पूर्वांचल की स्वास्थ्य व्यवस्था वास्तव में रामभरोसे है। सबसे चमक-दमक वाले पूर्वांचल के शहर बनारस में अनेक बड़े स्वास्थ्य संस्थान हैं लेकिन बाकी जिलों में सुविधासंपन्न अस्पताल न होने के कारण वहाँ की भीड़ बनारस में ही टूटती है जिसके परिणामस्वरूप बनारस में मरीजों की बेतहाशा भीड़ होती है। बनारस आमतौर पर सोनभद्र, मिर्ज़ापुर, भदोही, जौनपुर, गाजीपुर, बलिया, मऊ, आजमगढ़ और चंदौली आदि जिलों के अलावा बड़े पैमाने पर बिहार के सीमावर्ती जिलों के मरीजों के लिए वैकल्पिक जगह बन गया है।
इसके ठीक दूसरी ओर बनारस से दो सौ किलोमीटर दूर गोरखपुर है जहां बीआरडी मेडिकल कॉलेज है और हाल के ही दिनों में तैयार हुआ एम्स है। बीआरडी मेडिकल कॉलेज वर्षों से चल रहा है और अब उसकी अपनी राजनीति है लेकिन हाल के वर्षों में बनकर तैयार हुआ एम्स भी एक राजनीतिक शगूफा मात्र बनकर रह गया है। वहाँ खोले गए अनेक विभागों पर डॉक्टरों के अभाव में ताला बंद रहता है और हाल-फिलहाल गोरखपुर एम्स में अभी ओपीडी की सुविधा से ज्यादा मरीजों को कुछ भी उपलब्ध नहीं है।
दरअसल गोरखपुर एम्स योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के रूपक के तौर पर स्थापित हुआ है। उन्हें लगता था कि यहाँ एम्स बनाने से उनकी सत्ता और भी ताकतवर होगी लेकिन एम्स ने उन उद्देश्यों की पूर्ति में कोई खास भूमिका नहीं निभाई जिनकी उम्मीद में उसे वहाँ स्थापित किया गया था। अब वह अपने आप में ही एक विडम्बना बनकर रह गया है।
इस संदर्भ में स्थानीय लोगों से बात करने पर दो बातें सामने आईं। एक तो यह कि प्रशासनिक स्तर पर गोरखपुर की छवि बहुत अच्छी नहीं है बल्कि धौंस-धमकी और प्रशासनिक सत्ता के दुरुपयोग की कहानियाँ ही यहाँ ज्यादा प्रचलित हैं जिसके कारण दूसरी जगहों से योग्य डॉक्टर यहाँ आने के इच्छुक नहीं रहते। वे नहीं चाहते कि उनके ऊपर स्थानीय गुंडों का शासन हो। दूसरी बात यह कि एम्स में नौकरी करने से कई गुना अधिक कमाई वे निजी प्रेक्टिस से कर लेते हैं। ऐसे में एम्स या बीआरडी मेडिकल कॉलेज में नौकरी करना उनके लिए अधिक फायदेमंद नहीं है।
कुछ वर्षों पहले बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीज़न की कमी से कई बच्चों की मौत हो गई थी। उस समय एक रेजीडेंट डॉक्टर कफ़ील खान ने जिस तरह अपने स्रोत से ऑक्सीज़न सिलेंडरों की व्यवस्था की और अनेक बच्चों को बचाया वैसे में उनकी सराहना के बजाय जिस तरह उनका उत्पीड़न किया गया और उन्हें जेल में रखा गया उसका असर बहुत दूर तक हुआ। योगी सरकार द्वारा सांप्रदायिक एजेंडे के तहत अल्पसंख्यक समुदाय के एक डॉक्टर का उत्पीड़न वास्तव में पूर्वांचल की स्वास्थ्य व्यवस्था की ऐसी सड़ांध की ओर एक संकेत है जहां संस्थानों में मौजूद कमियों को दूर करने की बजाय व्यक्तियों को निशाना बनाया जाना ज्यादा आसान रहा है।
