यदि मान्यवर कांशीराम न होते
आज पेरियार जयंती के दिन हम एक ऐसे महापुरुष के राजनीतिक- आर्थिक दर्शन पर चर्चा कर रहे हैं जो अगर भारत भूमि पर भूमिष्ठ नहीं हुआ होता, तो हज़ारों साल की दास जातियों में शासक बनने की महत्वाकांक्षा पैदा नहीं होती। लाखो पढ़े-लिखे नौकरीशुदा दलितों में ‘पे बैक टू डी सोसाइटी’ की भावना नहीं पनपती। दलित साहित्य में फुले, पेरियार, आंबेडकर की क्रांतिकारी चेतना का प्रतिबिम्बन नहीं होता। पहली लोकसभा के मुकाबले हाल के लोकसभा चुनावों में पिछड़ी जाति सांसदों की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि तथा सवर्ण सांसदों की संख्या में शोचनीय गिरावट नहीं परिलक्षित होती है। तब किसी दलित पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी के रूप में देखना सपना होता। अधिकांश पार्टियों के राष्ट्रीय अध्यक्ष ब्राह्मण ही नज़र आते तथा विभिन्न सवर्णवादी पार्टियों में दलित-पिछड़ों की आज जैसी पूछ नहीं होती। लालू, मुलायम, अखिलेश, तेजस्वी यादव, अनुप्रिया पटेल इत्यादि सहित अन्यान्य शूद्रातिशूद्र नेताओं की राजनीतिक हैसियत स्थापित नहीं होती। तब जातीय चेतना के राजनीतिकरण का मुकाबला धार्मिक चेतना से करने के लिए संघ परिवार हिंदुत्व, हिन्दुइज्म या हिन्दू धर्म को कलंकित करने के लिए मजबूर नहीं हुआ होता।
कांशीराम : वर्ग संघर्ष के महानायक
जी, हां आज हम 1934 के 15 मार्च को पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गांव में जन्मे उस महामानव मान्यवर कांशीराम पर चर्चा कर रहे हैं, जिनके जीवन में आज से लगभग छः दशक पूर्व पुणे के इआरडीएल में सुख- शांति से नौकरी करने के दौरान एक स्वाभिमानी दलित कर्मचारी के उत्पीड़न की घटना से नाटकीय भावांतरण हुआ। जिस तरह राजसिक सुख-ऐश्वर्य के अभ्यस्त गौतम बुद्ध ने एक नाटकीय यात्रा के मध्य दुःख-दारिद्र का साक्षात् कर, उसके दूरीकरण के उपायों की खोज के लिए गृह-त्याग किया। कुछ वैसा ही साहेब कांशीराम ने भी किया था।
[bs-quote quote=”आम दलितों की तुलना में सुख- स्वाछंद का जीवन गुजारने वाले साहेब जब ‘दूल्हे का सेहरा पहनने’ के सपनो में विभोर थे, तभी दलित कर्मचारी दीनाभाना के जीवन में वह घटना घटी, जिसने साहेब को चिरकाल के लिए सांसारिक सुखों से दूर रहने की प्रतिज्ञा लेने के लिए विवश कर दिया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
आम दलितों की तुलना में सुख- स्वाछंद का जीवन गुजारने वाले साहेब जब ‘दूल्हे का सेहरा पहनने’ के सपनो में विभोर थे, तभी दलित कर्मचारी दीनाभाना के जीवन में वह घटना घटी, जिसने साहेब को चिरकाल के लिए सांसारिक सुखों से दूर रहने की प्रतिज्ञा लेने के लिए विवश कर दिया। फिर तो दीनाभानाओं के जीवन में बदलाव लाने के लिए उन्होंने देश के कोने-कोने तक फुले, शाहू जी, नारायण गुरु, डॉ.आंबेडकर, पेरियार इत्यादि के समाज-परिवर्तनकामी विचारों तथा खुद की अनोखी परिकल्पना को पहुंचाने का जो अक्लांत अभियान छेड़ा, उससे जमाने ने उन्हें ‘सामाजिक परिवर्तन के ‘अप्रतिम नायक’ के रूप में वरण किया। सामाजिक परिवर्तन के इस महानायक पर समाज विज्ञानियों ने हजारों-लाखों पन्ने रंगे हैं पर, वर्ग संघर्ष के अप्रतिम नायक के रूप उनकी भूमिका अगोचर रह गयी, जबकि उनकी पूरी परिकल्पना वर्ग संघर्ष से प्रेरित थी।
कांशीराम के उदय पूर्व : वर्ग-संघर्ष लायक हालात
प्रबुद्ध पाठक जानते हैं कि मार्क्स ने एक सौ सत्तर साल पहले इतिहास की व्याख्या करते हुये कहा था, अबतक के विद्यमान समाजों का लिखित इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। एक वर्ग वह है- जिसके पास उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व है। अर्थात जिसका शक्ति स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक- पर कब्जा है। और दूसरा वह है- जो शारीरिक श्रम पर निर्भर है। पहला वर्ग सदैव ही दूसरे वर्ग का शोषण करता रहता है। समाज के शोषक और शोषित, ये दो वर्ग सदा ही आपस मे संघर्षरत रहे और इनमें कभी भी समझौता नहीं हो सकता। नागर समाज मे विभिन्न व्यक्तियों और वर्गों के बीच होने वाली होड़ का विस्तार राज्य तक होता