विश्व का सबसे शोषित वर्ग उन दलित स्त्रियों का है जो जीने के लिए अपनी देह पर निर्भर हैं। सदियों पुरानी देवदासी प्रथा आज तक न केवल जिंदा है बल्कि एक ऐसी समस्या में तब्दील हो चुकी है जिसको खत्म करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को भी संघर्ष करना पड़ रहा है। किसी भी सभ्य समाज में जब धर्म और आस्था सवाल बनकर खड़े हों तब वहां युद्ध करने पर भी इंसानियत और सच्चाई की हार होती है। दुनिया के किसी भी धर्म और जाति का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है फिर भी हजारों सालों से इसका जिंदा रहना केवल कुछ ताकतवर वर्गों के आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति का सबूत है। आस्था उसका जरिया मात्र है। इक्कीसवीं सदी के कुछ गिने-चुने शक्तिशाली न्यूक्लियर देशों में शामिल भारत में कुछ लोगों की आस्था वृहत्तर नागरिक समाज को हर तरह के अन्याय और हिंसा का शिकार बना रही है। यह आश्चर्य की बात है कि मुट्ठी भर ब्राह्मणवादी सोच पूरे देश के सोच पर हावी है जिसका विरोध और बदलाव का संघर्ष आज देशद्रोह साबित किया जा रहा है।
देवदासी प्रथा दक्षिण भारत के पांच राज्यों (महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश) में आज भी दलित स्त्रियों के एक बड़े वर्ग की सच्चाई है। कर्नाटक राज्य के एक गांव सौदती में रेणुका यलम्मा देवस्थान है जो एक ट्रस्ट द्वारा संचालित किया जाता है। देश भर में यलम्मा का यह इकलौता मंदिर है जहां फरवरी में माघी पूर्णिमा के दिन छोटी-छोटी दलित बच्चियों को माहवारी से पहले देवदासी बना दिया जाता है। मां-बाप से बिछड़ी इन मासूम बच्चियों का विवाह देवी से कराकर यौन हिंसा के लिए मंदिर में छोड़ दिया जाता है। यहां से कुछ सालों बाद वे महानगरों के कोठों पर बेच दी जाती हैं और बुढ़ापा उन्हीं महानगरों के फुटपाथ पर भीख मांगते गुजारती हैं।
देवदासी प्रथा के खिलाफ संघर्ष का इतिहास काफी पुराना है। भारत में सबसे पहला आंदोलन 1892 में हुआ। 1930 में डॉ. मुथ्थुलक्ष्मी रेड्डी और 1939 में अमना राजा ने ब्रिटिश सरकार की प्रवर समिति से इस प्रथा के विरोध में एक विधेयक पारित कराने में सफलता पाई और वे कुछ सुधार लाने में सफल भी हुईं। 1934 में पहला बम्बई देवदासी निर्मूलन अधिनियम लागू किया गया। लेकिन उस वक्त दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था। इसी के चलते ब्रिटिश सरकार ने इस ओर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया और यह समस्या जस की तस बनी रही।
डॉ. अम्बेडकर ने देवदासी प्रथा के साथ ही तमाम ऐसी प्रथाओं, जो दलित स्त्रियों के सम्मान को ठेस पहुंचाती हों, के खिलाफ दलित स्त्रियों को ही संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए उन्होंने अपने सभी संघर्षों में दलित स्त्रियों को शामिल किया। अपनी जाति के कारण हालात से समझौता करने के बजाय उससे संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। इसी वजह से दलित स्त्रियों में जागरुकता आई और वे शिक्षा की ओर बढ़ीं। उन्होंने 1925 में निपानी में और 1929 में बम्बई में कई देवदासियों का सामूहिक विवाह करवाया।
