Friday, November 22, 2024
Friday, November 22, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमसंस्कृति अविश्वसनीय थी मां की यातना और सहनशीलता (भाग - दो )

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

 अविश्वसनीय थी मां की यातना और सहनशीलता (भाग – दो )

भाग – दो  हमें तो इस घटना के बारे में मालूम पड़ा गेंदी बाई से। छुट्टियों में हम जब कभी भानपुरा जाते तो मैं गेंदी बाई से कुरेद-कुरेद कर उनके बचपन के बारे में पूछती। एक बार उन्होंने बताया कि इस घर में आने के कोई तीन-चार साल बाद दादी ने उन्हें अपनी माँ के […]

भाग – दो 

हमें तो इस घटना के बारे में मालूम पड़ा गेंदी बाई से। छुट्टियों में हम जब कभी भानपुरा जाते तो मैं गेंदी बाई से कुरेद-कुरेद कर उनके बचपन के बारे में पूछती। एक बार उन्होंने बताया कि इस घर में आने के कोई तीन-चार साल बाद दादी ने उन्हें अपनी माँ के यहाँ भेज दिया था। इस घर में उन्होंने डाँट-फटकार तो बहुत सुनी-सही पर मार कभी नहीं खाई। लेकिन नानी तो ज़रा सी ग़लती होने पर उन्हें पीट भी देती थी। और चूमटिये तो (खाना बनाने में प्रयोग किया जानेवाला) बहुत मारती थीं। उस ज़माने में लुगाइयाँ (औरतें) पगरखी (स्लीपर या चप्पल) नहीं पहनती थीं। हम यहाँ भी नहीं पहनते थे और हाट-बाज़ार नंगे पैर ही जाते थे पर भयंकर गर्मी के दिनों में नानी जब उन्हें बकरियाँ चराने के लिए जंगल की तरफ़ भेजतीं तो आग जैसी तपती ज़मीन पर चलने में उनके पैरों में छाले पड़ जाते। डरते-डरते उन्होंने नानी से पगरखी के लिए कहा तो उन्होंने ऐसा फटकारा कि बस। तब वे छिपकर, घर से कोई  डोरी ले जातीं और वहाँ पेड़ों से पत्ते तोड़-तोड़ कर पैरों में बाँध लेतीं। नानी के घर बिताए बेहद कष्टप्रद एक साल की और भी कई बातें उन्होंने बताईं तो मेरे मुँह से निकला, ‘कैसी ज़िन्दगी जी है गेंदी बाई आपने…इतने कष्ट, इतनी तक़लीफ़ें!’ इस पर वे बोलीं -‘अरे, तुम्हारी माँ ने जो सहा उसके आगे हमरा क्या सहना? तुम्हें का बताया नहीं माँ ने कि कैसे छः महीने उन्होंने नाल (सीढ़ी) पर बैठकर काटे थे?’ और तब उन्होंने यह सारा क़िस्सा विस्तार से बताया…इस टिप्पणी के साथ कि मेरा और सीता-मन्नी का बड़ा मन करता कि हम कुछ मदद ही कर दें‑और कुछ भी तो दो बात ही कर लें पर किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी। सुनकर ही मैं तो भन्ना गई। मुझसे दो साल बड़ी बहिन सुशीला शुरू से ही ज़रा शान्त स्वभाव की थी तो वह हैरान और दुखी होकर रह गई, मेरी तरह भन्नाई नहीं !

अजमेर लौटते ही मैंने माँ से पूछा- ‘दादी साहब ने आपको छः महीनों तक सीढ़ी पर बिठा कर रखा था और आपने यह बात हम लोगों को कभी बताई तक नहीं।’ माँ मेरा चेहरा ऐसे देखने लगीं जैसे कोई भूली-बिसरी बात याद कर रही हो।

‘भानपुरा में सुनकर आई दिखे या बात। बड़ी पुरानी बात हुई या तो और क्या बताती…बताने जैसा इसमें है ही क्या?’

