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स्त्रियों की नज़र में प्रेमचंद और उनकी रचनाएँ क्या हैं

पहला हिस्सा प्रेमचंद की जयंती के मौके पर पूरे देश में लोग उन्हें याद करते हैं। प्रेमचंद के प्रशंसकों और आलोचकों का विस्तृत संसार है। इस बार हमें लगा कि प्रेमचंद आधी दुनिया में क्या जगह रखते हैं यह जानना चाहिए। इसलिए हमने लगभग चालीस महिलाओं को एक व्हाट्सएप संदेश भेजा कि उन्होंने प्रेमचंद को […]

पहला हिस्सा

प्रेमचंद की जयंती के मौके पर पूरे देश में लोग उन्हें याद करते हैं। प्रेमचंद के प्रशंसकों और आलोचकों का विस्तृत संसार है। इस बार हमें लगा कि प्रेमचंद आधी दुनिया में क्या जगह रखते हैं यह जानना चाहिए। इसलिए हमने लगभग चालीस महिलाओं को एक व्हाट्सएप संदेश भेजा कि उन्होंने प्रेमचंद को कब पढ़ा ? उनकी कौन सी रचनायें याद हैं ? उनमें क्या खास बात है और आज वे उन्हें कैसे देखती हैं? इनमें सभी आयुवर्ग से जुड़ी महिलाएं शामिल हैं। अध्यापक, लेखक, गृहिणी और विद्यार्थी सभी तरह की महिलाएं सहभागी हुईं । उनकी ही भाषा में प्रस्तुत है प्रेमचंद को लेकर उनके विचार। सामग्री बहुत है इसलिए इसे हम कई हिस्सों में प्रकाशित कर रहे हैं :

 

प्रेमचंद की यह तटस्थता मुझे आकृष्ट करती है

विद्या सिंह, कहानीकार, देहरादून

संभवत: जब उनकी कहानी पंच परमेश्वर पाठ्यक्रम में पढ़ी। उसे पढ़कर क्या अनुभव हुआ उसकी स्मृति नहीं है। लेकिन जरूर उसने दिल को छू लिया था।

नमक का दरोगा ,बूढ़ी काकी, ईदगाह, बड़े भाई साहब, शतरंज के खिलाड़ी, पूस की रात, मंत्र ,नाग पूजा ,कफ़न आदि बहुत सी कहानियां तथा रंगभूमि, निर्मला, सेवासदन, गोदान उपन्यास पढ़ा। सबसे अच्छी रचना के नाम पर एक ही नाम तो नहीं ले सकती। हां कहानियों में बूढ़ी काकी तथा उपन्यासों में गोदान ने बहुत प्रभावित किया।

विद्या सिंह, कहानीकार, देहरादून

प्रेमचंद अपने पात्रों में इस तरह परकाया प्रवेश करते हैं कि लगता है वह प्रत्येक पात्र को जी रहे होते हैं। दो धुर विरोधी विशेषताओं से युक्त पात्रों का चरित्र चित्रण इस तरह करते हैं कि किसकी पक्षधरता में लिख रहे हैं, ज्ञात ‌ही नहीं होता। अन्य लेखकों का कोई न कोई ऐसा पात्र होता है, जो लेखक के करीब होता है।

प्रेमचंद जिस मनोयोग से निम्न वर्ग के पात्र का चित्रण करते हैं, उसी प्रकार उच्च वर्ग की समस्त अच्छाइयों-बुराइयों को सामने लाते हैं। प्रेमचंद की यह तटस्थता मुझे आकृष्ट करती है। अन्य लेखक अपने पात्रों से तटस्थता, मेरी दृष्टि में, इतना नहीं रख पाते। प्रेमचंद का मानव मनोविज्ञान का ज्ञान अचंभित करता है। उम्र के अनुरूप स्त्री-पुरुष की भावनाओं को वह इस खूबी से उजागर करते हैं कि विस्मित हो जाना पड़ता है।

प्रेमचंद पात्रों के अनुसार भाषा नहीं बदलते किंतु स्थानीय शब्दों का प्रयोग उस क्षेत्र विशेष को उजागर कर देता है। क्योंकि उन शब्दों से मेरा भी परिचय होता है अतः प्रेमचंद को पढ़ने में विशेष आनंद आता है।

सर्वहारा समाज का पथ प्रदर्शन करने वाले साहित्यकार

तसनीम पटेल, लेखिका एवं मानद प्रोफेसर, औरंगाबाद

मैं इयत्ता सातवी कक्षा में थी तब मुंशी प्रेमचंदजी की कहानी ईदगाह पढ़ी। वह मेरे पाठ्यक्रम में थी। 1967 में मुझे यह समझ में आया कि प्रेमचंद नामक हिंदी के महान कथाकार हैं । मैट्रिक तक उनकी लेखन शैली पूरी तरह से मुझपर अपना रंग जमा चुकी थी।

