ढाई आखर प्रेम यात्रा इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ की पहलकदमी अन्य स्थानीय सांस्कृतिक संगठनों के सहयोग से शुरू की गई जिसका उद्देश्य लोगों में प्रेम और भाईचारे का प्रसार करना है। पूरे 22 राज्यों में 28 सितंबर, 2023 को भगत सिंह के जन्मदिन पर राजस्थान के अलवर से शुरू हुई और 30 जनवरी, 2024 को दिल्ली में गांधी जी की शहादत दिवस पर समाप्त होगी। फिलहाल यह यात्रा देश के कई राज्यों में चल रही है और कुछ राज्यों में आने वाले दिनों में सम्पन्न होगी। यह केवल यात्रा नहीं है बल्कि यात्रा के बहाने गाँव से सीधे जुड़ने की एक मुहिम है। उनके सामाजिक, सांस्कृतिक,राजनीति और आर्थिक पहलू को करीब से जानना है। यह आलेख झारखंड में 8 दिसंबर से 12 दिसंबर,2023 तक चलने वाली यात्रा की पूर्व तैयारी के लिए गाँव-गाँव जाकर लोगों से संपर्क करने दौरान, लेखिका ने जहां जैसा देखा, महसूस किया और बातचीत की, उसे साझा किया- संपादक
राजस्थान के अलवर से ढाई आखर प्रेम यात्रा देश के 22 राज्यों में 28 सितंबर, 2023 को भगत सिंह के जन्मदिन पर शुरू हुई और 30 जनवरी, 2024 को दिल्ली में गांधी जी की शहादत दिवस तक जारी रहेगी। इस यात्रा को करने के मकसद में बहुत-सी बुनियादी बातें शामिल हैं जिनके अभ्यास से हम कहीं दूर होते जा रहे हैं। प्रेम करना दुष्कर कार्य हो चला है, सीखने की प्रक्रिया में ठहराव आ गया है, मनुष्यता में डूबी दीए की बाती भी मद्धिम पड़ रही है, हम विस्तारित से संकुचित सोच के दायरे में कैद होते जा रहे हैं, आत्मकेंद्रित होते चले जा रहे हैं। यह हमारी आदिम सभ्यता के विकास का ऐसा दौर है जहां इंसान की अहमियत नहीं रह गई है बल्कि वो सौदे का, बाज़ार का हिस्सा बन चुका है। ऐसी कई परिस्थितियों से हम जूझ रहे हैं जिसके लिए लोगों के पास चलकर जाना अपने आप में कष्टकर कार्य ज़रूर है पर यह कहीं हमें सरलता, सादगी और प्रेम के मूल्यों से आप्लावित करेगा तो कहीं संस्कृति के अनछुए दृश्यों को उजागर करेगा। लोगों से मिलना, संवाद करना हमें तरल बनाएगा, नदी सा प्रवाह देगा और जीवन में कृत्रिम ठहराव से मुक्त करेगा।
गालूडीह जमशेदपुर -कोलकाता हाइवे से जुड़ा कस्बा है, जहां आदिवासियों के साथ बांग्ला भाषी और अन्य समुदाय के लोग रहते हैं। हमारी यात्रा गालूडीह से निकलकर स्वर्णरेखा नदी पार करेगी, गालूडीह बैराज का यह इलाका लगभग 4-4.2 किलोमीटर का है जो बहुत ही सुंदर है। बैराज के इस इलाके में मात्र एक छोटा-सा गाँव बसा है और वो है दिगड़ी। बैराज पार करते ही राखा आ जाएगा जो राखा कॉपर माइंस के नाम से जाना जाता है। नदी पार करते ही हम माइंस के क्षेत्र में प्रवेश कर जाएंगे, आज़ादी के बाद इस खदान को हिंदुस्तान कॉपर माइंस के नाम से जाना जाता है, यहाँ केंदाडीह नाम की एक और खदान है। मानव विकास में धातुओं का अपना महत्व रहा है पर इसकी वजह से पर्यावरण और खदान के आसपास के सामाजिक तानेबाने पर पड़े गंभीर असर को नजर-अंदाज़ नहीं किया जा सकता, जिसकी परिणति रही हैं जन-आंदोलन जो कभी जन की आवाज़ का हक़ कायम कर पाए और कभी रसूख के दम पर दबा दिए गए। राखा से निकल माटीगोड़ा होते जादूगोड़ा चौक से हम भाटिन गाँव की तरफ बढ़ेंगे। 13 दिसंबर, 2023 को यात्रा के विराम स्थल साकची बिरसा चौक से लगभग 34 km के इस पूरे रास्ते में हरियाली के साथ सरल, सहज ग्रामीण जीवन शैली मन मोह लेगी। हमने कितनी ज़रूरतें अपने लिए पैदा की हैं और करते चले जा रहे हैं इसकी तुलना यहाँ से गुजरते हुए आप निश्चित ही करेंगे।
