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लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा-आरएसएस किस रणनीति पर काम कर रहे हैं।

लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनाव की अपेक्षा कम सीटों से जीत दर्ज की।लोकसभा चुनाव 2024 के परिणाम से ऐसा लगता है कि आरएसएस अपने राजनीतिक वंशज यानी भाजपा की मदद के लिए आगे नहीं आया।आरएसएस की गहरी समझ यह है कि इस चुनाव में भाजपा की हार का मुख्य कारण दलित वोटों का भारत गठबंधन की ओर जाना है।आरएसएस के नेता पहले से ही भाजपा नेताओं के साथ लंबी बैठकें कर रहे हैं, ताकि चुनाव के नतीजों का विश्लेषण किया जा सके और भविष्य की रणनीति बनाई जा सके। भाजपा-आरएसएस किस रणनीति पर काम कर रहे हैं इस पर राम पुनियानी का लेख।

2024 के संसदीय चुनावों में भाजपा के लिए निराशाजनक नतीजे आए। लोकसभा में उसकी संख्या 303 से घटकर 240 रह गई। इस तरह औपचारिक रूप से भाजपा सरकार को एनडीए सरकार बनना पड़ा। गठबंधन के जिन सहयोगियों की पिछले दस सालों में कोई सुनवाई नहीं हुई, अब उनकी आवाज़ सुनी जाने की संभावना है। इससे भाजपा के हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे का प्रभुत्व कम हो सकता है। सबसे बढ़कर, इंडिया गठबंधन की बढ़ती ताकत और राहुल गांधी के लिए बढ़ते जनसमर्थन ने विपक्ष को और अधिक मुखर और सशक्त बना दिया।

इन चुनावों में ऐसा लगता है कि आरएसएस अपने राजनीतिक वंशज यानी भाजपा की मदद के लिए आगे नहीं आया। इसका मतलब यह नहीं है कि आरएसएस चाहता था कि भाजपा हार जाए। उसका उद्देश्य सिर्फ़ बढ़ते ‘गैर जैविक’ सिंड्रोम को धीरे-धीरे फटकारना था। उसके बढ़ते प्रभुत्व को कम करना था। फिर भी यह कहना मुश्किल है कि आरएसएस ड्राइविंग सीट पर है या वास्तविक अर्थों में पिछली सीट पर है? आरएसएस के नेता पहले से ही भाजपा नेताओं के साथ लंबी बैठकें कर रहे हैं, ताकि चुनाव के नतीजों का विश्लेषण किया जा सके और भविष्य की रणनीति बनाई जा सके। ‘लाइव हिंदुस्तान’ की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में आरएसएस के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व सह सरकार्यवाह (संयुक्त महासचिव) अरुण कुमार कर रहे हैं, जो दोनों संगठनों के बीच समन्वय का बीड़ा उठा रहे हैं। आरएसएस के राम माधव ने जम्मू-कश्मीर चुनाव की कमान संभाली है।

आरएसएस की गहरी समझ यह है कि इस चुनाव में भाजपा की हार का मुख्य कारण दलित वोटों का भारत गठबंधन की ओर जाना है। इससे निपटने के लिए विश्व हिंदू परिषद को सक्रिय किया जा रहा है, जो दलित बस्तियों में बैठकों की एक श्रृंखला आयोजित करेगी। उनके साथ भोजन करेगी और उन्हें लुभाने के लिए धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन करेगी। विश्व हिंदू परिषद के संत और साधु यह सब करेंगे। ‘द हिंदू’ की रिपोर्ट के अनुसार, “ये धार्मिक नेता निर्धारित क्षेत्रों में पदयात्रा करेंगे, सत्संग, धर्म संसद का आयोजन करेंगे, समुदायों से आने वाले लोगों के घर जाएंगे और उनके घरों में भोजन करेंगे। यह कार्यक्रम विहिप की 9000 शाखाओं में चलाया जाएगा। एक तरह से यह राम मंदिर आंदोलन की भी याद दिलाता है, जिसमें विहिप ने आधारभूत भूमिका निभाई थी और फिर भाजपा ने कमान संभाली।

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आरएसएस न केवल चालकों (प्रचारकों, स्वयंसेवकों) को प्रशिक्षित करता है, बल्कि पीछे बैठकर चलाता भी है। 2024 के संसदीय चुनाव के नतीजों ने इसे हिलाकर रख दिया है और यह खिसकते वोट बैंक को वापस पाने के लिए पूरी ताकत से काम करने की योजना बना रहा है। इन चुनाव नतीजों पर आरएसएस की प्रतिक्रिया एक बार फिर दिखाती है कि सांस्कृतिक संगठन होने का उसका दावा महज दिखावा है। यह अलग बात है कि अब कई कारणों से उनकी राजनीतिक ताकत को उलट दिशा में जाना पड़ सकता है। मंडल का मुकाबला करने के लिए राम मंदिर आंदोलन को मजबूत बनाया गया था। मोदी शासन के दस साल और हिंदुत्व एजेंडे के बड़े पैमाने पर सामने आने के साथ ही यह अहसास दूर-दूर तक पहुंच रहा है कि ‘मनुस्मृति’ और ‘मुस्लिमों से नफरत’ की राजनीति करने वाला यह संगठन किसी भी तरह से सामाजिक न्याय के लिए खड़ा नहीं हो सकता।

