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’10 साल, 10 सवाल’: सांसदों को तो बाहर निकाल दिया, आक्रोशित छात्रों के अभियान से कैसे निपटेगी मोदी सरकार?

'मोदी सरकार के दस साल और यंग इंडिया के दस सवाल' के नाम से इन छात्रों ने एक अभियान शुरू किया है। इसमें उनके ऐसे शिक्षकों का भी बराबर योगदान है, जो नरेंद्र मोदी की सरकार से जवाबदेही सुनिश्चित करना चाहते हैं। सरकार से सवाल करने की कमान ऑल इंडिया स्‍टूडेंट्स असोसिएशन (आइसा) ने अपने हाथ में ले ली है।    

आठ साल पहले रोहित वेमुला की ‘सांस्‍थानिक हत्‍या’ के बाद जिन छात्रों-नौजवानों ने देश भर की सड़कों को गरमाया था, वे आज उन्‍हीं शैक्षणिक संस्‍थानों में शिक्षक हैं। उस वक्‍त जो स्‍कूली बच्‍चे एनसीआरटी की मूल किताबों को पढ़ सके थे (जिन्‍हें कोरोना के बाद केंद्र सरकार ने बदल दिया), वे आज उच्‍च शैक्षणिक संस्‍थानों में छात्र हैं। यह इत्‍तेफाक है या ऐतिहासिक गति, लेकिन इसका असर मोदी सरकार के किये-धरे पर आगामी आम चुनावों में पड़ना लाजिमी है।

‘मोदी सरकार के दस साल और यंग इंडिया के दस सवाल’ के नाम से इन छात्रों ने एक अभियान शुरू किया है। इसमें उनके ऐसे शिक्षकों का भी बराबर योगदान है, जो नरेंद्र मोदी की सरकार से जवाबदेही सुनिश्चित करना चाहते हैं। सरकार से सवाल करने की कमान ऑल इंडिया स्‍टूडेंट्स असोसिएशन (आइसा) ने अपने हाथ में ले ली है।

लखनऊ विश्‍वविद्यालय की पूर्व कुलपति प्रो. रूपरेखा वर्मा के शब्‍दों में, ‘अब एक ऐसे अभियान की आवश्यकता है जो 2024 के चुनाव के एजेंडे को प्रभावित कर सकता हो।‘

पहली बार के वोटर

ये अध्‍यापक और छात्र सरकार से जिस जवाबदेही की मांग कर रहे हैं उसकी फेहरिस्‍त आठ साल पहले रोहित वेमुला और जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय (जेएनयू) से शुरू होकर चार साल पहले सीएए-विरोधी आंदोलन के दौरान जामिया मिलिया और अलीगढ़ युनिवर्सिटी से होती हुई अब उत्‍तर प्रदेश के लगभग सभी उच्‍च शिक्षा केंद्रों तक पहुंच चुकी है।

 

‘दस साल, दस सवाल’ अभियान की तैयारियों में जुटे छात्र  

एक ऐसे समय में जब सांसदों को सवाल करने पर संसद से निकाल दिया जा रहा हो, उत्‍तर प्रदेश के छात्र केंद्र सरकार से उसके उस साल का हिसाब खुलकर मांग रहे हैं।

वह छात्रों ने 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए एक यंग इंडिया चार्टर बनाया है, जिसमें एक मुख्य बिंदु विश्वविद्यालयों में बंद पड़े छात्र संघों की बहाली है। इसके अलावा उच्च शिक्षा में सीटों की वृद्धि, सभी ब्लॉकों में सरकारी कॉलेज शुरू करने और जॉब कैलेंडर जारी करने आदि  की मांग भी चार्टर में शामिल है। ये वही छात्र हैं जो पहली बार 2024 के आम चुनाव में अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे।