[bs-quote quote=”माँ की ज़िन्दगी भी क्या थी…बस, काम और काम। बीस-बाईस आदमियों का खाना वे एक वक़्त में पकाती थीं। सवेरे का खाना उनके गले में पूरी तरह उतरता भी नहीं होगा कि शाम के खाने में जुट जातीं। पिताजी अपने दोनों छोटे भाइयों को भी पढ़ाने के लिए इन्दौर ले आए थे…आठ-नौ विद्यार्थियों को भी घर में रखकर पढ़ा रहे थे। उनमें से कुछ तो भानपुरा के ही थे। आने-जाने वाले और मिलने वालों का ताँता तो लगा ही रहता था और जिनमें से कइयों के लिए पिताजी का आग्रह कि खाना यहीं खाकर जाएँगे, सो माँ तो सारा दिन रसोई में ही झुकी रहती।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”A” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

‘पर आप बैठी ही क्यों? क्यों नहीं मना कर दिया आपने कि मैं नहीं बैठ सकती छः महीने के लिए सीढ़ियों पर। ऐसी सज़ा भी कोई दे सकता है भला?’ मेरा ग़ुस्सा फिर भड़क उठा। माँ हँसकर बोली- ‘अरे, जिसने सहा उसे तो कोई ग़ुस्सा नहीं और तू सुनकर ही लाल-पीली हो रही है। तू नी समझेगी…वो ज़माना ही ऐसा था। सासूजी थीं वो मेरी। उन्होंने जो किया वो हक़ था उनका और जो मैंने सहा, फ़र्ज़ था मेरा। और  सहा क्या‑‑‑बस, यों समझो कि फ़रज़ पूरा किया अपना।’

सुना तो मैं हैरान। माँ के लिए यह सब कुछ शायद इतना सहज-सामान्य था कि इसके लिए वे ‘सहना’ शब्द का प्रयोग भी नहीं करना चाहती। नहीं जानती केवल माँ या उस ज़माने की सभी औरतों की हक़ीक़त थी ये, बस सहना और उसे सहज भाव से लेना।

‘और पिताजी क्या करते रहे?, वे तो बेटे थे, वे तो कम से कम बोल सकते थे।’

‘वे तो वहाँ थे ही नहीं। शादी के एक साल बाद वे दादा साहब से छिपकर दो लोगों की मदद से आगे पढ़ने के लिए जोधपुर भाग गए थे। भानपुरा में तो चार क्लास तक का स्कूल था, बस ! सो दादा साहब तो चाहते थे कि उसके बाद वे भी उनके धन्धे में लगें पर तेरे पिताजी तो पढ़ने के पीछे पागल, सो भाग लिए। पहले तो दादा साहब, दादी साहब ख़ूब ग़ुस्सा हुए पर फिर सन्तोष कर लिया। रुपया पैसा भेजने लगे। सन्तोष था कि चलो, पढ़ ही तो रहा है। कोई ग़लत काम तो नहीं कर रहा है।’

‘भाग कर गए आपको भी नहीं बताया?’

[bs-quote quote=”ऐसी सज़ा भी कोई दे सकता है भला?’ मेरा ग़ुस्सा फिर भड़क उठा। माँ हँसकर बोली- ‘अरे, जिसने सहा उसे तो कोई ग़ुस्सा नहीं और तू सुनकर ही लाल-पीली हो रही है। तू नी समझेगी…वो ज़माना ही ऐसा था। सासूजी थीं वो मेरी। उन्होंने जो किया वो हक़ था उनका और जो मैंने सहा, फ़र्ज़ था मेरा। और  सहा क्या‑‑‑बस, यों समझो कि फ़रज़ पूरा किया अपना।’” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

माँ हँस कर बोलीं – ‘ये आजकल की लड़कियाँ ऊ ज़माना री बाताँ न जानो…न समझो। उस ज़माने में शादी के बाद पति-पत्नी का बोलना तो दूर…चेहरा भी नहीं देखते थे। ब्याह कर आई तब से मेरी कोई बातचीत ही नहीं थी उनसे उस उमर में धणी-लुगाई (पति-पत्नी) कोई बात करते थे क्या? उन्होंने तो तब तक मेरा मुँह भी नहीं देखा था।’