बनारस और गोरखपुर के बीच हजारों निजी अस्पताल, नर्सिंग होम और क्लीनिक फल फूल रहे हैं जिनका हजारों करोड़ का धंधा और तंत्र है। बलिया, मऊ, चंदौली गाजीपुर जैसे जिलों के निजी अस्पताल मरोजों को पहले अपने यहाँ भर्ती करते हैं और जब देखते हैं कि मामला उनके बस से बाहर का हो रहा है तो बनारस के अपने परिचित अस्पतालों में रिफर करते हैं। सरकारी अस्पतालों की भीड़ और धक्का-मुक्की से घबराये मरीजों के तीमारदार बताए गए अस्पतालों में ही जाते हैं। यहाँ उनसे दवा और इलाज के नाम पर अच्छी-ख़ासी वसूली होती है और जब अस्पताल प्रबंधन यह अंदाज़ा कर लेता है कि अब इन लोगों के पास कोई और चारा नहीं है तब वे दूसरी जगहों या बीएचयू रेफर कर देते हैं।
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ऐसे एक नहीं अनेक मामले हैं जब अस्पतालों के इस रवैये के बाद मरीज की जान नहीं बचाई जा सकी। अपने परिजनों को खो चुके अनेक लोगों ने बताया कि निजी अस्पताल में भर्ती के समय बहुत तेजी दिखाई जाती है और लगता है कि जल्दी ही हमारा मरीज भला-चंगा हो जाएगा लेकिन समय बीतने के साथ न केवल जेब खाली होती जाती है बल्कि उम्मीद भी टूटने लगती है। जब स्थिति बिलकुल काबू से बाहर हो जाती है तब ये लोग हमें बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। इतने दिनों में पूरी तरह लस्त-पस्त हो चुके हम लोग स्वयं इतने कमजोर हो चुके होते हैं कि बस किसी तरह अपने परिजनों को लेकर यहाँ-वहाँ दौड़ते हैं।
बनारस में सर सुंदर लाल अस्पताल, बीएचयू ट्रामा सेंटर ऐसे अस्पताल हैं जो सर्व सुविधासम्पन्न हैं लेकिन यहाँ भीड़ और अव्यवस्था स्थायी स्थिति बन गई है। आस-पास के जिलों की कई करोड़ की आबादी की आकांक्षाओं का केंद्र बनारस ही है और इसी को देखते हुये पिछले काफी समय से यहाँ एम्स की मांग की जा रही है। वास्तव में एम्स यहाँ की जरूरत है लेकिन पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीएचयू को अपग्रेड करने की बात की लेकिन एम्स नहीं दे पाये।
विगत 1 मई 2018 को लहरतारा बनारस में 179 बिस्तरों वाले होमी भाभा कैंसर अस्पताल शुरू हुआ और पूर्वाञ्चल के मरीजों के लिए टाटा मेमोरियल सेंटर मुंबई जाने की बाध्यता कम हुई। इसके बावजूद यहाँ बढ़ती भीड़ और विशेषज्ञ डॉक्टरों के अभाव ने अभी तक इसे वह स्थान नहीं दिया है जो किसी बड़े और स्वायत्तशासी संस्थान को प्राप्त होता है।
इसी तरह 19 फरवरी 2019 को 352 बिस्तरों वाले महामना पंडित मदन मोहन मालवीय कैंसर सेंटर की शुरुआत हुई। यह टाटा मेमोरियल सेंटर की एक इकाई के रूप स्थापित किया गया है और एटोमिक एनर्जी विभाग, भारत सरकार द्वारा वित्तपोषित है। बाहर से देखने पर दोनों ही अस्पताल अपनी भव्यता का मुजाहिरा करते हैं लेकिन वास्तविकता कुछ और सामने आती है। अभी भी इनमें विशेषज्ञ डॉक्टर और दूसरी अन्य सुविधाओं का पर्याप्त अभाव है। बीएचयू के एक डॉक्टर के अनुसार अभी भी इनका स्टेटस एक रेफरल अस्पताल से अधिक नहीं है। कभी-कभार टाटा मेमोरियल सेंटर मुंबई से विशेषज्ञ डॉक्टर आते हैं और प्रेस कॉन्फरेंस करके वापस चले जाते हैं।
एक तरफ बनारस और दूसरी तरफ गोरखपुर को छोड़ दिया जाए तो बीच में कोई बड़ा शहर नहीं है। पूर्वांचल की खासियत छोटे-छोटे कस्बों के रूप में है जिनका अपना रंग और मिजाज है। उनकी अपनी अलग-अलग समस्याएं भी हैं। इन समस्याओं में जो समस्या प्रमुखता के साथ सामने आती वह है स्वास्थ्य को लेकर। अस्पताल है तो डॉक्टर नहीं और डॉक्टर हैं तो दवा ही नहीं। ऐसी सूरत में जनता करे तो क्या करे, वह समझ नहीं पाती है। निजी अस्पताल इसी बात का फायदा उठाते आ रहे हैं।