दस साल, दस सवाल

दस साल पहले जब नरेंद्र मोदी केंद्र की सत्‍ता में आए थे, तब उन्‍होंने ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ के नाम पर देश के 65 प्रतिशत युवाओं को ‘अच्‍छे दिनों’ का सपना बेचा था। इन ‘अच्‍छे दिनों’ का हासिल यह है कि नौजवानों में बेरोजगारी बढ़ी, शै‍क्षणिक परिसरों में फीस वृद्धि हुई, पिछड़े, दलित और आदिवासी छात्र शैक्षणिक परिसरों से दूर हुए और अल्पसंख्यकों की शिक्षा पर जबरदस्‍त हमले हुए। आज वही युवा इन मुद्दों पर सरकार को घेरने की तैयारी में है, जिसकी पीठ पर चढ़कर युवा-विरोधी भाजपा केंद्र और सूबे की सत्‍ता में आई थी।

आइसा ने सरकार को घेरने के लिए दस सवाल तैयार किए हैं। इसमें छात्र संघ बहाली से लेकर शिक्षा में तार्किकता और आलोचनात्मक सोच को मिटा देने की साजिश और राजनीति-प्रेरित नियुक्तियों का विरोध, सब कुछ शामिल है। छात्रों का आरोप है कि शैक्षणिक संस्थानों में राजनीति द्वारा प्रेरित भर्तियां हो रही हैं और देश भर में केंद्रीय विश्वविद्यालयों के वर्तमान कुलपति किसी न किसी तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और सत्तारूढ़ दल भाजपा  से जुड़े हुए हैं।

‘गांव के लोग’ ने इस अभियान से जुड़े छात्रों से बात कर के इस अभियान के उद्देश्य को समझने का प्रयास किया है। छात्रों का कहना है कि पिछले एक दशक में उन्‍होंने देश के संसाधनों और सार्वजनिक संस्थानों पर मोदी सरकार की नीतियों के नकारात्मक प्रभाव को देखा है, जिसके कारण सार्वजनिक उच्च शिक्षण संस्थानों का लगातार पतन हुआ है। इसीलिए वे अभियान छेड़ने को मजबूर हैं। अभियान के तहत जिन मुद्दों को उठाया जा रहा है, उनकी लंबी सूची है।

वित्‍तपोषण का नया मॉडल

आइसा के प्रदेश अध्यक्ष आयुष श्रीवास्तव कहते हैं कि पाठ्यक्रमों की फ़ीस में लगातार वृद्धि हुई है जिससे छात्रों पर अत्यधिक आर्थिक बोझ बढ़ रहा है। उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी (HEFA) के ‘ऋण-आधारित’ ढांचे के अंतर्गत विश्वविद्यालयों ने काफी ऋण ले लिया है जिससे भविष्य में फीस वृद्धि कर चुकाया जाना है।

उनके अनुसार दिल्ली यूनिवर्सिटी ने 983 करोड़ रुपये, जेएनयू ने 450 करोड़ रुपये, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (दिल्ली) ने 580 करोड़ रुपये और बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी ने 356 करोड़ रुपये का ऋण ले रखा है। वह कहते हैं, ‘सरकार की साफ मंशा है कि अधिकांश छात्र उच्च शिक्षा से बाहर हो जाएं।’

इसी की भरपाई के लिए उस्मानिया यूनिवर्सिटी में 1000 प्रतिशत, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 400 प्रतिशत और दिल्ली यूनिवर्सिटी (पीएचडी-इंग्लिश) में 1800 प्रतिशत की भारी-भरकम फीस वृद्धि हुई है।

HEFA द्वारा 30.09.2023 तक दिया गया ऋण 

 

इस नए मॉडल के तहत विश्वविद्यालय स्तर पर स्व-वित्तपोषित फोर ईयर अंडरग्रेजुएट पाठ्यक्रम (एफवाईयूपी) की नीति छात्रों पर थोपी जा रही है जबकि यह शिक्षा के मूल उद्देश्य से छात्रों को दूर कर देती है। इसके अलावा , एफवाईयूपी के तहत ऑनर्स डिग्री प्राप्त करने के लिए छात्रों का एक अतिरिक्त वर्ष बर्बाद होता है और इसका  कोई वास्तविक शैक्षणिक लाभ नहीं है।

