कर दिया नवउदरवादी अर्थनीति, जिसे उनके बाद अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह ने भी आगे बढ़ाने में कोई कमी नहीं की। किन्तु, इस मामले में किसी ने सबको बौना बनाया तो वह रहे वर्तमान प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी!

बहुजनों के समक्ष आज़ादी की लड़ाई मे उतरने के अलावा कोई विकल्प नहीं 

जिस नवउदारवादी नीति की शुरुआत नरसिंह राव ने किया एवं जिसे भयानक हथियार के रूप इस्तेमाल किया मोदी ने, उसके फलस्वरूप आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में भारत के सवर्णों जैसा शक्ति के स्रोतों पर पर औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा नहीं है। आज यदि कोई गौर से देखे तो पता चलेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें  80-90 प्रतिशत फ्लैट्स जन्मजात सुविधाभोगी सवर्णों के हैं।मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दुकानें इन्हीं की है। चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हीं की होती हैं. देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल प्राय इन्हीं के हैं. फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्हीं का है।

संसद, विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है. मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं. न्यायिक सेवा, शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया,धर्म और ज्ञान क्षेत्र में भारत के सवर्णों जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया में कहीं नहीं है। आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में परम्परागत विशेषाधिकारयुक्त व सुविधाभोगी वर्ग का ऐसा दबदबा नहीं है। इस दबदबे ने बहुसंख्य लोगों के समक्ष जैसा विकट हालात पैदा कर दिया है, ऐसे से ही हालातों में दुनिया के कई देशों में शासक और गुलाम वर्ग पैदा हुए, ऐसी ही परिस्थितियों में दुनिया के कई देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए। ऐसे ही हालातों में अंग्रेजों के खिलाफ खुद भारतीयों  ने स्वाधीनता संग्राम छेड़ा था।  अतः आज विगत 74 सालों से आज़ादी के सुफल से वंचित बहुजनों के समक्ष अपनी मुक्ति की लड़ाई में उतरने का संकल्प लेने से भिन्न कोई विकल्प ही नहीं बचा है.

हिन्दू राष्ट्र के आईने में बहुजनों के लिए जरूरी है आज़ादी की लड़ाई में उतरना !

आज की तारीख में बहुजनों को इस बात में रत्ती भर भी संदेह में नहीं रहना चाहिए कि मोदी तीन तलाक कानून, अनुच्छेद 370 का खात्मा, राम मंदिर निर्माण इत्यादि संघ के खास–खास एजेंडों को लागू कर चुके हैं और उनका एक लक्ष्य रह गया है : हिन्दू राष्ट्र की घोषणा । ऐसा होने पर भारत आंबेडकर के संविधान की जगह उन हिन्दू धर्माधारित क़ानूनों द्वारा परिचालित होगा, जिसमें  शूद्रातिशूद्रों के लिए शक्ति के स्रोतों का भोग अधर्म घोषित किया गया है। हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए ही मोदी सारा कुछ-सरकारी कंपनियाँ, बैंक, रेल, हवाई और बस अड्डे इत्यादि – निजी हाथों में देने के लिए जुनून की हद तक जुटे हैं।

मोदी राज में भारत का रियासतीकरण 

मात्र 70 साल में ही बाजी पलट गई। जहाँ से चले थे उसी जगह पहुंच रहे हैं हम। फर्क सिर्फ इतना है कि दूसरा रास्ता चुना गया है और इसके परिणाम भी ज्यादा गम्भीर होंगे।

1947 जब देश आजाद हुआ था। नई नवेली सरकार और उसके मंत्री देश की रियासतों को आजाद भारत का हिस्सा बनाने के लिए परेशान थे। तकरीबन 562 रियासतों को भारत में मिलाने के लिए साम- दाम- दंड- भेद की नीति अपना कर अपनी कोशिश जारी रखे हुए थे,  क्योंकि देश की सारी संपत्ति इन्हीं रियासतों के पास थी। कुछ रियासतों ने नखरे भी दिखाए, मगर कूटनीति और चतुर नीति से इन्हें आजाद भारत का हिस्सा बनाकर भारत के नाम से एक स्वतंत्र लोकतंत्र की स्थापना की। और फिर देश की सारी संपत्ति सिमट कर गणतांत्रिक पद्धति वाले संप्रभुता प्राप्त भारत के पास आ गई। धीरे-धीरे रेल, बैंक, कारखानों आदि का राष्ट्रीयकरण किया गया और एक शक्तिशाली भारत का निर्माण हुआ।

मात्र 70 साल बाद समय और विचार ने करवट ली है। फासीवादी ताकतें पूंजीवादी व्यवस्था के कंधे पर सवार हो राजनीतिक परिवर्तन पर उतारू है। लाभ और मुनाफे की विशुद्ध वैचारिक सोच पर आधारित ये राजनीतिक देश को फिर से 1947 के पीछे ले जाना चाहती है। यानी देश की संपत्ति पुनः रियासतों के पास! लेकिन ये नए रजवाड़े होंगे कुछ पूंजीपति घराने और कुछ बड़े बड़े राजनेता निजीकरण की आड़ में पुनः देश की सारी संपत्ति देश के चन्द पूंजीपति घरानों  को सौंप देने की कुत्सित चाल चल रहे हैं। उसके बाद क्या ..?

