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ग्राउंड रिपोर्ट

सम्पूर्ण दलित आंदोलन : पसमान्दा तसव्वुर – समाज में दलितों के साथ भेदभाव होता ही है चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान

पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर की ‘सम्पूर्ण दलित आन्दोलन : पसमान्दा तसव्वुर’ किताब में दलित मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक स्थिति की जमीनी पड़ताल की गई है और साथ ही साथ लेखक ने इन स्थितियों में सुधार के संवैधानिक एवं राजनैतिक उपाय भी सुझाया है।

दलित मुसलमानों की स्थिति का शोधपरक अध्ययन

पिछले पच्चीस वर्षों से पसमान्दा मुसलमानों की बेहतरी के लिए संघर्ष करने वाले पत्रकार एवं पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर की ‘सम्पूर्ण दलित आंदोलन : पसमान्दा तसव्वुर’ (2023) तीसरी क़िताब है। इससे पहले उनकी दो किताब ‘मसावात की जंग’ (2001) और ‘बिहार के दलित मुसलमान’ (2004) प्रकाशित हो चुकी है। अपनी इस क़िताब में अली अनवर एक सौ दलित मुस्लिम परिवारों का सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत करने के साथ ही साथ समय-समय पर इन वर्गों की बेहतरी के लिए उठाई गई आवाजों को भी प्रस्तुत करते हैं।

मुसलमानों में कोई ऊँच-नीच नहीं होता है। सभी मुसलमान आपस में भाई-भाई होते हैं। उसूलन यह सही भी है। मगर मुस्लिम समाज में उसूल-अमल की सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। यह फर्क लम्बे समय से मुस्लिम समाज में रहा है। इसी फर्क को देखते हुए डॉ. आंबेडकर अपनी किताब ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ में मुस्लिम जातियों को तीन वर्गों में विभाजित करते हैं, वे जिसका हवाला 1901 की बंगाल प्रान्त की जनगणना को देते हैं, जो इस प्रकार है-

1. अशराफ़ अथवा उच्च वर्ग के मुसलमान – सैयद, शेख, पठान, मुगल, मलिक, मिर्जा।

  1. अजलाफ़ अथवा निम्न वर्ग के मुसलमान – खेती करने वाले शेख, दर्जी, जुलाहा, फ़क़ीर, रँगरेज, बाढ़ी, भठियारा, चिक, चूड़ीदार, दाई, धोबी, धुनिया, गद्दीदार, कलाल, कसाई, कुला, कुंजड़ा, लहेरी, माहीफरोश, मल्लाह, नालिया, निकारी, अब्दाल, बाको, बेड़िया, भाट, चम्बा, डफाली, धोबी, हज्जाम, मुचो, नगारची, नट, परवाडिया, मदारिया, तुन्तिया।
  2. अरजाल अथवा निष्कृष्ट वर्ग- भानार, हलालखोर, हिजड़ा, लालबेगी, भोगता, मेहतर।

अली अनवर लिखते हैं कि आदमी से आदमी का पाखाना साफ़ कराने जैसा पेशा हिन्दुस्तान में सबसे पहलेमुगल शासकों के दौर में ही शुरू हुआ था। मुग़ल शासकों की हवेलियों में पाखाना साफ़ करने वाले और कोई नहीं, मुसलमान ही थे। यह बात और है कि उन्हें एक बढ़िया-सा नाम ‘लालबेगी’ या ‘हलालखोर’ दे दिया गया। मुसलमानों में ऐसी कई जातियाँ हैं, जिनके नाम और पेशे हिन्दू दलितों से मिलते-जुलते हैं। उनकी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक स्थिति भी कमोबेश बराबर ही है। इन पिछड़े हुए मुसलमानों को पसमान्दा मुसलमान कहा जाता है, जिन्हें अब दलित मुसलमान भी कहा जाने लगा है। दरअसल,‘दलित ईसाइयों’ को अनुसूचित जाति में शामिल करने की माँग को लेकर मदर टेरेसा एक दिन महात्मा गाँधी की समाधि-स्थल राजघाट पर उपवास पर बैठी थीं। इस घटना से प्रेरणा लेकर अली अनवर ‘दलित मुसलमान’ शब्द का प्रयोग करना शुरू करते हैं।

