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फांसी के तख्ते पर खुद को महसूस करेंगे तब समझेंगे जयपुर हाइकोर्ट ‘फैसले’ के मायने

जयपुर हाईकोर्ट ने फांसी की सजा पाए आजमगढ़ के चार नौजवानों को बरी करते हुए, जांच अधिकारियों की भूमिका पर सवाल खड़ा किया। सैफ, सरवर, सैफुररहमान और सलमान पिछले 15-16 साल से जेल में हैं यानी पूरी जवानी कैदखाने में गुजार दी। सलमान तो घटना के वक्त नाबालिग था। इस समय को ऐसे भी आंक […]

जयपुर हाईकोर्ट ने फांसी की सजा पाए आजमगढ़ के चार नौजवानों को बरी करते हुए, जांच अधिकारियों की भूमिका पर सवाल खड़ा किया। सैफ, सरवर, सैफुररहमान और सलमान पिछले 15-16 साल से जेल में हैं यानी पूरी जवानी कैदखाने में गुजार दी। सलमान तो घटना के वक्त नाबालिग था। इस समय को ऐसे भी आंक सकते हैं कि जब ये गिरफ्तारियां हुईं तो कीपैड वाले मोबाइल, आरकुट का जमाना था और जब फैसला आया तो टचस्क्रीन, फेसबुक, व्हाट्सएप…!

सैफ के अब्बू मिस्टर भाई से मुलाकात हुई तो बेटे के बरी होने पर उनकी जो खुशी थी उसको शब्दों में बयां करना मुश्किल है। हो भी क्यों न वह एक पिता हैं।

बाटला हाउस एनकाउंटर के बाद जिस शख्स को एल 18 से नीचे लाते हुए सीढ़ी पर लगे रोशनदान से लिए गए वीडियो को मीडिया में दिखाया गया, उसे सैफ बताया गया।

यह संयोग ही है कि 2008 में जब यह घटना हुई उस वक्त भी रमजान था और सालों बाद आए फैसले के वक्त भी रमजान चल रहा है। 19 सितंबर का वह दिन मुझे याद है जब टीवी पर खबर चलने लगी कि आजमगढ़ में कुछ लोगों का एनकाउंटर हो गया। मैं माँ से बाइक में पट्रोल के लिए तीस रुपया लेकर एक साथी के साथ पहली बार संजरपुर पहुंचा।

बहरहाल, सरवर के चाचा आसिम साहब से भी बात हुई, उनकी खुशियों का अंदाजा आप तब लगा सकते हैं जब आप खुद को फांसी के तख्ते पर खड़ा कर महसूस करें और न्यायालय से आज़ादी मिल जाये।

[bs-quote quote=”जयपुर हाइकोर्ट फैसले के बाद जिस तरह से जांच एजेंसियों पर सवाल उठे इसके पहले भी इनकी भूमिका संदिग्ध मानी गई है। इसीलिए माननीय न्यायालय तक को बोलना पड़ जाता है कि ऐसा न कीजिए जिससे कहना पड़े माई नेम इज खान बट आई एम नॉट टेररिस्ट। बेगुनाहों को फंसाने, उनका जीवन बर्बाद करने के बाद भी इन सुरक्षा एजेंसियों पर कोई कार्रवाई न होने से प्रतीत होता है कि इन्हें राजनीतिक सत्ता संरक्षण प्राप्त है। अगर नहीं तो इन पर कार्रवाई से कौन रोक रहा?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

घर वालों का कहना था कि सरवर को मध्यप्रदेश के उज्जैन से जनवरी 2009 में उठाया गया और दो दिन बाद टेढ़ी पुलिया (लखनऊ) से गिरफ्तार दिखाया गया। तभी उसके घर जाना हुआ। लखनऊ के इन्टेग्राल विश्वविद्यालय से बीटेक कर चुका सरवर आईसीएलए लिमिटेड, हैदराबाद की इंदौर शाखा में बतौर इंजीनियर काम करता था।