है। प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों को पूरा करने और दूसरे वर्ग पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य का उपयोग करता है। गुलाम भारत में जन्मे कांशीराम का जिन दिनों भावांतरण हुआ, उन दिनों डॉ आंबेडकर के एकल प्रयास से समाज के रूप में खासा परिवर्तन हो चुका था, बावजूद इसके स्वाधीनोत्तर भारत में समाज का चित्र वैसा ही था जिन स्थितियों में दुनिया भर में वर्ग संघर्ष संगठित हुए। हजारों वर्ष पूर्व ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों से युक्त जिस जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का संपदा, संस्थाओं और उच्चमान के लाभकारी पेशों सहित उत्पादन के समस्त साधनों पर एकाधिकार था। स्वाधीन भारत में भी उनका शक्ति के समस्त स्रोतों पर 80-90 प्रतिशत कब्जा रहा । हजारों वर्ष पूर्व की भांति स्वाधीन भारत मे भी ब्राह्मणों की ‘भूदेवता’, क्षत्रियों की जन अरण्य के ‘सिंह’ और वैश्यों की ‘सेठ जी’ के रूप मे सामाजिक मर्यादा बरकरार थी। 15 प्रतिशत से अधिक लोग कोर्ट-कचहरी, ऑफिस, शहर और शिल्प व्यवस्था, चिकित्सा और बाज़ार, फिल्म-मीडिया के अवसर का लाभ उठाने की क्षमता अर्जित नहीं कर पाये थे। 15 प्रतिशत वाले जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग को छोड़कर शेष जनता में 16-18 प्रतिशत लोग विधर्मी रूप मे उपेक्षित हैं।
शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत इन्हीं सर्वहाराओं की वंचना में वर्ग-संघर्ष की अनुकूल स्थितियां देखकर कुछ लोग सत्तर के दशक में बंदूक के बल पर सत्ता दखल की दिशा मे अगसर हुए। इस लक्ष्य में विफल होने के बावजूद आज भी ये लोग बंदूक के बल पर सत्ता दखल का सपना देखना नहीं छोड़े हैं।
‘गरीबी हटाओं’ और ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का नारा देने वालों के साथ बंदूक के बल पर सत्ता दखल का सपना देखने वाले लोग उसी जन्मजात शोषक व सुविधाभोगी वर्ग से रहे, जिनका शक्ति के स्रोतों पर हजारों वर्ष पूर्व की भांति ही स्वाधीन भारत में एकाधिकार था। ये ऐसे लोग थे, जिनका डेमोक्रेसी की ताकत में कोई भरोसा नहीं था। भारतीय समाज से लगभग पूरी तरह अंजान इन लोगों ने रूस –चीन जैसे श्रेणी समाजों में गरीबी की जठर से पैदा हुई क्रांति की सफलता से उत्साहित होकर ऐसा मान लिया कि भारत के जाति समाज में भी गरीबी क्रान्ति का निर्णायक कारक बन सकती है। वंचित समाजों से कटे-फटे इन कल्पना विलासी क्रांतिकारियों को पता नहीं था कि भारत मे सर्वहारा नहीं, ‘सर्वस्वहारा’ रहते हैं। और ये पूंजी के दास नहीं, हिन्दू-ईश्वर, धर्मशास्त्र-सृष्ट, ‘दैविक– दास’(divine slaves) और ‘दैविक-सर्वस्वहारा’(divine-proletariats) हैं। हिन्दू धर्म का प्राणाधार जाति/वर्ण- व्यवस्थाजनित मानसिकता के कारण इनमें स्वधीनता की चेतना, वित्त-वासना व सर्व-सुविधासंपन्न सवर्णों की भांति उन्नततर जीवन जीने की कोई चाह ही नहीं है। ये सब चेतनाएं इनके जीवन से कपूर की भांति उड़ा दी गयी हैं। बहरहाल लेनिन-माओ के चेलों के विपरीत स्वाधीन भारत में उपजी वर्ग-संघर्ष की स्थितियों के सदव्हवहार के लिए कांशीराम एक भिन्न परिकल्पना लेकर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किए।
[bs-quote quote=”44 प्रतिशत पिछड़े-अतिपिछड़े अयोग्य रूप में विघोषित, साढ़े सात प्रतिशत लोग आदिवासी-जंगली रूप में धिक्कृत व निंदित तथा 15-16 प्रतिशत लोग अछूत रूप मे तिरस्कृत व बहिष्कृत रहे। शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत व वंचित इन्हीं 85 प्रतिशत लोगों की दशा में बदलाव लाने के लिए ‘गरीबी हटाओं’ और ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का नारा देकर सत्ता दखल किया गया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
कांशीराम के वर्ग-संघर्ष की परिकल्पना और बामसेफ