निश्चित ही लोकतंत्र का वजूद खत्म हो जाएगा। देश उन पूंजीपतियों के अधीन होगा जो परिवर्तित रजवाड़े की शक्ल में सामने उभर कर आयेंगे।‘

उपरोक्त हालात क्या आँख में अंगुली डाल कर यह नहीं बताते कि आज की तारीख में बहुजनों के समक्ष एक नए स्वतन्त्रता संग्राम मे कूदने से भिन्न कोई विकल्प ही नहीं बचा है!

बहुजन मुक्ति की लड़ाई का मॉडल बना दक्षिण अफ्रीका 

वैसे तो जिन हालातों में सारी दुनिया में क्रांतियां हुईं, स्वाधीनता आन्दोलन संगठित हुए, भारत में वे सारे हालात विगत 10 सालों में बड़ी तेजी से पूंजीभूत हो चुके हैं। अब यहाँ प्रश्न उठता है कि बहुजन अपनी मुक्ति के लिए किस देश को मॉडल बनाये? कभी इस देश में वंचितों की लड़ाई लड़ने वाले संगठन रूस और चाइना को मॉडल बनाते रहे हैं।ऐसे लोगों की संख्या में आज भारी कमी जरुर आई है, किन्तु रूस और चाइना की खूनी क्रांतियों से प्रेरणा लेकर बन्दूक के बल पर सत्ता कब्जाने का सपना देखने वालों से यह देश आज भी पूरी तरह मुक्त नहीं हुआ है। लिहाजा खूनी क्रांति के जरिये शोषकों से पार पाने का सपना देखने वाले आज भी मौजूद हैं। लेकिन याद रहे जिन लोगों ने भारत में खूनी क्रान्ति  का मुहिम चलाया है, वे सवर्ण समुदाय से रहे हैं।उन्होंने वोट के जरिये भारत मे घटित होने वाली लोकतान्त्रिक क्रांति के अनुकूलतम हालात को व्यर्थ करने के लिए ही खूनी क्रांति का आह्वान किया और निरीह वंचित युवाओं को इससे जोड़ा भी।

‘दक्षिण अफ्रीका के गोरों ने जहां दो सौ साल पहले उपनिवेश कायम किया, वहीं भारत के आर्यों ने साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व दक्षिण अफ्रीका के विदेशागत गोरे शासकों ने जहां बन्दूक की नाल पर पुष्ट कानून के जरिये मूलनिवासियों को जानवरों जैसी स्थिति में पड़े रहने के लिए विवश किया, वहीं भारत के मूलनिवासियों को मानवेतर प्राणी में तब्दील व अधिकारविहीन करने के लिए प्रयुक्त हुआ धर्माधारित कानून, जिसमें  मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य घोषित करते हुए ऐसे–ऐसे प्रावधान तय किये गए, जिससे मूलनिवासी चिरकाल के लिए शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत होने के साथ ही निःशुल्क-दास में परिणत होने के लिए अभिशप्त हुए।’

बहरहाल मोदी राज में जिनको जन्मजात शोषकों के खिलाफ संगठित होने के लिए विवश होना पड़ रहा है, उनकी मानसिकता फुले, शाहूजी, पेरियार, डॉ.आंबेडकर, कांशीराम, जगदेव प्रसाद, रामस्वरुप वर्मा इत्यादि के समतावादी विचारों से पुष्ट है। लोकतंत्र और भारतीय संविधान में अपार आस्था रखने वाले ये लोग ईवीएम में क्रांति के जरिये सत्ता दखल कर अपनी वंचना से मुक्ति पाना चाहते हैं। लिहाजा इनके लिए चीन और रूस जैसे देश मॉडल नहीं बन सकते। ऐसे में सवाल पैदा होता है अगर रूस और चीन नहीं तो फिर किस देश को मॉडल बनाकर भारत के जन्मजात वंचित अपनी मुक्ति की लड़ाई लड़ें। मेरा जवाब है दक्षिण अफ्रीका और सिर्फ दक्षिण अफ्रीका! हालाँकि विविधतामय अमेरिका भी बहुजनों के लिए मॉडल के रूप में चिन्हित हो सकता है, जिससे प्रेरणा लेकर वे वोट के जरिये क्रांति घटित कर अपनी समस्यायों का हल ढूंढ सकते हैं। किन्तु इस मामले में दक्षिण अफ्रीका का कोई जोड़ नहीं है।

