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ग्राउंड रिपोर्ट

22 जनवरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो मासूम बच्चों को ज़िंदा जलाने का काला दिन भी था

ओड़िशा के आदिवासियों के बीच कुष्ठ रोगियों की सेवा करने के लिए मयूरभंज जिले के रामचन्द्र भंजदेव ने सन 1895 में मयूरभंज लेप्रेसी होम की स्थापना की थी। इसे संचालित करने की ज़िम्मेदारी 19 वर्षीय आस्ट्रेलियाई मिशनरी महिला केंट ऑलनबी को सौंपी। इसी मयूरभंज लेप्रेसी होम में अपनी सेवाएँ देने के लिए सन 1965 के […]

ओड़िशा के आदिवासियों के बीच कुष्ठ रोगियों की सेवा करने के लिए मयूरभंज जिले के रामचन्द्र भंजदेव ने सन 1895 में मयूरभंज लेप्रेसी होम की स्थापना की थी। इसे संचालित करने की ज़िम्मेदारी 19 वर्षीय आस्ट्रेलियाई मिशनरी महिला केंट ऑलनबी को सौंपी। इसी मयूरभंज लेप्रेसी होम में अपनी सेवाएँ देने के लिए सन 1965 के जनवरी माह में फादर ग्राहम स्टेंस  भारत आ गए थे। उस समय उनकी उम्र 24 वर्ष थी।

आज से 25 वर्ष पहले सन 1999 की 22 जनवरी की आधी रात में ओड़िशा के कंधमाल जिले के मनोहरपुर गाँव में कुष्ठ रोगियों की सेवा करने वाले फादर ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों फिलिप्स और टीमोथी हेराल्ड को, जिनकी उम्र क्रमश: ग्यारह और सात वर्ष थी, को जीप के अंदर जब वे सो रहे थे, आग लगाकर जिंदा जला दिया था।

भारत में विरोधी विचारवालों व अन्याय का विरोध करनेवालों की हत्या की परंपरा पुरानी है 

भारत में दलित, आदिवासियों और स्त्रियों को जलाकर मारने की परंपरा बहुत पुरानी रही है। स्त्रियों को अपने पति की मृत्यु के बाद उनकी चिता में सती होने की परंपरा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही थी, जिसे राजा राममोहन राय ने अंग्रेज़ लॉर्ड विलियम बैंटिक को अवगत करा इस पर रोक लगवाई थी। अन्यथा यह कुप्रथा आज किस रूप में होती इसके बारे में कुछ नहीं कह सकते। इस प्रथा पर रोक और सती विरोधी कानून के बावजूद राजस्थान के सीकर में सन 1987 में दिवराला सती कांड हुआ था।

बिहार का लक्ष्मणपुर बाथे को भूला नहीं जा सकता। जहां 58 दलितों को घेरकर, जिसमें बच्चे और स्त्रियाँ भी थीं, गोलियों से भून दिया गया था। अपराधी ऊंची जाति के थे। इनमें से सभी अपराधियों को कोर्ट ने बाइज्जत बरी कर दिया।

आज भी 21वीं सदी में भारत देश में आदिवासियों, दलितों के साथ खुलकर अत्याचार किया जा रहा है। इन समुदायों  को कभी अभिजन समाज सहजता के साथ स्वीकार नहीं करता। दलित और पिछड़ी समाज की स्त्रियों के साथ बलात्कार होने की घटनाओं के साथ उन्हें डायन घोषित कर अपमानित करना और क्रूरता के साथ मार देना आम बात है।

परिवार के साथ।

शायद इसी बर्बरता को मद्देनजर रखते हुए गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी और महात्मा गांधी को अहिंसा के सिद्धांत का प्रचार-प्रसार करना पड़ा हो। यदि ऐसा नहीं होता तो अहिंसा-अहिंसा के मंत्र को पढ़ने की जरूरत क्यों होती?