कांशीराम को लोकतंत्र में अपार विश्वास रहा। इस विश्वास के कारण उन्हें यह सत्योंपलब्धि करने में कोई दिक्कत नहीं हुई कि लोकतन्त्र में सत्ता दखल मे मुख्य फैक्टर संख्या-बल होता है। और भारत में यह संख्याबल दलित, आदिवासी, पिछड़ों और इनसे धर्मांतरित तबकों के पास है। लेकिन इन तबकों की समस्या मानसिक है, जिस कारण न तो शासक बनने का सपना देखते हैं और न ही सवर्णों की भांति सुख-समृद्धि का जीवन जीने की आकांक्षा पालते हैं। अपनी परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए कांशीराम पहले खुद को शूद्रातिशूद्रों समाज में जन्में ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज, नारायणा गुरु, पेरियार और डॉ॰ आंबेडकर इत्यादि क्रांतिकारी महापुरुषों के विचारों से लैस किए। फिर एक कुशल मनोचिकित्सक की भूमिका में अवतरित होकर वीभत्स-संतोषबोध के शिकार जन्मजात शोषितों की मानसिकता में इच्छित बदलाव लाने हेतु बामसेफ के निर्माण की दिशा में अग्रसर हुए। दिन नहीं, रात नहीं, अर्थाभाव और तमाम प्रतिकूलताओं के मध्य साहब कांशीराम बामसेफ के बैनर तले 85 प्रतिशत शोषितों के जेहन में यह बात बिठाने का ताउम्र अक्लांत अभियान चलाए।
प्राचीन विश्व में सुख-समृद्धि की अनुपम मिसाल सिंधु-घाटी के सृजनकर्ता आपके ही पुरूखे रहे, जिन्हें छल-बल से विदेशी आर्यों ने पराजित कर भारत पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया। बाद में अधीन बनाए गए मूलनिवसियों की भावी पीढ़ी को चिरकाल के लिए दास के रूप में इस्तेमाल करने और देश की संपदा-संसाधनों पर कब्जा जमाने के लिए वर्ण/ जाति-व्यवस्था को जन्म दिया। जाति-व्यवस्था से मूलनिवासी शूद्रातिशूद्रों का सत्यानाश हुआ। इस व्यवस्था के तहत हमें पढ़ने-लिखने नहीं दिया गया, धन-धरती का मालिक नहीं बनने दिया गया। इससे हमें अपमान मिला है और आर्यों को मिला धन-धरती और मान सम्मान। बहुजन समाज को अपमानित किया गया, गुलाम बनाया गया और ऐसी व्यवस्था बना दी गयी कि आगे भी इस समाज से गुलाम पैदा होते रहें। ऐसे में सभी मूलनिवासियों को चाहिए कि आपसी दुश्मनी भुला और संगठित हो कर सवर्णों को सत्ता से दूर धकेलकर हम अपने पुरुखों का खोया गौरव प्राप्त करें और धन-धरती का मालिक बनें।
कांशीराम का लक्ष्य रहा: बहुजनों को धन-धरती का मालिक बनाना
वर्ग संघर्ष के इतिहास मे शोषितों की लड़ाई लड़ने वाले हर नेतृत्वकारी व्यक्ति/संगठन का लक्ष्य सत्ता दखल कर वंचितों को धन-धरती का मालिक बनाना रहा है। और भारत में यह लड़ाई सबसे सुपरिकल्पित रूप में किसी ने लड़ी तो, वह कांशीराम ही थे। इस देश की संपदा-संस्थाओं पर एकाधिकार जमाए वर्ग के विरुद्ध लोकतान्त्रिक पद्धति से निर्णायक विजय पाने के मकसद से ही उन्होंने परस्पर घृणा और शत्रुता से लबरेज 6000 से अधिक जाति/उपजाति में बंटे लोगों को जोड़कर एक वर्ग,’बहुजन समाज’ में तब्दील करने का असंभव सा काम शुरू किया। यह काम बहुत कठिन था, जिसके कारण वह खुद ही अपने जीवन के शेष दिनों मे स्वीकार किए थे कि भारी प्रयासों के बाद वह 6000 जाति/उपजाति मे बंटे समूहों में बमुश्किल 600 को ही जोड़ पाये हैं।यह बात सही है कि कांशीराम अपने असामयिक निधन के कारण शोषकों के खिलाफ जिस संघर्ष की परिकल्पना की थी, उसमे आंशिक रूप से सफल हो पाये। किन्तु भारत के शोषकों को लड़ने के लिए उन्होंने रणनीति स्थिर की थी, उसे निर्भूल मानकर आज भी मूलनिवासी समुदायों के संगठन व बुद्धिजीवी अग्रसर हैं। आज भी असंख्य धड़ों मे विभाजित बामसेफ के लोग बहुजन समाज बनाने के लिए उसी मूलनिवावादी का सहारा ले रहे हैं। बहुजन समाज बनाकर ही भारत मे शोषक वर्ग के खिलाफ लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है। इस दिशा में जितना एक शिक्षित बहुजन तत्पर रहता है, उतना ही विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षक।
[bs-quote quote=”वर्ग संघर्ष के इतिहास मे शोषितों की लड़ाई लड़ने वाले हर नेतृत्वकारी व्यक्ति/संगठन का लक्ष्य सत्ता दखल कर वंचितों को धन-धरती का मालिक बनाना रहा है। और भारत में यह लड़ाई सबसे सुपरिकल्पित रूप में किसी ने लड़ी तो, वह कांशीराम ही थे। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
जाति चेतना का चमत्कार