आज़ादी के बाद समय-समय पर देवदासी प्रथा को रोकने के लिए कई बिल बनाए गए। 1982 में प्रोहिबिटेशन ऑफ डेडिकेशन एक्ट लागू किया गया लेकिन इसका कोई विशेष फायदा नहीं हुआ। अगले ही साल लगभग 3000 दलित बच्चियों को अकेले महाराष्ट्र और कर्नाटक में देवदासी बनाया गया। उसके बाद से आजतक हर फरवरी पूर्णिमा के दिन दलित बच्चियां देवदासी बनाई जा रही हैं।
राष्ट्रीय महिला आयोग ने कुछ वर्ष पहले अपनी एक रिपोर्ट में महाराष्ट्र और कर्नाटक में 2,50,000 देवदासियों के होने की पुष्टि की है। कर्नाटक सरकार ने 2007 में 22,943 देवदासियों की जानकारी दी। लेकिन उसी साल स्थानीय प्रजावाणी अखबार में यह आंकड़ा 39,000 का बताया गया। संयुक्त आंध्र प्रदेश सरकार ने जिस जस्टिस रघुनाथ राव कमेटी को राज्य में देवदासियों की स्थिति की जानकारी के लिए नियुक्त किया था उस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि राज्य में 80,000 से ज्यादा देवदासियों के होने का प्रमाण मिला है।
पांचों राज्यों में देवदासियों के सम्मान, पुनर्वसन और मानवाधिकार के लिए समय-समय पर कई आंदोलन छेड़े गए। अनेक गैर सरकारी संगठनों ने सरकार पर दबाव बनाया जिसके कारण कर्नाटक सरकार ने अपने राज्य में 500 रुपये महीने का भत्ता प्रत्येक देवदासी को देने की शुरुआत की। लेकिन इस छोटे से भत्ते से उनकी और उनके बच्चों की जीविका नहीं चल सकती थी। आज भी देवदासी समुदाय अपनी जायज मांगों को लेकर संघर्ष कर रहा है जिसमें इस भत्ते को बढ़ाकर 1,000 रुपये महीना किया जाना, घर के लिए जमीन, बच्चों की सरकारी स्कूलों में पढ़ाई और सरकारी नौकरियों में दो प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान और बेटी के शादी पर 50 हजार रुपये का अनुदान शामिल है। हालांकि अभी तक कोई मांग स्वीकार नहीं की गई है।
देवदासी प्रथा जड़ से समाप्त हो और उनका सम्मानपूर्वक पुर्नवसन हो सके इसकी कोई ठोस नीति या इच्छाशक्ति किसी राज्य सरकार के पास नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रथा को खत्म करना किसी के भी बस की बात नहीं है। इस प्रथा की जड़ें जमीन के अंदर गहराई तक जमी हुई हैं। मंदिर में काफी चढ़ावा चढ़ाया जाता है। यलम्मा को पावन देवी माना जाता है। लोगों में ऐसा भ्रम है कि उसकी पूजा करने से सभी मुरादें पूरी होती हैं।
मंदिर के चढ़ावे में मंदिर के पुजारी, इलाके के ताकतवर लोग और स्थानीय पुलिस सभी की हिस्सेदारी रहती है। ऐसी प्रथाएं तभी जिंदा रहती हैं जब स्त्री की देह और पैसा धर्म की आड़ लिए हासिल होता है। इसी कारण उसे उखाड़ना असंभव है। ऐसी प्रथाएं तभी खत्म हो सकती हैं जब ऐसे मंदिर ही गिरा दिए जाएं। लेकिन भारत में ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद भले ही गिरा दी जाए पर किसी भी मंदिर को गिराना सम्भव नहीं। चाहे लाखों दलित स्त्रियां तबाह होती रहें। उनके बच्चे नाजायज और बर्बाद बने रहें। उनका इस चक्रव्यूह से निकल पाना आसान नहीं, फिर भी बदलाव के लिए कोशिशें जारी रहनी चाहिए।