फादर ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों फिलिप्स और टीमोथी हेराल्ड को सोते हुए जलाकर मार डालने के बाद भी उनकी पत्नी ग्लेडिस स्टेन्स ने मयूरभंज लेप्रेसी होम में सेवा करते हुए हत्यारों को माफ करने की गुजारिश की। उन्होंने ईसाई धर्म के सिद्धांत ‘फॉरगिव’ और ‘फॉरगेट’ पर अमल करते हुए हत्यारों को माफ करने का कदम उठाया। वे इसी आश्रम में रहते हुए अपने पति ग्राहम स्टेंस के अधूरे काम को आगे बढ़ा रही हैं।

पच्चीस साल पहले ओड़िशा के कंधमाल जिले के मनोहरपुर में हुए इस जधन्य कांड के बाद गोध्ररा में साबरमती एक्सप्रेस के एस 6 कोच में आग लगाई गई और फिर उन अधजली लाशों को बगैर पोस्टमार्टम के खुले ट्रकों के ऊपर रखकर अहमदाबाद की सड़कों पर जुलूस निकाला गया, दूसरे दिन अहमदाबाद की गुलमर्ग सोसायटी में 35 लोगों को जिंदा जला दिया, जिसमें एक पूर्व संसद सदस्य भी थे, जिनकी पत्नी आज भी न्याय की गुहार लगा रही हैं।

इससे भी आगे बढ़कर वड़ोदरा के बेस्ट बेकरी की जलती हुई भट्टी में पूरे परिवार के 15 सदस्यों को जलाने की घटना बताती है कि भारत में अल्पसंख्यकों के प्रति तथाकथित हिंदुओं के मन में कितनी घृणा भरी जा चुकी है। गुजरात, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में ईसाई धर्म के अनुयायियों के साथ लगातार हमले किए गए और ये हमले आज भी जारी हैं। चर्चों पर हमले और उन्हें जलाने का काम भी लगातार जारी है।

गोधरा में 27 फरवरी, 2002 के राज्य प्रायोजित दंगे के पहले से तय थे। ऐसा इसलिए कि हमने खुद महाराष्ट्र की सीमा से सटे हुए जिले डांग-अहवा के चर्च और चर्च के द्वारा चलाए जा रहे आवसीय स्कूलों पर हुए हमलों की जांच में संघ परिवार की भूमिका को पाया था। इसके मुख्य कर्ताधर्ता असीमानंद थे। कथित रूप से बंगाल से नब्बे के दशक में आए स्वामी असीमानंद ने स्थानीय भील आदिवासियों तथा संघ परिवार की मदद से इन हमलों को अंजाम दिया था। डांग जिले की एक लाख नब्बे हजार आबादी में सिर्फ डेढ़ से दो प्रतिशत ईसाई धर्म को मानने वाले हैं। गौरतलब यह भी है कि संपूर्ण भारत में इसाइयों की आबादी बढ़ने की बजाय कम होने के अध्ययन और आंकड़े सामने रहे हैं और आज इनकी आबादी डेढ़-दो प्रतिशत से अधिक नहीं है।

तीन साल पहले साल के अंतिम महीने में कर्नाटक के हासन जिले के वेलुर नाम की जगह पर एक प्रार्थना स्थल पर हिंदुत्ववादी लोगों ने हमला किया। उसके बाद देश के अन्य हिस्सों में भी चर्चों के ऊपर हमले बदस्तूर जारी हैं। इसके खिलाफ केंद्र में बैठी हुई बीजेपी की वर्तमान सरकार के किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति ने अब तक न तो चिंता व्यक्त की, न ही आपत्ति जताई। इसके विपरीत हरिद्वार से रायपुर तक हिंदुत्ववादी तत्वों के तथाकथित धर्मसंसद के नाम पर अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ विषवमन लगातार जारी है। इस बात से क्या संकेत मिलता है?