तब पिताजी की जीवनी में पढ़ी बात याद आई कि वे तो उस उम्र में न शादी करना चाहते थे, न दादा साहब का धन्धा। उन पर तो बस, पढ़ने की…कुछ बनने की धुन सवार थी। पर शादी तो उन्हें करनी पड़ी। हाँ, धन्धे में जुड़नेसे पहले वे ज़रूर घर से ही भाग लिए। यानी दादी ने शादी बेटे के लिए नहीं, अपने लिए की थी जिसमें उन्हें एक  बहू मिले और जिसे डाँट-फटकार कर…घरवालों की सेवा में लगाकर वे अपना सासपना सन्तुष्ट कर सकें। माँ अपवाद नहीं थीं…उस ज़माने में यही तो होता था। लड़की की शादी नौ-दस साल की उमर में कर दी जाती थी। हाँ, उस हालत में गौना ज़रूर दो-तीन साल बाद होता था, जिससे कम से कम वह सुसराल वालों की सेवा के लायक़ हो जाए। उन शादियों में लड़की के लिए शायद पति की तो कोई अहमियत ही नहीं होती थी। अहमियत होती थी तोकेवल सुसराल की।

‘और दादा साहब? वे तो कह सकते थे। वे भी आपकी इस दुर्दशा पर चुप रहे?’

‘ऐसे मामलों में दादी का स्वभाव जानते थे…बोलते भी तो उनकी चलती क्या? और यह सब तो उस ज़माने में होता ही रहता था।’

‘अच्छा हुआ मेरे जनम से पहले ही वे मर गईं।’ अचानक मेरे मुँह से निकल गया तो माँ बिगड़ गईं

‘अरे ऐसा क्यों कहती है…पोतियों को तो वे बहुत प्यार करती थीं। बड़ी बाई (मेरी सबसे बड़ी बहन) और कमला (बड़े काकासाहब चन्द्रराज भंडारी की सबसे बड़ी बेटी) पर तो निहाल रहती थी। हमेशा कहती थीं- ‘रोड़ी (कूड़े के ढेर) में ये रतन कहाँ से पैदा हो गए।’ फिर हँसकर बोलीं- ‘हम दोनों बहुओं को तो उन्होंने हमेशा रोड़ी हीसमझा। क्या कहूँ, अब तक़दीर हमारी…वरना हम दोनों बहुओं ने काम तो ख़ूब किया। उनकी सेवा में भी कोई कसर नहीं रखी पर उनका जी नहीं ठरा तो नहीं ठरा (सन्तुष्ट होना)।’

[bs-quote quote=”कच्ची उम्र में ही दादी के राज में उन्हें जिस तरह दबाया गया…जैसी अमानवीय यातना दी गई उसमें वे बिलकुल सिकुड़ ही नहीं गईं, बुझ भी गईं बल्कि कहूँ कि एक तरह से निर्जीव ही हो गईं। इस निर्जीवता के चलते ही तो वे ज़िन्दगी भर दुलार और दुत्कार, प्यार और फटकार में, कभी अन्तर ही नहीं कर पाईं। बस, सबको समान रूप से झेलती रहीं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आश्चर्य! माँ के मुँह से मैंने दादी के विरुद्ध तो क्या, उनकी शिकायत करते हुए कभी, एक शब्द तक नहीं सुना। जो कुछ उन्होंने सहा-भोगा उसमें दादी की कोई ज़्यादती नहीं…यह तो अपनी क़िस्मत का लेखा-जोखा था जो उन्हें भोगना था। समझ नहीं आता इसे माँ की सहनशीलता कहूँ या दब्बूपन। और यही दब्बूपन उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बन गया था, जिसे वे सारी ज़िन्दगी ढोती रहीं। पिता की ज़्यादतियों के खि़लाफ़ भी कभी एक शब्द तक न बोल सकीं। शायद इसीलिए मैंने कभी लिखा था कि मेरी सारी सहानुभूति हमेशा चाहे माँ की ही तरफ़ रही हो, पर वेमेरा आदर्श कभी नहीं बन सकीं।