तसनीम पटेल, लेखिका एवं मानद प्रोफेसर, औरंगाबाद

वे आदर्श को लिखते-लिखते यथार्थ के धरातल को पकड़ लेते हैं यह उनके लेखन की विशेषता है। उनके लेखन में हिंदू, मुस्लिम, दलित, किसान, महिला, बंधुआ मजदूर बहुत सफाई से पाठक को अपने से जोड़ लेते हैं। उन्होंने विधवा विवाह, बेमेल विवाह पर भी बढ़िया और सत्य से साक्षात्कार करानेवाला उपन्यास निर्मलाऔर प्रेमाश्रम जैसे अनमोल उपन्यासों को मैंने पढ़ा। आज भ्रष्टाचार सर्वत्र व्याप्त एक समस्या है।

प्रेमचंद जी ने बहुत पहले ही गबन लिख कर पाठकों का मन जीत लिया था। इसी उपन्यास पर हिन्दी फिल्म बनी जो घर-घर के अनपढ़ दिलों पर अपना राज करती रही है। उनका सबसे श्रेष्ठ उपन्यास गोदान है जो किसानों की समस्या को लेकर लिखा हुआ दस्तावेज है । उनकी  कहानियों में मुझे कफन कहानी बहुत पसंद है। जिसे मैं मील का पत्थर मानती हूं। प्रेमचंद मेरे लिए सर्वहारा समाज के पथ प्रदर्शन करने वाले महान साहित्यकार हैं।

 

अपने समय की सामाजिक विसंगतियों का आम भाषा में चित्रण

डॉ. हंसादीप, प्राध्यापिका, कहानीकार, अनुवादक; टोरंटो, कनाडा

मुंशी प्रेमचंद को तब से पढ़ा जब कहानी की कोई समझ नहीं थी। शायद पढ़ना-लिखना शुरू ही हुआ होगा। छोटे से गाँव के छोटे से स्कूल में पढ़ते हुए प्रेमचंद का लिखा बहुत जल्दी समझ में आता था। गाँव की पृष्ठभूमि में पात्रों की गरीबी और कठिनाइयाँ यथार्थ में दिखाई देती थीं। उसके बाद आगे पढ़ते हुए हर हिन्दी कक्षा में प्रेमचंद की रचनाएँ थीं। विद्यालयीन और महाविद्यालयीन कक्षाओं में हिन्दी साहित्य से गहरा रिश्ता रहा। तब अच्छे अंक लाने के लिए बहुत पढ़ना जरूरी था। प्रेमचंद को पढ़े बगैर कोई प्रश्नपत्र हल करना नामुमकिन था।

डॉ. हंसादीप, प्राध्यापिका, कहानीकार, अनुवादक; टोरंटो, कनाडा

अब कथाकार की भूमिका में प्रेमचंद को पढ़ने की दृष्टि सर्वथा भिन्न है। उन्हीं रचनाओं को जिन्हें सालों पहले छात्र के रूप में पढ़ा था, अब लेखक-समीक्षक की नजर से आँकना एक सुकून देता है। प्रेमचंद की कई कहानियों और उपन्यासों पर बनीं फिल्में और टीवी सीरियल भी देखे। कागज की स्याही से निकल कर पात्रों को अभिनय करते देखना भी रोमांचित करता रहा। उन पात्रों के साथ भीतर तक उतर कर निर्बाध बह जाना हमेशा सार्थक लगा।

प्रेमचंद की कई रचनाएँ बेहद पसंद हैं मगर किसी एक का नाम लेना हो तो बड़े भाई साहब कहानी मैं बार-बार पढ़ती हूँ। हर बार मुझे नयी लगती है। अपने घर में सबसे छोटी होने के कारण यह मुझे मेरे अपने यथार्थ की ओर खींच कर ले जाती है।

प्रेमचंद और दूसरे लेखकों में सबसे बड़ा फर्क यही है कि प्रेमचंद ने अपने समय की सामाजिक विसंगतियों का चित्रण मानवीयता की गहन सोच के साथ आम मानस की भाषा में किया है। इसी कारण उनकी रचनाओं को कालातीत होने का गौरव मिला है।

प्रेमचंद को गुरु मान मैंने लिखना सीखा

अस्मिता सिंह, कहानीकार, पटना

प्रेमचन्द से मेरा परिचय उस समय हुआ जब मैंने सातवीं कक्षा में ईदगाह कहानी पढ़ी। साहित्य की समझ ना होते हुए भी हामिद का चिमटा, सदा के लिए दिमाग पर अपना अमिट छाप छोड़ गयी।और तबसे कहानी और उपन्यास पढ़ने का ऐसा शौक जगा कि प्रेमचन्द को लगातार पढ़ती  गयी। सेवासदन,प्रेमाश्रम,गबन,निर्मला,कर्मभूमि, रंगभूमि, तथा गोदान को एक क्रम से पढ़ती गयी। इसी बीच उनकी दर्जनों कहानियों को भी पढ डाला। यही नहीं, प्रेमचन्द के साथ-साथ उन के समकालीनों को भी पढ़ डाला, प्रसाद के नाटक,यशपाल अज्ञेय, जैनेन्द्र, अमृत लाल नागर जैसे कयी को पढ़ा। पर प्रेमचन्द सरीखा कोई न दिखा।