वर्तमान सरकार ने संविधान की शपथ चाहे जितनी बार शपथ ली हो लेकिन इसके ट्रेक रेकॉर्ड को देखते हुए संविधान की शपथ एक कर्मकाण्ड के अलावा और कुछ भी नहीं है। प्रधानमंत्री ने जब 2001 के अक्तूबर में पहली बार गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी, तब इसके बाद भी 27 फरवरी, 2002 के दंगों में इनकी भूमिका बेहद संगीन रही। भारत के इतिहास का पहला पुरस्कृत राज्य जहां अपनी राजनीतिक जमीन तैयार करने के लिए जान-बूझकर दंगे कराये गए। उन्होंने रत्ती भर भी अपनी संवैधानिक भूमिका का पालन नहीं किया। उल्टा तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कहना पड़ा था कि ‘आपने अपने राजधर्म का पालन नहीं किया है।’

जांच एजेंसियों ने भी दिया अपराधियों का साथ 

भले वह नानावटी कमीशन और एसआईटी की इंक्वारी में तकनीकी आधार पर बरी कर दिये गये हों, लेकिन अगर उनकी उस समय की भूमिका की सही ढंग से जांच की जाती और उन पर  दोबारा कार्रवाई की गई होती तो वह शत-प्रतिशत अपराधी साबित होते। लेकिन वर्तमान समय में तो यह संभव नहीं है। जिस दिन वह सत्ता से बाहर होंगे, उसके बाद यदि यह केस दोबारा शुरू किया गया तो यह संभव है।

हालांकि उनकी पूरी कोशिश भारत को हिंदूराष्ट्र घोषित करने की है। वर्तमान में हरिद्वार से लेकर रायपुर तथा अन्य जगहों पर हिंदुत्ववादी लोगों की तरफ से अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ जो जहर उगला जा रहा है, वह सब हिंदुराष्ट्र का रास्ता बनाने के लिए वातावरण निर्माण है।

फादर ग्राहम स्टेन्स और उनके दोनों मासूम बच्चों की शहादत हिंदुराष्ट्र के मार्ग की शुरुआत थी। तत्कालीन एनडीए की सरकार ने ओड़िशा में फादर ग्राहम स्टेन्स और उनके दोनों बच्चों को जलाने की घटना की जांच जानबूझकर जाॅर्ज फर्नांडीज़ के नेतृत्व में मुरली मनोहर जोशी को सौंपी गई। जार्ज फर्नांडीस से एनडीए को क्लीन चिट दिलाने का काम किया गया। जार्ज फर्नांडीस ने भरी लोकसभा में गुजरात दंगों के समर्थन में जो कहा था वह पूरी प्रोसिडिंग अब रिकॉर्ड होकर लोकसभा संग्रहालय में मौजूद है। यह वही जार्ज फर्नांडीस थे, जिन्हें यह अच्छी तरह से मालूम था कि दंगे के बाद जब भारत की सेना के तीन हजार जवानों को गुजरात में भेजा गया तब तीन दिन तक नरेंद्र मोदी ने लॉं एंड आर्डर का हवाला देकर अहमदाबाद एयरपोर्ट से बाहर नहीं निकलने दिया। इसके बावजूद जार्ज फर्नांडीज़ ने भारत की सबसे बड़ी संसद में गुजरात दंगों का समर्थन किया, जिसे पूरी दुनिया जानती है।

समाजवादी फर्नांडीज़ की वह कौन सी मजबूरी थी कि बेस्ट बेकरी तथा गुलमर्ग सोसाइटी, ग्राहम स्टेंस और उनके दो किशोर बच्चों सहित दर्जनों लोगों की जघन्य हत्या के बावजूद उन्होंने संसद में संघ, बजरंगदल और गुजरात की मोदी सरकार को क्लीन चिट देकर अपनी राजनीतिक आत्महत्या कर ली?

तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने कहा था कि ‘कई साल तक कुष्ठरोगियों की सेवा करने वाले फादर ग्राहम स्टेंन्स का आभार मानने की जगह उनकी हत्या करने वाले  लोगों ने सहिष्णुता तथा मानवतावादी भारत की छवि को नुकसान पहुंचाया है।’ इस घटना से भारत नीतिभ्रष्ट हो रहा है और दुनिया के इसी तरह के इन्सानियत के गुनहगारों में भारत का भी समावेश करने के लिए संघ परिवार ने गत 99 सालों से लगातार साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने का काम किया। उसी कड़ी में 1989 का भागलपुर दंगे करवाए गए और तेरह साल बाद 27 फरवरी 2002 में गुजरात दंगों के दौरान राज्य सरकार की भूमिका बहुत संगीन रही है।

सिर्फ उनके शहादत दिवस के अवसर पर आँसू बहाने से काम नहीं चलेगा। इन जल्लादों को रोकने के लिए सभी शांतिप्रिय और सर्वधर्मसमभाव के लोगों को संगठित होकर मुकाबला करना चाहिए !

यह तथ्य लेफ्टिनेंट जनरल जमिरुद्दीन शाह ने अपनी किताब ‘सरकारी मुसलमान’ नाम की किताब में लिखा है। उन्होने लिखा कि ‘हम 28 फरवरी की शाम 64 विमानों से अलग-अलग खेपों में एयरपोर्ट पर उतर कर गाडिय़ों का इन्तज़ार करते रहे।’ जनरल शाह ने चीफ सेक्रेटरी तथा विभिन्न अधिकारियों से फोन पर संपर्क करने की कोशिश की लेकिन कहीं से उन्हें मदद नहीं मिली। तब वे खुद ही साथ लाई अपनी जिप्सी में, स्थानीय गाइड की मदद से, गाँधी नगर मुख्यमंत्री आवास पर पहुंचे, जहां पर रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज भी बैठे हुए थे। जॉर्ज फर्नांडीज ने मुझे कहा कि जनरल साहब, बहुत सही समय पर आप आए हैं। गुजरात दंगा रोकने के लिए तुरंत लग जाइए। तब मैंने उन्हें बताया कि जब हम हवाई जहाज से नीचे देख रहे थे तो लगा कि पूरा गुजरात जल रहा है। मुख्यमंत्री जी से कहिये कि वे हमें गाडियाँ और अन्य लॉंजिस्टिक दें। जार्ज साहब ने मोदीजी से हमें गाडियां प्रदान करने और अन्य मदद करने के लिए कहा भी। और मैं वहाँ से वापस चला आया। लेकिन तीन दिन तक हम इंतज़ार करते रहे, हमें कोई भी मदद नहीं मिली। अहमदाबाद एअरपोर्ट पर हम तीन दिन तक पड़े रहे। इस बात का क्या मतलब होता है? मुख्यमंत्री के पद पर बैठा आदमी मुख्यमंत्री बनने से पहले शपथ लेता है कि मैं अपने राज्य में रहने वाले लोगों के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव न करते हुए, निष्पक्ष होकर इस राज्य को चलाऊंगा। क्या यह ली गई शपथ का उल्लंघन नहीं है?

और अब तो देश के प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने और दो बार शपथ ली है। 15 अगस्त को लाल किले के सम्बोधन में 135 करोड़ जनता को टीम इंडिया कहा। क्या उन 135 करोड़ लोगों में फादर ग्राहम स्टेन्स और उनके दोनों बेटे, गुजरात के अहसान जाफरी, इशरत जहां, अखलाक, जुनैद, बिलकिस बानो, कौसर बी और अन्य सभी अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का समावेश नहीं है? क्या इनमें पिछले दस सालों में सैकड़ों लोगों की मॉब लिंचिंग शामिल नहीं है? क्या किसी मुल्क में इस तरह 30-35 करोड़ की आबादी का असुरक्षित रहना वहाँ के स्वस्थ समाज के लिए खतरनाक नहीं है?

