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आरक्षण तो सवर्णों का है बहुजन तो बस भागीदारी चाहते हैं

सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था अंग्रेजी शासनकाल के अंतिम समय में लागू हो चुकी थी लेकिन इस नीति का उद्देश्य समाज में उपेक्षित सामाजिक असमानता को दूर कर समतामूलक समाज की स्थापना के लिए नहीं था बल्कि इसकी जरूरत शासकीय सेवाओं में सांप्रदायिक असमानता दूर कर प्रतिनिधित्व प्रदान किए जाने तक ही सीमित था। लेकिन आज यह व्यवस्था पिछड़े व दलितों का संवैधानिक अधिकार है। 

बहुजनों के समक्ष शेष विकल्प आज़ादी की लड़ाई

आज दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं दिखता जो लोकतान्त्रिक क्रांति के अनुकूलतम हालात का सद्व्यवहार कर सके। जिनमें संभावना थी, वे अब शासकों के दलाल में रूप में तब्दील होते नज़र आ रहे हैं। इससे निश्चय ही ही बहुजनों के आजादी की लड़ाई प्रभावित होगी। लेकिन नेतृत्व की कमी को यदि बहुजन बुद्धिजीवी, एक्टिविस्ट चाहें तो दूर कर सकते हैं। इसके लिए उन्हे अतिरिक्त बोझ वहन करना पड़ेगा।

बहुजन समाज के छुटभैये राजनीतिक दल ही बहुजनों के वोटों को बाँटने में लगे हैं

लोकसभा चुनाव 2024 के लिए बहुजन समाज से बसपा के अतिरिक्त अनेक राजनीतिक दल भी मैदान में उतरने का दंभ भर रहे हैं। विदित...

एक तरफ चाँद पर, दूसरी तरफ जातीय उत्पीड़न

वाराणसी। भारत को आजाद हुए 76 साल हो गए पर आज भी देश का एक बड़ा हिस्सा वंचना, अस्पृश्यता और गैर बराबरी की समस्या...

आरक्षण नहीं भागीदारी और हिस्सेदारी की बात होनी चाहिए

तीन मई से कुकी और मैतेई समुदाय के बीच जारी संघर्ष से मणिपुर जल रहा है, जिसकी तपिश पूरा देश महसूस कर रहा है।...

बहुजन नायकों-विचारकों के प्रति उपेक्षा और चुप्पी वामपंथ के लिए घातक साबित हुई

वक्ता, चिंतक, विचारक शैलेंद्र कुमार से हुई बेबाक बातचीत का यह तीसरा और अंतिम भाग है। इसमें उन्होंने जोतिबा फुले और पेरियार की उपेक्षा...

क्या यादव बहुजनों के वर्ग शत्रु हैं?

यादवों के प्रति बहुजनों और सवर्णों का नजरिया जानने और उसका मनोवैज्ञानिक अध्ययन सामने लाने के मकसद से मैंने 26 फ़रवरी को फेसबुक पर...

आखिर कौन करता है मुसहरों के साथ भेदभाव

मुसहर अपने को अन्य दलित जातियों से ऊंचा मानते हैं और मौक़ा मिले तो वैसा ही करने से नहीं चूकते जैसे तथाकथित बड़ी जातियां उनके साथ करती हैं। इन्हीं गाँवों में घूमते समय मैंने मुसहरों को डोम लोगों के साथ भेदभाव करते देखा और अपने नल से पानी भरने से साफ़ तौर पर मना करते हुए देखा।

दर्द के दरिया से वही पार हुआ जिसने सहा नहीं कहा

गालिब कहते हैं कि दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त दर्द से भर न आए क्यूँ / रोएँगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये...

बहुजन साहित्य का हिस्सा नहीं है आदिवासियों का साहित्य (14 जुलाई, 2021 की डायरी )

बात उन दिनों की है जब मुझे साहित्य और संस्कृति की परिभाषा की समझ नहीं थी। चूंकि विज्ञान का छात्र रहा तो इससे दूर...

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