अस्मिता सिंह, कहानीकार, पटना

प्रेमचंद का सम्पूर्ण साहित्य राष्ट्रीय स्तर पर व्याप्त असमानता को लेकर लिखा गया है। इसी मायने में वे अपने समकालीनों से अलग खड़े मिलते हैं। असमानता से समाज में उपजी विद्रूपताओं, विनाशक वातावरण को ही प्रेमचन्द ने  अपने साहित्य का विषय बनाया है। प्रेमचंद का सम्पूर्ण साहित्य दलित, पिछड़ों,उत्पीड़ितों के पक्ष में  खडा है, साथ ही उन कारक तत्वों की भी पड़ताल की है, जो दुर्दशा के कारण हैं। यानी समाज में व्याप्त असमानता। यही प्रेमचन्द का विश्वास रहा। प्रेमचंद सदा अपनी राह पर चलते रहे,कोई भी बाधा या लोभ उनको अपने पथ से डिगा नहीं सका। और प्रेमचंद की यही खासियत उनको विशिष्ट बनाती है। और रही प्रभाव की बात, तो प्रेमचन्द हमेशा मेरे प्रेरणास्रोत रहे। उन्ही को गुरु मान मैने लिखना सीखा। ताजिंदगी प्रेमचन्द समाज में व्याप्त असमानता के खिलाफ लडते रहे, उनका पूरा साहित्य दलितो,गरीबो,उपेक्षितो के पक्ष में खड़ा रहा।

 

व्यक्तित्व के विकास में प्रेमचंद की पुस्तकों का बहुत महत्व है

कल्याणी मुखर्जी , सेवानिवृत्त प्राचार्य, रायगढ़

मुंशी प्रेमचन्द की कहानियां और उपन्यास पढ़कर, जानकर बहुत  उत्तेजित नहीं होते थे क्योंकि हमारा परिवेश इन्हीं सामान्य लोगों के बीच गुजरा। भले ही हम प्रवासी बंगाली थे फिर भी बंगाल के गांव का वातावरण और छत्तीसगढ़ के गांव का वातावरण लगभग एक-सा था। मैंने जब हाईस्कूल में पढ़ना शुरू किया तब से ही उपन्यास पढ़ना शुरू कर दिया था। हमारी कॉलोनी में कॉलेज के लाइब्रेरियन रहते थे, उन्हीं से पुस्तकें मंगवाकर हम लोग पढ़ा करते थे। चूँकि उपन्यास पढ़ने की उम्र नहीं है ऐसा हमारे अभिभावक कहा करते थे कि  इन पुस्तकों को तुम समझ नहीं सकोगे। फिर भी लाइब्रेरियन के निर्देशानुसार उनकी रुचि अनुसार हमें पुस्तके उपलब्ध करा दी जाती थी। इस प्रकार हमने हिंदी जगत के कहानियों, उपन्यासों ,कविताओं  को पढ़ना शुरू किया था। हमारा पूरा परिवेश, हमारी कॉलोनी  शिक्षकों की थी इसलिए एक अलग वातावरण घर और बाहर मिला  था।

प्रेमचंद की अनेक छोटी-बड़ी कहानियों में जो पढ़े थे वह सब कुछ हमने अनुभव किया। हमारे पूर्वज भी जमींदार थे और हम जमींदारी प्रथा की चर्चा सुना करते थे। उनमें उनकी कुछ अच्छाइयां भी थीं। उनकी क्रूरता, बर्बरता जो सुने थे, वह सब कुछ प्रेमचंद के लेखनी में दर्ज था। समाज में बुराइयों का अंबार था। जो  मैंने पढ़ा और समझा वह सब कुछ आज भी दृष्टिगोचर होता है। भले ही जमींदारी प्रथा समाप्त हो गई है, पर वही स्थिति, उच्च  धनाढ्य वर्गों द्वारा स्थापित कर दी गई है।

प्रेमचंद की कहानियों में उपन्यासों में संवेदनाएं ऐसी हैं जिसे आज भी महसूस किया जा सकता है। इतनी जीवंत हैं। यह कहना की प्रेमचंद ने मानव अभिव्यक्तियों को अपने रोम-रोम  से अनुभव किया था यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। तभी ना इतना मार्मिक, दुख और कष्ट को इस तरह बयान किया जैसे वे स्वयं उसे भोग रहे  हो।

कल्याणी मुखर्जी , सेवानिवृत्त प्राचार्य, रायगढ़

यह तो याद नहीं है कि कितनी पुस्तकों का  पाठ किया पर यह जरूर कहना चाहूंगी कि एक व्यक्ति के विकास में ऐसी पुस्तकों का बहुत महत्व होता है। सिर्फ दुख और कष्ट ही नहीं प्रेम की प्रगाढ़ता, सहानुभूति, अपनापन, संतुष्टि ,प्रताड़ना, प्राकृतिक सौंदर्य की अनुभूति, आनंद सहित मानव की समस्त भावनाओं को इतने सटीक शब्दों में पिरोया गया है कि ऐसा लगता है यह तो मैं देख रही हूं । यह तो हम भोग रहे हैं , और यही तो आज का भी समाज है। यह कहना कि उनकी कौन-सी रचना अच्छी लगी बयां नहीं की जा सकती क्योंकि हरेक का अपना एक महत्व है, एक एहसास है।