सरवर के पिता गणित के अध्यापक मास्टर हनीफ साहब से मुलाकात हुई तो उन्होंने कहा कि मैं अपने छात्रों को अब कैसे अनुशासन और नैतिकता का पाठ पढ़ाऊंगा। उनका सवाल था कि लोग तो यही कहेंगे कि खुद का बेटा आतंकी और दुनिया को आदर्श सीखा रहा है। उनकी आखों में जो दर्द दिखा मैं उसे आज तक भूल नहीं पाया।

उसके बाद एक बार और ह्यूमन राइट्स वॉच का जांचदल भारत आया था तो तब मिले थे, उसके बाद उनसे मुलाकात नहीं हुई। मस्सू भाई बता रहे थे कि सरवर को लेकर वे काफी गमगीन रहते हैं। उनकी स्थिति ऐसी नहीं रह गई थी कि सरवर से मिलने जयपुर जा सकें। एक बार गए फिर खुद को संभाल नहीं पाए और गहरे अवसाद में चले गए। खुद से खाना भी नहीं खा पाते थे। आजकल उनकी सेहत और नासाज हो गयी है। नहीं मालूम कि अब वे पढ़ाते हैं कि नहीं पर अब फख्र से अनुशासन और नैतिकता का पाठ पढ़ाएंगे।

सलमान के दादा शमीम अहमद के लिए तो उसकी गिरफ्तारी काल बन कर आई। आजमगढ़ के इन गावों की शोक-उदासी किसी मरघट से कम नहीं। हो भी क्यों न जिन बच्चों ने कैरियर बनाने का ख्वाब देखा उन पर देश को धमाकों से दहलाने वाले आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिद्दीन को संचालित करने का आरोप था।

आजमगढ़ के युवाओं को जब जयपुर में 13 मई, 2008 को हुए धमाकों में आरोपी बनाया गया तो मानवाधिकार नेता कविता श्रीवास्तव, एडवोकेट पैकर फारूख, राशिद भाई और बहुत से लोगों से बात मुलाकात हुई। सालों से चल रही इस इंसाफ लड़ाई में बहुत से साथी मिले।

उमर खालिद से एक बार बात ही बात में ज़िक्र आया तो मैंने कहा कि आजमगढ़ के तारीक कासमी व मड़ियाहूं के खालिद मुजाहिद और खासतौर से बाटला हाउस कांड के बाद लोकतांत्रिक अधिकारों की इस लड़ाई में ज्यादा सक्रिय हुआ तो उन्होंने भी कहा कि मेरा भी यही दौर था। बाटला हाउस कांड ने भारतीय समाज के एक बड़े संवेदनशील तबके को एड्रेस किया। आज बहुत से साथी और दोस्त जो मानवाधिकार लोकतांत्रिक अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं उनमें बड़ी तादाद 2008 के इस दौर की है।

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उन्होंने कहा कि वैसे तो इस घटना ने पूरे देश को प्रभावित किया पर आजमगढ़ का होने के नाते हमें बहुत प्रभावित किया। हर शख्स हमें आतंकी की निगाह से देखता है, बस उसे जानने की देर होती थी कि हम आजमगढ़ के रहने वाले हैं। मुंबई, दिल्ली, लखनऊ, अहमदाबाद जैसे महानगरों में आजमगढ़ वालों को उस दौर में कमरे भी नहीं दिए जाते। दिल्ली जैसे महानगरों में पीसीओ पर आजमगढ़ फोन करने वालों को शक की निगाह से देखा जाता था। वैसे इन्हीं केसों के सिलसिले में कुछ लिखने के लिए कर्नाटक के भटकल गया था। जब पहली बार इस नाम को सुना तो मीडिया कुछ ऐसे इसे प्रोपेगेट करती थी कि जैसे यहां के लोग भटक गए हैं। ऐसे ही आजमगढ़ को आतंकगढ़ के नाम से बदनाम किया गया।