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इस किताब में ‘सर्वेक्षण का मरकज़ और दायरा’ शीर्षक अध्याय में पटना के एक सौ दलित मुस्लिम परिवारों का अध्ययन-सर्वेक्षण किया गया है, जिनमें 11 मुस्लिम धोबी, 20 हलालखोर, 36 बक्खो, 15 पँवरिया, 7 मछुआरा, 4 नालबन्द तथा 7 मुस्लिम नट परिवारों को शामिल किया गया है। इस सर्वेक्षण को लेखक ने स्वतः नमूना सर्वेक्षण ही कहा है क्योंकि पटना में उपर्युक्त जातियों की संख्या हजारों में हैं। इसमें जिन परिवारों को चुना गया, उनसे शिक्षा, स्वास्थ्य, पेशा, खान-पान, पहनावा, पर्व-त्योहार आदि पर केन्द्रित 50 सवाल पूछे गये थे, जिसका वे बिना लाग-लपेट के जवाब दिए।

इस सर्वेक्षण से यह तथ्य सामने आता है कि मुस्लिम समाज में ऊँच-नीच का भेदभाव है। एक मुस्लिम धोबी का कहना है कि ‘उन लोगों के यहाँ शादी-विवाह तथा अन्य मौकों पर जो भोज होता है, उसमें पुलाव के साथ दो पीस खस्सी का गोश्त और एक पीस आलू हांडी या बाल्टी में से हाथ से निकालकर (चम्मच से नहीं) खाने वाले के प्लेट में दिया जाता है। यह हमारी बिरादरी का नियम है, लेकिन इसी (हाथ से निकालने) की वजह से शायद दूसरे मुसलमान हमारे यहाँ शादी-ब्याह में खाना नहीं खाते हैं।’ दूसरे मुस्लिम धोबी जमील की माँ मुसम्मात नरगिस कहती हैं कि ‘लोग अपने को मुसलमान कहते हैं, लेकिन उनको छोटी जात समझते हैं। नरगिस बताती हैं कि उसने अपने बेटे जमील की शादी के मौके पर वलीमे में बड़े शौक से बहुत लोगों को दावत दी थी, लेकिन लोग नहीं आए. बहुत खाना बर्बाद हो गया। लोग दावत कबूल भी लेते हैं, मगर धोखेबाजी करते हैं। साफ़ कहते नहीं कि नहीं आएँगे, अपनी बिरादरी को छोड़कर कोई नहीं आता है।’ इसी तरह का अनुभव हलालखोर, बक्खो, पँवरिया, मछुआरा, नालबन्द और नट जातियों का भी है।

दलित मुसलमानों की शैक्षिक स्थिति बहुत ख़राब है। कुल एक सौ परिवारों के 592 लोगों में से 370 अर्थात 62.5% लोग अनपढ़ हैं और जो 37.5% साक्षर हैं, उनमें सात मैट्रिक पास, तीन आई.ए. पास, तथा एक बी. ए. पास युवक हैं, जिनमें से किसी को अभी तक सरकारी नौकरी नहीं मिली है, बाकी शेष साक्षर पढ़ और हस्ताक्षर कर सकते हैं, उनके पास कोई डिग्री नहीं है। इसी कारण पढाई-लिखाई के सवाल पर वे घोर निराशा प्रकट करते हुए कहते हैं कि ‘पढ़ने पर भी जब नौकरी नहीं मिलती तो पढ़ाई-लिखाई में वक्त बर्बाद करने से क्या फायदा? पढ़ने-लिखने के बाद बच्चे मेहनत-मजदूरी करने लायक भी नहीं रह जाते हैं. इसीलिए अब हम लोगों ने बच्चों को स्कूल भेजना ही कम कर दिया है।’ जहाँ एक तरफ देश में शिक्षित बेरोजगारी बढ़ रही हैं, वहीँ दूसरी तरफ इस देश के दलित मुसलमान बुनियादी तालीम से भी वंचित हैं।