कांशीराम ने सदियों के जन्मजात शोषकों के खिलाफ संघर्ष चलाने की सुचिन्तित परिकल्पना के तहत ही शोषितों के सक्षम लोगों को ‘पे बैक टु द सोसाइटी’ के मंत्र से दीक्षित किया। इस हेतू ही उन्होंने ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा’, ‘तिलक तराजू और तलवार..’ तथा ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’ का नारा उछाला। सर्वोपरि इसी मकसद से उन्होंने ‘जाति चेतना के राजनीतिकरण’ का अभियान चलाया।‘ इसके लिए उन्होंने अन्य महापुरुषों की भांति जाति का उन्मूलन जैसे असंभव से काम के बजाय जातियों के इस्तेमाल की रणनीति पर काम किया। इसके लिए उन्होंने विभिन्न जातीय समूहों के मध्य हजारों साल से मनुवादी व्यवस्था में सवर्णों से मिले शोषण-वंचना को याद दिला-दिला कर वर्गीय चेतना से लैस किया। वंचितों में आई वर्गीय चेतना को मुख्यधारा के राजनीतिक विश्लेषकों ने जाति चेतना का नाम दिया। कांशीराम के सौजन्य से सबसे पहले इस चेतना से लैस दलित समुदाय की अग्रसर जातियां हुई। परवर्तीकाल में आदिवासी, पिछड़ों और इनसे धर्मांतरित तबकों में यह प्रसारित हो गई। मनुवादी व्यवस्था में मिली वंचना का सद्व्यवहार कर कांशीराम ने बहुजनों की जातिय चेतना का जो राजनीतिकरण किया, उसका असर चमत्कारिक रहा। इसके फलस्वरूप बीसवीं सदी के शेष तक शक्ति के स्रोतों पर काबिज सवर्ण राजनीतिक तौर पर लाचार समूह मे तब्दील हो गए और वे अपना वजूद बचाने के लिए कांशीराम के जातिय चेतना से साधारण से महाबली बने माया-मुलायम, लालू-पासवान के चरणों मे आश्रय ढूंढने लगे। किन्तु 21 वीं सदी के शुरुआती वर्षों(2003) में बीमारी के कारण राजनीतिक रूप से कांशीराम के निष्क्रिय होने के बाद भारतीय राजनीति पर जाति चेतना का प्रभाव शिथिल होने लगा और 2006 में उनके परिनिवृत होने के बाद बहुजनों की जाति चेतना दम तोड़ने लगी। जाति चेतना से महाबली बने बहुजन नेता पीएम-सीएम बनने की चाह मे जाति-मुक्त दिखने की होड लगाने लगे। अपने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्होंने तिलक-तराजू, भूराबाल इत्यादि नारों से पल्ला झाड़ना शुरू किया। इससे जाति चेतना की राजनीति म्लान पड़ने लगी। इसके म्लान पड़ने के साथ-साथ स्वर्ण भारतीय राजनीति में अपना खोया गौरव पाने के दिशा में अग्रसर हुए और आज की तारीख में दावे के साथ कहा जा सकता है कि जाति चेतना की राजनीति लगभग पूरी तरह म्लान हो चुकी है। इसके साथ उनकी शक्ति के समस्त स्रोतों के साथ राजनीति पर भी वर्चस्व कायम हो चुका है। जिनके खिलाफ कांशीराम ने भारत के जन्मजात शोषितों को संगठित करने की परिकल्पना की थी।
तब अवाम को भारतीय राज्य पर भरोसा था
बहरहाल इतिहास मे सत्तत चलते रहने वाले वर्ग संघर्ष की निर्भूल परिकल्पना एक ऐसे समय में की थी, जब देश को आज़ाद हुए महज़ दो-ढ़ाई दशक हुये थे। वंचितों को तब भी भरोसा था कि स्वाधीन भारत के शासक संविधान निर्माता बाबा साहेब डॉ आंबेडकर की 25 नवंबर, 1949 की इस सावधानी वाणी से हमें निकटतम भविष्य के मध्य आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा कर लेना होगा, नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता उस लोकतन्त्र के ढ़ांचे को विस्फोटित कर सकती है। जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने इतनी मेहनत से बनाया है, पर अमल करते हुए उनकी बेहतरी के लिए कुछ करेंगे। शासकों से इस उम्मीद के कारण ही लेनिन-माओ के चेलों को जनता का अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। भारतीय राज्य से इस उम्मीद के कारण ही कांशीराम भारी प्रयास के बावजूद हजारों भागों मे बिखरी महज 10 प्रतिशत वंचित जातियों को ही कांशीराम जोड़ सके। किन्तु साहेब कांशीराम ने लोकतांत्रिक तरीके से जिस वर्ग संघर्ष को अंजाम देने की परिकल्पना की आज की तारीख में उसके लिए अभूतपूर्व अनुकूल हालात पैदा हो चुके हैं। आज की तारीख में भारत का बहुजन, शासकों से पूरी तरह मोहमोक्त हो चुका है।
वर्तमान हालात में क्या करते कांशीराम