आइसा के प्रदेश अध्यक्ष मानते हैं कि सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति एनईपी 2020 और उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी जैसे संस्थानों को लाकर सस्ती एवं सार्वजनिक शिक्षा को आम छात्र-छात्राओं के पहुंच से बहुत दूर कर दिया है। ‘स्वायत्तता’ के नाम पर सरकारी  वित्त से चलने वाले शिक्षा के मॉडल (यूजीसी ग्रान्ट) को ऋण-आधारित मॉडल में बदला जा रहा है।

बेरोजगारी

आइसा अपने अभियान में बेरोजगारी का मुद्दा भी उठा रही है। वैश्विक स्तर पर पिछले वर्ष बेरोजगारी में अचानक वृद्धि हुई हैं। नए आंकड़ों के अनुसार भारत में युवा बेरोजगारी की दर 21.25 प्रतिशत तक बढ़ गई है। देश में बेरोजगारी की दर पिछले 45 साल के दौरान उच्चतम स्‍तर पर पहुंच चुकी है और यह हर साल बढ़ रही है।

गौरतलब है कि मई 2019 में सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्‍वयन मंत्रालय ने एक रिपोर्ट में कहा था कि देश में बेरोजगारी की दर चार दशक में सबसे ज्‍यादा हो चुकी है। सरकार ने इस रिपोर्ट को जारी ही नहीं किया। उलटे सांख्यिकी विभाग को बंद कर दिया गया और दो वरिष्‍ठ अफसरों को इस्‍तीफा देना पड़ा था। इसके बाद कोरोना के दौरान स्‍वाभाविक रूप से बेरोजगारी की दर बढ़ी ही होगी, कई रिपोर्टें इस ओर इशारा करती हैं।

भारत में दिसम्बर 2023 तक बेरोजगारी के आँकड़े 

आयुष कहते हैं, ‘’2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई तो उसने हर साल दो करोड़ नौकरियां देने का  वादा किया था, लेकिन सच्चाई यह है कि केंद्र सरकार के अधीन कम से कम 30 लाख स्वीकृत पद खाली पड़े हैं। पिछले दस साल में केंद्र सरकार द्वारा जारी विभिन्न नौकरियों में 22 करोड़ लोगों ने आवेदन किया है, लेकिन मात्र सात लाख लोगों को ही नौकरी मिल पाई है।‘’

वे कहते हैं, ‘रेलवे और सार्वजनिक उपक्रमों में निजीकरण अभियान, केंद्रीय लोक सेवा आयोग, अधीनस्‍थ कर्मचारी चयन आयोग की सीटों में कटौती तथा सेना को अनुबंधित करने की अग्निपथ योजना ने नौकरी के इच्छुक उम्मीदवारों के बीच असुरक्षा के भाव को और बढ़ा दिया है।

फिलहाल भारतीय रेलवे में तीन लाख से अधिक पद खाली हैं और  भारतीय रेलवे में सुरक्षा श्रेणी की नौकरियों में 1.7 लाख से अधिक पद खाली हैं। हाल ही में भारतीय रेलवे ने 35,000 पदों के लिए विज्ञापन निकाला था, जिसके लिए करीब 1.25 करोड़ उम्मीदवारों ने आवेदन किया था। इससे पहले 2018 में रेलवे में करीब 90,000 पदों के लिए 2.5 करोड़ से ज्यादा लोगों ने आवेदन किया था।

बेरोजगारी की हालत यह है कि चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों के लिए आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं के आवेदकों में स्नातकोत्तर और पीएचडीधारक शामिल हैं।