सोनभद्र से लेकर सिद्धार्थनगर तक एक जैसी स्थिति है। यहाँ के जिला अस्पतालों की हालत अत्यंत दयनीय है जबकि पीएचसी और सीएचसी का कोई पुरसाहाल नहीं। अमूमन महिलाओं को आयरन की गोलियां बांटकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेने वाले प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत यह है कि वहाँ डॉक्टर कभी-कभी ही आते हैं। इन केन्द्रों पर आने वाले मरीजों को कम्पाउण्डर ही देखकर दवा दे देते हैं।
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स्वास्थ्य सेवाओं के विकास के नाम पर मेडिकल कॉलेज का झुनझुना
देश में स्वस्थ्य सेवाओं के नाम पर सरकार तरह-तरह के प्रयोग करती आ रही है। इनमें से एक है मेडिकल कॉलेज की स्थापना। विगत वर्षों में मोदी-योगी की डबल इंजन की सरकार ने उत्तर प्रदेश को कई दर्जन मेडिकल कॉलेजों का उपहार दिया और अनेक जिला एवं मंडलीय अस्पतालों को मेडिकल कॉलेज का दर्जा दे दिया गया। अगर आंकड़ों के हिसाब से देखा जाय तो उत्तर प्रदेश में फिलहाल 35 मेडिकल कॉलेज चल रहे हैं।
लेकिन वास्तविकता यह है कि पूर्वांचल के अनेक जिलों में अभी तक मेडिकल कॉलेज के लिए केवल ज़मीन चिन्हित करके वहाँ शिलान्यास का एक पत्थर गाड़ दिया गया है जिससे यह पता लगता है कि यहाँ मेडिकल कॉलेज बनने वाला है। कई जिला अस्पतालों के एक कमरे में मेडिकल कॉलेज खोलने की औपचारिकता पूरी कर दी गई है। सबकुछ चल रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि मिर्ज़ापुर, भदोही, सोनभद्र, चंदौली, गाजीपुर से लेकर सिद्धार्थनगर तक अगर किसी को गंभीर स्वास्थ्य संकट हो गया तो इन जिलों में उनके लिए कोई इलाज संभव नहीं है।
चंदौली मेडिकल कॉलेज को लेकर एक स्थानीय नेता का यह बयान वास्तव में इस समय में सत्ता-सरकार और शासन-प्रशासन की कार्यप्रणाली को लेकर बहुत कुछ कह देता है कि ‘भले ही अभी इस मेडिकल कॉलेज की नींव ही भरी गई है लेकिन हो सकता है कागज़ पर यह चल रहा हो। सैकड़ों विद्यार्थियों का हर साल एडमिशन हो रहा हो। रोज दर्जनों ऑपरेशन हो रहे हों। नई-नई बीमारियों पर रिसर्च हो रहा हो और देश भर के मरीज यहाँ रिफर किए जा रहे हों।’
स्वास्थ्य के आंकड़ों में उत्तर प्रदेश
नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2015 के अनुसार उत्तर प्रदेश में कुल 65,343 डॉक्टर पंजीकृत हैं जिसमें से 52274 राज्य में प्रैक्टिस कर रहे हैं ।
नेशनल स्वास्थ्य प्रोफाइल 2018 के अनुसार देश में कुल 23582 सरकारी अस्पताल है जिसमें से 4635 अस्पताल उत्तर प्रदेश में है।
26 मई 2023 तक के एक आंकड़े के अनुसार उत्तर प्रदेश में 19 हजार डॉक्टरों के पद सृजित हैं जबकि 12 हजार डॉक्टर तैनात हैं।
एक आंकड़े के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 19962 मरीजों पर एक डॉक्टर है।
यदि आंकड़ों पर गौर किया जाय तो साफ तौर पर नजर आ रहा है कि उत्तर प्रदेश में अभी भी जनसंख्या के हिसाब से डाक्टरों की घोर कमी है। इस कमी पर सरकार का ध्यान कब जायेगा और जायेगा भी या नहीं यह एक बड़ा सवाल है।