आज भारत में सामाजिक अन्याय की शिकार विश्व की विशालतम आबादी को आज जिस तरह विषमता का शिकार होकर जीना पड़ रहा है। उससे यहां विशिष्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन पनपने की ‘निश्चित दशाएं’ साफ़ दृष्टिगोचर होने लगीं हैं। समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ क्रांतिकारी आन्दोलन मुख्यतः सामाजिक असंतोष, अन्याय, उत्पादन के साधनों का असमान बंटवारा तथा उच्च व निम्न वर्ग के व्याप्त खाई के फलस्वरूप होता है। सरल शब्दों में ऐसे आन्दोलन आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी की कोंख से जन्म लेते हैं, और तमाम अध्ययन साबित करते हैं कि भारत जैसी भीषणतम गैर-बराबरी पूरे विश्व में कहीं है ही नहीं। जनवरी 2018 में आई ऑक्सफाम की रिपोर्ट ने बताया था कि देश की टॉप की 1 प्रतिशत आबादी का 73 प्रतिशत धन-दौलत पर कब्ज़ा हो गया है, जबकि 2015 की क्रेडिट सुइसे की रिपोर्ट का अनुसरण करने पर पता चलता है कि आज टॉप की 10 प्रतिशत आबादी का प्रायः 90 प्रतिशत धन-दौलत पर कब्ज़ा हो चुका है। वहीं विभिन्न रिपोर्टों से यह तथ्य सामने आए हैं कि नीचे की 60 प्रतिशत आबादी महज 4.7 प्रतिशत धन पर गुजर-बसर करने के लिए विवश हैं। भारत में जो बेनजीर गैर-बराबरी पनपी है, उसके लिए मुख्यरूप से जिम्मेवार है, नवउदारवादी नीति ,जिसे आरक्षण को कागजो की शोभा बनाने के मकसद से नरसिंह राव ने 24 जुलाई,1991 को ग्रहण किया था।
बहुजनों के खिलाफ इस हथियार को इस्तेमाल करने में राव के बाद अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ.मनमोहन सिंह ने भी होड़ लगाया, किन्तु इस मामले में जिसने सबको बौना बनाया, वह वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं। इन्होंने अपनी सवर्णपरस्त नीतियों से विगत साढ़े चार में आरक्षित वर्गों को गुलामी की ओर ठेल दिया है। इनकी नीतियों से बहुजन समाज उन स्थितियों के सम्मुखीन हो गया है, जिन स्थितियों में विवश होकर विभिन्न देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए।क्रान्तिकारी आंदोलनों में बहुसंख्य लोगों में पनपता ‘सापेक्षिक वंचना’ का भाव आग में घी का काम करता है, जो वर्तमान भारत में दिख रहा है।
[bs-quote quote=”बहुजन समाज उन स्थितियों के सम्मुखीन हो गया है, जिन स्थितियों में विवश होकर विभिन्न देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए।क्रान्तिकारी आंदोलनों में बहुसंख्य लोगों में पनपता ‘सापेक्षिक वंचना’ का भाव आग में घी का काम करता है, जो वर्तमान भारत में दिख रहा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
क्रांति का अध्ययन करने वाले तमाम समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ जब समाज में सापेक्षिक वंचना का भाव पनपने लगता है, तब आन्दोलन की चिंगारी फूट पड़ती है। समाज विज्ञानियों के मुताबिक, दूसरे लोगों और समूहों के संदर्भ में जब कोई समूह या व्यक्ति किसी वस्तु से वंचित हो जाता है, तो वह सापेक्षिक वंचना है। दूसरे शब्दों में जब दूसरे वंचित नहीं हैं तब हम क्यों रहें ! सापेक्षिक वंचना का यही अहसास बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिकी कालों में पनपा, जिसके फलस्वरूप वहां 1960 के दशक में दंगों का सैलाब पैदा हुआ। जो परवर्तीकाल में वहां डाइवर्सिटी लागू होने का सबब बना। दक्षिण अफ्रीका में सापेक्षिक वंचना का अहसास ही वहां के मूलनिवासियों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया, जिसमें भस्म हो गयी वहां गोरों की तानाशाही सत्ता। दक्षिण अफ्रीका में जिन 9-10 प्रतिशत गोरों की शक्ति के समस्त स्रोतों में 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा था, वे आज प्रत्येक क्षेत्र में ही अपने संख्यानुपात में सिमटते जाने के कारण वहां से पलायन करने लगे हैं। लेकिन आज भारत में हजारों साल के जन्मजात विशेषाधिकार युक्त वर्ग के प्रत्येक क्षेत्र में असीमित प्रभुत्व से यहां के वंचितों को अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के वंचितों से भी कहीं ज्यादा सापेक्षिक वंचना के अहसास से भर दिया है।