ग़रीब, दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक

छात्र नेता शिवम चौधरी ‘सफ़ीर’ के मुताबिक अल्पसंख्यक समुदायों के लिए शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों को और कम किया जा रहा है। 2006 की सच्चर कमेटी की सिफारिशों के अनुसार सरकार को तीन मुख्य अल्पसंख्यक समूहों के लिए विभिन्न प्रकार के सकारात्मक कदम उठाने की सलाह दी गई थी। सरकार ने इस पर अब तक अमल नहीं किया है।

मौलाना आजाद नेशनल फ़ेलोशिप (एमएएनएफ) की  शुरुआत 2009 में कांग्रेस के राज में की गई थी जो अल्पसंख्यक छात्रों के लिए उच्च शिक्षा प्राप्त करने की दिशा में एक अहम कदम था, लेकिन पिछले साल केंद्र सरकार में मंत्री स्मृति ईरानी ने इस फ़ेलोशिप को बंद करने की घोषणा कर दी, जिससे सैकड़ों छात्रों के शोधकार्य का सपना टूट गया।

सफ़ीर बताते हैं कि एमएएनएफ ऐसी एकमात्र फ़ेलोशिप नहीं है जिसे बंद कर दिया गया है। हाल ही में कक्षा 1 से 8 तक के छात्रों को दी जाने वाली प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति भी बंद कर दी गई, जिससे लाखों छात्र प्रभावित हुए हैं।

छात्र अपने अभियान में सरकार से यह सवाल भी कर रहे हैं कि जब इतनी भारी फीस वृद्धि हो रही है तो गरीब, दलित, पिछड़ा, आदिवासी पृष्ठभूमि के छात्र-छात्राएं उच्च शिक्षा में कैसे प्रवेश ले पाएंगे?

उन्होंने बताया कि एएमयू और जामिया मिल्लिया जैसे अल्पसंख्यक विश्वविद्यालयों की फंडिंग में भी लगातार कटौती की जा रही है।

अल्‍पसंख्‍यक उत्पीड़न 

इन्‍हीं अल्‍पसंख्‍यक विश्वविद्यालयों के छात्रों को विशेष तौर पर निशाना बनाया गया है। यही वह समय था जब ठीक चार साल पहले नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जामिया मिल्लिया और एएमयू जैसे परिसरों से आवाज उठी थी। तब जामिया के छात्रों पर बड़े पैमाने पर मुक़दमे दर्ज किए गए थे। आज भी वे छात्र मुकदमे लड़ रहे हैं। इन विश्वविद्यालयों को उस वक्‍त पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया था।

यह सिलसिला आज भी जारी है। हाल ही में फिलिस्तीन के समर्थन में जुलूस निकालने के लिए एएमयू के चार छात्रों के खिलाफ मुक़दमा हुआ है। अल्पसंख्यक छात्रों के उत्पीड़न का उदाहरण देते हुए सफ़ीर ने बताया कि भाजपा सरकार द्वारा कर्नाटक में हिजाब पर प्रतिबंध के कारण 17000 छात्राओं की पढ़ाई छूट गई। वह सवाल करते हैं क्या अल्पसंख्यक समुदाय के छात्रों को ‘नए भारत’ में शिक्षा प्राप्त करने का सपना देखना बंद कर देना चाहिए?

सीयूईटी मॉडल

छात्र सवाल उठा रहे हैं कि सरकार सेंट्रल यूनिवर्सिटी इंट्रेंस एलिमिनेशन टेस्ट (सीयूईटी) मॉडल पर जोर क्यों दे रही है जबकि यह पहले ही एक विफ़ल नीति साबित हो चुकी है। सफ़ीर के अनुसार सीयूईटी एनईपी द्वारा यूजी, पीजी और पीएचडी पाठ्यक्रमों के लिए शुरू की गई केंद्रीकृत प्रवेश परीक्षा प्रणाली के कारण 2022 में दिल्ली विश्वविद्यालय में एडमिशन में छात्रों के प्रवेश में 37.5 प्रतिशत की भारी गिरावट देखी गई है जिससे जेंडर आधारित 25 प्रतिशत भर्तियों की गिरावट आयी, जो पिछले पांच वर्षों में आई सबसे अधिक गिरावट है।