ढाई आखर प्रेम, झारखंड पड़ाव में हम स्वर्णरेखा नदी के दोनों पार ही चलेंगे। पिसका रांची से निकली स्वर्णरेखा/सुबर्णरेखा नदी अपने नाम के अनुरूप तटीय क्षेत्रों में सोने के कण पाए जाने के लिए प्रसिद्ध हुई ,यह रांची से होते, सराइकेला, पूर्वी सिंहभूम होते ओडिशा और बंगाल को छूते बंगाल की खाड़ी में गिरती है। सुबर्णरेखा नदी के आसपास रहने वाले लोगों की यह जीवनदायिनी है पर खदान और औद्योगिकीकरण के कारण यह प्रदूषित भी बहुत हुई है जिसका असर इस पर निर्भर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। यहां स्वर्णरेखा नाम से एक फिल्म जानेमाने फिल्मकार ऋत्विक घटक की फिल्म याद किया जाना समीचीन होगा।
हर गाँव में सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए और सभा-गोष्ठियों के लिए अखड़ा रहता है इस सार्वजनिक स्थल के प्रति लोगों की श्रद्धा होती है। हमारी यात्रा में भी जिस गाँव में पड़ाव रहेगा, उसमें ज्यादातर जगहों में अखड़ा में लोग एकत्र होंगे। यह सब शहरी सभ्यता के जीने वाले लोगों के लिए नया होगा और बहुत से सवाल भी आएंगे पर इनके जीवन की सरलता ने इन्हें इनकी सुंदर सामाजिक संस्कृति से बांध कर रखा है। मुनाफे की संस्कृति से दूर ये ज़रूरत के हिसाब से जीने के अभ्यास में ढले हैं। इस बात को जसिंता केरकेट्टा की कविता परवाह के माध्यम से बेहतर समझा जा सकता है-
माँ / एक बोझा लकड़ी के लिए / क्यों दिन भर जंगल छानती / पहाड़ लाँघती / देर शाम घर लौटती हो?
माँ कहती है / जंगल छानती / पहाड़ लाँघती / दिन भर भटकती हूँ / सिर्फ़ सूखी लकड़ियों के लिए / कहीं काट न दूँ कोई ज़िंदा पेड़!
यह दर्शन हर आदिवासी जीता है और इसी से धरती बची हुई है। गांवों में घूमने के दौरान 2-3 लोगों से यह कहते सुना कि कभी किसी भी आदिवासी क्षेत्र में आपने प्राकृतिक आपदा सुनीं है ? सोचने पर लगा कि यह सच्चाई है। वे जिस धीरज और मनोयोग से प्रकृति को सहेजते, दुलारते, पूजते हैं वो अपने आप में एक मिसाल है।
दीपावली के दौरान झारखंड में संथाली समुदाय सोहराय मनाता है जो दीवाली की तरह पाँच दिन का पर्व है पर इसके मनाने के पीछे का दर्शन महत्वपूर्ण है। दीवाली के दिन ये अपनी गायों-बैलों को सजाकर इनकी पूजा करते हैं और आदर प्रकट करते हैं कि इनकी वजह से ही खेती-किसानी का काम हो रहा है। इसके विस्तार में न जाते यह भी रेखांकित करना ज़रूरी है कि इस दौरान गांवों में घूमना सुखद आश्चर्य से भर देता है और वो है सोहराय चित्रों से सजी इनके घरों की बाहरी दीवारें जो कि देश-विदेश में सुपरिचित और प्रसिद्ध हैं। इसके बाद आसपास के गांवों में छोटे-बड़े सांस्कृतिक मेले का जुटान भी देखने मिलता है जिसमें स्थानीय सांस्कृतिक दलों की प्रस्तुतियों के लिए दर्शकों की कमी नहीं होती।
इस संवाद के जरिए इस क्षेत्र की कुछ किवदन्ती भी साझा कर रही हूँ, यात्रा के दौरान जब सांस्कृतिक पदयात्री इसके बारे में गाँव के लोगों से पूछेंगे तो हो सकता है कुछ नई जानकारी भी हासिल हो। जादूगोड़ा से निकलकर भाटिन होते हुए झरिया गाँव पहुंचेंगे और इससे आगे राजदोहा है तो इन दोनों गाँव से जुड़ी ऐसी मान्यता है कि हर उत्सव में भेष बदलकर आराबुरु शामिल होते हैं। सोहराय के बाद राँगा पहाड़ में आराबुरु देवता भेष बदल गए और गाना गाते, नृत्य करते हुए उपस्थित थे जिन्हें देख झरिया गाँव के पुरुष ईर्ष्या किए, उन्हें भगाया-मारा तो आराबुरु उन्हें कहते हैं तुम लोग अगर इस उत्सव में आओगे तो कुत्ते