बकौल अली अनवर ‘कब्र खोदने वाले को ‘गोरकन’ कहते हैं. यह फ़ारसी का शब्द है। कई जगह इन्हें ‘कब्रखोदू’ भी कहा जाता है। बिहार के साईं (फ़क़ीर) बिरादरी के लोग मुख्य रूप से यह काम करते हैं। इस बिरादरी में ‘शाह’ सरनेम वाले लोग भी है’ इनकी आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय है। मनोज मेहता अपनी एक कविता में इनकी आर्थिक स्थिति का सजीव वर्णन इस प्रकार करते हैं कि ‘वह मातमी भीड़ और कुढ़ते हुए मौलवी को/ क़यामत की चिंता में छोड़/ हर जनाज़े के लिए सही जगह/ पहले ही परख लेता है/ कि कफ़न के किस टुकड़े का बनेगा/ उसका कुर्ता, बीवी की साड़ी, बेटी का फ्राक’ ऐसी स्थिति में जीवन-बसर करने वाली जाति अपने बच्चों की शिक्षा के बारे में कैसे सोच सकती है?

इन्हीं दलित मुसलमानों या पसमान्दा मुसलमानों के लिए प्राधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी पार्टी के लोगों से ‘स्नेह’ यात्रा निकलने को कहते हैं जबकि सच्चाई यह है कि 2014 से लेकर आज तक लगातार मॉब लिंचिंग, घर वापसी, गौरक्षा, लव जिहाद, कोरोना के दौर में तबलीगी जिहाद, मन्दिर-मस्जिद का बखेड़ा, जितने भी इस तरह के अभियान चलाये गए हैं, उससे तो सर्वाधिक पीड़ित पसमान्दा और गरीब मुसलमान ही हुए हैं। इन सभी मामलों में पसमान्दा मुसलमान ही तो सबसे अधिक मारे, काटे, जलाए तथा झूठे मुकदमों में फंसाकर जेल भेजे गये हैं। गुजरात की भाजपा सरकार ने बिलकिस बानो के बलात्कारियों और उसके परिवार सहित 14 लोगों के आजीवन सजायाफ्ता हत्यारों को न सिर्फ छोड़ा बल्कि भाजपाइयों ने सार्वजानिक तौर पर उनका स्वागत-अभिनन्दन करते हुए जुलुस भी निकाला। बकौल अली अनवर ‘भाजपा यही नहीं रुकी,बिलकिस बानो के बलात्कारियों एवं परिवार की हत्या करने वालों को अपना टिकट देकर जिताया भी। क्या भाजपा नेतृत्व को नहीं लगता कि ऐसी बेशर्मी दिखाकर उनके लोगों ने अन्याय और क्रूरता की सारी हदें पार कर दी है? अब तो यह तथ्य भी उजागर हो चुका है कि उपरोक्त ‘बलात्कारियों-हत्यारों’ को सीधे भारत सरकार के गृह मंत्रालय की इजाजत से छोड़ा गया, जिसके मंत्री अमित शाह हैं और बिलकिस बानो प्रधानमंत्री मोदी जी की जाति घांची की ही हैं।’

अली अनवर की ‘सम्पूर्ण दलित आन्दोलन : पसमान्दा तसव्वुर’ किताब 2023 में प्रकाशित हुई थी। इस किताब में दलित मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं राजनीतिक स्थिति की जमीनी पड़ताल की गई है और साथ ही साथ लेखक ने इन स्थितियों में सुधार के संवैधानिक एवं राजनैतिक उपाय भी सुझाया है।

ज्ञानप्रकाश यादव
ज्ञानप्रकाश यादव
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रहे हैं और सम-सामयिक, साहित्यिक एवं राजनीतिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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