हाई स्कूल में अध्ययन के दौरान और भी कई लेखकों के उपन्यास हम लोग पढ़े थे और हम चर्चाएं भी करते थे। पढ़े हुए पुस्तकों का मानस पटल पर उद्वेलन चलता था  ,बार-बार मंथन भी होता था, और आज भी होता है।

कुरीतियां, अंधविश्वास, जादू टोना, पिछड़ापन, जातिवाद, वर्ग वाद, ऊंच-नीच, रंगभेद, अशिक्षा और असमानता जो उस समय था। जिसे लेकर लेखक ने जीवंत रचना की । स्थिति आज भी बहुत सुधरी हुई नहीं है। हम सभी पढ़ते और चर्चा जरूर करते हैं परंतु सामाजिक तौर पर कितना बदलाव लाने में सफल रहे हैं? कितना जमीनी स्तर पर प्रयत्न करते हैं ? यह सब आंकलन का विषय है।

प्रेमचन्द ने हिन्दी साहित्य में एक नई क्रांति का आगाज़ किया था

                                                                           मीता दास, कवयित्री, अनुवादक, भिलाई

प्रेमचंद की कई रचनाओं ने साहित्य का मार्गदर्शन किया है और साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी।  ईदगाह ,पूस की रात , बूढ़ी काकी  हमने जो स्कूल के दिनों में पढ़ी थी प्रेमचंद की रचनाएँ आज भी दिलो -दिमाग मे बसी हुई हैं । न ईदगाह भूलती है न पूस की रात। और भी कई कहानियाँ हैं जिन्होने मुझे संवारा और एक संवेदनशील मनुष्य बनने में मदद की ।

प्रेमचंद जी के उपन्यासों एवं कहानियों का मूल मकसद आम जन की समस्याओं एवं भावनाओं को उजागर करना था। वे निडर होकर निर्भीक भाव से अपनी रचनाओं में अन्याय का विरोध करते थे। किशोरावस्था में पढ़ी उनकी कहानियां – घासवाली , ठाकुर का कुआँ , सवा सेर गेहूं , सदगति , कफ़न , दूध का दाम , दो बैलों की कथा में उन्होंने जिस तरह से मध्य और निम्न मध्य वर्ग और उच्च वर्ग और वर्ण के लोगों का वर्णन किया है उसे पढ़ते हुए ही मैंने जीने की तमीज सीखी।

मीता दास, कवयित्री, अनुवादक, भिलाई

प्रेमचन्द का साहित्य हमें गहरे अर्थों में जीने की और विचारों को परिष्कृत करने की समझ देता है। उनकी कहानियाँ कथा के साथ एक उद्देश्य या एक अंतर्निहित विचार को लेकर चलती हैं पर कहीं भी पाठक पर हावी होती नजर नहीं आती, हाँ संवेदित जरूर कर देती हैं। उनका साहित्य हमें हमेशा दुनिया में होने वाले भेदभाव और असमानता से असंतुष्ट के पक्ष में खड़े होकर प्रश्न करने की ताकत देती है कि ऐसा समाज में क्यों है? एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को हेय दृष्टि से क्यों देखता है? यहां प्रेमचंद की कहानियाँ मानवीय करुणा को और भी बेहतर ढंग से आपके मस्तिष्क में घर कर लेता है । और इस समाज के प्रति एक गुस्सा , दबा हुआ आक्रोश उबल पड़ता है या एक नए आंदोलन का विकास होने लगता है । मैंने भी प्रेमचन्द, विभूति भूषण बंदोपाध्याय, ताराशंकर बंधोपाध्याय, फणीश्वरनाथ रेणु, मुक्तिबोध, महाश्वेता देवी को पढ़कर इस दुनिया को समझा। पर इन सब रचनाकारों ने करीब-करीब उपदेशात्मक कहानियाँ और जटिल भाषा में रचनाएँ लिखी जो किशोरावस्था में समझना जरा कठिन था। उसी जगह खासकर मानसरोवर में संकलित आठों खंड जिसे मैंने आठवीं कक्षा में गर्मियों की छुट्टियों में लाइब्रेरी से इशू करवाकर पंद्रह दिन में ही खत्म कर ली थी ।

प्रेमचन्द के उपन्यास  खासकर , रंगभूमि , कर्मभूमि , निर्मला , प्रेमाश्रम ,  सेवा सदन , काया कल्प , गोदान और मंगल सूत्र ( अधूरा ) घर-घर मे पढ़े जाते थे जैसे बांग्ला में शरत चंद्र। शरतचंद्र ने ही मुंशी प्रेमचंद को उपन्यासों का सम्राट कहा था और सचमुच में वे सम्राट ही थे । गबन , गुप्त धन , वैश्या , पंच परमेश्वर , दो भाई आदि कहानियों और उपन्यासों को भला कौन भूल सकता है? अपने देश-प्रेम की भावना एवं आम जनता के दर्द को अपनी रचना सोजे वतन में बयां किया।

कलम के बेताज बादशाह मुंशी प्रेमचंद जी से पहले हिन्दी साहित्य में धार्मिक, पौराणिक एवं राजा-रानी की कहानियां लिखने की ही प्रथा थी, लेकिन प्रेमचंद जी ने सामान्य और आम लोगों से जुड़ी कहानियां लिखने की शुरुआत कर हिन्दी साहित्य में एक नई क्रांति का आगाज़ किया था।