गोवा देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जहां वर्षों पहले ही इस प्रथा को न केवल पूरी तरह से खत्म कर दिया गया बल्कि पूरे देवदासी समाज का प्रतिष्ठित रूप में पुनर्वसन भी किया गया। इस काम को स्वयं एक देवदासी पुत्र राजाराम पैंगनिकर ने शुरू किया। उन्होंने अपनी जीवनी मैं कौन? में अपने संघर्ष को लिखा। बचपन से संघर्ष करते-करते वे एक बड़े उद्योगपति बने। राजाराम पैंगनिकर, प्रो. नारायण बांदोड़कर और कुछ सुधारवादी लोगों ने मिलकर इस प्रथा के विरोध में जबरदस्त जेहाद छेड़ा, जिसकी वजह से गोवा विधान परिषद ने 1930 में एक बिल पास किया और देवदासी प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया।
यह आंदोलन यहीं खत्म नहीं हुआ बाद में चलकर इसी आंदोलन की वजह से मराठा गोमांतक समाज की स्थापना की गयी जिसमें देवदासियों और उनकी अवैध संतानों को सम्मानपूर्वक शामिल किया गया। इस नए समाज ने सभी देवदासियों और उनके बच्चों को बम्बई, कोल्हापुर जैसे महानगरों में जाकर बसने और शिक्षा प्राप्ति के लिए प्रेरित किया। उनके लिए हास्टल और पैसे की व्यवस्था की गई जिसकी वजह से दो लाख से अधिक जनसंख्या वाले इस समाज में कला, विज्ञान और तकनीकी जैसे कई क्षेत्रों में विश्वविख्यात विभूतियां दी हैं। स्वर्गीय येशुभाई, लता मंगेशकर और आशा भोसले, विख्यात गायिका मोगू बाई कुरड़ीकर और उनकी पुत्री किशोरी अमोनकर, सरस्वती और हीराबाई बांदोड़कर, हारमोनियम वादक मधुकर पेंडनेकर, लामास्कर पंखतकर, वायलिन वादक श्रीधर परलेकर, ओसवेभोले, और आशालता वडगांवकर, मराठी रंगमंच की विख्यात कलाकार रत्नप्रभा, जयश्री टी., मीना टी., जो बाद में फिल्म अभिनेत्रियां बनीं आदि इसी समाज से निकली थीं। इन कलाकारों के अलावा गोवा के प्रथम मुख्यमंत्री दयानंद बांदोड़कर, विश्व विख्यात स्त्री रोग विशेषज्ञ स्व. डॉ. वी. शिरोड़कर, मशहूर सर्जन डॉ. मुलगांवकर, टेल्को के भूतपूर्व चेयरमैन रा.ध. मुलगांवकर और कथाकार चंद्रकांत काकोड़कर सभी इसी समाज की देन हैं। मराठा गोमांतक समाज के लोग आज सम्मान से जीते हैं। उन्हें इस बात पर गर्व है कि वे इस समाज की उपज हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने 14 फरवरी, 2014 को एक महत्वपूर्ण फैसले में देवदासी प्रथा को समाप्त करने के लिए कर्नाटक सरकार के प्रधान सचिव को निर्देश दिए जिसमें किसी भी नाबालिक बच्ची को देवदासी बनाने के लिए समर्पित न किए जाने के निर्देश दिए लेकिन अगली सुनवाई पर कर्नाटक सरकार की तरफ से जवाब दाखिल नहीं किया गया। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक सरकार पर जुर्माना भी लगाया। फिर भी कहीं कोई बदलाव दिखाई नहीं दे रहा है। आजादी के 75 साल गुजर जाने के बाद भारत में ऐसे हजारों समुदाय हैं जो आज अपने मानव अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं और लगातार हार रहे हैं।
भारत के पहले संविधान मनुस्मृति जो दलितों और स्त्रियों को इंसान का दर्जा नहीं देती। वह आज भी अपनी अहमियत बनाए हुए है, जिसके रचयिता मनु की प्रतिमा राजस्थान हाईकोर्ट की शोभा बढ़ा रही है। इसी तरह मनु की सोच पूरी भारतीय सांस्कृतिक व्यवस्था पर हावी है। जब तक डॉ. अंबेडकर का लिखा भारतीय संविधान पूरी ईमानदारी के साथ लागू नहीं किया जाएगा तब तक भारत के ये सभी शोषित वर्ग मानवाधिकारों से वंचित और मनुवाद से हारते रहेंगे।
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