सर्वोच्य न्यायालय आजादी के 70 साल बाद केरल के शबरीमाला के मन्दिर में महिलाओं को जाने की इजाजत देता है। केंद्रीय गृह मंत्री कहते है कि ‘न्यायालय को बहुसंख्यक लोगों की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए।’ याने एक मन्दिर का फैसला कोर्ट में होता है, तो भी मन्दिर वहीं बनाएँगे। अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम को कोर्ट ने आस्था सवाल बताया। अमित शाह ने इसे अपनी भाषा में कहा था, ‘बहुसंख्य आबादी की भावनाओं को देखते हुए, मंदिर निर्माण का फैसला लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है।’ लेकिन दूसरे केस में कोर्ट महिलाओं को मन्दिर प्रवेश की इजाजत देता है तो उसका विरोध होता है। यह दोगलापन कहाँ से आता है? गुजरात के दंगों में बिल्किस बानो के साथ सामूहिक बलात्कारियों और हत्यारों को आजादी के पचहत्तर साल के बहाने बाइज्जत बरी कर दिया जाता है क्योंकि वे सभी लोग बहुसंख्यक समुदाय से होते हैं। इससे क्या जाहिर होता है?

बैरिस्टर विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी किताब ‘सहा सोनेरी पाने’ (छः सुनहरे पन्ने) में लिखा कि शत्रुओं की औरतें भले ही बूढ़ी हों या बच्ची हो या जवान हों उनका बलात्कार कर उन्हें भ्रष्ट करना देना चाहिए।’ संघ के सबसे लंम्बे समय (33 साल) तक  संघप्रमुख रहे माधव सदाशिव गोलवलकर ने भी अपने लेख में कहा है कि ‘अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों को बहुसंख्यक समुदायों की कृपादृष्टि के सहारे रहने की आदत डालनी होगी।’ मतलब उनकी जानमाल से लेकर उनकी महिलाओ की इज्जत-आबरू भी हिंदुओं की सदाशयता पर निर्भर होगी। इसलिए बिल्किस बानो के गुनाहगारों को माफ करना, फादर ग्रॅहम स्टेन्स और उनके दोनों बच्चों की जलाने की घटना को अंजाम देने वाले गुनाहगारों को छोडना और बाबरी मस्जिद विध्वंस से लेकर गुजरात के दंगों के गुनाहगारों को क्लीन चिट देकर उन्हें सम्मानित करना इसी आलोक में देखा जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री खुलकर कहते हैं कि ‘अगर एक हिंदू को मारा है, तो प्राथमिकी दर्ज नहीं करना बल्कि यह कहना कि बदले में दस मुसलमानों को मारकर आना चाहिए।’ यह सब क्या इसी विचार-दर्शन का परिणाम नहीं है?

 हम जो कुछ कह रहे वही बात सही है। ऐसा कहने वाले आज देश के ठेकेदार बने हुए हैं। वे यह सब हिंदू धर्म की आड़ में कर रहे हैं क्योंकि संघ मनुस्मृति को भारत का संविधान मानता है। मनुस्मृति के अनुसार ब्राम्हण अगर बलात्कार करता है तो उसे मामूली सजा देने के बाद छोड़ देने का प्रावधान है। यह बात हजारों वर्ष से अधिक समय से चली आ रही है। इस सड़ी-गली मनुस्मृति को जलाने का कार्य डॉ. बाबा साहब अंबेडकर ने अपने जीवनकाल में 25 दिसंबर 1927 के दिन करते हुए हिंदू धर्म का त्याग किया और 14 अक्तूबर 1956  के दिन अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया। स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है कि ‘भारत की जाति-व्यवस्था से तंग आकर ज्यादातर लोग हिंदू धर्म से अन्य धर्मों में शामिल हो गए थे।’

इसलिए फादर ग्राहम स्टेंस और उनके मासूम बच्चों की हत्या को हिन्दू जाति-व्यवस्था के ऊपरी सतह पर रहनेवाले लोगों की धार्मिक घृणा का परिणाम मानना चाहिए। इस घृणा का राजनीतिक स्वरूप यह है कि वर्तमान समय में तथाकथित हिंदुत्ववादी धर्मसंसद खुलेआम अल्पसंख्यकों की हत्या को अपना एजेंडा बनाकर पेश करती है। वह संसद से लेकर संविधान की धज्जियाँ उड़ा रही है। इनके खिलाफ शांति-सद्भावना के साथ सर्वधर्म समभाव को मानने वाले लोगों ने इकठ्ठा होकर सक्रिय रूप से गतिशील होने की जरूरत है।

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