 

जीवन के उद्दात्त मूल्यों को स्थापित करना ही उनकी कहानियों का मूल है

डॉ. सुमिता, स्टारडस्ट की पूर्व  उपसंपादक

प्रेमचंद को सबसे पहले मैंने पाठ्य पुस्तकों में पढ़ा। मेरी पढ़ी उनकी सबसे पहली कहानी दो बैलों की कथा थी। बालमन पर इस कथा की अमिट छाप पड़ी और जीव-जंतुओं के प्रति संवेदना भी जगी। उसके बाद क्रमशः ईदगाह और नमक का दारोगा पढ़ने की बारी आई। बाद में तो मानसरोवर के सभी खंड पढ़ डाले। वे अतुलनीय हैं। वैसे भी किसी से किसी की भी तुलना करना मुझे औचित्यपूर्ण नहीं लगता। उनकी बहुत सी कहानियाँ मेरी पसंदीदा हैं। चयन करना मुश्किल है फिर भी जिन कहानियों ने सबसे अधिक असर डाला उनमें ईदगाह, कफ़न, बूढ़ी काकी, पंच परमेश्वर, पूस की रात, ठाकुर का कुँआ, मुक्ति मार्ग, बड़े घर की बेटी आदि हैं। प्रेमचंद की कहानियों की विशेषता इनकी सहज और सरल भाषा है। जन-जन की जुबान पर बसे मुहावरे, लोकोक्तियों से समृद्ध ऐसी भाषा जो सबकी समझ में आ जाए। कई बार तो उनके लिखे हुए वाक्य ही मुहावरे बन गए। और यह निःसंदेह किसी भाषा को किसी रचनाकार का दिया हुआ महत्तम दाय है।

प्रेमचंद की ज्यादातर कहानियों का लोक पूर्वांचल का गँवई परिवेश है। उसमें भी निम्न आय वर्ग का जीवन-संघर्ष, उनकी संवेदनाएँ, पीड़ा, प्रेम और उनके जीवन का स्याह-सफ़ेद। मानव-मनोविज्ञान को बड़ी बारीकी से वर्णित करते हैं प्रेमचंद। बिना किसी बनावट के। उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए ऐसा कभी नहीं लगा कि कहानीकार ख़ुद की उपस्थिति की कोशिश कर रहा है। पात्र और कहानी ही अपनी बात और कथा कहने के लिए पर्याप्त है। जीवन के उद्दात्त मूल्यों को स्थापित करना ही उनकी कहानियों का मूल उद्देश्य जान पड़ता है। कथा के सहज प्रवाह में बेहद गंभीर और जटिल बातें अंडरकरंट सी नजर आती हैं।

डॉ. सुमिता, स्टारडस्ट की पूर्व  उपसंपादक

किसी भी रचनाकार की रचना को पढ़ते हुए उसके समय और सामाजिक परिवेश को ध्यान में रखना बहुत जरूरी है। इसके बगैर कोई भी मूल्यांकन सही नहीं हो सकता है। प्रेमचंद का समय भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का समय था। देश की स्वतंत्रता के लिए जारी संघर्ष को ढँक-छुपा कर ही कहना शायद समय की माँग थी और कहानी की शैली के लिए प्रेमचंद का चुनाव भी। उस समय देश को आजादी दिलाना ही हर देशवासी का प्राथमिक उद्देश्य था और सबसे महत्वपूर्ण भी। इसके बाद ही देश की बाकी सभी समस्याएँ थीं। प्रेमचंद के लेखन भी यह तथ्य स्पष्ट है।

उनकी कहानियों/उपन्यासों की स्त्री चरित्र अधिकतर सामाजिक मूल्यों-मानदंडों को निभाने वाली ही दीखती हैं। जैसी तत्कालीन सामाजिक परिवेश में अधिकतर वे होती थीं। वे बहुत अधिक मुखर होकर कोई क्रांति करती या बड़े स्तर पर सामाजिक कुरीतियों से लड़ती हुई नजर नहीं आतीं। बेशक वे अपनी ज़िन्दगियों में जरूरत पड़ने पर अन्याय या पीड़ा या घुटन से मुठभेड़ करने की कोशिश करती हैं। उनकी कहानियों में समाज में हर तबके की स्त्रियों के किरदार मिल जाते हैं: सम्मानित बड़े घरों में भी स्वतंत्र निर्णय ना ले सकने की पीड़ा से गुजरती स्त्री, परिवार के पुरुष सदस्यों से सहयोग न मिलने की पीड़ा के क्षोभ में अंततः मर जाने वाली बेबस स्त्री, अनेक समस्याओं से गुजरती मजदूर स्त्री, बच्चे की जान बचाने की मन्नत पूरी करने के लिए मंदिर में प्रवेश करने से रोकी जाने वाली व्यथित दलित स्त्री, ज़मींदारी और पुरोहित वर्ग के द्वारा किए जाने वाले अन्याय से दो-चार होती स्त्री। प्रेमचंद सामाजिक वस्तुस्थिति की विडंबना को बखूबी दर्शाते हैं, लेकिन इनकी प्रतिक्रिया में उनके किरदार कोई क्रांतिकारी विचार रखते नजर नहीं आते, ना ही उनके स्त्री-किरदारों में बनी-बनाई लीक से अलग हटकर चलने की कोई विशेष ख्वाहिश दीखती है। हालाँकि हाशिए पर पड़ी हुई स्त्री या समाज में नीची निगाहों से देखी जाने वाली स्त्रियों के प्रति वे  उदार सहानुभूति रखते नजर आते हैं और वे चाहते हैं कि उन्हें मुख्यधारा में शामिल होना चाहिए लेकिन अपने  लेखन में वे (या उनकी स्त्री किरदार) कोई असाधारण हिम्मत नहीं करते हैं।