वह कहते हैं कि बोझिल और अलगावपूर्ण सीयूईटी प्रवेश प्रक्रिया दो वर्षों से तकनीकी गड़बड़ियों और प्रशासनिक विफलताओं से ग्रस्त रही है जिसके कारण पिछले साल अनुसूचित जनजाति (एसटी) वर्ग में केवल 50 प्रतिशत पंजीकृत छात्र ही सीयूईटी की परीक्षा में बैठ पाए थे।

 

आन्दोलनरत लखनऊ के छात्र 
राजनीति प्रेरित नियुक्तियां

छात्र नेता निखिल कुमार का आरोप है कि देश भर के केंद्रीय विश्वविद्यालयों के वर्तमान कुलपति किसी न किसी तरह आरएसएस या भाजपा से जुड़े हुए हैं। वह कहते हैं, ‘’हमने देखा है कि चयन प्रक्रिया में शैक्षणिक योग्यता को नज़रंदाज़ करते हुए आरएसएस से जुड़े व्यक्तियों को शिक्षक पदों के लिए चुना गया है जिसके चलते कक्षा में शिक्षण की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है तथा शिक्षा का खुलेआम भगवाकरण हो रहा है।‘

लखनऊ विश्‍वविद्यालय की पूर्व कुलपति प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा कहती हैं, ‘अब जिन प्रोफेसरों की नियुक्ति की जा रही है उनकी क्षमताओं पर कोई  बात नहीं  कहनी है, लेकिन तथ्य यह है कि उनकी नियुक्ति उनके शिक्षण अनुभव या कौशल के आधार पर नहीं की जा रही है। उन्हें सत्तारूढ़ दल की लाइन पर चलने के ईनाम स्वरूप नियुक्त किया जा रहा है। उनका कहना है कि एक बार नियुक्त होने के बाद वे लंबे समय तक हमारे विश्वविद्यालयों में रहेंगे और पढ़ाएंगे और शिक्षकों की अगली पीढ़ी भी अब उनके द्वारा नियुक्त की जाएगी।’

निखिल का आरोप है , ‘’ऐसे में कुलपति, प्रॉक्टर कैम्पसों के लोकतांत्रिक माहौल तथा छात्र कार्यकर्ताओं पर लगातार हमला कर रहे हैं। राजनीतिक गतिविधियों में शामिल छात्र-छात्राओं को कारण बताओ नोटिस भेजकर निलंबन तथा फर्जी मुकदमे थोपकर लगातार दमन हो रहा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बीएचयू और इंग्लिश एवं विदेशी भाषा विश्विविद्यालय (इफ्लू)  इसके ताजा उदाहरण हैं।‘

हाल ही में दिल्‍ली के जेएनयू में एक आदेश निकाला गया है कि परिसर में किसी भी तरह का विरोध प्रदर्शन करने पर छात्रों के ऊपर बीस हजार रुपये का दंड लगाया जा सकता है और उन्‍हें निष्‍कासित भी किया जा सकता है।

लैंगिक न्याय 

परिसर के भीतर छात्रों की सुरक्षा के लिए लिए जा रहे ऐसे कड़े फैसले कभी-कभर हास्‍यास्‍पद भी हो जाते हैं। हाल ही में हैदराबाद युनिवर्सिटी में छात्रों की बढ़ती खुदकुशी के चलते आदेश निकाला गया कि छात्रावासों के कमरों से पंखे उतार दिए जाएं।

कुछ ऐसा ही फैसला हाल में बीएचयू में एक दीवार खड़ी करने के संबंध में लिया गया था जब परिसर के बाहर से आए कुछ लड़कों ने एक छात्रा का यौन उत्‍पीड़न किया था। बाद में दीवार बनाने वाला प्रस्‍ताव वापस ले लिया गया, लेकिन छात्र-छात्राओं की सुरक्षा के बुनियादी मसलों पर कहीं कोई सुनवाई नहीं है।