कभी-कभी सोचती हूँ कि क्या थी उस ज़माने की औरतों की ज़िन्दगी? सधवा माँ हो या वे तीन बाल-विधवाएँ। पति का अर्थ जानने-समझने के पहले ही जो अपने पतियों को खो बैठीं और उनमें से चाहे किसी को भी अपने पति का चेहरा तक याद न हो फिर भी उस अजाने-अनचाहे पति के नाम पर ज़िन्दगी भर उन्होंने वैधव्य का बोझ ढोया और सिर्फ़ रोटी-कपड़े के एवज़ में रात-दिन घर का उबाऊ काम ही तो करती रहीं। अतृप्त पत्नीत्व…अतृप्त मातृत्व…जीवन के किसी भी कोने में आह्लाद का कोई अवसर नहीं…उल्लास का कोई क्षण नहीं। राजस्थान के छोटे क़स्बों-गाँवों में आज भी तो बाल विधवाओं की यही स्थिति है तो इसे पुरानी पीढ़ी की स्त्रिायों की तक़लीफ़ कहूँ या स्त्री – मात्र की यातना। सारे कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए वहाँ आज भी बाल-विवाह हो रहे हैं और जब बाल-विवाह होंगे तो कहीं-न-कहीं इस अभिशप्त ज़िन्दगी को जीने के लिए बाल-विधवाएँ भी होंगी ही।

वापस माँ पर लौटती हूँ। जोधपुर से पिताजी इन्दौर चले गए और वहीं उन्होंने अपनी दसवीं तक की पढ़ाई पूरी की। (केवल दसवीं तक ही पढ़े थे पिताजी !)  धीरे-धीरे उन्होंने वहाँ के सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्रों में केवल अपनी जगह ही नहीं बनाई बल्कि इन क्षेत्रों में उनका महत्व भी बढ़ता गया। अब पिताजी बराबर भानपुरा आते-जाते रहते थे और इस दौरान ही माँ से उनका सम्बन्ध भी जुड़ा। दादी ने भानपुरा में ही अपने तीसरे-चौथे बेटे को जन्म दिया। चौथे  बेटे के जन्म के कोई साल भर बाद माँ ने अपने पहले बेटे को जन्म दिया पर शायद साल भर बाद ही शायद वह गुज़र भी गया। दूसरी बेटी भी जन्म के कुछ समय बाद ही गुज़र गई। दोनों बच्चे किन हालात में रहे…कैसे गुज़र गए मुझे कुछ नहीं मालूम। माँ तो अपने अतीत के बारे में कुछ बताती ही नहीं थी। वे किस भावनात्मक कष्ट से गुज़री होंगी, इसकी कल्पना मैं ज़रूर कर सकती हूँ। उस ज़माने में माँ-बाप के सामने अपने बच्चों को गोद में लेना भी परले सिरे की बेशर्मी मानी जाती थी। पता नहीं, बीमारी के दौरान भी माँ उन्हें गोद में ले पाई होंगी या नहीं? कौन जाने दादी के सामने वे अपने बच्चों की मौत पर खुलकर रो भी पाई होंगी या नहीं? पिताजी बच्चों के जन्म के समय भी भानपुरा आए थे और मृत्यु के समय तो आना ही था। उन्हें अपने बच्चों से बहुत लगाव था और उनकी  मृत्यु पर वे बहुत दुखी भी हुए। मैं कल्पना कर सकती हूँ कि माँ ने भी पिताजी के सामने ही मन में जमा हुआ सारा दुख उँडेला होगा। उसके बाद पिताजी माँ को इन्दौर ले गए और वहीं कुछ समय बाद मेरी सबसे बड़ी बहन का जन्म हुआ। उस समय तक पिताजी की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी हो गई थी सो उन्हें हथेलियों पर ही पाला-पोसा गया।

[bs-quote quote=”पत्नी की मृत्यु के कोई पन्द्रह-बीस दिन बाद उन्होंने कहा था-‘मन्नू, जब तक वह जीवित रही, मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि वह भी है ! बस, जैसे है तो है ! ….पर जब से वह चली गई, सोते जागते, उठते-बैठते, रात-दिन बस, जैसे वही मेरे आगे-पीछे, मेरे मन में घूमती रहती है ! लगता है जैसे वह थी तो ही मैं ज़िन्दा था !” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

