पुलिस हिरासत में मीडिया के कैमरों के सामने अतीक अहमद और अशरफ हत्याकांड पर रिहाई मंच महासचिव राजीव यादव ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि इस मामले में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भूमिका की भी जांच होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट समेत मीडिया से लगातार अतीक और अशरफ हत्या की आशंका जता रहे थे उसके बाद भी मेडिकल के नाम पर इलाहाबाद के एक अस्पताल के सामने मीडियाकर्मियों से बातचीत के दौरान जिस तरह से गोली चली और पुलिस ने बचाने की कोई कोशिश नहीं की, तस्वीरों में हत्यारों के सहयोग की मुद्रा में ही नजर आई, इससे साफ जाहिर होता है कि हत्यारों को ‘हाईकमान’ से सहयोग के निर्देश थे।
योगी आदित्यनाथ पर पहले भी कानून के दुरुपयोग करने के आरोप लगे हैं। 2007 में गोरखपुर में एक हत्या के बाद रेलवे स्टेशन पर उन्होंने भाषण दिया, जिसके बाद गोरखपुर, बस्ती मंडल में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा हुई उस मामले के याचिकाकर्ता परवेज परवाज को एक केस जिसमें पुलिस क्लीन चिट दे चुकी थी, पुनः गैर कानूनी तरीके से विवेचना करवाकर फर्जी केस में फसाकर सालों से जेल में रखा गया है। परवेज का तो यहां तक आरोप है कि इस मामले में न्यायालय द्वारा जो सजा दी गई उसमे भी योगी आदित्यनाथ की भूमिका रही है।
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अतीक और अशरफ या उसके बेटे असद समेत पूरे मामले में न्यायालय की भी भूमिका पर सवाल उठता है कि छोटी छोटी बातों पर संज्ञान लेने वाला न्यायालय आखिर क्यों इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया, अगर लिया तो क्या योगी आदित्यनाथ सरकार और उनके प्रशासन ने उसकी अवहेलना की। अतीक और अशरफ की हत्या करने वाले जिस तरह से जय श्रीराम के नारे लगाए और उसके बाद बधाई के संदेश दिए जा रहे हैं वो साफ करता है कि यह एक राजनैतिक हत्या है और जिसमें सबसे ज्यादा खतरनाक यह है कि इसमें स्टेट शामिल है। यानी स्टेट वॉयलेंस।
जिस तरह से योगी आदित्यनाथ ने ‘मिट्टी में मिलाने’ वाला बयान दिया है ठीक इसी तरह 19-20 दिसंबर 2019 को नागरिकता कानून के खिलाफ हो रहे आंदोलन के दौरान बदले की बात कही। जिसमें यूपी में 22 नौजवानों को गोली का शिकार बनाया गया। एनकाउंटर के नाम पर ठोक देने, ऊपर पहुंचाने, लव जेहाद के नाम पर राम नाम सत्य वाले बयान सिर्फ जुमले नहीं होते, बल्कि ऑर्डर होते हैं और पुलिस एक्शन करती है। ये एक्शन पूरी कानूनी प्रक्रिया की धज्जियां उड़ा देते हैं।
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यूपी में जो हो रहा इसे गुजरात में मोदी सरकार के दौरान इशरत जहां, सादिक जमाल मेहतर, शोहराबुद्दीन मामलों से साफ समझा जा सकता है। जिसमें उसके आरोप में बंजारा, सिंघल जैसे आईपीएस अधिकारी से लेकर आईबी के अधिकारी राजेंद्र कुमार तक पर शामिल होने का आरोप रहा है। ठीक इसी तरह अतीक के पूरे मामले में सिर्फ चंद पुलिसकर्मियों की लापरवाही का मामला नहीं है बल्कि उच्चस्तरीय शासन प्रशासन की साजिश का मामला है। अगर अतीक के आईएसआई और लश्कर ए तैयबा से संबंध थे तो उसको हत्यारों के सामने मरने के लिए क्यों छोड़ दिया गया? इसका मतलब कि सरकार और उसके नुमाइंदे चाहते थे कि यह मामला यहीं खत्म हो जाए। इसीलिए मीडिया में भी कहा जा रहा कि अतीक का अंत।
दरअसल, आईएसआई वाली पूरी कहानी उसी मुस्लिम विरोधी मानसिकता को संतुष्ट करने की कोशिश थी जिसमें आईएसआई का नाम आते ही पाकिस्तान का चेहरा सामने आ जाता है। और कल ये भी कहानी आ सकती है कि जिन हथियारों को ड्रोन से उसने मंगवाया था उसी से उसकी हत्या हुई! क्योंकि जिन हथियारों का जिक्र आ रहा वो विदेशी और लाखों के हैं। यानी कल इसे वर्चस्व के जंग कहने की कहानी बनाई जाएगी। मीडिया में भी खबर आ रही है कि मारने वाले माफिया बनना चाहते हैं। और ऐसे में मिट्टी में मिला देने वाला बयान कानून के दायरे से बाहर हो जाएगा। क्या कोई भी जांच होगी? उसका दायरा इस बयान को देने वाले तक होगा।
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हत्याकांड को अंजाम देने वाले तीनों व्यक्तियों के बारे में उनके परिवारों से जो सूचनाएं आईं हैं उसमें से एक बजरंग दल का कार्यकर्ता रहा है। दूसरा एक लड़की को थप्पड़ मारने में जेल में रहा है, उसके घर वालों का कहना है कि वह नशेड़ी है। तीसरे के परिवार ने कहा है कि उसके परिवार ने उससे रिश्ता खत्म कर लिया है। मीडिया रिपोर्ट में यह भी आया है कि यह जेल में थे और कुछ ही दिनों पहले छूटे। यहां सवाल छूटे की छुड़ाए गए? जय श्रीराम का नारा लगाने वाले ऐसे अपराधियों, धर्म के नाम पर दंगा करने वाले दंगाइयों से बीजेपी और उसके संगठनों का जुड़ाव किसी से छुपा नहीं है।