भारत और दक्षिण अफ्रीका में कितनी समानता 

स्मरण रहे दक्षिण अफ्रीका विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जिसकी भारत से सर्वाधिक साम्यताएं हैं. दक्षिण अफ्रीका में 9-10  प्रतिशत अल्पजन गोरों, प्रायः 79 प्रतिशत मूलनिवासी कालों और 10-11 प्रतिशत कलर्ड (एशियाई उपमहाद्वीप के लोगों) की आबादी है। वहां का समाज तीन विभिन्न नस्लीय समूहों से उसी तरह निर्मित है जैसे विविधतामय भारत समाज अल्पजन सवर्णों, मूलनिवासी बहुजनों और धार्मिक अल्पसंख्यकों से. जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में विदेशागत गोरों का शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा रहा है, ठीक उसी तरह भारत में 15 प्रतिशत सवर्णों का 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा कायम है।

जिस तरह दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासी बहुसंख्य हो कर भी शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रहे, प्रायः वैसे ही भारत के मूलनिवासी दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबके भी हैं। जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में सभी स्कूल, कॉलेज, होटल, क्लब, पॉश कालोनियां, रास्ते मूलनिवासी कालों के लिए मुक्त नहीं रहे, प्रायः वही स्थिति भारत के मूलनिवासियों की रही. जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में सभी सुख-सुविधाएं गोरों के लिए सुलभ रही, उससे भिन्न स्थिति भारत के सवर्णों की भी नहीं रही। जिस तरह दक्षिण अफ्रीका का सम्पूर्ण शासन तंत्र गोरों द्वारा गोरों के हित में क्रियाशील रहा, ठीक उसी तरह भारत में शासन तंत्र हजारों साल से सवर्णों द्वारा सवर्णों के हित में क्रियाशील रहा है और आज भी है। इन दोनों ही देशों में मूलनिवासियों की दुर्दशा के मूल में बस एक ही कारण प्रमुख रूप से क्रियाशील रहा और वह है शासक वर्गों की शासितों के प्रति अनात्मीयता. इसके पीछे शासकों की उपनिवेशवादी सोच की क्रियाशीलता रही।

मूलनिवासी कालों को मिला सर्वव्यापी आरक्षण 

अनुचित भेदभाव रोकथाम अधिनियम 2000 की भांति रोजगार समानता अधिनियम 1998 एक ऐसा कठोर अधिनियम है, जिसमें कहा गया है, ‘रंगभेद के परिणामस्वरुप और अन्य भेदभाव कानूनों, व्यवहारों के कारण राष्ट्रीय श्रम बाजार में रोजगार–धंधे आय में असमानताएं हैं। ये असमानताएं कुछ निश्चित श्रेणियों के लोगों के लिए ऐसी कठिनाइयां उत्पन्न करती हैं, जिन्हें मात्र भेदभाव पूर्ण कानूनों को समाप्त कर दूर नहीं किया जा सकता। इसलिए समानता के संवैधानिक अधिकार को बढ़ावा देने और वास्तविक प्रजातंत्र की स्थापना के लिए रोजगार के अनुचित भेदभाव को ख़त्म करना होगा, भेदभाव के प्रभावों को समाप्त करने के लिए रोजगार समानता सुनिश्चित करनी होगी और हमारे लोगों के प्रतिनिधित्व वाले विविध कार्यबल का निर्माण करना होगा, कार्यबल में क्षमता और आर्थिक विकास को बढ़ावा देना होगा और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के सदस्य के रूप में गणतंत्र की अनिवार्यताओं को प्रभावशाली करना होगा।’

बहरहाल रंगभेदी शासन से मुक्ति पाने के मूलनिवासी काले शासकों ने अनुचित भेदभाव रोकथाम अधिनियम 2000 और रोजगार समानता अधिनियम 1998 जैसे अन्य कई प्रावधान किया, जिससे नस्लीय भेदभाव तो अतीत का विषय बना ही, इससे भी बढ़कर धनार्जन के समस्त स्रोतों सहित तमाम दूसरे क्षेत्रों में ही विविध नस्लीय समूहों की संख्यानुपात में भागीदारी सुनिश्चित हो गयी। इससे जिन गोरों का तमाम क्षेत्रों में 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा रहा, वे अपने संख्यानुपात 9-10 प्रतिशत पर सिमटने लगे तथा उनका वर्चस्व टूटने लगा। वर्चस्व उनका कायम था तो भूमि पर। किन्तु अब मूलनिवासियों की तानाशाही सत्ता के जोर से 27 फरवरी 2018 को उनके हिस्से की कुल 72 प्रतिशत जमीन भी छीन कर मूलनिवासियों में बांटने का प्रावधान कर दिया गया है।