 

IIT BHU की छात्रा से किया गया यौन उत्पीड़न, गैंग रैप, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में फीस वृद्धि के खिलाफ प्रदर्शनकारियों का निलंबन, मुकदमा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के खिलाफ National Protest Day के अवसर पर अल्बर्ट एक्का चौक, रांची में AISA, AIPWA & RYA के सदस्य (स्रोत: ट्विटर) 

अभियान में जुड़े छात्रों का कहना है कि विश्वविद्यालयों में जेंडर सेंसेटाइजेशन कमेटी अगेंस्ट सेक्सुअल हैरासमेंट (जीएसकैश)   को एकतरफा तरीके से खत्म करने तथा उसके स्थान पर फर्जी आंतरिक शिकायत समिति (आइसीसी) बनाने की वजह से परिसरों में छात्राओं के लिए माहौल और असुरक्षित हुआ है।

आइसा कार्यकर्ता जैसमीन फातिमा मानती हैं कि आइआइटी-बीएचयू में यौन उत्पीड़न की हालिया घटना और प्रशासन की आपराधिक लापरवाही तथा उदासीनता सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में देखी जाने वाली एक खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशारा करती है।

छात्र कहते हैं  कि वर्षों के संघर्ष के बाद भी LGBTQ+ समुदाय के लिए आवश्यक आरक्षण जैसे महत्त्वपूर्ण मांग को लेकर अब तक कोई जरूरी कदम नहीं उठाया गया है। निखिल सवाल करते हैं कि महिलाएं और अल्पसंख्यक लैंगिक समुदाय से आने वाले छात्र विश्वविद्यालय में स्वतंत्र और सुरक्षित कैसे महसूस करेंगे, जब तक परिसरों में उनके लिए सुरक्षित और समावेशी माहौल नहीं होगा?

सामाजिक न्याय

आइसा के एक छात्र कहते हैं, ‘2016 में रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या और उसके बाद बड़े पैमाने पर देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों ने सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में गहराई तक जड़ें जमाए जातिवाद का पर्दाफाश किया है।’

उन्होंने बताया कि शिक्षा मंत्रालय के अनुसार 2014-21 के दौरान आइआइटी, एनआइटी, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और अन्य केंद्रीय संस्थानों के 122 छात्रों की आत्महत्या के कारण मृत्यु हुई है। इन 122 छात्रों में 68 छात्र अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) तथा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से थे।

हाल में जारी राष्‍ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्‍यूरो (एनसीआरबी) के डेटा के अनुसार 2019 से 2021 के बीच 35 हजार छात्रों ने आत्महत्या की है। निखिल इसकी वजह बताते हैं कि सरकार ने हाशिये की पृष्ठभूमि के छात्रों को उच्च शिक्षा से दूर रखने के लिए आरक्षण नीति का खुलेआम उल्लंघन किया है। दलित, आदिवासी तथा पिछड़े वर्ग के छात्रों को मिलने वाली छात्रवृति को ख़त्म किया जा रहा है।

असहमतियों का दमन

आइसा द्वारा अपने अभियान में लगातार यह बात कही जा रही है कि पिछले दस साल में विश्वविद्यालयों का लोकतांत्रिक माहौल पर जबरदस्त दमन बढ़ा है और अकादमिक स्वतंत्रता व लोकतांत्रिक आवाजों पर हमला हुआ है। आइसा का आरोप है कि जेएनयू, डीयू, बीएचयू, एचसीयू, एयू और वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय शांतिपूर्वक विरोध कर रहे छात्र-छात्राओं पर प्रशासन, पुलिस और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के द्वारा हुए हमलों के साक्षी रहे हैं।