याद आता है कि 2008 में इन घटनाओं के सवालों को उठाने के कारण इंसाफ की आवाज को दबाने के लिए मेरे भाई और उनके एक साथी को यूपी एसटीएफ ने जब उठाया तो उनसे पूछा कि दो कश्मीरियों का नाम बताओ, जवाब में उन्होंने बोला- फारूख अब्दुल्ला और शेख अब्दुल्ला तो उनको बहुत मारा गया। उन्होंने कहा कि इन्हीं को जानता हूं तो इन्हीं को बताऊंगा न। जिंदगी के ये किस्से जब गुजरते हैं तो काफी तकलीफ देते हैं। पुलिस टार्चर भी सह चुके होते हैं। पर अब जब इनके बारे में बात होती है तो हसीं भी आती है।

चंद दिनों पहले बलिया के एक साथी जिनसे शाहीन बाग आंदोलन के दौरान मुलाकात हुई थी। उन्होंने कहा कि जब घटना हुई तो इतना भय का माहौल था कि लोग वहां से दूर अपने परिचितों के यहां जाने लगे। कभी-भी पुलिस किसी को भी पूछताछ के नाम पर उठा लेती। आजमगढ़ में ऐसे कइयों से मुलाकात हुई जिनको ट्रेन में सफर के दौरान उठाया गया। पूछताछ के नाम पर टार्चर किया गया, किसी को छोड़ दिया तो किसी को फर्जी केस में डाल दिया। याद आता है कि तारीक भाई का फोन आया कि लखनऊ स्टेशन पर आजमगढ़ के कुछ लड़के जो ट्रेन (कैफियत!) से जा रहे थे उनके फोटो खींचे जा रहे हैं, जिसकी सूचना सबको दी गई। कानपुर के वरिष्ठ नेता सुलेमान साहब स्टेशन गए और लड़कों को उतारा।

ऐसे ही एक सफर में सैफुर्रहमान जब ट्रेन से वाराणसी वाया मुंबई अपनी बहन को छोड़ने के लिए जा रहा था तो रात में जबलपुर रेलवे स्टेशन से दोनों बहन भाई को उठा लिया गया। और तब से सैफुर्रहमान जेल के सफर में हैं।

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इंडियन मुजाहिद्दीन (आईएम) यानी भारत के मुजाहिद यानी भारतीय मुसलमानों द्वारा बनाया गया संगठन। इसके नाम पर बड़े पैमाने पर स्कूल से निकले मुस्लिम युवाओं को टारगेट कर आतंकी छवि बनाई गई। इसके पहले यही कहा जाता था कि भारतीय मुसलमान बाहरी आतंकी संगठनों का टूल है पर इंडियन मुजाहिद्दीन कहकर उसे इसका संचालक बताया गया। गुजरात के एक पुलिस अधिकारी ने एक थियरी सामने लाई कि सिमी ने आगे से एस पीछे से आई हटाकर आईएम यानी इंडियन मुआहिद्दीन बना दिया। दरअसल, यह वही दौर था जब जस्टिस गीता मित्तल ने सिमी पर से प्रतिबंध हटा दिया। सिमी पर लगने वाले आरोप कमजोर होते जा रहे थे। उत्तर भारत में इसका सबसे बड़ा शिकार हमारा जिला आजमगढ़ हुआ। आतंक विरोधी अभियान के नाम पर देश के विभिन्न राज्यों से गिरफ्तारियां की गईं। यहां तक कि  वाराणसी, लखनऊ, गोरखपुर में हुई ऐसी कई घटनाएं जिनमें गिरफ्तारियां हो चुकी थीं और हूजी पर आरोप था उनका भी दोषी आजमगढ़ के लड़कों को बना दिया गया। यानी घटना एक, अंजाम देने वाले दो-दो। इसे ही कहते हैं कि सैयां भए कोतवाल तो डर काहे का।