इसके कारणों की तह में जाने पर दिखाई पड़ेगा कि पूरे देश में जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हैं, उनमें 80 -90 प्रतिशत फ्लैट्स इन्ही के हैं। मेट्रोपॉलिटन शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक में छोटी-छोटी दुकानों से लेकर बड़े-बड़े शॉपिंग मॉलों में 80-90 प्रतिशत दुकानें इन्हीं की हैं। चार से आठ-आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है, उनमें 90 प्रतिशत से ज्यादे गाड़ियां इन्हीं की होती हैं। देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे-बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल्स प्राय इन्ही के हैं। फिल्म और मनोरंजन तथा ज्ञान-उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा इन्ही का है। संसद विधानसभाओं में वंचित वर्गों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक-ठाक हो, किन्तु मंत्रिमंडलों में दबदबा इन्हीं का है। मंत्रिमंडलों में लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं। शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, फिल्म-मीडिया, धर्म और ज्ञान के क्षेत्र में भारत के सुविधाभोगी वर्ग जैसा दबदबा आज की तारीख में दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। लिहाजा भारत के बहुजनों जैसा सापेक्षिक वंचना का अहसास भी कहीं नहीं है।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हजारों साल के विशेषाधिकारयुक्त तबकों के शक्ति के तमाम स्रोतों पर ही 80-90 प्रतिशत कब्जे ने बहुजनों में सापेक्षिक वंचना के अहसास को धीरे-धीरे जिस तरह विस्फोटक बिन्दु के करीब पहुंचा दिया है, उससे बैलेट बॉक्स में क्रांति घटित होने लायक पर्याप्त सामान जमा हो गया है। भारत में सापेक्षिक वंचना का भाव क्रान्तिकारी आन्दोलन की एक और शर्त पूरी करता दिख रहा है। और वह है ‘हम-भावना’ का तीव्र विकास। कॉमन वंचना ने बहुजनों को शक्तिसंपन्न वर्गों के विरुद्ध बहुत पहले से ही ‘हम-भावना’ से लैस करना शुरू कर दिया था, जिसमे आज और उछाल आ गया है। क्रान्तिकारी बदलाव में दुनिया के प्रत्येक देश में ही लेखकों ने प्रभावी भूमिका अदा किया है। मंडल के दिनों में वंचित जातियों में बहुत ही गिने-चुने लेखक थे। प्रायः 99 प्रतिशत लेखक ही विशेषाधिकार युक्त वर्ग से थे, जिन्होंने मंडलवादी आरक्षण के खिलाफ सुविधाभोगी वर्ग को आक्रोशित करने में कोई कोर-कसर नहीं रखी। तब उसकी काट करने में वंचित वर्गों के लेखक पूरी तरह असहाय रहे। लेकिन आज की तारीख में वंचित वर्ग लेखकों से काफी समृद्ध हो चुका है, जिसमें सोशल मीडिया का बड़ा योगदान है। सोशल मीडिया की सौजन्य से इस वर्ग में लाखों छोटे-बड़े लेखक, पत्रकार पैदा हो चुके हैं। जो देश में व्याप्त भीषणतम आर्थिक और सामाजिक विषमता का सदव्यवहार कर वोट के जरिए क्रांति घटित करने लायक हालात बनाने में निरंतर प्रयत्नशील हैं।
[bs-quote quote=”अगर हम मुक्ति की लड़ाई में उतरने का मन बनाते हैं तो हमें कांशीराम के आर्थिक दर्शन, ‘जिसकी जितनी संख्या भरी- उसकी उतनी भागीदारी’ को मुख्य हथियार बनाना होगा। ऐसा इसलिए करना होगा क्योंकि दुनिया में जहां-जहां भी गुलामों ने शासकों के खिलाफ मुक्ति की लड़ाई लड़ी, उसकी शुरुआत आरक्षण से हुई. काबिलेगौर है कि आरक्षण और कुछ नहीं शक्ति के स्रोतों(आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक) से जबरन दूर धकेले गए लोगों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का माध्यम है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
बहरहाल उपरोक्त स्थिति को देखते हुए क्या दावे से नहीं कहा जा सकता कि आज की तारीख में यदि कांशीराम होते तो वे अवश्य ही शक्ति के स्रोतों पर बेपनाह कब्जा जमाए वर्गों के खिलाफ लोकतांत्रिक क्रांति घटित कर जन्मजात वंचितों को धन-धरती का मालिक बनाने का जो उनका सपना था, उसे पूरा कर दिखाते? लेकिन बहुजन समाज भाग्यशाली नहीं रहा इसलिए साहेब अपना सपना पूरे किए बिना ही 9 अक्तूबर, 2006 को वंचितों को रोते-बिलखते छोड़कर दुनिया से चले गए। बहरहाल मान्यवर के नहीं रहने पर जिस तरह भारत के सुविधाभोगी ने विनिवेशीकरण, निजीकरण और लैटरल इंट्री इत्यादि के जरिये बहुजनों को गुलामों की स्थिति में पहुंचा दिया है, वैसी स्थिति में हमें गुलामी से मुक्ति की लड़ाई में उतरने के भिन्न कोई विकल्प नहीं है।
जिसकी जितनी संख्या भारी…के जोर से ही लड़ी जा सकती है : गुलामी से मुक्ति की लड़ाई!