प्रेमचंद की कहानियों में स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध सभी की सहज उपस्थिति है। इस वजह से भी वे समतावादी लगते हैं। इसलिए उनकी कहानियों को जनपक्षधर कहना ही उचित लगता है।

 

प्रेमचंद कोई अलग या विशिष्ट व्यक्तित्व नहीं लगते, हमारा ही एक हिस्सा लगते हैं

रचना त्यागी, अध्यापिका, लेखक, अनुवादक, संस्थापक -सिद्धांत फाउंडेशन, दिल्ली

प्रेमचंद से परिचय तो बचपन में ही हो गया था ईदगाह और दो बैलों की कथा के माध्यम से। उस समय नहीं पता था कि हिंदी के इतने पाठों और कहानियों में सभी कहानियाँ इस तरह स्मृति में रह जाने वाली नहीं होतीं, जैसे ये दोनों रहीं।  एक और अजीब बात यह थी, कि पाठ्यक्रम की अन्य कहानियों के लेखकों के नाम मुझे याद नहीं रहते थे ( कुछ कविताओं के कवियों को छोड़कर ), लेकिन जब भी इन दोनों कहानियों का ज़िक्र आता, तो साथ ही प्रेमचंद की घनी मूँछों वाला दुबला चेहरा आँखों के आगे उभर आता। ईदगाह के हामिद और दो बैलों की कथा के हीरा-मोती, झूरी बाल-स्मृति में ऐसे धँसे, कि कभी अलग न हो पाए। प्राथमिक कक्षाओं के बाद माध्यमिक में उनका लिखा कुछ पढ़ा, ध्यान नहीं। परिवार में पढ़ने की कोई ख़ास परम्परा नहीं थी। गर्मी की छुट्टियों में कुछ पुरानी पत्रिकाओं के साथ कभी प्रेमचंद भी चले आते थे, तो चाव से पढ़े जाते थे। माध्यमिक के बाद मेरे पास हिंदी विषय ही नहीं रहा, और उसके बाद अपने भविष्य की तैयारी से अलग कुछ पढ़ने की फ़ुरसत भी नहीं रही।

लम्बे अंतराल के बाद जब मैंने स्नातकोत्तर में फिर से प्रेमचंद को पढ़ा, तब तक थोड़ी राजनीतिक और साहित्यिक समझ विकसित हो चुकी थी। उस समय उनके अधिकतर उपन्यास पाठ्यक्रम में थे, इस बहाने जितने सम्भव थे, पढ़ डाले – ग़बन, सेवासदन, गोदान, सेवाश्रम आदि…

अध्यापिका, लेखक, अनुवादक, संस्थापक -सिद्धांत फाउंडेशन, दिल्ली

उनकी कृतियों में सर्वश्रेष्ठ चुनना थोड़ा कठिन है मेरे लिए, क्योंकि उनका लिखा जितना भी पढ़ा, वह सब समान रूप से प्रिय है मुझे। उनकी कहानी हो या उपन्यास, आम आदमी का संघर्ष उसी मर्म और सहजता से उभरता है उनकी रचनाओं में। बल्कि पशुओं का भी। उन्हें अपनी भाषा के लिए कोई श्रम नहीं करना पड़ता, फिर भी उसका प्रभाव सहज ही चला आता है उनके लेखन में। शायद इसका कारण उनकी स्वयं की भोगी हुई पीड़ा, उनकी संवेदनशीलता रही हो। कारण की पड़ताल में नहीं जाना चाहूँगी मैं, लेकिन यह एक बड़ा अंतर लगता है मुझे उनमें और अन्य लेखकों में। चाहे राजनैतिक पक्षधरता की बात हो, या व्यक्तिगत संबंधों की, बहुत सहजता से उनके भीतर से एक धारा बहती आती है और उनकी रचनाओं में उतर जाती है। यही धारा उन्हें पढ़ते हुए बतौर पाठक हमारे भीतर भी बहने लगती है। हमें प्रेमचंद कोई अलग या विशिष्ट व्यक्तित्व नहीं लगते, हमारा ही एक हिस्सा लगते हैं। एक लेखक वाला आभामंडल उनके इर्द-गिर्द नज़र नहीं आता, उनकी लिखी रचनाओं का ही कोई पात्र प्रतीत होते हैं वो, जो आपसे कभी भी, कहीं भी टकरा सकता है। उन्होंने अपने लेखन से हम तक, अपने पाठक तक कभी न टूटने वाला जो बहुत अनौपचारिक संबंध जोड़ा है, यही विशिष्ट है। जिस तरह किसी व्यक्ति से एक बार मिलकर उसे भूल नहीं पाते, इसी तरह एक बार प्रेमचंद को पढ़कर आप उन्हें भूल नहीं सकते, वे आपका हिस्सा बन जाते हैं किसी न किसी रूप में। आपके भीतर समा जाते हैं।