आईएम के नाम पर आधुनिक और तकनीकी शिक्षा प्राप्त नौजवानों को आरोपी बनाया और गिरफ्तार किया गया। इससे पहले धार्मिक शिक्षा प्राप्त या गरीब, कम पढ़े-लिखे मुसलमानों पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने के आरोप लगते रहे हैं और उसके पीछे धर्मान्धता और अशिक्षा कारण माना जाता रहा। इसीलिए आतंक के इस नए अवतार को एक बड़ा वर्ग मुस्लिम नौजवानों की आधुनिक और तकनीकी शिक्षा की तरफ बढ़ते रुझान पर हमला मानता है।

दूर क्या हो रहा इसको जांचना आसान नहीं, पर पास क्या हो रहा उसको पता लगाना आसान है। जिस तरह से युवाओं को कहीं से उठाया कहीं से दिखाया, घटना के समय वह कहीं और था, घटना कहीं और हुई। इन तथ्यों के उजागर होने से जांच एजेंसियों की कहानी फर्जी साबित होने लगी थी। जनता खुलेआम विरोध करने लगी थी इसी प्रक्रिया में रिहाई मंच भी अस्तित्व में आया।

आजमगढ़ से तारिक कासमी और मड़ियाहूं से खालिद मुजाहिद को उठाकर बाराबंकी से विस्फोटकों और हथियारों के साथ गिरफ्तारी पर उठे सवाल के बाद सरकार द्वारा गठित जस्टिस आरडी निमेष आयोग ने गिरफ्तारियों को संदिग्ध कहा। शुरुआत में तो बहुत मुश्किल था कोर्ट में इन केसों को लड़ने वाले वकीलों को हिंसा का सामना करना पड़ा। लखनऊ के एडवोकेट व रिहाई मंच के अध्यक्ष मुहम्मद शुएब और लखनऊ, फैजाबाद, बाराबंकी में उनके साथी वकीलों रणधीर सिंह सुमन, एडवोकेट जमाल को कई बार अन्य वकीलों की हिंसा का सामना करना पड़ा। एडवोकेट शाहिद आज़मी को हम इसी लड़ाई में खो बैठे।

जयपुर हाइकोर्ट फैसले के बाद जिस तरह से जांच एजेंसियों पर सवाल उठे इसके पहले भी इनकी भूमिका संदिग्ध मानी गई है। इसीलिए माननीय न्यायालय तक को बोलना पड़ जाता है कि ऐसा न कीजिए जिससे कहना पड़े माई नेम इज खान बट आई एम नॉट टेररिस्ट।बेगुनाहों को फंसाने, उनका जीवन बर्बाद करने के बाद भी इन सुरक्षा एजेंसियों पर कोई कार्रवाई न होने से प्रतीत होता है कि इन्हें राजनीतिक सत्ता संरक्षण प्राप्त है। अगर नहीं तो इन पर कार्रवाई से कौन रोक रहा?

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सैफ अच्छा क्रिकेट खेलता था, हो सकता है कि वह देश के लिए खेलता भी। आईएम की परिघटना से उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा के अभाव में महानगरों को जाने वाले युवाओं पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा।

जेल में इन युवाओं को बहुत कुछ सहना पड़ा। जयपुर सेंट्रल जेल में सितम्बर 2009 में मोहम्मद सरवर और अन्य युवाओं को जेल प्रशासन द्वारा उस समय लाठियों से पीटा गया जब वह ईद की नमाज़ अदा करने के लिए बोले। सलमान पर देश की सबसे सुरक्षित मानी जाने वाली तिहाड़ जेल में 2010 में धारदार हथियार से जानलेवा हमला हुआ।

राजीव यादव वरिष्ठ किसान नेता और रिहाई मंच के महासचिव हैं।

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