पिताजी के साथ माँ इन्दौर चली गईं। दादी का ख़ौफ़ तो ख़त्म हुआ पर उनकी ज़िन्दगी में बहुत बदलाव आया क्या? उनकी इन्दौर की ज़िन्दगी की जो थोड़ी बहुत जानकारी मुझे मिली वह बड़ी बहन के द्वारा ही मिली। उन्होंने कहा, ‘माँ की ज़िन्दगी भी क्या थी…बस, काम और काम। बीस-बाईस आदमियों का खाना वे एक वक़्त में पकाती थीं। सवेरे का खाना उनके गले में पूरी तरह उतरता भी नहीं होगा कि शाम के खाने में जुट जातीं। पिताजी अपने दोनों छोटे भाइयों को भी पढ़ाने के लिए इन्दौर ले आए थे…आठ-नौ विद्यार्थियों को भी घर में रखकर पढ़ा रहे थे। उनमें से कुछ तो भानपुरा के ही थे। आने-जाने वाले और मिलने वालों का ताँता तो लगा ही रहता था और जिनमें से कइयों के लिए पिताजी का आग्रह कि खाना यहीं खाकर जाएँगे, सो माँ तो सारा दिन रसोई में ही झुकी रहती। नौकर थे पर ऊपर के काम के लिए। खाना भी क्या, वही चार सब्ज़ियाँ, ढेर सारे आटे के पतले-पतले फुलके, हाथ की बनी मिठाई…सभी कुछ तो चाहिए था।’ बहन जी भी बड़े प्रशंसात्मक भाव से जब-तब पिताजी के उस समय के यश की बात करती रही हैं और मैंने उनकी जीवनी में भी पढ़ा कि उन दिनों पिताजी का यश, उनकी प्रशंसा दिक्-दिगन्त में फैली हुई थी। शिक्षा के क्षेत्र में उठाए गए उनके क़दम‑‑राजनीति के क्षेत्र में उनकी सक्रियता, ज़रूरतमंदों की मदद, उनके व्यवहार की ऊष्मा…यश तो उनका फैलना ही था। पर क्या कभी किसी ने एक क्षण को भी सोचा कि इसमें से बहुत कुछ तो रात-दिन परिश्रम की चक्की में पिसती मेरी माँ के कन्धों पर ही टिका हुआ था। नहीं, किसी ने नहीं सोचा। औरत के लिए सोचता ही कौन था? इसीलिए माँ के यश की बात तो कैसे कहें, उनकी प्रशंसा में भी कभी किसी ने दो शब्द तक नहीं कहे। माँ के शब्दों में ही कहूँ तो-‘औरत जो भी करे वह उसका फ़र्ज़ और पति जो भी करवाए वह उसका अधिकार।’ और अधिकार-सम्पन्न व्यक्ति ही तो यश के भागीदार होते हैं।

 केवल श्रम ही नहीं, कभी-कभी ख़र्च बहुत ज़्यादा बढ़ जाता तो पिताजी माँ से उनके एक-दो गहने भी ले लेते और माँ बिना कुछ चूँ-चपड़ किए उनको दे भी देतीं। इतना तो मैं जानती हूँ कि उस ज़माने में औरतों को अपने गहनों से कितना प्यार होता था क्योंकि उसी में उन्हें अपनी सुरक्षा दिखाई देती थी। माँ अपने घर से भी गहने तो लाई ही थीं।  इकलौती बहू होने के नाते दादी ने भी उन्हें शादी के मौक़े पर काफ़ी गहने दिए थे। इन्दौर आते समय दादी ने माँ को उनके सारे गहने सौंप दिए थे। हर औरत की तरह माँ को भी अपने गहनों से प्यार तो ज़रूर रहा होगा पर पिताजी की ज़रूरत उन्हें शायद अपने प्यार से भी ज़्यादा बड़ी लगी होगी और वे चुपचाप गहने निकाल कर देती रहीं। यह अलग बात है कि उनकी भावनाओं की क़द्र कभी किसी ने जानी ही नहीं। यहाँ तक कि बड़ी बहन जी के मुँह से भी मैंने जब-तब यही सुना कि ‘माँ ने बस, रात-दिन हाड़-तोड़ परिश्रम करना तो ज़रूर जाना पर स्त्री-सुलभ चतुराई तो उनमें धेले भर की नहीं थी। अरे, इफ़रात के दिनों में उन्हें अपने लिए और गहने बनवा कर रखने थे…रुपए बचाकर, छिपाकर रखने थे। हर औरत करती है यह सब, पर नहीं, बनवाना तो दूर वे तो बस अपने गहने भी निकाल-निकाल कर देती रहीं।’ भावनात्मक रूप से पूरी तरह माँ के साथ जुड़े होने के कारण बहन की इस टिप्पणी पर पहले तो मैं हैरान-परेशान। मन तो होता था कि कहूँ, ‘हाँ, पति के हर संकट के समय या मात्रा उनकी ज़रूरत के वक़्त भी अपने गहने समेट कर बैठ जाने वाली, पति को इन्कार कर देने वाली चतुराई तो माँ में सचमुच नहीं थी। उनमें तो पति के हर संकट में उनकी सहायक बनने की मूर्खता ही भरी थी।’ पर उस समय कहा कुछ भी नहीं। लेकिन आज जब बहुत तटस्थ होकर माँ के व्यक्तित्व का विश्लेषण करती हूँ तो लगता है कि पिता की हर ज़रूरत के आगे कभी भी कोई प्रश्न चिन्ह लगाए बिना मौन भाव से यों समर्पित होते चलना, उनकी उदारता या सहनशीलता थी या सही-ग़लत पर भी कुछ न कह पाने की उनकी अपनी कातर विवशता‑‑‑ दयनीय असमर्थता। शायद यही सही है।