इसके अलावा एक महत्वपूर्ण पक्ष मुझे लगता है – स्त्री के प्रति उनका दृष्टिकोण। स्त्री पात्रों को गढ़ते हुए जिस तदानुभूति और परकाया प्रवेश का परिचय वे देते हैं, वह अद्भुत है, और बाज दफ़ा अविश्सनीय भी। उनके स्त्री पात्रों के अंतरमन में चलता द्वंद्व, आदर्शवाद, दमित इच्छाएँ, और उनके व्यवहार में परिपक्वता के साथ आने वाले बदलाव…. एक स्त्री होने के नाते यह सब बहुत रिझाता है मुझे। स्त्री लेखक के लिए भी इतनी बारीक़ी से, इतनी सुगढ़ता से अपने पक्ष को, उसकी उथल-पुथल को गढ़ना और सफलतापूर्वक शब्दों में ढालना सम्भव नहीं है। इस नज़र से मेरे द्वारा पढ़े गए पहले स्त्रीवादी या फेमिनिस्ट लेखक भी हैं प्रेमचंद ।

प्रेमचंद को हिन्दी से ज्यादा विज्ञान के लोग पढ़ते हैं

डॉ. वंदना भारती, सहायक प्राध्यापक, पूर्णियाँ विवि. पूर्णियाँ

प्रेमचंद हिंदी साहित्य के ऐसे अकेले साहित्यकार हैं जिन्हें पढ़ने के लिए किसी ख़ास विषय से जुड़ना आवश्यक नहीं है। मुझे लगता है कि प्रेमचंद को जितना हिंदी के विद्यार्थी पढ़ते हैं उससे कहीं ज़्यादा विज्ञान या अन्य विषय के विद्यार्थी पढ़ते हैं।

प्रेमचंद के साहित्य से मेरा पहला परिचय तो स्कूली दिनों में ही हो गया था , जहाँ ईदगाह, दो बैलों की कथा, नमक का दरोगा आदि कहानियाँ पढ़ने को मिलीं। लेकिन उंनके लेखकीय विस्तार से मेरा गहरा परिचय मैट्रिक की परीक्षा के बाद हुआ। जब तक परिणाम नहीं आया था, उन दो महीनों में मैंने सेवासदन , गोदान , मानसरोवर की कहानियाँ , कर्मभूमि आदि कई उपन्यास पढ़ डाले।

डॉ. वंदना भारती,सहायक प्राध्यापक, पूर्णियाँ विवि. पूर्णियाँ

प्रेमचंद की यह खूबी है कि आप उनके साहित्य को जितना अधिक पढ़ते जाते हैं उतना ही अधिक उनके मोहपाश में और भी गिरफ़्त होते जाते हैं। शायद यही कारण रहा होगा कि विज्ञान और मनोविज्ञान पढ़ने के बाद मैंने एमए करने के लिए ‘हिंदी साहित्य’ का चयन सहर्ष ही कर लिया। उसके बाद एम. फ़िल और पीएच. डी. का कार्य मैंने गोदान  के अनुवाद पर किया।

गोदान को जब मैं मैट्रिक के बाद पढ़ी थी और जब एम. ए. में प्रो. वीर भारत तलवार ने गोदान  पढ़ाया तो मुझे बहुत-सी महीन बारीकियाँ समझ आईं। साथ ही किसी भी उपन्यास को आलोचकीय दृष्टि से कैसे देखा और परखा जाता है यह भी दृष्टि विकसित हुई।

अतः कहना जरूरी होगा कि गोदान मेरे प्रिय उपन्यासों में से एक है। जहाँ तक किसी अन्य उपन्यासकार या लेखक से तुलना की बात है, यह बहुत हद तक अलग मामला है। प्रत्येक लेखक की अपनी दृष्टि होती है और उसका लेखन उसके अनुभव जगत और भाव-जगत को प्रस्तुत करता है। फिर भी, प्रेमचंद के लेखन की शैली, सरल वाक्य-विन्यास और समस्या के साथ ही समाधान देने की लेखकीय ईमानदारी मुझे भाती है।  हालाँकि समाधान देते-देते जब  यह उपदेश परक होने लगता है तो मुझे आतंकित भी करता है।