छोड़ूँगा जिसे संथाली में कहा जाता है गुतरूत सेता यानि शेर जैसा कुत्ता। इस किवदन्ती को झरिया में रहने वाले लोग अभी भी मनाते हैं इसलिए वे कभी भी राजदोहा के रांगा पहाड़/ लाल पहाड़ में नहीं चढ़ते और कोई भी उत्सव झरिया के लोग 15 दिन बाद मनाते हैं। जैसे कार्तिक अमावस्या में सोहराय मनाया जाता है तो झरिया वाले कार्तिक पूर्णिमा में इसे मनाते हैं। इसी पहाड़ में रोहिणी नक्षत्र के बाद पड़ने वाले पहले सोमवार को गांववासी टमाक लेकर पहाड़ पर चढ़ते हैं और बुरबोंगा की जाती है, बुरु यानि पहाड़ और बोंगा यानि पूजा।
इसी तरह हम आदिवासी सेंदरा जिसे पशु शिकार से जोड़कर बताया जाता है जबकि इसका अर्थ होता है खोजना। इनका मानना है कि जब टमाक जम के रात में बजाया जाता है तो आसपास के सभी जानवर आवाज़ सुनकर दूर भाग जाते हैं इसके बावजूद यदि कोई पशु यदाकदा सामने आता है तो उसे ही पकड़ते हैं। रात भर वहाँ नृत्य-गान चलता है इसके साथ ही युवा और किशोरों को यौन स्वास्थ्य से संबंधित ज्ञान की कक्षा भी ली जाती है। अक्सर ऐसा होता है कि वे खाली हाथ ही लौटते हैं और सुबह पहाड़ की तलहटी से उतरकर जो रस्म होती है उसे सूतनटांडी कहा जाता है, पहाड़ गए पुरुषों जिन्हें दिशुआ कहते हैं। उनके साथ गाँव की सभी स्त्रियाँ भी शामिल होती हैं। मन्नत मांगना हर समुदाय के लोग करते हैं तो आदिवासी समुदाय भी इससे अछूता नहीं है, वे इस रस्म में मन्नत मानने का काम भी करते हैं।
ऐसे ही एक और मान्यता है कि अगर किसी की शादी-ब्याह श्राद्ध होना है तो गाँव देवता सामान देते हैं। वैसे ही किसी गाँव के बसने की प्रक्रिया को तेंगेन कहते हैं इसके बारे में भी रोचक और लोकज्ञान से जुड़ी बात दिखाई देती है। जब किसी क्षेत्र में बसने की बात आती है तो उस जगह में एक मुर्गा और पानी भर के रखा जाता है, ऐसी मान्यता है कि दूसरे दिन यदि दोनों सुरक्षित हैं तो उस जगह में गाँव बसाया जाता है , साथ ही जो गाँव की स्थापना करते हैं वो गाँव के मांझी बाबा होंगे और यह वंश दर वंश कायम रहता है। यदि मांझी की मृत्यु होती है तो उनकी पत्नी को यह दर्ज़ा हासिल होता है। इनकी सामाजिक संरचना में आपसी आक्रोश नहीं दिखता है। व्यवहार में भी ये शांत और सरल लोग होते हैं, गाँव की किसी भी समस्या के लिए ये बैठकर मांझी बाबा को बताते हैं और उनके निर्णय पर विश्वास करते हैं। शादी में भी लड़की-लड़के का प्रतिनिधित्व मांझी करते हैं, गाँव में बहू बनकर आई लड़की होपोनऐरा यानि गाँव की बेटी कहलाती है। आदिवासी समुदाय में अन्य धर्मों की तरह कोई धर्मगुरु नहीं होता है पर प्रकृति में अवतरण का विश्वास आदिपुरुष पितचू हाड़ाम (आदिपिता) और पिलचू बूड़ी (आदि माँ ) हैं जैसे कि आदम -हव्वा और अन्य। गाँव की सामाजिक व्यवस्था के लिए पंच होते हैं, जिनमें शामिल होते हैं मांझी नाइके (पूजा करने, कराने वाले), पराणिक( मध्यस्थ), जोग मांझी, गोढ़ेत भोदरान (भाद्र बुद्धिजीवी जो बूढ़े पुरूधूल (सफेद बाल वाले) शामिल होते हैं। सामाजिक व्यवस्था के साथ सामूहिकता पर विश्वास वो मूल स्वभाव है जिसे हमें सीखने, समझने की आवश्यकता है। अपने हर त्योहार जो बुनियादी रूप से प्रकृति पर्व होते हैं उनमें सामूहिक गान, वादन और नृत्य इनकी खूबसूरती को कई गुना बढ़ा देता है, सामूहिकता के इस भाव को अगर हम ग्रहण कर लिए तो आदिवासी, प्रकृतिवासी होने की तरफ आगे बढ़ेंगे, इस ढाई आखर यात्रा में यही कोशिश रहेगी कि हम अपने जीवन में आदिवासियत को सँजोए और जीने के अभ्यास में शामिल करें।