मुमकिन है बहुजनों  की तानाशाही सत्ता

दक्षिण अफ्रीका में सदियों के दास मूलनिवासी कालों ने अगर अपने मालिक गोरों को देश छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया तो उसमें सबसे बड़ा योगदान उनकी तानाशाही सत्ता का रहा। अगर मूलनिवासी कालों का पशुवत इस्तेमाल हुआ तो वह काम गोरों ने अपनी तानाशाही सत्ता के जरिये अंजाम दिया। भारत में विगत छः सालों में मूलनिवासी एससी,एसटी,ओबीसी और इनसे धर्मान्तरित तबके अगर गुलामों की स्थिति में पहुंचे हैं तो वह काम राष्ट्रवादियों की तानाशाही सत्ता के जोर से ही अंजाम दिया गया है। इस तानाशाही सत्ता के जोर से ही राष्ट्रवादियों ने मूलनिवासियों को बर्बादी के शेष कगार पर पहुंचा दिया है। दक्षिण अफ्रीका का अनुभव बताता है कि अगर भारत के मूलनिवासी भी बैलेट बॉक्स में क्रांति घटित करके अपनी तानाशाही सत्ता कायम कर लें तो वे इसके जोर से वंचितों को धनार्जन के समस्त स्रोतों सहित तमाम क्षेत्रों में हिस्सेदारी सुनिश्चित करवाने के साथ और अल्पजन सवर्णों को नियंत्रित भी कर सकते हैं।

विश्व इतिहास मे वंचितों इतनी विशालतम आबादी कहीं भी नहीं रही

वैसे भारत के मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए भारत में दक्षिण अफ्रीका जैसी मूलनिवासियों की तानाशाही सत्ता की कल्पना करने का दु:साहस विरले ही कोई कर पायेगा। पर, यदि हम इस बात को ध्यान में रखें कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता हासिल करने में संख्याबल सर्वाधिक महत्वपूर्ण फैक्टर का काम करता है और इसी संख्या-बल को अपने अनुकूल करने के लिए पार्टियों को धन-बल, मीडिया-बल, प्रवक्ताओं-कार्यकर्ताओं की भीड़ और कुशल नेतृत्व की जरुरत पड़ती तो पता चलेगा भारत के बहुजनवादी दलों जैसी अनुकूल स्थिति पूरी दुनिया में अन्यत्र दुर्लभ है। और ऐसा इसलिए कि आज की तारीख में सामाजिक अन्याय का शिकार बनाई गयी भारत के बहुजन समाज जैसी विपुल वंचित आबादी दुनिया के इतिहास में कहीं भी, कभी भी नहीं रही। और यह आबादी इस समय अन्याय की गुफा से निकलने के लिए बुरी तरह छटपटा रही है।

आज दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं दिखता जो लोकतान्त्रिक क्रांति के अनुकूलतम हालात का सद्व्यवहार कर सके। जिनमें संभावना थी, वे अब शासकों के दलाल में रूप में तब्दील होते नज़र आ रहे हैं। इससे निश्चय ही ही बहुजनों के आजादी की लड़ाई प्रभावित होगी। लेकिन नेतृत्व की कमी को यदि बहुजन बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट चाहें तो दूर कर सकते हैं। इसके लिए उन्हे अतिरिक्त बोझ वहन करना पड़ेगा और जिस तरह बहुजन भावी हिन्दू-राज में नर-पशु (Human–cattle) में तब्दील होने जा रहे हैं, यह बोझ उन्हें लेना चाहिए। यदि इस अतिरिक्त बोझ को लेते हुये वे बहुजनों की  सापेक्षिक वंचना के सद्व्यवहार के लेखन व एक्टिविज्म की मात्रा में भारी वृद्धि कर दें तो सत्ता  परिवर्तन के इतने बेहतरीन हालात हैं कि 2024 में बहुजनों की तानाशाही सत्ता हकीकत का रूप अख़्तियार कर लेगी बिना किसी करिश्माई नेता के भी !

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.
2 COMMENTS
  1. जैसा मैंने क्रांति का स्वरूप देखता हूं साहब आपने संजो कर बताया। हम जैसा सोच ही रहा था की आप एक डाइग्राम खींच दी। आभार धन्यवाद ? ?

  2. जैसा मैंने क्रांति का स्वरूप देखता हूं साहब आपने संजो कर बताया। हम जैसा सोच ही रहा था की आप एक डाइग्राम खींच दी। आभार धन्यवाद ? ?

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