प्रत्येक विरोध प्रदर्शन में छात्रों पर कारण बताओ नोटिस और प्रॉक्टोरियल पूछताछ जैसी कार्रवाई की जाती है। वैज्ञानिक शोध आधारित तथ्य पेश करने पर प्रोफेसरों और शिक्षाविदों की पिटाई की जाती है। विश्वविद्यालयों में सरकार की आलोचना करने वाली सभी आवाजों को दबाया जा रहा है और ग़ैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) जैसे कानूनों के माध्यम से छात्रों को न्यायसंगत क़ानूनी प्रक्रिया की अवहेलना करते हुए वर्षों तक कैद में रखा जाता है।

छात्रों का मोदी सरकार से सवाल है कि एक संवैधानिक लोकतांत्रिक देश में सत्तासीन सरकार द्वारा प्रतिरोध की आवाजों को आखिर क्यों दबाया जा रहा है?

तार्किक एवं आलोचनात्मक सोच 

छात्र मानते हैं तार्किक एवं आलोचनात्मक सोच शिक्षा प्रणाली के भीतर वैज्ञानिक वातावरण को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, लेकिन उन्होंने पिछले दस साल में उन किताबों और पाठों को पाठ्यक्रम से हटते देखा है जो शिक्षा में प्रगतिशील मूल्यों, सांप्रदायिक सद्भाव और समाज के समतावादी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं।

यह सच है कि इस समय जो छात्र 18 वर्ष का हो रहा है वह दस साल पहले आठ वर्ष का था। इन्‍हीं दस वर्षों में शैक्षणिक पाठ्यक्रम में बदलाव किए गए हैं इसलिए इन बदलावों की गवाही इन छात्रों से बेहतर कोई नहीं दे सकता।

छात्र नेता शिवम चौधरी ‘सफ़ीर’ कहते हैं, ‘वर्तमान समय में शिक्षा का भगवाकरण किया जा रहा है, जो विभाजनकारी है, जो  दुनिया को देखने  के सीमित नजरिये की वकालत करता है’। सफ़ीर कहते हैं कि गौमूत्र से सोना तथा कैंसर की दवा बनाने जैसे विषयों पर शोध करने के लिए सरकार द्वारा धन का आवंटन वैज्ञानिक शिक्षा के प्रति उसकी संवैधानिक बाध्‍यता पर सवाल उठाता है।

अध्यापकों का समर्थन

 

प्रोफेसर रमेश दीक्षित और प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा (इन्सेट में)

छात्रों की इस मुहिम को लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा और प्रोफेसर रमेश दीक्षित आदि का समर्थन भी मिल रहा है। प्रोफेसर दीक्षित कहते हैं, ‘पूरे देश में विश्वविद्यालय परिसर हाशिये पर रहने वाले छात्रों के प्रति अधिक शत्रुतापूर्ण होते जा रहे हैं, उन्हें लगातार सामाजिक हाशिये पर धकेला जा रहा है।’

उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश की राजधानी में एक प्रोफेसर को निशाना बनाया गया क्योंकि वह सरकार के मुखर आलोचक हैं और दलित पृष्ठभूमि से हैं। प्रोफेसर दीक्षित दो साल पहले की उस घटना को याद करते हुए प्रोफेसर रविकांत के साथ लखनऊ विश्विविद्यालय प्रशासन द्वारा किए गए चकित कर देने वाले व्यवहार के  बारे में पूछते हैं, ‘वर्तमान शिक्षा प्रणाली किस तरह की ब्राह्मणवादी वर्चस्ववादी मानसिकता पैदा कर रही है, जहां छात्र किसी शिक्षक पर भी हमला करने और दुर्व्यवहार करने से नहीं हिचकिचाते, भले ही वह किसी उत्पीड़ित जाति से हों?’

प्रोफेसर वर्मा कहती हैं, ‘हमारे विश्वविद्यालयों को बचाना आवश्यक है क्योंकि एक बार वे नष्ट हो गए तो दशकों तक छात्रों की कई पीढ़ियों को इसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा।’

 

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