बहरहाल अगर हम मुक्ति की लड़ाई में उतरने का मन बनाते हैं तो हमें कांशीराम के आर्थिक दर्शन, ‘जिसकी जितनी संख्या भरी- उसकी उतनी भागीदारी’ को मुख्य हथियार बनाना होगा। ऐसा इसलिए करना होगा क्योंकि दुनिया में जहां-जहां भी गुलामों ने शासकों के खिलाफ मुक्ति की लड़ाई लड़ी, उसकी शुरुआत आरक्षण से हुई. काबिलेगौर है कि आरक्षण और कुछ नहीं शक्ति के स्रोतों(आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक) से जबरन दूर धकेले गए लोगों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का माध्यम है। आरक्षण से स्वाधीनता की लड़ाई का सबसे उज्ज्वल मिसाल भारत की स्वाधीनता संग्राम है। अंग्रेजी शासन में शक्ति के समस्त स्रोतों पर अंग्रेजों के एकाधिकार दौर में भारत के प्रभुवर्ग के लड़ाई की शुरुआत आरक्षण की विनम्र मांग से हुई। तब उनकी निरंतर विनम्र मांग को देखते हुए अंग्रेजों ने सबसे पहले 1892 में पब्लिक सर्विस कमीशन की द्वितीय श्रेणी की नौकरियों में 941 पदों में 158 पद भारतीयों के लिए आरक्षित किया। एक बार आरक्षण के जरिये शक्ति के स्रोतों का स्वाद चखने के बाद सन 1900 में पीडब्ल्यूडी, रेलवे ,टेलीग्राम, चुंगी आदि विभागों के उच्च पदों पर भारतीयों को नहीं रखे जाने के फैसले की कांग्रेस ने कड़ी निंदा की।
कांग्रेस तब आज के बहुजनों की भांति निजी कंपनियों में भारतीयों के लिए आरक्षण का आन्दोलन चलाया था। हिन्दुस्तान मिलों के घोषणा पत्रक में उल्लेख किया गया था कि ऑडिटर, वकील, खरीदने-बेचने वाले दलाल आदि भारतीय ही रखे जाएं। तब उनकी योग्यता का आधार केवल हिन्दुस्तानी होना था, परीक्षा में कम ज्यादा नंबर लाना नहीं। बहरहाल आरक्षण के जरिये शक्ति के स्रोतों का स्वाद चखते-चखते ही शक्ति के स्रोतों पर सम्पूर्ण एकाधिकार के लिए देश के सवर्णों ने पूर्ण स्वाधीनता का आन्दोलन छेड़ा और लम्बे समय तक संघर्ष चलाकर अंग्रेजो की जगह काबिज होने में सफल हो गए। ऐसा दक्षिण अफ्रीका में हुआ, जहां गोरों को हटाकर मूलनिवासी कालों ने शक्ति के समस्त स्रोतों पर कब्ज़ा जमा लिया और आज वे गोरों को प्रत्येक क्षेत्र में उनके संख्यानुपात 9-10 % पर सिमटने के लिए बाध्य कर दिए हैं। इससे गोरे वहां से पलायन करने लगे हैं।
बहरहाल इतिहास की धारा में बहते हुए मूलनिवासी एससी,एसटी, ओबीसी और इनसे धर्मान्तरित तबके के लोग भी आरक्षण के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, किन्तु वह लड़ाई अपने-अपने सेक्टर में आरक्षण बचाने, निजीक्षेत्र और न्यायपालिका में आरक्षण बढ़ाने की लड़ाई तक सीमित है।यदि बहुजनों को देश के सुविधाभोगी वर्ग की गुलामी से मुक्ति पानी है, जैसे हिन्दुस्तानियों ने अंग्रेजों से पाया, यदि उन्हें वर्ग संघर्ष में हारी हुई बाजी को पलटनी है तो उन्हें आरक्षण की लड़ाई को सर्वव्यापी आरक्षण तक विस्तार देना होगा और सर्वव्यापी आरक्षण के लिए मूलमंत्र बनाना होगा। साहेब कांशीराम के आर्थिक दर्शन, जिसकी जितनी संख्या भारी- उसकी उतनी भागीदारी को। भारी संतोष की बात है कि बहुजन बुद्धिजीवियों ने सोशल मीडिया का सद्व्यवहार कर साहेब के भागीदारी दर्शन को बहुजनों के जेहन में काफी हद तक बिठा दिया है। आज तमाम दलों के बहुजनवादी नेता और एक्टिविस्ट अपने- अपने तरीके से जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी की बात उठा रहे हैं। पर, यह स्पष्ट सन्देश नहीं पहुंच पाया है कि संख्यानुपात में भागीदारी कहां-कहां? अतः हमें उन सेक्टरों से अवगत कराना पड़ेगा जहां, सत्ता मिलने के बाद दलित, आदिवासी, पिछड़ों और धर्मान्तरित तबकों के संख्यानुपात में बंटवारा किया जायेगा। इस काम में ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ का दस सूत्रीय एजेंडा सहायक हो सकता है।