उन्होंने देश की सोई हुई जनता को जगाने का प्रयास किया

उषा यादव, शोधार्थी, मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद

प्रेमचंद कि यदि हम बात करते हैं तो अपने आप ही मन में एक आदर भाव उद्वेलित होने लगता है। वे एक ऐसे साहित्यकार है जिसनें सामाजिक, राजनीतिक,विसंगतियों पर करारा व्यंग्य कर हमारे देश की सोई हुई जनता को जगाने का प्रयास किया। अपनी कृतियों के माध्यम से वे भारतीय जनमानस की पीड़ा तथा उनकी स्थितियों की अभिव्यंजना की सच्चाई को उजागर करना चाहते थे। जिस कारण जनमानस पर इसका प्रभाव भी हम देख पाते हैं। उन्हें ऐसे ही ‘उपन्यास-सम्राट’ नहीं माना जाता बल्कि उनकी कहानियों तथा उपन्यासों में जो अपनापन उभरकर हमारे सामने आता है। उससे हमारा जुड़ाव अवश्य महसूस होता है। वह बहुमुखी प्रतिभा के कलाकार थे। अपनी प्रतिभा का प्रखर स्फुटन जो उन्होंने अपने कथा साहित्य में किया। वह कार्य सराहनीय ही नहीं बल्कि अन्य साहित्यकारों के लिए प्रेरणा स्रोत भी वे बने। उपन्यास के रूप में उन्होंने जो अतिशय ख्याति प्राप्त की है। वह हम जैसे पाठकों के लिए जीवन जीने का एक सुझाव भी देती है। उनके उपन्यासों का उद्देश्य जीवन में सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं था बल्कि मनोरंजन के साथ-साथ उद्देश्यपरक की बात भी वे कह जाते हैं। प्रेमचंद के उपन्यासों की विशेषताओं को अधोलिखित संदर्भ में हम इस प्रकार देख सकते हैं। वरदान प्राचीन युगीन उपन्यास होते हुए भी इस उपन्यास में समस्या के रूप में अममेल विवाह की ओर संकेत किया गया है। साथ ही प्रेरणा व राष्ट्रीय आत्म गौरव की झांकी को भी हम इस उपन्यास में देख सकते हैं। इसी प्रकार प्रतिज्ञा उपन्यास में विधवा समस्या का अंकन किया गया है। अमृतराय इस उपन्यास के आदर्श पात्र हैं, जो गांधी की विचारधारा से स्वतंत्र रूप से प्रभावित है। सेवासदन उपन्यास वेश्याओं की समस्या पर आधारित उपन्यास है। इस उपन्यास में यथार्थ मिश्रित आदर्शवादी दृष्टिकोण को अपनाया गया है। इसके पात्र गजाधर समाज में होने वाली नारी उपेक्षा को देखकर कहते हैं ‘ईश्वर वह दिन कब आएगा कि हमारी जाति में स्त्रियों का आदर होगा’। नायक प्रेमशंकर के माध्यम से ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को तथा किसान आंदोलन के परिवेश को भी इस उपन्यास के माध्यम से उभारा गया है।

उषा यादव, शोधार्थी , मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू विवि, हैदराबाद

निर्मला में भी अनमेल विवाह को लेकर नारी समस्याओं का नग्न चित्रण किया गया है। इसी तरह प्रेमाश्रय उपन्यास के माध्यम से भारत के किसानों मजदूरों को सुख देने के लिए जो प्रश्न प्रेमचंद ने किया है उन्हीं प्रश्नों का यह उपन्यास साहित्यिक रूपांतरण है। गांधीवाद को यदि हम देखना चाहते हैं तो गांधीवाद की एक झलक इस उपन्यास के दो पात्रों में है। प्रेम शंकर और कादरी मियां। कादरी मियां इस उपन्यास के ऐसे पात्र हैं जो सत्य निष्ठा, दृढ़ निश्चय, तथा हिंदू मुस्लिम एकता के प्रतीक हैं।

कर्मभूमि उपन्यास में अछूतों का किसानों की समस्याओं का अंकन सामने आता है। यह उपन्यास सविनय अवज्ञा आंदोलन तथा लगान बंदी आंदोलन की समग्रता गहराई और व्यापकता से

व्यक्त करता है। अंत में प्रेमचंद के द्वारा लिखित अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास गोदान है। जो मेरा भी सबसे प्रिय उपन्यास है यह उनकी सर्वोत्तम कृति भी मानी जाती है इसमें भारतीय ग्राम समाज के परिवेश का जो मार्मिक अंकन हुआ है। वह पाठक को अपनी ओर खींचता हैं। गोदान अपनी सांस्कृतिक से भरा हुआ ऐसा उपन्यास है। जो प्रगतिवाद, गांधीवाद और मार्क्सवाद का परिपेक्ष भी करता है। गोदान के नायक-नायिका होरी और धनिया के परिवार के रूप में हैं। हम भारत के गांव की संजीवता को साकार होते हुए इस उपन्यास में देख पाते हैं। इस उपन्यास में हमें गांव की ‘मिट्टी की खुशबू’, की महक का एहसास भी होता है। हम कह सकते हैं की यह प्रेमचंद की सबसे अमर कृति है। संक्षेप में, मैं यही कहना चाहूंगी कि प्रेमचंद का उपन्यास साहित्य अपने समय की सामाजिक राजनीतिक आर्थिक तथा हर इनविषम परिस्थितियों के प्रति पर्याप्त प्रेरणा का स्रोत है

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3 COMMENTS
  1. शानदार विशेषांक । सबकै अलग अलग अनुभव वाकई में प्रेमचंद समग्र यहाँ यहाँ उपस्थित हो चुका है। स्त्रियों के नजरिये से पहली बार इस किसी संपादक ने विचार किया है इसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई। अगले भाग का इंतजार।

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