घटनास्थल को करीब से देखने वाले लोग एक वीडियो में यह बता रहे हैं कि दो ओर से दो-दो गाड़ियां आईं उनके अनुसार हमलावर 4 थे जो उन्हीं गाड़ियों से आए थे। वहाँ मौजूद एक मीडियाकर्मी के अनुसार, वहां पर वे आधे घंटे से मौजूद थे। जिसका आशय यह है कि पुलिस ने मीडिया को सूचना दी थी कि वो उनको लेकर आएंगे। पुलिस रिमांड में बरामदगी कराकर लौट रहे पुलिसकर्मियों की संख्या 17 थी, एक पत्रकार ने अपने बयान में बोला। यहां सवाल है कि इस हाई प्रोफाइल मामले में रात में मेडिकल के लिए के जाना, मीडिया को सूचना देना और पुलिसकर्मियों की कम संख्या, क्या एक साजिश का हिस्सा थी। माना मीडियाकर्मी सामने थे पर पुलिस की संख्या अतीक और अशरफ के पीछे क्यों नहीं थी। गोली चलते ही पुलिस भाग खड़ी हुई वहीं जैसे ही आरोपी सरेंडर सरेंडर कहने लगे तो बेखौफ एक पुलिस कर्मी दो-दो आरोपियों को पकड़ता है। क्या यह एक पूर्व नियोजित स्क्रिप्ट थी? जिसे मीडिया के कैमरों के सामने होना था। और योगी आदित्यनाथ के उस बयान कि मिट्टी में मिला देंगे… उस पर एक समुदाय विशेष का मीडिया ट्रायल करना था।
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यह घटना योगी आदित्यनाथ की पुलिस जिसने 10933 एनकाउंटर, जिसमें 183 के मारे जाने और 5040 के घायल जिसमें ज्यादर लोगों के घुटने में गोली मारी गई की सच्चाई को भी उजागर करती है। जो पुलिस हत्यारों के सामने गोली चलाना तो दूर बंदूक पिस्टल निकालने की हिम्मत नहीं कर पाते, उसने कैसे इन मुठभेड़ों को अंजाम दिया। असद के पास विदेशी पिस्टल की बरामदगी पर सवाल उठाने वाली पुलिस बताए कि इन हत्यारों के पास कहां से इतनी महंगी पिस्टल आई। असद मामले में तो पुलिस उसको दोनों ओर से घेरने की बात कहती है जबकि एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार दूसरी तरफ दीवार है जिससे आया ही नहीं जा सकता।
खैर, घटना को अंजाम देने के बाद जिस तरीके से तीनों को पुलिस गाड़ी में तुरंत भर कर चली गई वह क्या इसलिए कि उनका मीडिया से कहीं सामना न हो जाए। हत्यारे जय श्रीराम का जिस तरह से नारे लगा रह थे उससे स्पष्ट है कि वो उस मामले को धर्म से जोड़ कर सांप्रदायिक दंगे करवाना चाहते थे। यानी ये देश विरोधी कृत्य में लिप्त थे। इनको आतंकवादी कहना उचित होगा।
इस घटना से थोड़ा पहले लखनऊ में बलिया के हेमंत यादव की हत्या के इंसाफ के लिए एक श्रृद्धांजलि का कार्यक्रम होना था। इसे रोकने के लिए वर्दी पर दसियों स्टार वाले पुलिस अधिकारी यूपी प्रेस क्लब के बाहर खड़े थे लेकिन अतीक अहमद कांड में पुलिस अधिकारियों का वारदात स्थल पर उपस्थित न होना क्या किसी साजिश का हिस्सा था? जिससे ज्यादा पुलिस अधिकारी कार्रवाई के दायरे में न आए। अमूमन ऐसी वारदात को अंजाम देने वालों पर डायरेक्ट एक्शन और फैसला आन द स्पॉट करने वाली योगी पुलिस ने गोली न चलाकर यह संदेश दिया कि इस तरह के तत्वों के खिलाफ कोई कार्रवाई या हत्या भी कर देंगे तो हम कोई एक्शन नहीं लेंगे।
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मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जिलाधिकारी कार्यालय आजमगढ़ में वार्ता, जिसमें जिलाधिकारी और एसपी आजमगढ़ मौजूद थे, के बाद जब खिरिया बाग किसान आंदोलन को जा रहा था तो रास्ते में गाड़ी रोककर अपहरण करने वाले अपराधियों के खिलाफ जब मुकद्दमा पंजीकृत करने के लिए जाता हूँ तो कंधरापुर थाने के इंचार्ज जो मुकद्दमा पंजीकृत करने के लिए कहते हैं। वे ही तहरीर लेने से इंकार कर देते हैं और थोड़ी देर में ही उनका ट्रांसफर हो जाता है।
यूपी में इन परिस्थितियों में विधि और कानून की बात करना बेमानी हो गया है। यह एक पॉलिटिकल गैंगवार है। इसने इतना प्रतिशोध पैदा कर दिया है कि एक बाप अपने बेटे के जनाजे में नहीं जा सकता। उमेश पाल की पत्नी को इससे जो भी लगे पर आंख के बदले आंख फोड़ने की यह कोशिश पूरे समाज को अंधा कर देगी। एक नशेड़ी जय श्रीराम का नारा लगाने वाला हमारा आइकन बनेगा तो यह और भी खतरनाक होगा। धर्म में देशभक्ति और हत्या में धर्म की जय जयकार सिर्फ और सिर्फ भय और आतंक पैदा करेगी।