[bs-quote quote=”इतिहास की धारा में बहते हुए मूलनिवासी एससी,एसटी, ओबीसी और इनसे धर्मान्तरित तबके के लोग भी आरक्षण के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, किन्तु वह लड़ाई अपने-अपने सेक्टर में आरक्षण बचाने, निजीक्षेत्र और न्यायपालिका में आरक्षण बढ़ाने की लड़ाई तक सीमित हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
जिसकी जितनी संख्या भारी…कहाँ- कहाँ?
स्मरण रहे ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ बहुजन लेखकों का एक ऐसा संगठन है जो चप्पे-चप्पे साहेब का भागीदारी दर्शन लागू करवाने के लिए उनकी मृत्यु के बाद 15 मार्च, 2007 को वजूद में आया। साहेब के आर्थिक दर्शन से प्रेरित ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ का भारत के प्रमुख समाजों- सवर्ण, ओबीसी, एससी/एसटी और इनसे धर्मान्तरित अल्पसंख्यकों- के स्त्री-पुरूषों के मध्य उनकी संख्यानुपात में शक्ति के स्रोतों के बंटवारे के लिए निम्न दस सूत्रीय एजेंडा स्थिर किया!
- सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजीक्षेत्र की सभी स्तर की, सभी प्रकार की नौकरियों व धार्मिक प्रतिष्ठानों अर्थात पौरोहित्य।
- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा दी जानेवाली सभी वस्तुओं की डीलरशिप।
- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जानेवाली सभी वस्तुओं की खरीदारी।
- सड़क,भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों,पार्किंग,परिवहन।
- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा चलाये जानेवाले छोटे-बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों, तकनीकि-व्यावसायिक शिक्षण संस्थाओं के संचालन,प्रवेश व अध्यापन।
- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन के मद में खर्च की जानेवाली धनराशि।
- देश–विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ को दी जानेवाली धनराशि)।
- प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मिडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों
- रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की खाली पड़ी जमीन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य-आदिवासियों में वितरित हो।
- ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद-विधासभा की सीटों,राज्य एवं केन्द्र की कैबिनेट, विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों, विधान परिषद, राज्यसभा, राष्ट्रपति, राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री के कार्यालयों इत्यादि में लागू हो सामाजिक और लैंगिक विविधता !
आज कई राज्य सरकारें सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, आउट सोर्सिंग जॉब, निगमों, इंटरव्यू बोर्डों, धार्मिक न्यासों, मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि में आरक्षण लागू कर चुकी हैं। किन्तु किसी ने भी एक साथ उपरोक्त सभी क्षेत्रों में संख्यानुपात में आरक्षण की बात नहीं उठाई, इसलिए सभी क्षेत्रों में जिसकी जितनी संख्या भारी का मुद्दा नहीं खड़ा हो पाया। सिर्फ 2015 के विधान सभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव ने मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा सम्बन्धी बयान के खिलाफ जोर-शोर से सन्देश दिया था कि यदि सत्ता में आएंगे तो सभी क्षेत्रों में संख्यानुपात में आरक्षण लागू करेंगे। किन्तु सत्ता में आकर उन्होंने अपनी घोषणा को अमलीजामा नहीं पहनाया, पर चुनाव में संख्यानुपात में हर क्षेत्र में आरक्षण का मुद्दा उठाकर अप्रतिरोध्य भाजपा को शिकस्त देने सफल हो गए। यदि संगठित होकर बहुजनवादी दल यह घोषणा कर चुनाव में उतरें कि सत्ता में आने पर उपरोक्त क्षेत्रों में जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी भागीदारी लागू करेंगे तो गुलामी से मुक्ति की लड़ाई आसानी से जीत लेंगे।
कांशी राम नाम थे एक विचारधारा का जिसे मुकम्मल रूप से आगे बढ़ाने की जरूरत है।