विपक्षी दलों को हिंदू राष्ट्र की राजनीति की वास्तविकता को देखने में बहुत समय लग गया। मोदी-भाजपा के तानाशाही शासन और पक्षपातपूर्ण एजेंडे के दस साल बाद अब विपक्षी दल आरएसएस की राजनीति का मुकाबला करने के लिए छोटे-छोटे कदम उठा रहे हैं। आरएसएस ने नाजियों और फासीवादियों की प्रशंसा करने वाले अपने दूसरे सरसंघ चालक एम.एस. गोलवलकर के ‘हम या हमारा राष्ट्र को परिभाषित करने से लेकर तिरंगे का विरोध करने और वर्तमान में संविधान का अधिक छद्म भाषा में विरोध करने तक का लंबा सफर तय किया है। नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या के बाद लोगों की नजरों में इसकी प्रतिष्ठा गिर गई थी। भाग्य के एक झटके से जयप्रकाश नारायण की ‘संपूर्ण क्रांति’ ने आरएसएस को विश्वसनीयता प्रदान की।

जे.पी. एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे, फिर भी वे आरएसएस की वास्तविक प्रकृति को नहीं देख पाए, जब उन्होंने कहा कि ‘अगर आरएसएस फासीवादी है तो मैं भी फासीवादी हूं’। इसके ठीक पहले नेहरू ने आरएसएस की वास्तविक प्रकृति को समझ लिया था। दिसंबर 1947 में प्रांतीय सरकारों के प्रमुखों को लिखे अपने पत्र में नेहरू ने लिखा था कि “हमारे पास यह दिखाने के लिए बहुत सारे सबूत हैं कि आरएसएस एक ऐसा संगठन है जो एक निजी सेना की प्रकृति का है और जो निश्चित रूप से सबसे सख्त नाजी लाइनों पर आगे बढ़ रहा है। यहां तक ​​कि संगठन की तकनीकों का भी पालन कर रहा है”। उनकी इस समझ को बाद की सरकारों ने गंभीरता से नहीं लिया, और इसके अलावा आरएसएस-प्रशिक्षित प्रचारकों ने देश के सामाजिक और राजनीतिक जीवन के विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं में घुसपैठ करना शुरू कर दिया था।

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भाजपा के दो कार्यकालों ने लोगों के एक बड़े वर्ग और कई दलों को पूरी तरह से निराश कर दिया है। उन्हें एहसास हो गया है कि नेहरू जो कह रहे थे, वह सच्चाई का केवल छोटा सा पहलू था। सबसे बड़ी बात यह है कि अब तक चुनावी प्रक्रियाओं से दूर रहने वाले अधिकांश नागरिक समाज समूह भी जाग गए हैं। ये समूह इस तथ्य को समझते हैं कि भाजपा-आरएसएस के शासन ने हमारे समाज को पहले ही इतना नुकसान पहुँचाया है कि इंडिया गठबंधन की कमज़ोरियों के बावजूद, ऐसी स्थिति पैदा करनी होगी जहाँ लोकतंत्र और बहुलवाद के इंडिया गठबंधन के लक्ष्यों को मज़बूत किया जाए। कर्नाटक की ‘एड्डुलु कर्नाटक पहल’ और फिर ‘भारत जोड़ो अभियान’ से प्रेरित होकर, कई नागरिक समाज अनेक मुद्दों पर अपने मतभेदों के बावजूद, लोकतंत्र को जीवित रखने और बहुलवाद को पनपने के लिए एक साथ आ रहे हैं।

यह एहसास सिर्फ़ राजनीतिक स्तर पर नहीं है। यह अवलोकन कि कैसे वैज्ञानिक सोच को कमज़ोर किया जा रहा है और अंधविश्वास को बढ़ावा दिया जा रहा है, सभी के सामने है। अतीत का अंधाधुंध महिमामंडन, पहला प्लास्टिक सर्जन-प्राचीन भारत, गोमूत्र में सोना या कोरोना को भगाने के लिए थाली पीटने को बढ़ावा देना, इन सबने तर्कसंगत सोच की जड़ों को चकनाचूर कर दिया है। हमारी शैक्षणिक उपलब्धियों के शिखर पर स्थित आईआईटी, पंचगव्य (गाय के गोबर, मूत्र, दूध, घी और दही का मिश्रण) की उपयोगिता साबित करने के लिए प्रोजेक्ट शुरू कर रहे हैं। आरएसएस से प्रशिक्षित प्रचारक मीडिया और सोशल मीडिया में मौजूद हैं और उन्होंने हमारे राष्ट्रीय जीवन में ऐसी समझ के साथ घुसपैठ की है जो प्रतिगामी मूल्यों का महिमामंडन करती है। सड़ांध बहुत गहरी है और भाजपा की चुनावी हार महज पहला कदम है, जिसके बाद हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों में निहित सामाजिक ज्ञान का निर्माण करना होगा। चाहे वह इतिहास हो या विज्ञान या कानूनी व्यवस्था, सांप्रदायिक विचारधारा द्वारा लाई गई सड़ांध का मुकाबला करना होगा।

राम पुनियानी
राम पुनियानी
लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं

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