मन्नू भंडारी

कच्ची उम्र में ही दादी के राज में उन्हें जिस तरह दबाया गया…जैसी अमानवीय यातना दी गई उसमें वे बिलकुल सिकुड़ ही नहीं गईं, बुझ भी गईं बल्कि कहूँ कि एक तरह से निर्जीव ही हो गईं। इस निर्जीवता के चलते ही तो वे ज़िन्दगी भर दुलार और दुत्कार, प्यार और फटकार में, कभी अन्तर ही नहीं कर पाईं। बस, सबको समान रूप से झेलती रहीं। हाँ, पिताजी से ज़रूर आज मेरा एक प्रश्न है…और उनके जीवित रहते, अपनी आँखों से देखने के बाद जिसके लिए मैं उनसे बराबर झगड़ा भी करती रही कि आपकी आकांक्षाओं के लिए जो पत्नी बिना किसी दुविधा और संकोच के अपना सारा श्रम ही नहीं अपना सारा धन भी, बराबर झोंकती रही उसे किसी तरह का श्रेय देना तो दूर, अपनी ज़िन्दगी में मात्रा एक सेविका से अधिक किसी तरह की कोई अहमियत क्यों नहीं दी? कभी उसकी इच्छा-आकांक्षाओं के बारे में जानने की कोशिश तक क्यों नहीं की? जो पिता दूसरों के प्रति बेहद सहृदय, बेहद संवेदनशील और बेहद उदार थे, माँ तक आते-आते क्यों उनकी सारी संवेदनशीलता सूख जाती थी, उदारता सिकुड़ जाती थी, यह मैं आज तक नहीं समझ पाई। मुझे लगता है कि यदि माँ पिताजी से पहले चली जाती और उन्हें किसी और के यहाँ रहना पड़ता तभी वे शायद अपनी ज़िन्दगी में उनकी अहमियत को, उनके महत्व को समझ पाते, उनकी क़ीमत आँक पाते! पर ऐसा हुआ कहीं। इस सन्दर्भ में अचानक जैनेन्द्र जी की बात याद आ गई। पत्नी की मृत्यु के कोई पन्द्रह-बीस दिन बाद उन्होंने कहा था-‘मन्नू, जब तक वह जीवित रही, मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया कि वह भी है ! बस, जैसे है तो है ! ….पर जब से वह चली गई, सोते जागते, उठते-बैठते, रात-दिन बस, जैसे वही मेरे आगे-पीछे, मेरे मन में घूमती रहती है ! लगता है जैसे वह थी तो ही मैं ज़िन्दा था ! उसके जाने के बाद तो‑‑‑(यह प्रसंग मैंने अपनी पुस्तक एक कहानी यह भी में पूरे विस्तार से लिखा है)।’   सोचती हूँ इन नामी-गिरामी यशस्वी पुरुषों की सीधी-सरल समर्पित पत्नियों के लिए उनकी ज़िन्दगी में अपनी क़ीमत अँकवाने के लिए, अपना महत्व मनवाने के लिए क्या मृत्यु का वरण ही अनिवार्य है?

 

मन्नू भंडारी हिंदी की शीर्षस्थ कहानीकार और उपन्यासकार हैं।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।
2 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here